रविवार, 12 अगस्त 2018

प्रलय - 4

प्रलय – 1 के लिए देखिए https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210175980475484
प्रलय भाग – २ के लिए देखिए - https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210183906193622
प्रलय 3 के लिए देखिए
https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210195226716628
प्रलय – 4
आपदा प्रबन्धन मन्त्री का बिशनपुर गांव का दौरा नहीं हो पाया क्योंकि उनको हैलीकॉप्टर उपलब्ध नहीं कराया गया. बिशनपुर गांव वाले बड़े निराश थे पर मन्त्रीजी के समर्थक बहुत नाराज़ थे. एक कैबिनेट स्तर के मन्त्री को हैलीकॉप्टर उपलब्ध न कराना क्या उनका अपमान नहीं था?
पीडि़तों को अब मुख्य मन्त्री के दौरे का इन्तज़ार था. बिशनपुर गांव तक गाड़ी जाने के लिए कोई रोड नहीं थी पर अच्छी बात ये थी कि मुख्य मन्त्री जी को टूटी सड़कों और लैण्डस्लाइड्स को हैलीकॉप्टर पर आसीन होकर सिर्फ़ आसमान से महसूस करना था. वैसे भी शैलनगर कैन्टुनमन्ट के हैलीपैड से बिशनपुर गांव की दूरी महज़ पाँच किलोमीटर ही थी. इतना पैदल तो श्रीमान चल ही सकते थे. सबको उम्मीद थी कि मुख्य मन्त्रीजी बिशनपुर गांव को सहायता राशि का एक बड़ा सा पिटारा देकर ही जाएंगे. सवेरे से कई आला अफ़सर गांव के चक्कर लगा चुके थे. सरकारी पैसे से गांव वालों को चाय-नाश्ता कराया जा रहा था. मृतकों और घायलों के लिए मुआवज़े का ऐलान भी किया जा रहा था. पटवारीजी के कहने पर ग्राम प्रधान ने दो-चार साफ़-सुथरे बच्चों को तलाश कर अच्छे-अच्छे कपड़े पहनवा कर तैयार करवा दिया था. मुख्य मन्त्रीजी कभी भी किसी बच्चे को अपनी गोद में उठा सकते थे.
वैसे ऐसे हादसे के वक्त ज़रूरी तो नहीं था पर शीर्षस्थ जन-सेवकों के स्वागतार्थ फूल-मालाओं का इंतजाम भी कर लिया गया था.
बिशनपुर गांव में नेताओं का जमावड़ा लग चुका था. पीडि़तों को बिन मांगे, कम्बल बांटे जा रहे थे, उन्हें सहायता-शिविरों में शिफ्ट किया जा रहा था. मलबे से घायलों और शवों को निकालने का काम अब खत्म हो चुका था. मृतकों का अन्तिम संस्कार किया जा चुका था. बाहर पड़े हुए मरे हुए जानवरों को तो गाड़ दिया गया था पर मलबे में दबे हुए मुर्दा जानवरों की दुर्गन्ध सबको परेशान कर रही थी. कई ऑफिसर्स दुर्गन्ध छोड़ने वाली जगहों पर मलबा साफ़ कराने के लिए जवानों को निर्देश दे रहे थे. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद दुर्गन्ध का प्रकोप कम नहीं हो पा रहा था. पता नहीं कितने जानवर इस नई कब्रगाह में दफ़न हो गए थे. गैमक्सीन पाउडर, फ़िनाइल, अगरबत्ती वगैरा किसी से भी बदबू ख़त्म नहीं हो पा रही थी. ऐसे हालात में मुख्य मन्त्री जी गांव का दौरा कैसे कर सकते थे? अफ़सरों ने यह तय किया कि मुख्य मन्त्री जी को गांव के सिर्फ़ उस हिस्से का दौरा कराया जाए जहां पर बदबू का प्रकोप कम है.
भानू पंडितजी मुख्य मन्त्रीजी के साथ मृतकों की आत्मा की शांति के लिए पूजा-अर्चना करने के लिए अपना पूजा का थाल सजा चुके थे. नेताओं और आला अफ़सरों पर अपना अच्छा इम्प्रैशन छोड़ने का यह सुनहरा मौका था. उनके घर तक अगर पक्की सड़क बन जाती तो उनके मकान की कीमत दुगनी हो जाती. पूजा के बाद भानू पंडितजी मुख्य मन्त्रीजी के सामने पूरे गांव की तरफ़ से सड़क बनाए जाने की मांग रखने वाले थे.
