पहाड़ पर 31 साल से भी अधिक समय का मेरा प्रवास खट्टी-मीठी यादों से भरा हुआ
है. पर्वतवासियों का भोलापन, उनकी सादगी, उनकी बेफिक्री और अपनी संस्कृति से उनका
जुड़ाव हम सब के लिए अनुकरणीय है पर उनका मदिरा प्रेम, उनकी अकर्मण्यता, उनकी
परमुख-कातरता हम सभी पर्वत प्रेमियों को व्यथित करती है. मैंने यह कविता 1986 में
लिखी थी और एक कवि सम्मेलन में इसका पाठ किया था. हिंदी और कुमायुंनी के प्रसिद्द
कवि स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी को मेरी कविता बहुत पसंद आई थी पर उन्होंने मुझसे आग्रह
किया था कि मैं- ‘यहाँ स्वर्ग वासी बसते हैं’, पंक्ति कविता से हटा दूँ पर मैंने इस
पंक्ति को नहीं हटाया क्यूंकि मेरा दिल ऐसा करने की मुझे अनुमति नहीं दे रहा था.
पर मुझे पर्वतवासियों की नयी पीढ़ी पर यह विश्वास है कि एक दिन वह पहाड़ को वास्तव
में जीवंत स्वर्ग बनाकर मुझे अपनी कविता से यह विवादास्पद पंक्ति हटाने के लिए
विवश कर देगी.
पर्वत महिमा -
यह पहाड़ है,
गोल घूमती सड़क यहां है, कलकल बहती नदी यहां है।
ठन्डी मन्द बयार यहां है, हिम से मण्डित शिखर यहां
है।
स्वर्ण लुटाती सुबह यहां है, कुमकुम जैसी शाम यहां है।
देवदार वृक्षों से सज्जित, स्वयं धरा का स्वर्ग यहां है।
पर इनमें इन्सान कहां है, हर मन में श्मशान यहां
है।
हाला, प्याला छोड़, प्रेम रस डूबे, ऐसा मीत कहां है?
ख़ैरातों पर कटे जि़न्दगी, स्वाभिमान की रीत कहां है?
मुर्दा दिल में जान फूंक दे, ओज भरा वह गीत कहां है?
यहां मृत्यु के आर्तनाद में, जीवन का संगीत कहां है?
यह पहाड़ है,
पर पहाड़ है, विपदाओं का, निर्बलता का,
फ़ाकों, आहों,
निर्धनता का,
दुर्व्यसनों का, निर्वासन का,
कलुषित, व्यभिचारी शासन का।
स्वर्ग लोक सा यह पहाड़ है, यहां स्वर्ग वासी बसते
हैं।
जीते जी तिल-तिल मरते हैं, महा शाप से मुक्ति मिल
सके,
नित्य यही पूजा करते हैं।
यह पहाड़ है,
मानवता का तिरस्कार है, किन पापों का पुरस्कार है?
जहां जि़न्दगी ख़ुद पहाड़ हो, उस पहाड़ को नमस्कार है।
उसे दूर से नमस्कार है, बहुत दूर से नमस्कार है।
मेरा शत-शत नमस्कार है, मेरा शत-शत नमस्कार है।।
पहले लखनऊ में बैठ कर इसी तरह की कविता पढ़ी जाती थी और अब पर्वतीय राज्य बना कर कविता पाठ करने वालों को देहरादून बैठा दिया गया है ताकि आवाज दूर पहाड़ से टकरा टकरा कर लौट भी सके पाठ करने वालों के कानो में ।
जवाब देंहटाएंमियां तारीफ़ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो? जयशंकर प्रसाद ने कहा है - 'मुख कमल समीप सजे थे, दो किसलय सेपुरइन के, जलबिंदु सदृश कब ठहरे, इन कानों में दुःख किनके.' (कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता) हमारी व्यथा हम तक ही रिफ्लेक्ट कर दोगे तो जल्दी ही मंत्री-पद प्राप्त कर लोगे.
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