सोमवार, 20 दिसंबर 2021

लेडीज़ फ़र्स्ट

फ़ेसबुक पर मेरे मित्र प्रोफ़ेसर हितेंद्र पटेल ने पिछले साल की अपनी एक पोस्ट में हर जगह महिलाओं-लड़कियों को प्राथमिकता दिए जाने पर आपत्ति की थी.

मैं भी उनके इस विचार से सहमत हूँ कि हर जगह लेडीज़ फ़र्स्टका नारा बुलंद किये जाने की ज़रुरत नहीं है.

यह सही है कि स्त्री-दमन और स्त्री-शोषण, विश्व-इतिहास का, ख़ास कर भारतीय इतिहास का, सबसे कलुषित अध्याय है लेकिन इसके खिलाफ़ हम पूरी तरह से उल्टी गंगा बहा कर एक स्त्री-प्रधान समाज को स्थापित कर न तो स्त्रियों को समाज में यथोचित अधिकार दिला सकेंगे और न ही उन्हें निर्बाध उन्नति करने का अवसर प्रदान करा पाएंगे.

मध्यकालीन यूरोप में नाइट्स की शौर्य-गाथाओं में उनकी शिवैलरी (नारी-रक्षण की भावना) की अनगिनत कहानियां प्रचलित थीं.

इन्ही नाइट्स की तरह हमारे आज के बॉलीवुड के हीरोज़ भी खलनायकों के चंगुल में फंसी नायिका का उद्धार करने के लिए कहीं से भी अवतरित हो जाते हैं.

बस में या ट्रेन में किसी महिला को खड़ा देख कर किसी पुरुष द्वारा अपनी सीट उसे देना सभ्यता की निशानी मानी जाती है.

किसी टिकट विंडो पर भले ही महिलाओं के लिए अलग पंक्ति की व्यवस्था न हो पर उनको आउट ऑफ़ टर्न टिकट तो मिल ही जाता है.

औरत को मोम की गुड़िया समझना या उसे रुई के फाहे में महफ़ूज़ रखने की कोई कोशिश करना मूर्खता है.

बिना किसी के सहारे चुनौतियों का सामना करने की क्षमता पुरुष का एकाधिकार नहीं है.

स्त्रियाँ भी स्वयं-सिद्धा बन कर कठिन से कठिन मुश्किलों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती हैं और उन पर जीत हासिल कर सकती हैं.

आजकल नारी-उत्थान के स्व-घोषित मसीहा हर क्षेत्र में स्त्रियों को आरक्षण दिए जाने की सिफ़ारिश करते हैं.

बकौल लालू प्रसाद यादव, नारी-उत्थान की एक अभूतपूर्व मिसाल उन्होंने तब क़ायम की थी जब बिहार के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी छिन जाने की स्थिति में उन्होंने अपनी लगभग काला अक्षर भैंस बराबर श्रीमती जी, राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.

मेरी दृष्टि में नारी-उत्थान के नाम पर इतना फूहड़ और वीभत्स मज़ाक कोई दूसरा नहीं हो सकता था.

बिना किसी की योग्यता जांचे, बिना उसकी सामर्थ्य का समुचित आकलन किये, किसी की थाली में कोई महत्वपूर्ण पद परोस देना तो अन्याय है.

यह अन्याय सिर्फ़ दूसरों के साथ ही नहीं है, बल्कि उसके साथ भी है जिस पर कि ऐसी कृपा बरसाई गयी है.

बहुत से अभिभावक अपनी बेटियों को कोई भी दुष्कर कार्य नहीं सौंपते हैं. अगर बेटियों को कहीं बाहर जाना हो तो उसके साथ घर के किसी पुरुष का जाना ज़रूरी समझा जाता है.

मेरे अल्मोड़ा-प्रवास में मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने दिल्ली में रह कर बीएस० सी० और एमएस० सी० किया और छोटी बेटी रागिनी ने पन्त नगर से बी० टेक० और फिर आईएमआई दिल्ली से एम० बी० ए० किया.