कुछ दुकानदारों ने इस नैचुरल कैलेमिटी को अपनी आमदनी का ज़रिया बना लिया. सामान की किल्लत के अन्देशे से आटा, दाल, चावल, चीनी, नमक, दूध, मोमबत्ती, माचिस, कैरोसिन और सब्जि़यों के दाम आसमान छूने लगे थे.
कुछ लोगों ने निकट भविष्य में भूकम्प आने की अफ़वाह फैला दी. लोगबागों ने अपने घरों को छोड़ सारी रात खुले आसमान के नीचे बिताई. भूकम्प तो नहीं आया पर उसके डर से हुए खाली घरों में रात भर चोरों और उठाईगीरों ने अपने हाथ साफ़ कर लिए.
बाल-निकुन्ज संस्था की संचालिका श्रीमती सोनालिका गांव के दो ताज़ा अनाथ हुए अबोध भाई-बहन पर अपना बेशुमार प्यार उड़ेल रही थीं. उनकी संस्था इन बच्चों को अपने यहां रखने वाली थी. बाद में इन्हें बच्चा गोद लेने के इच्छुक व्यक्तियों के सुपुर्द कर दिया जाना था.
सोनालिकाजी के पास मुम्बई के एक अरबपति सेठ की डिमाण्ड पड़ी हुई थी. गोद लेने के लिए उन्हें कोई सुन्दर सा सवर्ण अनाथ बालक चाहिए था. इसके लिए सेठजी सोनालिकाजी की संस्था को पचास लाख का डोनेशन देने को तैयार थे. एक स्विस दम्पत्ति को एक सुन्दर सी बेटी चाहिए थी और इसके लिए वो उन्हें विदेशी मुद्रा में एक मोटी रकम देने को तैयार था. ऐसी आपदाओं में सोनालिकाजी को एडॉप्शन का एकाद फ़ायदेमन्द सौदा करने का मौका मिल ही जाता था. इन बच्चों को पाकर सोनालिकाजी की तो मानो लॉटरी खुल गई थी.
बिशनपुर गांव में बिन्नो के परिवार सहित कुछ परिवार ऐसे थे जिनका कोई भी सदस्य जीवित नहीं बचा था. इन परिवारों के मृतकों का मुआवज़ा किसे दिया जाए, यह प्रश्न बड़ा गम्भीर था. ऐसे परिवारों के तमाम स्वयं-भू रिश्तेदार प्रकट होकर मुआवज़े की दावेदारी पेश कर रहे थे. बिन्नो के एक चाचा पता नहीं कहां से अवतरित हो गए थे और छाती पीट-पीट कर अपनी भाभी और दोनों भतीजियों की अकाल मृत्यु का शोक मना रहे थे.
शंकर का अपना घर तो ज़मींदोज़ हो चुका था. उस पर दया करके दीवान दा ने उसे अपने घर में टिका लिया था.
इधर दूर-दूर से आए हुए लोग बिशनपुर के इस मातमी जलसे का आनंद उठा रहे थे और उधर शंकर था कि इन दिलचस्प नज़ारों का लुत्फ़ उठाने के लिए दीवान दा के घर से बाहर भी नहीं निकल पा रहा था. वो तो अपना फूटा सर लेकर चारपाई पर पड़ा कराह रहा था.
कल रात भानू पंडित और ठाकुर जमन सिंह उस से मिल कर दीवान दा के घर से जब निकले थे तब तक तो सब ठीक था फिर पता नहीं कल रात कैसे उसके सर पर छत की बल्ली गिर पड़ी.
अब भानू पंडित और ठाकुर जमन सिंह की तरक्क़ी से जलने वाले गाँव वाले तो आपस में ये भी फुसफुसा रहे थे कि शंकर को इस बात की सज़ा दी गयी थी कि वो बिन्नो के मामले में आला अफ़सरों से और मंत्री जी से कुलवंत और चन्द्रभान की शिक़ायत करने की बात कह रहा था. जब कि वो दोनों भले आदमी सबको ये बता रहे थे कि उन्होंने ही शंकर के चोट लगने की खबर सुनकर, सवेरे-सवेरे, कंपाउंडर बुलवाकर, उसकी अपने पैसों से, मरहम पट्टी करवाई थी.
मुख्य मन्त्री जी का हैलीकॉप्टर आसमान में मंडराने लगा था. ग़मगीन माहौल में भी उनकी जय-जयकार करने वालों की कमी नहीं थी. अभी तो मुख्य मन्त्री जी के आने में कम से कम एक घण्टे का वक्त बाकी था पर बिशनपुर गांव में अभी से प्रेस रिपोर्टरों, फ़ोटोग्राफ़रों , नेताओं, और याचकों में धक्का-मुक्की शुरू हो गई थी. जिलाधीश, एस. पी., ए. डी. एम. वगैरा मुख्य मन्त्रीजी के स्वागत हेतु हैलीपैड के लिए प्रस्थान कर चुके थे. बाकी बचे छुटभैये अफ़सर भीड़ को व्यवस्थित करने में नाकाम हो रहे थे.
