शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

'वह तोड़ती पत्थर'

वह तोड़ती पत्थर –
दिनभर पसीना बहाती और रात में अपने मर्द के ज़ुल्मो-सितम पर आंसू बहाती एक श्रमिक महिला की दुःख भरी गाथा कहती, निराला की कविता –‘वह तोड़ती पत्थर, इलाहबाद के पथ पर’ से सभी हिंदी-साहित्य प्रेमी परिचित होंगे. ए. सी. कमरे में सोफे पर तशरीफ़ रक्खे हुए, अपने सेल फ़ोन पर बतियाती हुई मेमसाहिबों और जेवर से ढकी, नौकर-चाकरों पर हुक्म झाड़ती सेठानियों और बेगमों को छोड़ दें तो हमारी तथाकथित अबला भारतीय नारी, आम तौर पर एक जन्म में ही इतना काम कर देती है जितना कि सबल माना जाने वाले मर्द सात जन्म में भी नहीं कर पाता है.
खेत और खलिहान में कृषक महिला, किसी कृषक की तुलना में कहीं अधिक पसीना बहाती है पर किसानों को जब संबोधित किया जाता है तो आमतौर पर सिर्फ ‘किसान भाइयो’ कहा जाता है. भव्य शो रूम्स में रक्खे एक-दो हज़ार रुपयों के चिकन के कुर्तों को खरीदने वालों को यह कहाँ पता रहता है कि इन पर खूबसूरत काम करने और इनकी सिलाई करने वाली महिलाओं को प्रति कुरता महज़ 10 या 20 रुपया मिलता है. एक आम गृहिणी सुबह से शाम तक काम करने के बाद बाहर से आये अपने पति का दौड़कर स्वागत करने से पहले ही चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा देती है. कितने घरों में पति अपनी पत्नी से यह कहते हुए सुना जा सकता है – आज तुम बहुत थक गयी होगी, चलो, थोड़ा आराम कर लो.’
मुझ जैसे नारी-उत्थान पर लम्बे लेक्चर झाड़ने वाले के श्री मुख से भी यह छोटा सा वाक्य साल में शायद एकाद बार ही निकल पाता होगा.    
मेरे मित्र प्रोफ़ेसर प्रकाश उपाध्याय ने मुझसे पहाड़ की महिलाओं और लड़कियों की कर्मठता का उल्लेख किया था. स्वयं प्रकाश की इजा को अपने काम की व्यस्तता के कारण थकने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी. पिथौरागढ़ के एक गाँव की रहने वाली हमारी इजा का सारा बचपन अपने मायके में, और उनकी पूरी किशोरावस्था व युवावस्था ससुराल में – पीने के लिए नौलों से पानी लाने में, जंगल से लकड़ी बीनने में, गाय, बैल की सेवा करने में, उनके लिए चारा काटने में, उपले बनाने में, खेती के काम करने में, और घर में खाना बनाने, कपड़े धोने व बच्चे सम्हालने में बीत गयी थी. अल्मोड़ा में भी जब बूढ़ी हो चुकी इजा प्रकाश के पास रहने को आतीं थीं तो वो उसे घर का कोई काम नहीं करने देती थीं. वो हम लोगों की खातिर करने और हम पर अपनी ममता बरसाने के लिए भी हमेशा तत्पर रहती थीं.
पहाड़ की बालाओं और महिलाओं में मुझे कहीं न कहीं प्रकाश की माँ अर्थात हमारी इजा के ही दर्शन होते हैं. मेरी कुछ जागरूक छात्राएं अक्सर क्लास में बड़ी थकी-थकी दिखाई देती थीं, मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो पता चला कि कॉलेज आने से पहले नौले से घर के उपयोग के लिए सारा पानी लाना और माँ के साथ खाना बनाना, कपड़े धोना, घर की सफाई आदि करना उन्हीं की ज़िम्मेदारी होती है जब कि उनके भाई लोग आम तौर पर मटर-गश्ती करने में या चरस-गांजे की खोज में व्यस्त रहते हैं.
सैनिक छावनी से लगे गाँव दुगालखोला में मेरे जीवन के 23 वर्ष बीते हैं. इस अर्ध-शहरी गाँव में अच्छे-खासे खाते-पीते घरों की लड़कियां और महिलायें गाय चराती हुई, घास काटकर उसका गट्ठर बनाकर अपने सिर पर उसे ढोती हुई और नल में पानी न आने पर नौले से पानी लाती हुई देखी जा सकती थीं. हमारे पड़ौस में एक पतली, दुबली, छोटी सी आंटी रहती थीं. उनके दो बेटे थे, बड़ा चिर-रोगी और छोटा गंजेड़ी. आंटी ही घर का सारा काम सम्हालती थीं. अपने घर से सौ मीटर नीचे सड़क तक गैस का खाली सिलिंडर ले जाना और वहां से भरा हुआ सिलिंडर लाने का काम भी आंटी ही करती थीं जब कि उनसे बीस बरस छोटा और उनसे दुगुने से भी ज्यादा वज़न का यह नाचीज़ इस काम के लिए हमेशा किसी मेट की खोज में रहता था.
