इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल के आंसू
(श्री जयशंकर प्रसाद से क्षमा-याचना के साथ)
हो घनीभूत ठग-विद्या
जब राजनीति में आई
तब भारत-भाग्य गगन पर
संकट की बदली छाई
नेता की मेढक टोली
फिर टर-टर करने आई
छल-कपट फ़रेब सरीखे
उपहार सैकड़ों लाई
यूँ झोंकी धूल नयन में
सच पड़ता नहीं दिखाई
अन्याय दमन की चर्चा
बंदी-गृह तक ले आई
विश्वास किया वादों पर
फिर से जनता पछताई
दुर्दिन दुखदाई रातें
उद्धार नहीं रघुराई
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र !
जवाब देंहटाएंअब बसंत आएगा' (चर्चा अंक - 3964) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
जवाब देंहटाएंवाह! सुंदर।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद सधुचंद्र जी.
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रतिभा जी.
हटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत दन्यवाद गगन शर्मा जी.
हटाएंमेरी रचना में व्यक्त विचार से सहमत होने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'!
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत ही सुंदर कहा सर।
जवाब देंहटाएंगज़ब का सृजन 👌
धन्यवाद अनीता.
हटाएंश्री जयशंकर प्रसाद आज अगर जीवित होते तो 'आंसू' के दूसरे संस्करण शायद ऐसा ही कुछ कहते.
वाह सर गज़ब है।
जवाब देंहटाएंप्रसाद के आंसू तो मोहक थे ।
ये तो जनतंत्र के आँसू है और सच भारत-भाग्य गगन पर
संकट की बदली छाई हैं।
सटीक सत्य।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद कुसुम प्रज्ञा जी !
हटाएंप्रसाद के आंसू अमर हैं किन्तु ये आंसू घुटनी हुई स्वतंत्रता के और दम तोड़ते हुए गणतंत्र के आंसू हैं.
मुग्ध करती रचना।
जवाब देंहटाएंऐसी प्रशंसा के लिए धन्यवाद शांतनु सान्याल जी.
हटाएंवाह ! लाजवाब !!!
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर कुमारी शरद सिंह !
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