एक प्राचीन कथा -
‘सबेरा कैसे होगा?’
किसी गांव में एक डोकरी रहती थी , उसके पास एक मुर्गा
था.
जब मुर्गा बांग देता तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर
अपनेअपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली-
'तुम लोग मुझे अगर ऐसी ही नाराज़ करते रहोगे तो मैं अपना मुर्गा लेकर दूसरे
गांव में चली जाऊंगी.
मुर्गा न होगा तो बांग कौन देगा? मुर्गा बांग नहीं
देगा तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज नहीं उगेगा तो सवेेरा भी कैसे होगा?'
मेरे द्वारा रचित एक नवीन कथा
‘सवेरा तो होकर ही रहेगा’ -
किसी गांव में एक डोकरी रहती थी, उसके पास दर्जनों
मुर्गे थे और उन मुर्गों में बड़ा भाई-चारा था.
ये सभी मुर्गे जब एक साथ बांग देते थे तो सभी लोग समझ लेते कि सवेेरा हो
गया और जग कर अपने-अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली –
'तुम लोग अगर ऐसे ही मुझे नाराज़ करते रहोगे तो मैं अपने सारे मुर्गे लेकर
दूसरे गांव में चली जाऊंगी.'
अब समस्या यह थी कि –
मुर्गे नहीं होंगे तो बांग कौन देगा?
मुर्गे बांग न देंगे तो सूरज नहीं उगेगा और अगर सूरज नहीं उगेगा तो
सवेेरा भी कैसे होगा?'
दूसरे गाँव में जाते ही बुढ़िया के सारे के सारे मुर्गे, अपनी खातिरदारी
देखकर फूल कर कुप्पा हो गए, उनमें घमंड आ गया और घमंड के मारे वो एक दूसरे के
प्रतिद्वंदी बनकर राजनीति में प्रविष्ट हो गए.
अब हर-एक मुर्गा अलग-अलग समय पर अलग-अलग ढंग की बांग देने लगा.
कोई मुर्गा भगवा बांग देने लगा तो कोई हरी बांग देने लगा, कोई लाल बांग देने
लगा तो कोई वंशवादी बांग देने लगा. और तो और, कोई-कोई मुर्गा तो
दल-बदलू बांग भी देने लगा.
गाँव वाले परेशान ! किस मुर्गे की बांग सुन कर वो यह मानें कि सूरज उग
आया है और किस मुर्गे की बांग को अनसुना कर वो अपनी चादर ओढ़ कर सुबह होने की घोषणा
करने वाली सही बांग के इंतज़ार में, अपने-अपने बिस्तर
पर ही लेटे रहें.
आखिरकार गाँव वालों ने आपस में चोंच लड़ाने वाले उन सभी मुर्गों को अपने
गाँव से बाहर निकाल दिया.
और आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.
अब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों के जैसा साहसिक क़दम
क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग ढंग की बाग़ देने वाले इन सियासती
मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से, दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल क्यों
नहीं फेंकते?
यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग बांग देने वाले इन
सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का
सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा.
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-०१-२०२१) को 'कुहरा छँटने ही वाला है'(चर्चा अंक-३९६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
'कुहरा छंटने ही वाला है' (चर्चा अंक - 3962) में मेरी व्यंग्य-कथा को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता.
हटाएंसही सटीक! हम भी इन आत्म गर्वित मुर्गों को देश निकाला दे दें तो सच में सुनहरा सुर्योदय होगा।
जवाब देंहटाएंशानदार लेखन बेबाक।
धन्यवाद कुसुम जी.
जवाब देंहटाएंवो सुबह कभी तो आएगी.
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
31/01/2021 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
31-01-21 के 'पांच लिंकों का आनंद' ब्लॉग में मेरी व्यंग्य-कथा सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद कुलदीप ठाकुर जी.
हटाएंवाह लाजवाब।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआदरणीय गोपेश जी, ऐसी दशा में साहित्यकार अपना कर्तव्य निभाते हैंऔर जागृति के माध्यम से इन छद्म मुर्गों की पोल खोल लोगों की आँखें खोलते हैं। आपने एक साधारण कहानी शानदार बना दिया। सादर 🙏🙏
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद रेणु जी !
हटाएंहम और आप तो प्राचीन कथाओं में फेर-बदल कर सकते हैं लेकिन हमारे देश-संचालक तो हमारे सौभाग्य में ही उलट-फेर कर देते हैं.