मुख्य मन्त्रीजी के हैलीकॉप्टर शैलनगर पहुंचे एक घण्टे से ज़्यादा हो चुका था. एक सयाना बोला -
' मुख्य मन्त्रीजी पहले शायद नन्दगांव चले गए होंगे. वहां भी तो बादल फटने से ऐसी ही तबाही मची है.'
दो घण्टे बीत जाने के बाद भी जब मुख्य मन्त्रीजी के दर्शन नहीं हुए तो अफ़सरों और नेताओं के मोबाइल फ़ोन बजने लगे. सूचना मिली कि मुख्य मन्त्रीजी बिशनपुर गांव का सिर्फ़ हवाई दौरा करेंगे और पैदल चलकर सिर्फ़ कटरा गांव का दौरा करेंगे.
कटरा गांव में ज़्यादा तबाही तो नहीं हुई थी पर मुख्य मन्त्रीजी वहां सिर्फ़ एक किलोमीटर पैदल चलकर पहुँच सकते थे. कुछ देर बाद मुख्य मन्त्रीजी का हैलीकॉप्टर आकाश में चक्कर लगाता हुआ दिखने लगा. तीन चक्कर लगाने के बाद वो भी उड़न-छू हो गया.
एक विपक्षी नेता ने व्यंग्य कसा –
'मुख्य मन्त्रीजी बिशनपुर गांव कैसे आ सकते थे? मुर्दा जानवरों की बदबू से बीमारी फैलने का जो डर था.'
दूसरे आलोचक ने चुटकी ली –
‘भैया राजा-महाराजाओं को टूटे-फूटे रास्ते पर पैदल चलकर प्रजा के दुःख में शामिल होने की क्या ज़रुरत है? बिशनपुर गांव में सड़क और मकान दुबारा बनें न बनें पर हैलीपैड ज़रूर बन जाना चाहिए. फिर तो हर मन्त्री यहां का दौरा कर लेगा.'
कुछ ही देर में मेला उजड़ गया. जहां भीड़ की रेलम-पेल थी वहां अब मरघट का सन्नाटा छा गया. बिशनपुर गांव के रहने वालों ने थोड़ी राहत की सांस ली. तमाशबीनों ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर बड़ा एहसान किया था.
बिशनपुर गांव में बादल फटने के हादसे को चार-पाँच दिन बीत चुके थे. दिल्ली के दो मशहूर अखबारों के रिपोर्टर्स लम्बे और ऊबड़ -खाबड़ आल्टरनेटिव रूट से शैलनगर आए और वहां से बिशनपुर गांव पहुंचे. दोनों ने तबाही का मन्ज़र देखा.
बिशनपुर गाँव हादसे के दर्द को भुलाकर ख़ुद को फिर से अपने पाँव पर खड़ा करने की कोशिश में जी-जान से जुट गया था.
दोनों रिपोर्टर्स ने गाँव की टूट-फूट को अपने-अपने कैमरों में क़ैद तो किया पर उन्हें उसमें कोई ख़ास चटपटा, कोई सनसनीखेज़ मसाला नहीं मिला.
पहले रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर से कहा -
'यार ! इस कमर तोड़ सफ़र के बाद एक भी फड़कता हुआ स्नैप नहीं ले पाया हूँ. लोगबाग तो रोज़मर्रा की जि़न्दगी बिताते हुए दिख रहे हैं. यहां न तो पोर्ट ब्लेयर में हुई सूनामी वाली ग्रैन्ड स्केल वाली तबाही है और न लेह में बादल फटने से हुई जाइन्ट स्क्रीन पर दिखाने लायक बरबादी. '
दूसरे रिपोर्टर ने आह भर कर कहा –
'अब न रोज़-रोज़ कहीं प्रलय आती है और न हर जगह राहत का सामान लेकर फ़िल्मी सितारे पहुँचते हैं. इस नॉन-ग्लैमरस, कस्बई तबाही के फीके से किस्से को तो लोगबाग चार दिन में भूल जाएंगे. पर हमको तो अपना काम करना है, चाहे वो बोरिंग हो या एक्साइटिंग. चलो नंदगांव और कटरा भी चलते हैं. वहां की भी इस छोटे स्केल की तबाही को कवर कर लेते हैं फिर इस मनहूस जगह को छोड़कर दिल्ली पहुँचते हैं और वहां किसी पब में जाकर अपना गम ग़लत करते हैं.'

12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद..शर्मनाक लोगों की स्वार्थपरता की पराकाष्ठा है।
    न किसी की मौत से फर्क न किसी के दर्द से वास्ता
    आदमी इतना असंवेदनशील है बस आदमी ही जानता।

    पूरी कहानी का ऐसा सजीव चित्रण खींचा है आपने कि दृश्य आँखों के सामने चलचित्र की भाँति तैर गये।
    कैसे कहे सुंदर कहानी...हाँ ये कह सकते है एक दर्दनाक प्राकृतिक आपदा का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है आपने सर।

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    1. श्वेता जी, इस कहानी में रोमांस नहीं है, कोई थ्रिल नहीं है, नाटकीय संवाद नहीं है और कुछ लोगों को यह काफ़ी बोझिल भी लग सकती है पर आपको सच बात बताऊँ? मेरी कहानी तो 'टिप ऑफ़ दि आइसबर्ग' है. हक़ीक़त तो इस से भी ज़्यादा तल्ख़ है.

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  2. बहुत सुन्दर चित्रण किया है। समापन भी सटीक है। लिखते रहिये।

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू. लिखता तो रहता हूँ पर तुम्हारे जैसे कद्रदान उँगलियों पर ही गिने जा सकते हैं.

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  3. तकलीफ में साया भी साथ छोड़ देता है यह कहावत शायद ऐसी ही घटना पर किसी के मुंह से निकली होगी । कहानी का अंत भी मन दुखी कर गया , आपने बेहद मार्मिक भावों से कहानी का कथानक रचा और कथ्य को पाठक तक पहुंचाने में सफल भी हुए हैं ।

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    1. धन्यवाद मीनाजी. कहानी बहुत लम्बी है इसलिए इसको पढ़ते-पढ़ते बहुतों का धैर्य समाप्त हो गया. आप जैसे बहादुरों के धैर्य भरोसे ही मेरी लेखनी टिकी हुई है. इस कहानी को मैं करुण-रस प्रधान नहीं, अपितु वीभत्स-रस प्रधान मानता हूँ. मनुष्य की पैशाचिक प्रवृत्तियों का नग्न-नर्तन और कितना वीभत्स हो सकता है?

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  4. कहानी अपने मुकाम पर पहुँची. ये हम सभी समझते है कि इस कहानी के पात्र हम में से ही कोई न कोई जीता है और हम ही उन पर उँगली भी उठाते है . जरूरत है तो बस इतना कि उँगली उठाने से अच्छा है की आप अपनी भूमिका निष्ठां और इमानदारी से निभाए . मार्मिक प्रस्तुति .

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    1. धन्यवाद राही जी. उत्तरकाशी में भूकंप पीड़ितों में बांटने के लिए विभिन्न समाज-सेवी संस्थाओं द्वारा लाए गए हज़ारों कम्बल और अन्य सामग्री स्थानीय अधिकारियों और नेताओं द्वारा केवल इसलिए लौटा दिए गए क्योंकिइनमें उनको कोई हिस्सा नहीं मिल रहा था. 2013 की उत्तराखंड की महा-प्रलय में तो दरिंदगी और सरकारी भ्रष्टाचार अपने शिखर पर पहुँच गया था. हम लोग कभी-कभी कोशिश करके भी इस भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह को भेद नहीं पाते हैं. तब कुंठा में कलम कुछ ऐसा लिख जाती है.

