तीन तलाक़ -
बीजेपी ने लोकसभा में तीन तलाक़ बिल पास करा लिया है और देर-सवेर इसे किसी न किसी तरह राज्यसभा में भी पारित करा लेगी. कांग्रेस राज्यसभा में इसके पारित होने में अड़ंगे लगा रही है पर उसकी ये कोशिश नाकाम ही होगी. इस सुधारवादी प्रयास के लिए बीजेपी को बधाई दी जानी चाहिए.
ऐसा दावा किया जा रहा है कि अन्यायपूर्वक तलाक़ दी जाने वाली, अपने अरमानों का दम तोड़ती मुस्लिम महिलाओं के लिए, यह नया क़ानून सम्मान और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा की संजीवनी सिद्ध होगा पर क्या वाक़ई ऐसा होगा? क्या वाक़ई इस नए क़ानून से शौहर की बेकाबू बेवफ़ाई, उसकी हेकड़ी, उसके ज़ुल्म, उसकी ऐयाशी, वगैरा पर लगाम कसेगी?
तीन तलाक़ की प्रथा के खिलाफ़ इस नए क़ानून को इसके समर्थक राजा राममोहन रॉय के सती प्रथा को एक अपराध घोषित करवाने के अभियान से, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विधवा विवाह को मान्यता दिलाने के प्रयास से और हरविलास शारदा के बाल विवाह के विरुद्ध क़ानून बनवाने से जोड़कर देख रहे हैं.
मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ और भारतीय इतिहास की मुझे थोड़ी बहुत जानकारी भी है. मुझे इस तीन तलाक़ बिल से उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में श्री बी एम माल्बरी द्वारा बाल विवाह के विरुद्ध और बालिका वधू से पति द्वारा शारीरिक सम्बन्ध बनाए जाने के विरूद्ध ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के माध्यम से क़ानून बनाए जाने के प्रयास की असफलता याद आ रही है. श्री माल्बरी के ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के विरुद्ध सबसे मुखर स्वर लोकमान्य तिलक का था. तिलक महाराज का कहना था कि इस विदेशी सरकार को हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है. अपनी सामाजिक कुरीतियों को हिन्दू स्वयं दूर करेंगे. इस – ‘Reform within’ की अहमियत को अन्य सुधारकों ने भी समझा था. उत्तर भारत में ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के खिलाफ़ आन्दोलन छेड़ा गया था. समकालीन हिंदी पत्रों – ‘ब्राह्मण’, ‘भारत जीवन’ आदि में इसके विरुद्ध लेख छापे जाते थे और महाराजा दरभंगा ने तो इसके विरुद्ध सरकार को एक याचिका भी दी थी. अदालत में बहू-बेटियों को घसीटने के इस क़ानून के खिलाफ़ अनेक हिन्दू संगठन एकजुट हो गए थे.
आज ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के विरुद्ध आन्दोलन के 125 साल बाद तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने के समय भी लगभग वैसी ही स्थिति आ गयी है. क्या इस नए क़ानून के बनते ही शौहरों द्वारा अन्यायपूर्वक तलाक़ दी गयी खवातीनों के गर्दिश के दिन दूर हो जाएंगे? क्या उन्हें ता-उम्र अपने समाज में सम्मान मिलता रहेगा? क्या उन्हें आर्थिक सुरक्षा भी मिल जाएगी? और अगर समाज तीन तलाक़ के खिलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाली खवातीनों का बहिष्कार करता है तो क्या सरकार उनकी मदद के लिए हर बार आएगी?
बीजेपी की सरकार को खुद को पहले सभी क्षेत्रों में मुसलमानों का रहनुमा बनकर दिखाना होगा, उसे उनका दिल और उनका विश्वास जीतना चाहिए, फिर उसके बाद मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध क़ानून बनाने की बात को सोचना चाहिए.
मदरसों को आधुनिक बनाए जाने के प्रयास और तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने से पहले ऐसा करना ज़रूरी है. अपने हर मुस्लिम विरोधी को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने वालों पर पाबंदी लगाए बिना अगर सरकार मुस्लिम समाज का भला भी करेगी तो उसकी सदाशयता पर विश्वास कौन करेगा?
ऐसा दावा किया जा रहा है कि अन्यायपूर्वक तलाक़ दी जाने वाली, अपने अरमानों का दम तोड़ती मुस्लिम महिलाओं के लिए, यह नया क़ानून सम्मान और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा की संजीवनी सिद्ध होगा पर क्या वाक़ई ऐसा होगा? क्या वाक़ई इस नए क़ानून से शौहर की बेकाबू बेवफ़ाई, उसकी हेकड़ी, उसके ज़ुल्म, उसकी ऐयाशी, वगैरा पर लगाम कसेगी?
