शनिवार, 2 जनवरी 2021

पुस्तक-कला की कक्षा

 1962 में पिताजी का इटावा से रायबरेली तबादला हो गया था. रायबरेली में कक्षा 7 में मेरा प्रवेश गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में करा दिया गया था. हमारा कॉलेज अच्छा था, काफ़ी भव्य था और वहां के अध्यापकगण भी आम तौर पर अच्छे थे, खासकर इतिहास, हिंदी और गणित के मास्साब तो लाजवाब थे. हमारे कॉलेज में कक्षा 6 से लेकर कक्षा 8 तक एक वैकल्पिक विषय होता था. हमको पुस्तक-कला, काष्ठ-कला और ज्यामितीय-कला में से कोई एक विषय चुनने की आज़ादी थी.

काष्ठ-कला बड़ा बोरिंग और कठिन विषय माना जाता था और ज्यामितीय-कला चुनना मेरे लिए हानिकारक हो सकता था क्योंकि मेरी ड्राइंग, आर्ट वगैरा उस ज़माने में (और आज भी है) नितांत एब्सट्रैक्ट हुआ करती थी. मजबूरन मुझे पुस्तक-कला विषय चुनना पड़ा.
पुस्तक-कला एक ऐसा विषय था जिसे कोई भी विद्यार्थी गंभीरता से नहीं लेता था. ऊपर से रोज़ाना आठवां अर्थात हमारा आखरी पीरियड इस बोरिंग विषय का हुआ करता था.
गणित, विज्ञान, इंगलिश और संस्कृत जैसे दुरूह विषय पढ़ते-पढ़ते हमारी पहले ही हालत पतली हो चुकी होती थी.
पुस्तक-कला के इस अंतिम पीरियड को हम पीटी के पीरियड की ही तरह मौज-मस्ती का पीरियड मानते थे.
पुस्तक-कला के हमारे मास्साब थे, छोटे नक़वी साहब.
हमारे कॉलेज एक बड़े नक़वी मास्साब भी थे जो कि हाई स्कूल के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाते थे.
हमारे छोटे नक़वी मासाब एक नमूना थे, एक अजूबा थे.
उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि कोई चूहा भी उनके सामने खुद को शेर समझ सकता था.
छोटे नक़वी मास्साब हमको डांटते थे तो हमारी हंसी छूट जाती थी और अगर वो हमारी पीठ पर स्केल चलाने की प्रैक्टिस करते थे तो हम क्लास से भाग खड़े होते थे.
छोटे नक़वी मास्साब मेरी ज़िन्दगी के पहले गुरूजी थे जिनका मैंने उपहास उड़ाया था. मास्साब को नजले की शिक़ायत रहती थी. वो एक अंगोछा अपने साथ रखते थे और तरह-तरह की आवाज़ें निकालकर बार-बार उससे अपनी नाक पोंछते रहते थे.
नालायक गुरुभक्त बालक उनकी पीठ पीछे आदर से उन्हें ‘नकबही मास्साब’ कहा करते थे. मुझे इस तरह के बेहूदे नामकरण पर घोर आपत्ति थी पर जब दो-चार बार बिना किसी जुर्म के गुरुदेव ने मेरी पीठ पर ज़ोरदार स्केल जड़ दिए तब से मैं भी उनके पीछे उन्हें ‘नकबही मास्साब’ कहने लगा था.
पुस्तक-कला के पीरियड में हर लड़का नियमतः लघुशंका निवारण के लिए जाना चाहता था और हमारे मास्साब अक्सर इसकी अनुमति देने के स्थान पर प्रार्थी की पीठ पर दो-चार स्केल जड़ दिया करते थे.
लेकिन इस सख्ती का परिणाम अक्सर यह होता था कि घायल लड़का उन्हें ‘नकबही’ कहके क्लास से भाग जाया करता था.
मेरे जैसे तथाकथित शरीफ़ लड़के (जो कि उन्हें ‘नकबही’ कहने की गुस्ताखी केवल उनके पीछे किया करते थे) ऐसे गुस्ताख चोरों को पकड़ने के लिए सिपाही बनाकर भेज दिए जाते थे और फिर हम चोर-सिपाही प्रिंसिपल साहब की नज़रों से छुपकर अपने क्लास के बाहर ही मज़े से कबड्डी खेला करते थे.
हमारे छोटे नक़वी मास्साब की बाज़ार में स्टेशनरी की दुकान थी.
हम जैसे कलाकारों को जिनको कि लिफ़ाफ़ा बनाना भी नहीं आता था, वो यह सलाह दिया करते थे कि हम खुद टेढ़ी-मेढ़ी कलाकृतियाँ बनाने के बजाय उनकी दुकान से लिफ़ाफ़ा, बुक मार्क, फ़ाइल कवर, फ्लावर स्टैंड आदि खरीद कर जमा कर दिया करें.
अच्छे रिमार्क्स की गारंटी के आश्वासन पर हम भोले बालक उनके जाल में अक्सर फँस भी जाया करते थे.
एक बार हमको फ़ाइल कवर बनाने का काम दिया गया. ज़ाहिर था कि मेरे लिए यह काम करना असंभव था.
इंटरमीजिएट में पढ़ रहे हमारे श्रीश भाई साहब ने पुराने ज़माने में एक सुन्दर फ़ाइल कवर बनाया था. मैंने उनसे एक हफ़्ते के लिए उनका वो फ़ाइल कवर उधार मांग लिया. यहाँ यह मैं क्यूँ बताऊँ कि इस उपकार के बदले में उन्होंने मुझसे अपने दो-दो जोड़ी जूतों पर पॉलिश करवाई थी.