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  5. 2005 की 26 जुलाई को ऐसा ही कुछ मंजर मुंबई और उसके आसपास के उपनगरीय इलाकों ने देखा था। मेरी सगी बहन का घर उस बाढ़ में दो दिन पानी के नीचे था। दुमंजिला घरों की पहली मंजिल तक पानी पहुँच गया था। गनीमत यह थी कि पानी जब बढ़ने लगा तब उसका पूरा परिवार पास ही एक निर्माणाधीन इमारत की तीसरी मंजिल पर चले गए थे । शरण तो मिल गई पर सब सामान सड़ गल गया। खैर,जान बची तो लाखों पाए.... हमें दो दिन तक उनकी कोई खबर नहीं, प्राण हलक में अटके थे हमारे। बिजली और फोन सेवा भी ठप्प थी उस इलाके की...उस समय हमारे पास मोबाइल नहीं थे, लैंडलाइन थी। बाढ़ का पानी उतरने के बाद का दृश्य लिखूँगी तो पूरी कहानी बन जाएगी जो आपकी कहानी से मिलती जुलती ही बनेगी....भ्रष्टाचार तो चरम पर होता है ऐसे हालातों में !!! किसी की विपदा किसी के लिए सुनहरा मौका बन जाती है। ऐसे समय तो बस यही प्रश्न उठता है कि क्या वाकई हम इंसानों के बीच रह रहे हैं ? मेरी बहन के साथ तो हम तीन भाई बहन खड़े हो गए और हर तरह से उसका साथ दिया पर हर कोई इतना खुशकिस्मत नहीं था।
    रही बात आपकी कहानी के मूल्यांकन की, तो यही कहूँगी कि आपदाओं से पीड़ित गरीब और बेसहारा लोगों की व्यथा का चित्रण करने में, मौकापरस्त स्वार्थी नेता एवं मीडिया की पोल खोलने में आपकी कलम सफल रही है। ऐसी घटनाओं का वर्णन लिखने में धैर्य चाहिए और संवेदनशील मन भी। जो यहाँ दिखाई दे रहे है।
    यह भाग प्रकाशित होते ही पढ़ लिया था किंतु इस पर कुछ लिखने से पहले पूरी कहानी को एक साथ फिर से पढ़ा।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीनाजी और फिर दिल से निकली एक आह - 'हाय ! आप जैसे कद्रदान मुझे इतने कम क्यों मिले?'
      आपकी बहन के साथ जो कुछ घटित हुआ उसे आप लोगों के प्यार और सहारे ने हादसे की शक्ल में नहीं बदलने दिया.
      मैंने इस कहानी में इन्सान के रूप में छुपे हुए भेड़ियों की तस्वीर ज़्यादा खींची है. अब इसका दोष आप प्रेमचंद के 'गोदान', भीष्म साहनी के 'तमस' और राही मासूम रज़ा के 'कटरा बी आरज़ू' को दे सकती हैं. वही मेरे गुरु हैं.

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  6. "पटवारीजी के कहने पर ग्राम प्रधान ने दो-चार साफ़-सुथरे बच्चों को तलाश कर अच्छे-अच्छे कपड़े पहनवा कर तैयार करवा दिया था. मुख्य मन्त्रीजी कभी भी किसी बच्चे को अपनी गोद में उठा सकते थे." ये कहानी का टुकड़ा मात्र नहीं, रोजमर्रे का बेशर्म सत्य है!नमन और आभार आपकी लेखनी का!!!

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  7. धन्यवाद विश्व मोहन जी. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यही प्रबंध चाचा नेहरू के बाल-प्रेम को देखते हुए भी किया जाता था. बाद में उनकी देखा-देखी अन्य नेताओं को भी बच्चों को गोदी में लेने का और उन्हें प्यार करने का नाटक करना ज़रूरी हो गया था, पर देश-संचालकों के स्वास्थ्य का ख़याल करते हुए थोड़ी सावधानी बरतना तो बनता ही है. ये बेशर्म राजनीति, ये बे-हया प्रशासन और ये दरिंदगी से भरे धर्म के नुमाइंदे तो इस से भी ज़्यादा नीचे गिर सकते हैं.

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