रविवार, 7 मई 2017

ये स्पेशल भाभीजियां

ये स्पेशल भाभीजियां –
ये किस्सा मेरी अपनी तीन भाभीजियों का नहीं हैं क्योंकि वो सभी सामान्य किस्म की भाभीजियों की केटेगरी में आती हैं. मैं तो इस में सिर्फ़ अविस्मरणीय, हैरतअंगेज़ और स्पेशल किस्म की चार भाभीजियों का ज़िक्र करने जा रहा हूँ.
पहला क़िस्सा मेरे लखनऊ प्रवास का है, स्वीट 25 वाला. उन दिनों मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर था. लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर होते ही मैंने साल भर के अन्दर रेगुलर एक्सरसाइज़, टेनिस और संयमित आहार से अपनी दस-बारह साल पुरानी गोलमटोल गोलगप्पे वाली छवि उतार फेंकी थी. लोगों की दृष्टि में और खुद अपनी दृष्टि में मैं अच्छा-खासा स्मार्ट हो गया था. कुछ मेरे फ़ीचर्स, कुछ मेरे घुंघराले बाल, और कुछ मेरी आँखें, लोगों को संजीव कुमार की याद दिला देती थीं और मैं विनम्रतापूर्वक उनके कॉम्प्लीमेंट्स को स्वीकार भी कर लेता था.
उन दिनों हमारे श्रीश भाई साहब आगरा में केन्द्रीय हिंदी संस्थान में पढ़ाते थे और मैं आए दिन आगरा के चक्कर लगाया करता था. भाई साहब और भाभी के मित्रगण मेरे भी दोस्त बन गए थे. इन में एक भाभी जी अक्सर मुझसे कहती थीं –
‘गोपेश भाई, आप तो फ़िल्म स्टार लगते हैं.’
अब गोपेश भाई विनम्रता से – ‘हें, हें’ करते हुए इस कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार कर लेते थे. एक दिन श्रीश भाई साहब ने उन भाभी जी से पूछ ही लिया –
‘ज़रा बताइए तो हमारा गोपेश आपको किस फ़िल्म स्टार जैसा लगता है?’
भाभी जी बोलीं – अरे क्या नाम है उसका? ज़ुबान पर नहीं आ रहा है. हाँ, उसका पापा भी फ़िल्म स्टार है.’
अब यह सुनकर तो मेरा दिल बैठ गया क्यूंकि मेरे हमशक्ल संजीव कुमार के पापा तो फ़िल्म लाइन में थे नहीं. मेरे दिल में हलचल हो रही थी. पता नहीं भाभी जी अब किस हीरो को मेरा हमशक्ल बताने वाली हैं.
भाभी जी एक दम से चहक कर बोलीं – ‘हाँ याद आ गया. अपने गोपेश भाई हूबहू कॉमेडियन आगा के बेटे जलाल आगा जैसे लगते हैं.’
पाठक नोट करें. ‘दिल के अरमां, आंसुओं में बह गए’ नग्मा फ़िल्म ‘निक़ाह’ में आने से पहले मेरे दिल से आह की शक्ल में निकला था.
आतिथ्य सत्कार में अल्मोड़ा प्रसिद्द हमारी एक भाभी जी पापड़ पर शायद मुक्का मार कर उसके पचास टुकड़े कर के आधी-आधी चाय की प्यालियों के साथ अतिथियों का सत्कार करती थीं. इतिहास में पहली बार क्रीम बिस्किट को बीच में से चीरकर एक बिस्किट के दो बिस्किट बनाने का हुनर मैंने उन्हीं के यहाँ देखा था. हमारी छोटी बिटिया रागिनी उन दिनों चार साल की रही होगी. कंजूस आंटी के यहाँ बीच में से चीरे हुए क्रीम बिस्किट्स पाकर वह बड़ी प्रसन्न हुई. उसने बिस्किट खाए तो नहीं पर उन में लगी क्रीम चाट-चाट कर बिस्किट्स प्लेट में वापस रख दिए. यह नज़ारा देखकर भाभी जी का दिल बैठा जा रहा था हम लोग रागिनी को इस गुनाहे-अज़ीम के लिए डांट ही रहे थे कि भाभी जी ने आह भरते हुए कहा –
‘भाई साहब जो नुक्सान होना था, वो तो हो ही गया, अब आप लोग कुछ और खाने से पहले रागिनी के झूठे बिस्किट्स खाकर उन्हें ख़त्म कीजिए.’
