रविवार, 18 सितंबर 2016

सुलेख

सुलेख
कैलीग्राफी अर्थात सुलेख अपने आप में एक स्वतंत्र कला भी है और अलंकरण के लिए भी इसका उपयोग होता है. यदि आप ताजमहल के भीतरी कक्ष में प्रवेश करेंगे तो आपको उसकी दीवालों पर छत से लेकर फ़र्श तक काले रंग में लिखी कुरान की आयतें दिखाई देंगी जो इस कक्ष की पवित्रता को बढ़ाने के साथ-साथ उसका सौन्दर्य भी बढ़ाती हैं. प्राचीन काल और मध्यकाल में सुलेख-विशेषज्ञों की चांदी थी. धर्मं-ग्रंथों, इतिहास-ग्रंथों और साहित्यिक-ग्रंथों की प्रतियाँ तैयार करने में उनकी सेवाएँ ली जाती थीं और वह भी मुंह-माँगी कीमत पर.   
कहा जाता है कि व्यक्ति की लिखावट उसके व्यक्तित्व का आयना होती है. मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर कर यह कहता हूँ  कि ये कहावत निहायत गलत है, भ्रामक है और अगर यह सही भी है तो कम से कम मुझ पर तो यह लागू नहीं होती. मेरे इस प्रबल विरोध का एक मात्र कारण यह है कि सुलेख से मेरा उतना ही करीबी रिश्ता है जितना कि कबीरदास जी का कलम-दवात और पोथियों से था, जितना कि बाबू जगजीवन राम का सुन्दरता से था, जितना कि राहुल बाबा का बुद्धि-विवेक से है या जितना कि नरेन्द्र भाई मोदी का मितभाषिता से है.        
  हमारे घर में हमारे पिताजी और बहनजी की राइटिंग साधारण, किन्तु मेरी माँ और मेरे तीनों भाइयों की राइटिंग बहुत शानदार थी. लखनऊ में, 1956 में बिना तख्ती-पूजन के मेरी शिक्षा-दीक्षा प्रारम्भ हुई. हमारे स्कूल, बॉयज़ एंग्लो बेंगाली इन्टर कॉलेज में न तो तख्ती-खड़िया का रिवाज़ था और न ही स्लेट का. कागज़-पेन्सिल पर ही उल्टी-सीधी चील-कौए जैसी आकृतियों को बना-बना कर मैं उन्हें ‘अ’, ‘आ’, ‘इ’, ‘ई’ आदि कहने लगा. मेरे भाइयों के अनुसार 1956 के बाद आने वाले भूकम्पों के कारणों में कागज़ों पर उकेरे गए मेरे सुन्दर अक्षर भी अवश्य रहे होंगे.
अपने दुर्बोध हस्तलेख के कारण कितनी बार मेरी कान-खिंचाई हुई होगी, इसकी गिनती करना मुश्किल है पर मेरे भाई लोग पुराने ज़माने में इसका हिसाब ज़रूर रखते थे. दुर्भाग्य से जब मैंने पढ़ाई शुरू की थी तो मेरे तीनों भाई मेरे ही स्कूल में पढ़ते थे और उनकी शुमार वहां के अच्छे विद्यार्थियों में की जाती थी. मेरे सभी गुरु-जन उन्हें जानते थे पर वो यह मानने को क़तई तैयार नहीं होते थे कि यह चील-कौए बनाने वाला इन्हीं सु-लेखकों का भाई है. स्कूल में कान-खिंचाई और घर में उपहास वाली खिंचाई के कारण मैं भगवान से रोज़ प्रार्थना करता था कि मेरा स्कूल भाइयों के स्कूल से अलग हो जाय.      