नक़वी मास्साब मेरे उधारी किन्तु सुन्दर फ़ाइल कवर को देखकर बड़े खुश हुए. मुझे पहली बार उन्होंने ‘गुड’ दिया. पर इस जमा किए हुए फ़ाइल कवर को मुझे लौटाना वो क़तई भूल गए.
इधर हमारे श्रीश भाई साहब के उपकार की एक हफ़्ते वाली मियाद पूरी हो चुकी थी. भाई साहब फ़ाइल कवर की वापसी के तकाज़े, रोज़ाना मेरी पीठ पर मुक्के मार-मार कर रहे थे और मैं बिचारा पुस्तक-कला की कक्षा में रोज़ाना मास्साब से रोते-बिसूरते हुए फ़ाइल कवर वापस करने की गुहार लगा रहा था.
हमारे नकबही मास्साब की प्रतिष्ठा इतनी थी कि महात्मा गाँधी इंटर कॉलेज में पढ़ने वाले श्रीश भाई साहब को भी यह पता था कि वो अपने विद्यार्थियों से जमा कराई गई अच्छी-अच्छी कलाकृतियाँ अपनी दुकान पर बेचने के लिए रख देते हैं.
श्रीश भाई साहब को पता नहीं अपने उस फ़ाइल कवर से कितना प्यार था कि वो उसकी तलाश में नक़वी मास्साब की दुकान पर चले गए. इतना ही नहीं, वहां बिक्री के लिए डिस्प्ले पर लगे आइटम्स में उन्होंने अपना फ़ाइल कवर खोज भी लिया और उसे वो वहां से एक अठन्नी में ख़रीद भी लाए.
अब अपनी अठन्नी मुझसे वसूल करने के लिए भाई साहब मुझ पर जोर डाल रहे थे और मैं मास्साब से अठन्नी लेने के लिए रोज़ाना हल्ला मचा रहा था.
उन दिनों एक अठन्नी मेरे एक हफ़्ते का पॉकेटमनी हुआ करती थी. मैं इतनी बड़ी चोट को आसानी से कैसे सह सकता था?
पर मास्साब के कानों पर जूं भी नहीं रेंग रही थी.
आज मुझे लगता है कि श्री जयशंकर प्रसाद ने अपने फ़ाइल कवर हज़म करने वाले किसी मास्साब को ध्यान में रख कर ही कहा होगा –
‘रो-रो कर सिसक-सिसक कर, कहता मैं करुण कहानी,
तुम सुमन नोचते सुनते, करते जानी-अनजानी.’
हर ओर से निराश होकर मैंने अपनी व्यथा अपने पिताजी से कही.
हमारे धीर-गंभीर न्यायधीश पिताजी कभी इतना नहीं हँसे होंगे जितना कि इस किस्से को सुनकर हँसे थे.
पिताजी ने श्रीश भाई साहब को बुलाकर उन्हें एक अठन्नी दे दी और मुझसे कहा कि मैं छोटे नक़वी मास्साब की इस लूट को भूल जाऊं.
पर मैं क्या करूँ?
इस लूट को आधी सदी से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र गया है पर मैं उसे आज भी भूला नहीं हूँ.
इस घटना को भूल जाने की उदारता मैं आज भी नहीं दिखा पा रहा हूँ और गुरुदेव द्वारा फ़ाइल कवर को चोरी करने की गुस्ताखी को बिना तक़ल्लुफ़ कागज़ पर उतार भी रहा हूँ.
फ़ाइल कवर चोरी-कांड के बाद मेरी शरारतों की डोज़ बढ़ती गयी और मेरी अठन्नी कभी न लौटने वाले बेचारे बेबस मास्साब उसे हज़म करते रहे.
मास्साब की पीठ पीछे क्लास में कागज़ के हवाई जहाज़ बनाकर उड़ाने में एक्सपर्ट होने में और दोस्तों पर चौक मारने की कला में मेरे पारंगत होने में, पुस्तक-कला की क्लास का सबसे बड़ा योगदान था.
मैंने बी. ए. करने के दौरान श्री लाल शुक्ल जी का महान उपन्यास ‘राग दरबारी’ पढ़ा था. उस उपन्यास में आटा चक्की वाले मास्साब का चरित्र मुझे अपने छोटे नक़वी मास्साब के चरित्र जैसा लगा था.
मेरा यह मानना है कि श्री जयशंकर प्रसाद को और श्री लाल शुक्ल जी को भी मेरे छोटे नक़वी मास्साब जैसे गुरु मिले थे. वरना न तो प्रसाद जी –
‘ रो-रो कर सिसक कर --- ‘ लिख पाते और न ही श्रीलाल शुक्ल जी ‘राग दरबारी’ के चक्की वाले मास्साब का चरित्र गढ़ पाते.
अगर ये दो महानुभाव अपने-अपने गुरुजन की कृपा से इतने बड़े साहित्यकार बन सकते हैं तो छोटे नक़वी मास्साब के साये में घाघ बने मुझको महान साहित्यकार बनने से कौन रोक सकता है?
मुझको अगर कभी साहित्य का नोबिल पुरस्कार मिला तो यह तय है कि उसे मैं अपने छोटे नक़वी मास्साब को ही समर्पित करूँगा.
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13 टिप्‍पणियां:

  1. नकबही मास्साब की जीवंत बतकही ! बहुत सरस और रोचक !!!

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    1. मित्र, उस अठन्नी की चोट आज भी दर्द करती है. तुम उस अठन्नी को चक्र-वृद्धि ब्याज सहित मास्साब से वापस दिलवाने में मेरी मदद करो.

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  2. नववर्ष मंगलमय हो सपरिवार। रोचक संस्मरण।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र !
      ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम सब के लिए नव-वर्ष मंगलमय हो.

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  3. उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
      मैं अब अपने इन शरारतों से भरे संस्मरणों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराना चाहता हूँ.
      इस विषय में यदि आप मेरा मार्ग-दर्शन करें तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी.

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    2. आप जिज्ञासा प्रकाशन गाजियावाद से सम्पर्क कर लें।
      इसके व्यवस्थापक मित्रपाल शिशौदिया जी हैं।
      मुझसे बात कर लें।
      मेरा सम्पर्क नम्बर है-
      7906360576

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०४-०१-२०२१) को 'उम्मीद कायम है'(चर्चा अंक-३९३६ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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    1. 'उम्मीद कायम है' (चर्चा अंक - 3936) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता !

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  5. सर हर बार की तरह रोचक संस्मरण, जिसमें चटपटा मशाला, आपकी लेखनी का बेमिसाल अंदाज वाह्ह्ह्!
    नववर्ष की अनंत शुभकामनाओं के साथ नोबेल पुरस्कार के लिए भी हृदय तल से शुभकामनाएं हम तो चाहते हैं आपको नोबेल पुरस्कार जरूर मिले ।🌹🌷🌹
    शानदार संस्मरण।

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  6. हे भगवान ! मुझे तुम से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए.
    बस, तुम मन की वीणा की शुभकामनाओं को साकार करो और वर्ष 2021 का साहित्य का नोबिल पुरस्कार इस संस्मरण के लेखक को दिलवा दो.

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    1. वाह सर ये मासूमियत।😃

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    2. मासूमियत पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा

      बैठे कटोरा ले के मगर मांगते नहीं ---



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