मेरी दोनों बेटियां अपने दम पर अल्मोड़ा से दिल्ली तक का सफ़र अकेले ही करती रहीं. उनके पापा को या उनकी मम्मी को कभी भी उनका बॉडी गार्ड बनने की ज़रुरत नहीं पड़ी. एक मज़े की बात बताऊँ – एम० बी० ए० में टॉप करने वाली रागिनी के एम० बी० ए० करने के दौरान मैंने एक बार भी आईएमआई दिल्ली में क़दम नहीं रखा था.

 

मेरी दोनों बेटियों को पता था कि उन्हें ख़ुद को किस तरह सुरक्षित रखना है और इसके लिए क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी हैं.

अपने पैरों पर खड़े होने के बाद अपने रहने की व्यवस्था भी हमेशा उन्होंने ख़ुद ही की. यहाँ तक कि उनकी शादियाँ भी हम पति-पत्नी की टांग अड़ाए बिना ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गईं.

पुरुषों का, लड़कों का, चरित्र बड़ा दो-रंगा होता है.

अपने घर के किसी बच्चे को दो मिनट के लिए भी गोदी में न उठाने वाला कोई मर्द अक्सर किसी सूरतक़ुबूल अपरिचित महिला का पचास किलो बोझा उठाने को भी तैयार मिल सकता है.

इस बोझा उठाने वाली बात पर एक सच्चा किस्सा

1994 में मैं अपने विद्याथियों का एजुकेशनल टूर लेकर अल्मोड़ा से राजस्थान जा रहा था. टूर में विद्यार्थियों के पास पैसे की किल्लत को देख कर मैंने यह घोषणा कर दी कि हम कहीं भी कुली नहीं करेंगे और हर कोई अपना-अपना सामान ख़ुद उठाएगा.

हमारे कुछ उत्साही लड़के लपक कर लड़कियों का सामान उठाने लगते थे जब कि अपने गुरु जी को ख़ुद का सूटकेस और बैग उठाते देख उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी.

मेरे इस हिटलरी फ़रमान

हर कोई अपना सामान ख़ुद उठाएगा और कोई भी किसी दूसरे का सामान क़तई नहीं उठाएगा. मेरा यह हुक्म न मानने वाले को टूर से बाहर कर दिया जाएगा.

सभी लड़कियों ने तो रास्ते भर आराम से अपना सामान ख़ुद उठाया लेकिन हमारे उत्साही स्वयंसेवक बालकों की शिवैलरी दिल की दिल में ही रह गयी.

मेट्रोज़ में, बसों में, वरिष्ठ नागरिकों के लिए कुछ सीट्स आरक्षित होती हैं. एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं ऐसी किसी सीट पर बैठना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझता हूँ.

खचाखच भरी मेट्रो या बस में वरिष्ठ नागरिक के लिए आरक्षित सीट पर अगर कोई लड़का बैठा हो या कोई लड़की भी बैठी हो तो उसे हटा कर उस सीट पर बैठने में मैं कभी संकोच नहीं करता.

अगर हम सच्चे अर्थ में नारी-हितैषी हैं तो हमको स्त्रियों को विशेष अधिकार और अतिरिक्त सुविधाएँ देने के स्थान पर उनकी उन्नति के मार्ग में अनादि काल से डाले जा रहे रोड़े हटाने चाहिए और सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों के समान अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर दिलाना चाहिए.

हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि आज भी समाज में उन पोंगापंथियों का और पुरातनपंथियों का बाहुल्य है जिन्हें अपने समाज की पुरानी सड़ी-गली स्त्री-विरोधी परम्पराओं के अंध-निर्वहन में ही सबका कल्याण दिखाई देता है.

किन्तु प्रगतिशीलता के नाम पर इस सामाजिक रोग का निदान स्त्रियों पर अनावश्यक और अप्रत्याशित सुविधाएँ लुटा कर नहीं किया जा सकता.

सबको उन्नति का एक समान अवसर प्रदान करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए.

एक बात स्त्रियों-लड़कियों के पैत्रिक संपत्ति पर अपने भाइयों के बराबर अधिकार पर !