हमारे यहाँ साफ़-सफाई का काम करने के लिए आने वाली शांति की इजा सी परिश्रमी महिला मैंने कभी देखी ही नहीं. सेना में ड्राईवर की विधवा, शांति की इजा को मिलने वाली फैमिली पेंशन उस के बड़े परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थी. उसके पति के फण्ड का पैसा उसके जेठ और उनके लड़के खा गए थे. शांति की इजा घरों में साफ़-सफाई का काम करती थी, मेट न मिलने पर हमारा गैस सिलिंडर लाने-ले जाने का काम भी वही करती थी. अपने माल गाँव के घर में वह गाय पालती थी, 10-12 नाली के खेत में अनाज और सब्जी बोती थी और फुर्सत में मकानों के लिए सीमेंट के ब्लॉक्स भी बनाती थी. अपनी कमाई से ही उसने अपनी तीन बेटियों की शादी की और अपने लिए पक्का मकान बनाया. बुढ़ापे में जब वह कठोर श्रम करने के लायक नहीं रही तो उसने दुगालखोला में ही बच्चों के एक स्कूल में आया का काम कर लिया.            
दुगालखोला से नीचे के माल गाँव से अपने सिरों पर बड़ी-बड़ी टोकरियों में सब्जी रखकर उसे बाज़ार में बेचने की ज़िम्मेदारी वहां की बहू-बेटियों की हुआ करती थी. इस सौदे को बेचकर मिलने वाले पैसे से आम तौर पर गृह-स्वामी जुआ खेलने और नशा करने का दायित्व निभाते थे और अन्तःपुर में इसका विरोध होने पर, इस विरोध को दबाने के लिए अपने पशु-बल का प्रयोग किया करते थे.
मुझे तब बहुत खुशी हुई थी जब प्रसिद्द कवि और रंगकर्मी स्वर्गीय बृजेंद्र लाल साह ने मुझे  बताया था कि अब गाँव की महिलाएं सौदा बेचकर उसका पैसा अपने घर वाले को देने के बजाय उसका इस्तेमाल अपने बच्चों के स्कूलों की फीस भरने और उनके लिए कॉपी, किताब, पेंसिल, बस्ते आदि खरीदने में करने लगी हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने मर्द की गालियाँ और उसकी मार ही क्यूँ न खानी पड़ें. इतनी प्रतिकूल परिस्थितयों में भी पर्वत-बालाएं धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में न केवल बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं अपितु अपने योगदान से उनकी शोभा में चार चाँद लगा देती हैं. पहाड़ की, विशेषकर, वहां के गाँवों की अर्थव्यवस्था तो स्त्रियों के सक्रिय सहयोग के बिना एक ही दिन में चरमरा जाएगी. रोज़गार के लिए परदेस गए मर्दों की अनुपस्थिति में कुशल गृह-संचालन कोई पहाड़ की स्त्रियों से सीखे.  
एक विद्यार्थी के रूप में पहाड़ की लड़कियां वहां के लड़कों की तुलना में अधिक जागरूक, अधिक अनुशासित और प्रतिबद्ध हैं. मादक पदार्थों का सेवन करने वाली महिलायें उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं जबकि इस पुनीत कार्य में लिप्त महापुरुषों की संख्या लाखों में होगी. मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ की बालाएं-महिलाएं अधिक सुरक्षित हैं और पहाड़ में महिला-उद्यमिता को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता है. लेकिन समस्त भारत की ही तरह पहाड़ में भी कन्याओं और महिलाओं को अधिक सम्मान, अधिक महत्त्व और अधिक अधिकार दिए जाने की आवश्यकता है ताकि हमारे पहाड़ में और अन्नपूर्णा (हिमालय पुत्री पार्वती) उत्पन्न हो सकें, और शिवानी अपनी लेखनी से साहित्य की शोभा बढ़ाएं, और गौरा  देवी हों ताकि पहाड़ हरे-भरे रहें, और बेचेंद्री पाल हो ताकि लड़कियों के हौसलों की बुलंदी हिमालय से भी अधिक ऊंचाइयों तक पहुँच जाये.                                      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें