रविवार, 31 जनवरी 2021

गुस्ताख़ी

इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल के आंसू
(श्री जयशंकर प्रसाद से क्षमा-याचना के साथ)
हो घनीभूत ठग-विद्या
जब राजनीति में आई
तब भारत-भाग्य गगन पर
संकट की बदली छाई
नेता की मेढक टोली
फिर टर-टर करने आई
छल-कपट फ़रेब सरीखे
उपहार सैकड़ों लाई
यूँ झोंकी धूल नयन में
सच पड़ता नहीं दिखाई
अन्याय दमन की चर्चा
बंदी-गृह तक ले आई
विश्वास किया वादों पर
फिर से जनता पछताई
दुर्दिन दुखदाई रातें
उद्धार नहीं रघुराई

18 टिप्‍पणियां:

  1. अब बसंत आएगा' (चर्चा अंक - 3964) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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    1. प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत दन्यवाद गगन शर्मा जी.

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  3. मेरी रचना में व्यक्त विचार से सहमत होने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'!

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  4. वाह!बहुत ही सुंदर कहा सर।
    गज़ब का सृजन 👌

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    1. धन्यवाद अनीता.
      श्री जयशंकर प्रसाद आज अगर जीवित होते तो 'आंसू' के दूसरे संस्करण शायद ऐसा ही कुछ कहते.

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  5. वाह सर गज़ब है।
    प्रसाद के आंसू तो मोहक थे ।
    ये तो जनतंत्र के आँसू है और सच भारत-भाग्य गगन पर
    संकट की बदली छाई हैं।
    सटीक सत्य।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद कुसुम प्रज्ञा जी !
      प्रसाद के आंसू अमर हैं किन्तु ये आंसू घुटनी हुई स्वतंत्रता के और दम तोड़ते हुए गणतंत्र के आंसू हैं.

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    1. ऐसी प्रशंसा के लिए धन्यवाद शांतनु सान्याल जी.

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    1. प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर कुमारी शरद सिंह !

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