हमारी एक भाभी जी पूरे अल्मोड़ा में अपनी बेतकल्लुफ़ी के लिए प्रसिद्द थीं. हमारे यहाँ जब कभी आती थीं तो चाय पीते समय मेरी श्रीमती जी से कहती थीं – भाभी जी ये चाय का तक़ल्लुफ़ आपने बेकार किया. आप तो हमको दो-दो चपाती के साथ दाल-सब्ज़ी खिला दीजिए. अब पहाड़ पर इतना चल कर फिर घर लौट कर खाना बनाने की ताक़त किस में बच पाती है?’
सपरिवार चाय, नाश्ते के बाद भोजन कर के जब भाभी जी हमारे घर से निकलतीं तो हम सब से यह वादा लेकर जातीं कि हम अगले रविवार को सपरिवार उनके यहाँ लंच पर पहुंचेंगे.
उन दिनों न तो हमारे यहाँ फोन था और न ही हमारे मित्रगणों के यहाँ. पहले से निश्चित कार्यक्रम के अनुसार ही हम लोग एक दूसरे के यहाँ पहुँच जाते थे. पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जब हम भाभी जी के यहाँ लंचियाने पहुँचे तो मकान के दरवाज़े एक बड़ा सा ताला हमारा स्वागत कर रहा था. हम भूखे और गुस्से से भरे एक रेस्तरां में पहुंचे. पेट की आग तो शांत हुई पर दिल में जो आग लगी थी वो तो भाभी जी और उन के पतिदेव की मरम्मत कर के ही शांत हो सकती थी. पर इस कहानी का क्लाईमेक्स अभी बाक़ी है. इस दुर्घटना के एक सप्ताह बाद हमको अपराधी दंपत्ति बाज़ार में मिल गया. मेरे तानों और उलाहनों की बरसात शुरू होने से पहले ही भाभी जी ने हमको अपने घर से गायब होने का एक ठोस बहाना दिया. हमको मजबूरन उनको माफ़ करना पड़ा. पर भाभी जी ने हाथ जोड़ कर कहा –
‘आप लोगों ने ज़ुबानी तो हमको माफ़ कर दिया पर दिल से नहीं किया. हम अगले रविवार को खुद माफ़ी मांगने आपके घर आएँगे. और हाँ, भाभी जी, आप चाय-वाय का तक़ल्लुफ़ मत कीजिएगा, सीधे ही सादा सा खाना हमको खिला दीजिएगा.’
अल्मोड़ा में हमारी एक और भाभी जी थीं, स्मार्ट, मॉडर्न और अच्छी खासी स्नॉब. इंग्लिश मीडियम में पढ़ी-लिखी ये भाभी जी हिंदी मीडियम की पढ़ी महिलाओं को काम वाली बाई से ज़्यादा नहीं समझती थीं और आमतौर पर भाभीजियों के बजाय हम भाई साहबों की कंपनी में ही बैठना पसंद करती थीं. इन भाभी जी वाले भाई साहब काफ़ी ठिगने और बेकार से थे. इस दंपत्ति को अपनी रईसी बघारने का बहुत शौक़ था.
हमारे रईस दोस्त अपने बेटे का बर्थ डे बहुत धूम-धाम से मनाते थे एक बार उनके बेटे के जन्मदिन की पार्टी में हम लोग गए. जाड़ों के दिन थे. मैंने अपनी शादी के दिनों वाला सूट निकाला और उसे पहनकर उस पार्टी में पहुंचा. पचास लोगों के बीच भाभी जी ने हमारा स्वागत किया फिर वो मुस्कुराती हुई बोलीं –
‘भाई साहब आप इस सूट में बहुत जंच रहे हैं पर आपको शायद याद न हो, यही सूट आपने हमारे बेटे की पिछली बर्थ डे पार्टी में भी पहना था.’
लोगबाग भाभी जी की बात सुनकर चुप रहे, उनको पता था कि यह दुष्ट जैसवाल कोई न कोई क्रांतिकारी जवाब ज़रूर देगा. मैंने हाथ जोड़कर भाभी जी को एक सवालनुमा जवाब दिया –
‘भाभी जी, सबके सामने और ख़ासकर मेरी श्रीमती जी के सामने आप मुझमें इतनी दिलचस्पी मत लिया करिए. आप को अब तक याद है कि आप के बेटे की बर्थ डे में मैंने पिछले साल क्या पहना था, पर क्या आपको पता है कि आज आप के पतिदेव ने क्या पहना है?’
मेरे इस भोले से सवालनुमा जवाब का घातक परिणाम निकला. स्मार्ट भाभी जी ने अगले साल से अपने बेटे की बर्थ डे पार्टी में हमको बुलाना छोड़ दिया.
अभी तो और भी भाभीजियों के किस्से सुनाने बाक़ी हैं पर आज बस इतना ही.


2 टिप्‍पणियां: