श्राद्ध में दान –
उन्नीसवीं शताब्दी
के प्रारम्भ में अपनी विनोदप्रियता के लिए प्रसिद्द, अवधी के कवि, बेनी कवि ने
श्राद्ध में अपने कंजूस यजमानों द्वारा दान में मिली वस्तुओं और मिष्ठान्न आदि का
उल्लेख किया है. एक यजमान ने उन्हें दान में एक बूढ़ी घोड़ी दी तो बेनी कवि ने यह
बताया कि उसी घोडी पर चढ़कर मुग़ल बादशाह बाबर हिंदुस्तान आया था. मुग़ल बादशाहों और
फिर अवध के नवाबों की सेवा करने के बाद अवकाश प्राप्त घोडी उनके यजमान तक और अंत
में बेनी कवि तक पहुंची. बेनी कवि घोडी को देखकर सोचते हैं –
‘राम कहाऊँ कि
लगाम लगाऊँ?’ (इस घोडी का अंत समय देखते हुए इससे राम-राम कहलाऊँ या इस पर सवार
होने के लिए इस पर लगाम कसूं?)
एक यजमान ने
उन्हें ऐसी रजाई दान में दी जिसको ओढ़ते ही उसका खोल और अस्तर उड़ गया और सिर्फ दो
दिन के लिए दिया जलाने की बाती के बराबर रुई शेष रह गयी –
‘सांस लेत उड़ि गयो
उपरला, दुपरला हू, दिन द्वै की, रुई हेत बाती रह गयी है.’
एक पद में
उन्होंने एक यजमान द्वारा अपने पिता के श्राद्ध में दान दिए गए पेड़ों की महिमा का
बखान किया है –
‘चींटी न चाटत, मूस न सूँघत, बास सों माखी न आवत नियरे,
आन धरे जबसे घर
में, तब से रहे, हैजा पड़ोसिन घेरे,
माटिहं में कछु
स्वाद मिले, इन्हें खाय के ढूंढ़त हर्र-बहेड़े,
चौंक परो पित लोक
में बाप, सपूत के देख सराध के पेड़े.
मूस – चूहा
बास – दुर्गन्ध
माखी – मक्खी
नियरे – निकट
हर्र-बहेड़े – पेट
ठीक करने की औषधि
पित लोक – पितृलोक
सराध – श्राद्ध
बढ़िया :)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू.
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