सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

सती -



सती
                 बंगाल प्रान्त के बर्दवान जिले के राधानगर गांव में एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार का एक बालक, राममोहन बहुत दुखी था। उसके बड़े भाई की अचानक ही मृत्यु हो गई थी। घर में शोक का वातावरण था पर एक ओर शोर भी था। कुछ महिलाएं ऊँचे स्वर में किसी को भला-बुरा कह रही थीं। राममोहन के कानों में कुछ ऐसी बातें पड़ रही थीं-
अभागी! आते ही पति को खा गई। यह तो हमारे कुल का सर्वनाश कर देगी। वहीं चली जाए जहां इसने हमारा बेटा भेज दिया है। इसके सती होने में ही परिवार और समाज का भला है। इसे सती होना चाहिए! इसे सती हो जाना चाहिए! बोलो सती मैया की जय !
                राममोहन ने देखा कि अभी-अभी विधवा हुई उसकी भाभी को घेर कर महिलाएं यह सब कह रही हैं। भाभी को भला-बुरा कहते-कहते अचानक सती मैया का जय-जयकार क्यों होने लगा,  यह नन्हे राममोहन के समझ में बिल्कुल नहीं आया। उसने अपनी माता श्रीमती फूल थाकुरानी से इन बातों का कारण पूछा तो उन्होंने अपने आंसू पोंछते हुए उसे बताया -
तेरी भाभी के दुर्भाग्य से हमारा बेटा हमको छोड़कर भगवान के पास चला गया है। यह अभागी विधवा हो गई है। इसका घर में रहना इसके लिए और सारे परिवार के लिए अशुभ होगा। पर हां,  अगर यह सती हो जाती है तो इसे स्वर्ग मिलेगा और हमारे कुल का नाम भी समाज में ऊँचा होगा।
राममोहन ने फिर पूछा -
माँ! सती किसे कहते हैं?  मेरी भाभी सती कैसे होंगी?
राममोहन की माँ ने उत्तर दिया – 
जो स्त्री अपने पति को अपना भगवान मानती हो और उसके बिना जीवित रहने को तैयार न हो वह सती कहलाती है। तेरी भाभी तेरे भैया की चिता में बैठ कर उसके शव के साथ ही जल कर सती हो जाएगी।
                बालक राममोहन इस भयानक घटना की कल्पना करके ही कांप गया। उसकी प्यारी सी भाभी, उसके खेल की साथी,  बिना किसी अपराध के जि़न्दा जला दी जाएगी और इस हत्या से पाप लगने के स्थान पर उल्टे कुल का और समाज का भला होगा, यह बात उसकी समझ से बाहर थी। महिलाएं जबर्दस्ती उसकी रोती हुई भाभी का दुल्हन की तरह श्रृंगार कर रही थीं। राममोहन दौड़कर अपनी भाभी के पास पहुंचा और उसने उसका हाथ पकड़ लिया। उसने चिल्लाते हुए कहा-
मैं अपनी भाभी को सती नहीं होने दूंगा। भैया के मरने में भाभी का क्या दोष है?  मैं किसी को इनकी हत्या नहीं करने दूंगा।
                राममोहन का चिल्लाना सुनकर लोग-बाग उसके आस-पास जमा हो गए। उसे लगा कि अब सब उन दुष्ट महिलाओं से उसकी भाभी को बचा लेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ,  उल्टे एक आदमी ने बढ़कर राममोहन को पकड़ लिया और दूसरे ने उसके गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया। राममोहन की माँ दौड़कर उसके पास पहुंचीं पर वह भी उसकी मदद करने के स्थान पर उसे ही डांटकर कहने लगीं -
अभागे ! अधर्म की बात करता है?  सती प्रथा का पालन करने में बाधा पहुंचाएगा तो सीधा नरक जाएगा।
                राममोहन के देखते-देखते धर्म के ठेकेदार उसकी भाभी को घसीटते हुए उसके पति की चिता तक ले गए। वह बेचारी प्राणों की भीख मांगती रही पर वहां शंख,  घडि़याल और ढोल की आवाज़ में उसकी पुकार सुनने वाला कौन था?  दो पल में ही रोती-चीखती, दया की भीख मांगती, राममोहन की बेबस भाभी आग की लपटों में समा गई। सती मैया के जय-जयकार ने राममोहन के दुख को और बढ़ा दिया। बालक राममोहन की आँखों के आंसू अब सूख चुके थे,  उनमें अब अंगारे थे। उसने सती की  चिता की गर्म राख को मुट्ठी में भरकर प्रण किया -
मैं आज यह शपथ खाता हूं कि इस हत्यारी प्रथा का समाज से नामो-निशान मिटा दूंगा। चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान की बाज़ी ही क्यों न लगानी पड़े।
                उस दिन से राममोहन को रीति-रिवाज के नाम पर भांति-भांति की कुरीतियों और अंध-विश्वासों से चिढ़  हो गई। जब उसने पण्डितो और मौलवियों को धर्म के नाम पर भोले-भाले ग्रामवासियों को ठगे जाते देखा तो उसके हृदय में उनके प्रति भी कोई श्रद्धा नहीं रह गई। कुछ दिनों पहले तक सामान्य बालकों की तरह उछल-कूद करने वाला राममोहन अब धीर-गम्भीर हो गया था। वह दिन-रात पुस्तकों का ही अध्ययन करता रहता था। इन पुस्तकों में धार्मिक ग्रंथ भी होते थे और नीति व दर्शन के भी। \
राममोहन ने हिन्दू धर्म के सच्चे स्वरूप को जानने का प्रयास किया। उसने हिन्दू धर्म के आधार ऋग्वेद, सहित चारो वेदों का अध्ययन किया पर यह जानकर उसे आश्चर्य हुआ कि सनातन हिन्दू धर्म वैदिक परम्पराओं से बहुत दूर चला गया है। ऋग्वेद में ईश्वर के एकत्व और उसके निराकार होने पर बल दिया गया है। मूर्तिपूजा, बहुदेव-वाद और अवतारवाद का उसमें कोई स्थान नहीं है। राममोहन ने धर्म के इसी रूप को स्वीकार किया और मूर्तिपूजा से मुंह मोड़ लिया। उसके सनातनी परिवार को उसका धार्मिक विद्रोह सहन नहीं हुआ। उसकी माँ श्रीमती फूल थाकुरानी ने उसको बुलाकर उससे पूछा -
राममोहन तूने मूर्ति-पूजा क्यों छोड़ दी?  क्या तू मुसलमान या क्रिस्तान हो गया है?
राममोहन ने जवाब दिया-
नहीं माँ! मैंने धर्म परिवर्तन नहीं किया है। मैंने तो सच्चे वैदिक धर्म को अपनाकर मूर्ति-पूजा छोड़ी है।
माँ ने नाराज़ होकर कहा-
वेद अपनी जगह पर ठीक कहते होंगे पर हमारे कुल में मूर्ति-पूजा होती आई है और तुझे भी करनी पड़ेगी। नहीं करेगा तो परिवार तेरा बहिष्कार कर देगा।
मां और बेटा दोनों ही अपनी जि़द पर अड़े रहे। राममोहन ने मूर्ति-पूजा नहीं अपनाई तो माँ और परिवार वालों ने बेटे का ही परित्याग कर दिया। अपने सिद्धान्तों की खातिर राममोहन को घर और परिवार से निकाला जाना भी स्वीकार्य था।

एक विद्वान के रूप में अब तक राममोहन राय पूरे बंगाल में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अपने विचार वह बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद ही व्यक्त करते थे। इनमें न तो कोई पूर्वाग्रह होता था न किसी प्रकार की हठधर्मिता ही। उनके हृदय में दूसरो के विचारों के प्रति आदर और सहिष्णुता की भावना तो थी पर साथ ही साथ गलत को गलत कहने का साहस भी था। इसीलिए उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर खुलकर प्रहार किए। किसी भी बात को रीति-रिवाज,  परम्परा और संस्कार के नाम पर आंख मूंद कर स्वीकार कर लेना उन्हें सहन नहीं था। धर्म के नाम पर ढोंग करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था।
  राममोहन राय ने नारी उत्थान को राष्ट्र के विकास के लिए पहली शर्त माना। स्त्री-शिक्षा पर लगे सामाजिक प्रतिबन्धों को तोड़ने के लिए उन्होंने घर-घर जाकर अभिभावकों को इस बात के लिए तैयार करने का प्रयास किया कि वह अपनी बेटियों को उनके द्वारा स्थापित कन्या पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजें। स्त्री-शिक्षा में बाधक पर्दा प्रथा और बाल-विवाह की प्रथा की हानियों पर भी उन्होंने प्रकाश डाला। उन्होंने बंगाल के ब्राह्मण समाज का कलंक कही जाने वाली कुलीन प्रथा पर निर्मम प्रहार किए। कुलीन प्रथा में उच्च कुलीन ब्र्राह्मण अपनी बेटियों का विवाह अपने से ऊँचे कुल में ही कर सकते थे और इस कारण अनेक कन्याएं या तो अविवाहित रह जाती थीं अथवा उनका बेमेल विवाह कर दिया जाता था या एक ही वर को भारी दहेज देकर अनेक कन्याएं ब्याह दी जाती थीं। बाल-विवाह और बाल-वैधव्य की त्रासदी भी इस कुरीति से जुड़ी थी। राममोहन राय ने इस कुरीति के विरुद्ध जन-जागृति अभियान छेड़ा।
उन्होंने कन्या-विक्रय और स्त्रियों को पति और पिता की सम्पत्ति में कोई भी अधिकार न दिए जाने जैसी सामाजिक कुरीतियों पर भी जमकर प्रहार किए।
स्त्रियों के इस उद्धारक ने सती प्रथा के उन्मूलन के लिए तो अपना जीवन ही दांव पर लगा दिया। उन्होंने सती की घटना को जघन्य हत्या माना। उनके द्वारा स्थापित ‘आत्मीय सभा’ ने सती प्रथा को वैदिक परम्परा के विरुद्ध बताया। ‘धर्म सभा’ के कट्टर पंथियों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी तो उन्होंने उसकी भी परवाह नहीं की। अनुदारवादी पत्र ‘समाचार चन्द्रिका’ में उनकी लगातार निन्दा की जाती रही पर इससे भी सती प्रथा के उन्मूलन हेतु उनका अभियान थमा नहीं। इस प्रथा को कानूनन अपराध घोषित कराने के लिए उन्होंने मैटकाफ और बेंटिंग जैसे उदार ब्रिटिश अधिकारियों का सहयोग प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयास किया। इस काम के लिए उन्होंने एलेक्जे़ण्डर डफ़ जैसे ईसाई धर्म प्रचारक की भी मदद ली। कभी वह सरकार को उसकी प्रगतिशीलता का वास्ता देते थे तो कभी जागरूक भारतीयों से अनुरोध करते थे कि वह भारतीय समाज को कलंकित करने वाली इस कुप्रथा को दूर करने में उनका साथ दें। अपने तर्कों से वह यह सिद्ध करने का प्रयास करते थे कि सती प्रथा एक सामाजिक कुरीति है न कि एक शास्त्र-सम्मत धार्मिक परम्परा। सरकार को वह यह भरोसा दिलाने में भी सफल रहे कि सती प्रथा के उन्मूलन से भारत में किसी प्रकार के सैनिक विद्रोह की सम्भावना नहीं है। अन्ततः उनके भगीरथ प्रयासों से 1829 में गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिग के शासनकाल में रेग्युलेशन 17 के द्वारा सती प्रथा को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया। उस दिन राममोहन राय को अपनी सती भाभी की
बहुत याद आ रही थी। वह मन ही मन अपनी मृत भाभी से कह रहे थे -
भाभी! जब तुम्हें लोग जबर्दस्ती चिता में बिठाकर जला रहे थे, तब मैं छोटा था और कानून अंधा था। आज मैं बड़ा हो गया हूं और कानून को आँखे मिल गई हैं। अब सती मैया के जय-जयकार और शंख, ढोल व घडि़याल के शोर के बीच किसी मासूम की हत्या नहीं होने दी जाएगी।

6 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. धन्यवाद सुशील बाबू. राजा राममोहन रॉय पर मेरा विस्तृत आलेख था, उस में से मैंने केवल सती प्रथा के उन्मूलन विषयक प्रयासों को उल्लेख किया है. यह प्रगतिशील सुधारक अपने समय से सदियों आगे था.

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  2. धन्यवाद, गगन शर्मा जी. इतिहास का विद्यार्थी हूँ. मैं चाहता हूँ कि हमारे महान सुधारकों के विषय में बड़ों को और बच्चों को, सभी को, ऐसी जानकारी मिले.

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  3. राजा राम मोहन राय के भारतीय समाज के उत्थान के लिए किए गए कार्य को कोई भुला नहि सकता ... एक बड़े समाजसुधारक थे ... नमन है उनको ...

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  4. दिगंबर नसवा जी, राजा राममोहन रॉय आज के युग में भी अपने समय से बहुत आगे माने जाते. समाज और सरकार के सभी प्रगतिशील विचारकों को एकजुट कर उन्होंने सती जैसी अमानवीय प्रथा का उन्मूलन कराने में सफलता प्राप्त की थी. ऐसे व्यक्ति को नमन करने के साथ उसका अनुकरण भी यदि हम करें तो देश का कल्याण हो सकता है.

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