मुझे देवनागरी लिपि में सबसे ज्यादा खराबी यह लगती है कि हर अक्षर और शब्द पर छत (शिरो-रेखा) लगानी पड़ती है पर इस राज-मिस्त्री वाले काम में मैं आज भी कच्चा हूँ. वैसे रोमन लिपि में भी स्माल लेटर्स की क्या ज़रुरत है? स्माल ‘आर’ और स्माल ‘एन’ में इतना कम फ़र्क क्यूँ है कि मेरे द्वारा लिखे गए ‘chain’ को ‘chair’ पढ़ते हैं. स्माल ‘आई’ और स्माल ‘जे’ में ये सुहाग वाली बिंदी लगाने की क्या ज़रुरत है? और स्माल ‘टी’ की क्या हर बार गर्दन काटना ज़रूरी है? क्या रोमन लिपि में केवल कैपिटल लेटर्स से काम नहीं चल सकता था? क्या रोमन लिपि को प्रचलित करने वालों को इस बात का इल्म नहीं था कि भविष्य में कुछ होनहार बिरवान को स्माल लेटर्स लिखने में बहुत कठिनाई होने वाली है?
देवनागरी और रोमन लिपि दोनों के ही, मेरे हस्तलेख की, यह विशेषता है कि अक्षरों का आकार कभी एक सा नहीं होता और न ही, वो सैनिक अनुशासन का पालन करते हुए कभी सीधी कतार में चलते हैं. अब सांप-सीढ़ी के खेल जैसी इस लिखावट से पढ़ने वाले को कोई दिक्कत होती हो तो यह उसका सर-दर्द है, मेरा नहीं.
खैर धीरे-धीरे मैंने ऐसा लिखना सीख लिया कि पढ़ने वाला थोड़ी आँख गड़ा के, थोड़ा दिमाग लगा के, उसे पढ़ सके. अब मेरी लिखावट हड़प्पा सभ्यता की उस लिपि की भांति दुर्बोध नहीं रह गई थी जिसे कि आज भी डिसाइफ़र नहीं किया जा सका है. पर कुछ अक्षरों और शब्दों को लिखने में मुझे अपनी नानी याद आ जाती थी. ‘ह्रदय’, ‘ब्राह्मण’ ‘ह्रास’ आदि शब्द तो मेरी जान के दुश्मन बन जाते थे. मेरा बस चलता था तो मैं ‘ह्रदय’ के स्थान पर ‘दिल’ या ‘मन’, ‘ब्राह्मण’ के स्थान पर ‘विप्र’ और ‘ह्रास’ के स्थान पर ‘हानि’ का उपयोग कर लेता था.
मेरे सहपाठी मेरे राइटिंग को देखकर यह आशा करते थे कि परीक्षा में मेरा, या तो डब्बा गुल होगा या मैं जैसे-तैसे उत्तीर्ण हो पाऊंगा. पर उत्तर-पुस्तिकाओं में उत्तर लिखते समय मैं तीन घंटे का प्रश्नपत्र आम तौर पर ढाई-पौने तीन घंटों में ही कर लेता था और शेष समय मैं अक्षरों-शब्दों की अस्पष्ट आकृतियों को सुबोध बनाने में और उनके ऊपर छतें (शिरो-रेखा) बनाने में खर्च करता था.
मैं अपने सभी परीक्षकों का शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने मेरे हिंदी-अंग्रेज़ी लेखन के गुण(?)-दोषों पर ध्यान न देते हुए मेरे उत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़ा और फिर उन पर अच्छे-खासे अंक भी दिए. बुंदेलखंड कॉलेज, झाँसी से बी. ए. में और लखनऊ यूनिवर्सिटी से मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए.,  दोनों में ही मैंने जब टॉप किया तो अपने सुलेख के लिए प्रसिद्द मेरे अनेक प्रतिद्वंदियों ने क्षुब्ध होकर अपने-अपने फाउंटेन पेन तोड़ दिए.            
एम. ए. की अग्नि-परीक्षा के बाद मैंने अपनी लिखावट को उन्मुक्त छोड़ दिया. अब लिखावट पर अंक काटे जाने का भय समाप्त हो गया था. पर अपनी पीएच. डी. थीसिस ‘सरमद और उसका युग’ टाइप कराते वक़्त फिर बहुत परेशानी हुई. देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा में लिखी मेरी थीसिस की पांडुलिपि पढ़ने में मेरा टाइपिस्ट ज़ार-ज़ार रोता था. मैंने उसे हिदायत दी थी कि वो पहले मेरा लिखा हुआ पढ़कर मुझे सुनाएगा, फिर उसे टाइप करने ले जाएगा. पर मेरा सुलेख पढ़ते समय अक्सर वो मुझसे पूछता हुआ मिल जाता था –
सर, ये ‘मलाई’ है या ‘भलाई’?
‘मूल’ है ‘भूल’?
‘मेघा; है या ‘मेधा’?
‘रवाना’ है या ‘खाना’?    
मेरी थीसिस में अरबी-फ़ारसी शब्दों की भरमार थी, उनको टाइप कराने में उसको और मुझको, दोनों को ही, अपनी-अपनी नानियाँ याद आ जाती थीं. पर मैं आगे यह नहीं बताऊंगा कि वो पट्ठा ‘परवाने’ को क्या समझता था. मुझे रात-रात भर बैठकर अपने सामने ही सब-कुछ टाइप करवाना पड़ता था. आज से चालीस साल पहले कंप्यूटर टाइपिंग तो थी नहीं, इसलिए भूल-सुधार की गुंजाइश बहुत कम रहती थी. पर मेरे सुलेख के कारण तो इतनी गड़बड़ी होती ही थी कि दुबारा-तिबारा टाइप किये बगैर फाइनल ड्राफ्ट कभी तैयार ही नहीं हो पाता था. 
मुझे अच्छे हैण्ड राइटिंग वाली धर्म-पत्नी पाकर बहुत प्रसन्नता हुई. टाइपिस्ट को दिए जाने से पहले मेरे अनुरोध पर वो मेरे लेखों, कहानियों और कविताओं को जब अपनी लिखावट में उतार देती थीं तो मानो उनकी सूरत तो क्या उनके भाव और उनके अर्थ तक बदल जाते थे. और मेरे दुष्ट टाइपिस्ट मुझसे कहते थे –
‘सर मैडम का लिखा, टाइप करने का तीन रुपया पर पेज और आप वाले का, 5 रुपया पर पेज लगेगा.’
आकाशवाणी अल्मोड़ा के कार्यक्रमों में मेरी और मेरी श्रीमतीजी की बहुत भागेदारी रहती थी. पर वहां भी मेरी लिखावट के शत्रु बैठे थे. सब मुझसे यही अनुरोध करते थे कि या तो मैं अपनी कहानी, कविता या वार्ता, श्रीमती जैसवाल से लिखवा कर दूँ या उसे टाइप करवा कर दूँ.
मेरी बड़ी बेटी गीतिका तब सात साल की थी. अपनी उम्र के हिसाब से वो कुछ ज़्यादा ही अच्छा बोलती थी. आकाशवाणी के एक प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव परिमू साहब से मैंने उसे मिलवाया. गीतिका ने अपनी एक वार्ता उन्हें पढ़कर सुनाई तो उन्होंने स्टूडियो में फ़ौरन उसे रिकॉर्ड कर लिया. रिकॉर्डिंग करने के बाद कॉन्ट्रैक्ट पेपर पर हस्ताक्षर करने की बारी आई. बच्चे के कॉन्ट्रैक्ट पेपर पर बच्चे और उसके अभिभावक दोनों के ही हस्ताक्षर होते हैं. जब गीतिका ने अपने और अपने पापा के हस्ताक्षर किया हुआ कॉन्ट्रैक्ट पेपर परिमूजी को दिया तो उन्होंने उसे देखकर एकदम गंभीर होकर गीतिका से कहा –
‘गीतिका, तुम तो बहुत प्यारी बच्ची हो, इतना अच्छा बोलती हो. पर तुमने ये गन्दी बात क्यों की? तुमको अपने पापा के सिग्नेचर करने की क्या ज़रुरत थी?’
परिमू साहब का सवाल और उनका गुस्सा बेचारी गीतिका के तो पल्ले पड़ा नहीं पर मैं सब कुछ समझ गया. मैंने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘परिमू साहब, ये सिग्नेचर मेरे ही हैं.’.                           
अब परिमू जी का चेहरा देखने लायक था. कुछ देर तक भौंचक्के रहकर, मेरी बात को जैसे अन-सुना कर उन्होंने गीतिका से कहा –
सॉरी बेटा, मैंने समझा था कि तुमने कोई शरारत की है. तुम्हारे पापा ने देखो, कितने मज़ेदार सिग्नेचर किए हैं, तुम्हारी राइटिंग तो उनसे बहुत अच्छी है.’
ऊपर से हँसते हुए मैं सोच रहा था –
‘सात साल की लड़की की राइटिंग अच्छी और उसके बाप की ख़राब? बच्चू, तुमसे कई और कार्यक्रम न लेने होते तो मैं तुम्हें बताता.’
घर में अग्रेज़ी टाइपराइटर आने के बाद अंगेज़ी में टाइप करने वाले काम में मैं पूर्णतया आत्म-निर्भर हो गया पर हिंदी में 1998 तक टाइप कराने के लिए कभी श्रीमतीजी से तो कभी अपनी बेटियों से फेयर ड्राफ्ट तैयार करने की मुझे खुशामद करनी पड़ती थी. 1998 में घर में कंप्यूटर आने के बाद क्रान्ति आ गई. मैंने हिंदी टाइपिंग भी सीख ली. अब न किसी टाइपिस्ट की खुशामद, न श्रीमतीजी से अनुनय-विनय और न ही बेटियों के मक्खन लगाने की ज़रुरत. अब तो कबीरदास की तरह से कागज़ और कलम को छूने की ज़रुरत ही नहीं. कम्प्यूटर पर बैठकर ही सोचो, टाइप करो, ज़रुरत हो तो रि-टाइप करो, करेक्शन करो, जो चाहे जोड़ो, जो चाहे घटाओ. न अक्षर छोटे-बड़े होने का डर, न लाइन टेढ़ी-मेढ़ी होने की आशंका, न ‘ह्रदय’ जैसे शब्दों का आतंक, न ‘भलाई’ को ‘मलाई’ समझकर उसे खाने की चाहत. वाह ! जैसवाल साहब तो अब सुलेखक बन गए.         
कंप्यूटर युग ने हमारे जैसे राइटिंग वालों को आत्मनिर्भर और इज्ज़तदार बना दिया है. एक बार गीतिका ने मेरी एक कविता का प्रिंट आउट अपनी अम्मा को दिखाया. गीतिका की अम्मा अर्थात हमारी माताजी ने फ़रमाया –
‘कविता अच्छी है पर लिखावट तो बहुत ही अच्छी है. तेरा पापा तो पहले चील-बिलौटे बनाता था, अब देख कैसी मोतियों जैसी राइटिंग हो गई है.’    
सुनते हैं कि अब कहीं-कहीं परीक्षार्थियों को कम्प्यूटर के प्रयोग की सुविधा दी जाने लगी है. मेरे जैसे हस्तलेख विशेषज्ञ विद्यार्थियों के लिए तो यह समाचार एक वरदान सिद्ध होगा.
आज इन्टरनेट बैंकिंग के ज़माने में तो दस्तख़त करने की ज़रुरत भी बहुत कम पड़ती है. पेपर सेट करते समय ज़रूर इतनी सावधानी बर्तनी पड़ती है कि मेरे द्वारा लिखे गए का कुछ और न पढ़ लिया जाय पर अब मैंने खुद को पेपर सेटिंग के इस कठिन दायित्व से मुक्त कर लिया है. हाँ, अपने पत्रों पर अगर  पता मुझे खुद ही लिखना होता है तो मैं श्रीमतीजी की शरण में जाए बिना, उसे अंग्रेज़ी के कैपिटल लेटर्स में लिख देता हूँ.
मैंने आज से 60 साल पहले राइटिंग के आधार पर किसी की योग्य-योग्य मानने की मानसिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाया था. तब लोगबाग मेरी बात पर हँसते थे पर आज कम्प्यूटर पर मेरी उँगलियाँ चाहे सीधी पड़ें या टेढ़ी, उससे टाइप होने वाले अक्षर-शब्द आदि सभी खूबसूरत, सुडौल और एक सांचे में ढले होते हैं.

अगर मेरे पाठक गण मेरा आकलन करेंगे तो वो मानेंगे कि मैं अपने समय से बहुत आगे था. बीसवीं शताब्दी के छठे-सातवें दशक में ही मैंने कम्प्यूटर की ज़रुरत पर प्रकाश डाला था. अफ़सानों में मुझे ल्योनार्दो दा विन्ची, राजा राम मोहन रॉय और ए. पी. जे अब्दुल कलाम की तरह ‘फ़ार अहेड ऑफ़ हिज़ टाइम्स’ कहा जाएगा.

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सुन्दर। लिखते रहिये :)

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू, तुम जैसे मित्र प्रोत्साहित करते हैं तो कम्प्यूटर पर उँगलियाँ अपने आप थिरकने लगती हैं.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "छोटा शहर, सिसकती कला और १४५० वीं ब्लॉग बुलेटिन“ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. ब्लॉग बुलेटिन में मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद. मुझे ब्लॉग बुलेटिन पढ़ने में बहुत आनंद आता है.

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 21 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. धन्यवाद दिग्विजयजी. मैं आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ. आपके ब्लॉग से जुड़ना मेरे लिए गर्व की बात है. 21 सितम्बर के अंक का मुझे इंतज़ार रहेगा.

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  4. अरे बाप रे! आपने तो बहुत पुराने यादों को खूब याद करवा लिया .. हम तो खड़िया-पाटी वाले थे .. लेकिन कभी सोचा न था एक दिन कंप्यूटर देवता भी होंगे हमारे साथी ...
    बहुत रोचक प्रस्तुति

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  5. धन्यवाद कविताजी. हमारा स्कूल कुछ ज़्यादा ही स्पेशल था. खैर स्कूल को क्या इलज़ाम दूं , मेरी लेखन-चाल ही कुछ तिरछी-तिरछी थी और आज भी है. कम्प्यूटर देवता मेरे लिए तो वरदान बन कर आए हैं. उन्हीं की कृपा से रोज़ कुछ नव-सृजन की प्रेरणा मिल जाती है.


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