माँ-बाप की संपत्ति में बेटे-बेटी के समान अधिकार की प्रगतिशील विचारधारा स्वागत किये जाने के योग्य है लेकिन ऐसा करते समय बूढ़े और असमर्थ माँ-बाप के प्रति बेटे और बेटी के कर्तव्य भी एक समान ही निर्धारित होने चाहिए.  

किसी भी व्यवस्था में, चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो अथवा राजनीतिक हो, भेद-भाव और असमानता का लेशमात्र अंश भी नहीं होना चाहिए और न ही किसी को जाति-धर्म के आधार पर, न ही किसी को क्षेत्र के नाम पर, न ही किसी को स्त्री होने के आधार पर आरक्षण का, या विशेष सुविधाओं का या फिर कैसी भी रियायतों का तोहफ़ा मिलना चाहिए.


शनिवार, 18 दिसंबर 2021

दो दुरुस्त किए गए चुनावी अशआर

 शमा के सामने जलने वाले परवानों का ज़िक्र कर दाग देहलवी कहते हैं-

शब-ए-विसाल (मिलन की रात) है गुल कर दो इन चराग़ों को
ख़ुशी की बज़्म (महफ़िल) में क्या काम जलने वालों का
और हम आने वाले चुनाव को ध्यान में रख कर कहते हैं -
अभी चुनाव है गुल कर दें शोर-ए-सच को सभी
ज़मानतें ज़ब्त हुआ करतीं हरिश्चंद्रों की
एक शेर और -
हमें जो उम्र अता की गयी थी जीने को
वो हमने जान बचाने में खर्च कर डाली
सैयद सरोश आसिफ़
एक वोटर की आपबीती -
हमें जो वोट का हक़ था मिला व्यवस्था से
वो हमने चोर-लुटेरों पे खर्च कर डाला

रविवार, 12 दिसंबर 2021

आधा दर्जन सियासती हाय-हायकू

1.भाषण हुआ

तालियां भाड़े वाली 

बजती रहीं

2.घोटाला हुआ

ख़र्चा करना पड़ा

निर्दोष छूटा

3. वादा सच्चा था

निभाना भूल गया 

फिर भी जीता

4.चुनाव हुआ

थोथे-थोथे ही गहे   

सार उड़ाए

5.सियासत में

झूठ की भरमार

सच की हार

6.बंदर बनो

न कुछ देखो-सुनो

और न बोलो


बुधवार, 8 दिसंबर 2021

'महाभारत'

 ‘महाभारत’ -

‘महाभारत’ विश्व इतिहास का सबसे बड़ा महाकाव्य है.
‘महाभारत’ की भाषा संस्कृत है.
‘महाभारत’ का मुख्य सूत्र भरत वंश की कथा है इसीलिए इस ग्रंथ को ‘महाभारत’ कहा गया है. ईसा पूर्व 3000 वर्ष (हड़प्पा संस्कृति काल) से चौथी ईसवी तक भारतीय संस्कृति का जो विकास और प्रसार हुआ, उसका प्रतिबिम्ब ‘महाभारत’ में मिलता है.

इस महाकाव्य में आर्य पूर्व कालीन, वैदिक और उत्तर वैदिक सांस्कृतिक जीवन की झांकी प्रस्तुत की गई है. इसमें वेद-पूर्व काल से चली आ रही वृक्ष, वनस्पति, नदी, पर्वत तथा अन्य पार्थिव पदार्थों की पूजा करने वालों की संस्कृति , यज्ञ प्रधान वैदिक संस्कृति और निवृत्ति प्रधान श्रमण संस्कृति का विस्तार से उल्लेख किया गया है.

‘महाभारत’ को पाँचवां वेद अथवा ‘काण्व वेद’( चार वेदों से भी श्रेष्ठ) कहा गया है. इसे पुराण भी कहा गया है.

‘महाभारत’ का ग्रंथ प्रथमतः कृष्ण द्वैपायन व्यास ने लिखा था. कुछ विद्वानों के अनुसार इस ग्रंथ में 8000 श्लोक व 18 पर्व थे.
इसमें सम्पूर्ण कृष्ण चरित्र नहीं कहा गया था. व्यासजी ने इसे अपने पाँच शिष्यों सुमंतु, जैमिनी, पैल, शुक और वैशंपायन को सुनाया. इन पाँच शिष्यों ने भारत की पाँच संहिताएं प्रकाशित कीं.
आज का जो ‘महाभारत’ महाकाव्य है, वह मुख्यतः वैशंपायन की भारत संहिता पर आधारित है.
जनश्रुति है कि वैशंपायन ने महाभारत की कथा अर्जुन के प्रपौत्र राजा जनमेजय को सुनाई थी.
राजा जनमेजय ने जब महायज्ञ किया तो उसमें पहली बार जनता के समक्ष ‘महाभारत’ का पाठ किया गया था.
समय के साथ-साथ ‘महाभारत’ के पदों की संख्या बढ़ते-बढ़ते एक लाख तक पहुँच गयी.
पहली शताब्दी में दक्षिण भारत का भ्रमण करने वाले यूनानी यात्री ख्रायस्टोन भारत में एक लाख पदों के एक महाकाव्य का उल्लेख किया है.

‘महाभारत’ के परवर्ती संस्करण में ‘भविष्य पर्व’ के साथ ‘हरिवंश चरित्र’ भी जोड़ दिया गया है. ‘हरिवंश चरित्र’ में सम्पूर्ण कृष्ण चरित्र का वर्णन है.

‘महाभारत’ की रचना का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो पुरुषार्थों का संतुलन रखने वाली जीवन पद्धति का विकास करना था. इसमें मुख्य रूप से वैष्णवी विचारधारा का पोषण है पर ‘अनुशासन पर्व’ के ‘उपमन्यु आख्यान’ में श्री कृष्ण द्वारा भगवान शंकर की स्तुति की गई है. भगवान शंकर की स्तुति के अतिरिक्त ‘महाभारत’ के ‘भीष्म पर्व’ में युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अर्जुन ने दुर्गा से वरदान माँगने के लिए उनकी स्तुति की है.

गणेशजी को ‘महाभारत’ को लेखनीबद्ध करने का श्रेय दिया जाता है. ‘आदि पर्व’ में उनकी महिमा का वर्णन है.
‘महाभारत’ का मुख्य विषय भरत कुल का और विशेषतः कौरव-पाण्डवों का इतिहास ही है पर इसे भारतीय संस्कृति का विश्वकोश कहना अनुचित नहीं होगा.
महाभारत की मुख्य कथा कुछ इस प्रकार है-

राजा विचित्र वीर्य की मृत्यु के उपरान्त कुरु वंश का राज्य धृतराष्ट्र को मिला. परन्तु धृतराष्ट्र अंधे थे. उनके छोटे भाई पाण्डु को राजा बनाया गया परन्तु एक शाप के कारण पाण्डु को सपरिवार राज्य छोड़ना पड़ा और धृतराष्ट्र ने सत्ता सम्भाली.

पाण्डु की मृत्यु के बाद उनके पाँच पुत्र अर्थात् पाण्डव युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों अर्थात् कौरवों के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए हस्तिनापुर लाए गए.

द्रोणाचार्य से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त करके पाण्डव हर प्रकार से योग्य हो गए. अब कुरुवंश की परंपरा के अनुसार युधिष्ठिर को युवराज बनाया जाना था पर यह बात धृतराष्ट्र के बड़े पुत्र दुर्योधन को स्वीकार नहीं थी. उसने षडयन्त्र करके पाण्डवों को हस्तिनापुर छोड़ने के लिए विवश किया. इसी भ्रमण काल में द्रोपदी पाण्डवों की पत्नी बनी.

पाण्डवों की मित्रता श्री कृष्ण से हुई जो आगे चलकर उनके मार्गदर्शक और सहायक हुए.

कुछ समय बाद धृतराष्ट्र ने अपना राज्य कौरवों और पाण्डवों में बाँट दिया. दुर्योधन की राजधानी हस्तिनापुर थी और युधिष्ठिर को इन्द्रप्रस्थ.
युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ मिलकर अपने राज्य को बहुत शक्तिशाली बना लिया. पाण्डवों की उन्नति से जलकर दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि के साथ षडयन्त्र रचकर द्यूतक्रीड़ा में पाण्डवों का राज्य जीत लिया और उन्हें तेरह वर्ष का वनवास (जिसमें एक वर्ष का अज्ञातवास भी था) दिया गया. तेरह वर्ष के बाद पाण्डवों को अपना राज्य फिर से मिल जाना था पर जब तेरह वर्ष के वनवास के बाद लौटकर पाण्डवों ने अपना राज्य वापस माँगा तो दुर्योधन ने साफ़ इन्कार कर दिया.

भगवान श्री कृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर दुर्योधन के पास गए. राज्य के स्थान पर पाण्डव पाँच गाँव लेने को भी तैयार थे पर दुर्योधन ने पाण्डवों को सूई की नोंक के बराबर ज़मीन देने से भी इन्कार कर दिया.

अब युद्ध आवश्यक हो गया. दोनों पक्षों की ओर से अनेक राजा युद्ध में शामिल हो गए. पाण्डवों को श्री कृष्ण की मित्रता का भरोसा था पर उन्होंने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा कर ली थी. श्रीकृष्ण युद्ध में अर्जुन के सारथी बने. कौरवों की ओर भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण और जयद्रथ जैसे महारथी थे.

अठारह दिन तक यह युद्ध चलता रहा. अन्त में पाण्डवों, अश्वत्थामा और श्रीकृष्ण को छोड़कर कोई महारथी नहीं बचा.

युधिष्ठिर सम्राट बने. बाद में उन्होंने अपना राज्य अर्जुन के पौत्र परीक्षित को सौंपकर द्रौपदी और अन्य पाण्डवों के साथ हिमालय की ओर प्रस्थान किया जहाँ से मेरु पर्वत पहुँच कर उन्होंने स्वर्ग में प्रवेश किया.

महाभारत में मुख्य कथा के अतिरिक्त सैकड़ों कथाएं हैं.
इनमें नल-दमयन्ती की कथा, भीष्म की पितृभक्ति, उनका आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत, हस्तिनापुर राज्य के प्रति उनकी निष्ठा, शिखण्डी का उनकी मृत्यु का कारण बनना, कर्ण के जन्म की कथा, उसकी दानशीलता, रणक्षेत्र में उसकी मृत्यु, द्रोपदी का चीर हरण और श्रीकृष्ण द्वारा उसकी सहायता, चक्रव्यूह की रचना और उसके भेदन में अभिमन्यु की वीरता व मृत्यु, अर्जुन द्वारा जयद्रथ वध, भीम द्वारा दुर्योधन का वध, अश्वत्थामा का प्रतिशोध आदि ऐसी अनेक कथाएं और उपकथाएं हैं जो ‘महाभारत’ की रोचकता को प्रारम्भ से अन्त तक बनाए रखती हैं.
‘महाभारत’ में संजय अपनी दिव्य दृष्टि का उपयोग कर धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का आँखों देखा हाल सुनाते हैं.
‘महाभारत’ में की गई इस कल्पना और आज रेडियो में प्रसारित किसी आँखों-देखे हाल में समानता देख कर आश्चर्य होता है.

‘महाभारत’ रूपी महासागर का अनमोल रत्न ‘भगवद्गीता’ है. ‘गीता’ में ‘उपनिषद’ के दर्शन, योग-दर्शन और सांख्य-दर्शन का समन्वय है. ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया है कि वह सम्बन्धों के मोह में पड़कर अपने कर्तव्य से डिगे नहीं और कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में कौरव सेना पर अपनी पूरी शक्ति से प्रहार करे.

‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निष्काम कर्म का उपदेश दिया है.
”कर्मण्येवाधिकारस्ते; मा फलेषु कदाचन।“ (अर्थात् कर्म कर परन्तु फल की इच्छा मत कर)
‘गीता’ में भगवान यह भी कहते हैं कि वह सज्जनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की रक्षा करने के लिए हर युग में जन्म लेते हैं-
”परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे-युगे।।“
आत्मा के अमरत्व और शरीर की नश्वरता पर भी ‘गीता’ में विस्तार से चर्चा की गई है. ‘भगवद्गीता’ भारतीय दर्शन के चरमोत्कर्ष को प्रदर्शित करती है.

‘महाभारत’ में धर्म की विस्तृत व्याख्या की गई है.

एक शासक का क्या धर्म है? प्रजापालन के लिए उसके क्या कर्तव्य हैं?
युद्ध के समय और विजय के उपरान्त उसकी क्या नीति होनी चाहिए?
विवाह में पति-पत्नी के एक दूसरे के प्रति और परिवार के प्रति क्या कर्तव्य होने चाहिए?
एक विद्यार्थी का धर्म क्या है?
एक आचार्य का क्या धर्म है?
भक्त का धर्म क्या है?
भगवान का धर्म क्या है?
वर्ण व्यवस्था का क्या औचित्य है?
युद्ध में धर्म का पालन किस प्रकार किया जाता है?

इन सब प्रश्नों पर ‘महाभारत’ में विचार किया गया है.

भारतीय धर्म और संस्कृति के विषय में ‘महाभारत’ का महत्व तो निर्विवाद है ही साथ ही साथ यह प्राचीन भारतीय राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक जीवन पर भी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराता है.

एक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में भी ‘महाभारत’ का अत्यन्त महत्व है. विश्व इतिहास में अन्य कोई ग्रंथ ‘महाभारत’ की विशालता, उसकी साहित्यिक उत्कृष्टता, उसकी दार्शनिक परिपक्वता और उसकी ऐतिहासिक उपयोगिता का मुकाबला नहीं कर सकता.

(शब्दावली
पर्व- अध्याय
कौरव-पाण्डव- धृतराष्ट्र के सौ पुत्र कौरव तथा पाण्डु के पाँच पुत्र पाण्डव कहलाते हैं.
निष्काम कर्म- बिना फल की इच्छा रक्खे हुए कर्म करते रहना.
दिव्य दृष्टि- वेदव्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी.
दिव्य दृष्टि से संजय दूर हो रही घटनाओं को देख सकते थे.)

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

जन्मदिन तब और अब

 कल मेरा जन्मदिन था. सबसे पहले आदतन श्रीमती जी ने मुझे बेड टी के साथ बधाई दी. यह बधाई मीठी थी लेकिन इस से बहुत ज़्यादा मीठी बधाइयां थीं – मेरे नाती अमेय की, मेरी दो नातिनों इरा और आसावरी उर्फ़ सारा की.

पौने दो साल की सारा तो पहली बार हमारे घर आई हैं. सारा का बर्थ डे बेबी को बधाई देने का तरीक़ा उसे पुच्ची देने का होता है लेकिन इसके लिए वो सुपात्र के सामने खुद अपना गाल आगे कर देती हैं.
सच में, बच्चों का साथ मिल जाए तो हम खुद को कभी बूढ़ा महसूस नहीं करते.
वैसे भी 71 साल की उम्र में कोई बूढ़ा थोड़ी हो जाता है. कहावत – ‘साठे पर पाठा’ होने की है तो इस हिसाब से मुझे पाठा हुए कुल जमा 11 साल ही हुए हैं. सही ढंग से मेरी मूंछे उगना तो अभी-अभी शुरू हुई हैं.
मेरी जवानी बच्चों के जन्मदिन पर उनको छोटे-छोटे उपहार देने में और मेरी श्रीमती जी की उनके लिए मनपसंद स्वादिष्ट पकवान बनाने में गुज़री है लेकिन अब कमाऊ बच्चों से अपने जन्मदिन पर बड़े-बड़े उपहार मिल रहे थें और घर में ऑनलाइन केक मंगा कर मुझ से कटवाया जा रहा था,फ़ोटो सेशंस हो रहे थे, श्रीमती और बेटियां ही नहीं, नातिनें भी बधाई गीत गा रही थीं.
टीवी पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ देखना हमारे लिए एक फ़र्ज़ सा बन गया है लेकिन कल अमिताभ बच्चन को भी हमने टाटा कर दिया. उधर बिग बी दूसरों के बच्चों के साथ ख़ुश थे तो इधर हम अपने बच्चों के साथ ख़ुश थे.
मेरी याददाश्त में मैंने इस से ख़ूबसूरत और ख़ुशगवार जन्मदिन कभी नहीं मनाया.
अब तो तीन दिसंबर की सुबह है. आज का दिन कल के दिन से बहुत भिन्न है.
प्रातः काल से ही श्रीमती के ताने-उलाहने और बेटियों के प्रवचन प्रारंभ हो गए हैं.
मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा कि कल का सुपर-हीरो इतनी जल्दी आज का खलनायक कैसे बन गया.
यह तो बात हुई अब वाले जन्मदिन की. तब वाले जन्मदिन यानी कि मेरे बचपन वाले जन्मदिन इस अब वाले जन्मदिन से थोड़े अलग हुआ करते थे.
माँ – ‘उठो लाल अब आँखें खोलो’ गाते हुए और मेरे सर पर हाथ फेरते हुए मुझे जगाती थीं (हमारे बचपन में हमारे विक्टोरियन मॉरालिटी के अनुयायी माता-पिता से हमको पुच्चियाँ नहीं मिला करती थीं).
मेरे तकिए के नीचे दो रूपये का एक कड़कड़ाता हुआ नोट रक्खा जाता था (उन दिनों हमारा पॉकेटमनी दो रुपया महीना होता था और जन्मदिन के अवसर पर हमको यह हमारे पॉकेटमनी के अतिरिक्त मिला करता था).
हम बच्चों के जन्मदिनों पर बाज़ार से पकवान मंगाए जाने की परंपरा नहीं थी. माँ ख़ुद हमारे लिए आटे का हलवा बनाती थीं और हमारी पसंद के कुछ अन्य पकवान भी तैयार करती थीं.
पिताजी को तो प्यार का इज़हार करना आता ही नहीं था. अपने जन्मदिन पर जब हम उनके पैर छूते थे तो एक हल्की सी मुस्कान के साथ उनका - ‘ख़ुश रहो !’ कहना हमारे लिए काफ़ी हुआ करता था.
हम भाई-बहन आपसी खुंदकों को याद करते हुए जन्मदिन पर एक-दूसरे को आमतौर पर बधाई नहीं दिया करते थे.
अपने जन्मदिन पर मुझ महा-ऊधमी को कैसी भी शैतानी करने पर माँ की और भाई-बहन की पिटाई और डांट से मुक्ति मिल जाती थी.
यह बात और थी कि जन्मदिन के आने वाले दिनों में अपने जन्मदिन पर की गयी मेरी शरारतों को याद कर के हमारी ममतामयी मातेश्वरी और रहमदिल भाई-बहन मेरी अतिरिक्त पिटाई कर के मेरे पिटाई-मुक्त दिवस की भरपाई कर लिया करते थे.
हाँ, हमारे गांधीवादी पिताजी ज़रूर मेरे जन्मदिन के बाद वाले दिनों में भी अहिंसा का दामन नहीं छोड़ते थे.
हमारे बचपन में हमारा जन्मदिन वह शुभ दिन होता है जिसकी कि हम साल के 364 दिन प्रतीक्षा करते हैं लेकिन हमारे बुढ़ापे में यह हमको इशारा करता है कि हमारा ऊपर का टिकट कटने का दिन अब नज़दीक है.
बचपन में जन्मदिन के बाद वाले दिनों की अतिरिक्त पिटाई और बुढ़ापे में जन्मदिन के बाद के दिनों में अतिरिक्त तानों और उपदेश को भुला दिया जाए तो जन्मदिन मेरे लिए हमेशा से स्पेशल रहा है.
तो एक बार मैं ख़ुद को थोड़ी देर से ही सही – जन्मदिन की बधाई देता हूँ –
जन्मदिन मुबारक हो जैसवाल साहब ! आप स्वस्थ रहें, सपरिवार प्रसन्न रहें ! ईश्वर से प्रार्थना है कि खुद बिना कष्ट पाए और दूसरों को बिना कष्ट दिए आराम से, निर्विघ्न, निर्विवाद, आपका ऊपर का टिकट कटे !