तीन तलाक़ की प्रथा के खिलाफ़ इस नए क़ानून को इसके समर्थक राजा राममोहन रॉय के सती प्रथा को एक अपराध घोषित करवाने के अभियान से, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विधवा विवाह को मान्यता दिलाने के प्रयास से और हरविलास शारदा के बाल विवाह के विरुद्ध क़ानून बनवाने से जोड़कर देख रहे हैं.
मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ और भारतीय इतिहास की मुझे थोड़ी बहुत जानकारी भी है. मुझे इस तीन तलाक़ बिल से उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में श्री बी एम माल्बरी द्वारा बाल विवाह के विरुद्ध और बालिका वधू से पति द्वारा शारीरिक सम्बन्ध बनाए जाने के विरूद्ध ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के माध्यम से क़ानून बनाए जाने के प्रयास की असफलता याद आ रही है. श्री माल्बरी के ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के विरुद्ध सबसे मुखर स्वर लोकमान्य तिलक का था. तिलक महाराज का कहना था कि इस विदेशी सरकार को हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है. अपनी सामाजिक कुरीतियों को हिन्दू स्वयं दूर करेंगे. इस – ‘Reform within’ की अहमियत को अन्य सुधारकों ने भी समझा था. उत्तर भारत में ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के खिलाफ़ आन्दोलन छेड़ा गया था. समकालीन हिंदी पत्रों – ‘ब्राह्मण’, ‘भारत जीवन’ आदि में इसके विरुद्ध लेख छापे जाते थे और महाराजा दरभंगा ने तो इसके विरुद्ध सरकार को एक याचिका भी दी थी. अदालत में बहू-बेटियों को घसीटने के इस क़ानून के खिलाफ़ अनेक हिन्दू संगठन एकजुट हो गए थे.
आज ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के विरुद्ध आन्दोलन के 125 साल बाद तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने के समय भी लगभग वैसी ही स्थिति आ गयी है. क्या इस नए क़ानून के बनते ही शौहरों द्वारा अन्यायपूर्वक तलाक़ दी गयी खवातीनों के गर्दिश के दिन दूर हो जाएंगे? क्या उन्हें ता-उम्र अपने समाज में सम्मान मिलता रहेगा? क्या उन्हें आर्थिक सुरक्षा भी मिल जाएगी? और अगर समाज तीन तलाक़ के खिलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाली खवातीनों का बहिष्कार करता है तो क्या सरकार उनकी मदद के लिए हर बार आएगी?
बीजेपी की सरकार को खुद को पहले सभी क्षेत्रों में मुसलमानों का रहनुमा बनकर दिखाना होगा, उसे उनका दिल और उनका विश्वास जीतना चाहिए, फिर उसके बाद मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध क़ानून बनाने की बात को सोचना चाहिए.
मदरसों को आधुनिक बनाए जाने के प्रयास और तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने से पहले ऐसा करना ज़रूरी है. अपने हर मुस्लिम विरोधी को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने वालों पर पाबंदी लगाए बिना अगर सरकार मुस्लिम समाज का भला भी करेगी तो उसकी सदाशयता पर विश्वास कौन करेगा?
बीजेपी की ओर से लोकसभा के चुनाव में एक भी मुसलमान जीता नहीं है. उत्तर प्रदेश की विधान सभा में बीजेपी का एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है. और लोकसभा चुनाव में हारने वाले शाहनवाज़ खान जैसे वफ़ादार को राज्यसभा में स्थान तक नहीं दिया गया है, क्या इसके बाद भी वह खुद को मुसलमानों का हिमायती कह सकती है?
अब तो तीन तलाक़ की शिकार इशरत जहाँ बीजेपी में शामिल हो गयी है, उसी को राज्यसभा भेजकर वह मुसलमानों के प्रति अपना सदाशय सिद्ध कर सकती है. तीन तलाक़ की पुरानी पीड़िताओं के पुनर्वास के सार्थक प्रयासों से भी सरकार मुसलमानों का दिल जीत सकती है.
गो मांस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना मुसलमानों को रास नहीं आया है. गाय के चमड़े पर जिनकी रोज़ी रोटी चलती थी उनके बेरोज़गार होने पर उनके पुनर्वास के लिए सरकार ने क्या कुछ भी किया है? क्या उसने स्व-घोषित गो-रक्षकों की दादागिरी रोकने के लिए कोई ठोस क़दम उठाया है?
ऐसे बहुत से मसले हैं पर इस पर विचार करने की फुर्सत किसे है? अब आम चुनाव में महज़ 16 महीने बचे हैं. अब तो हिन्दू वोट जीतने की वेला है. तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने से मुस्लिम वोट शर्तिया कटेंगे पर उम्मीद है कि उस से कई गुने अतिरिक्त हिन्दू वोट बीजेपी की झोली में पड़ जाएंगे.
भगवान करे कि मेरी ये सभी आशंकाएं निर्मूल सिद्ध हों. इस क़ानून से वाक़ई अन्यायग्रस्त मुस्लिम महिलाओं को अगर क़ानूनी संरक्षण मिले इंसाफ़ मिले, आर्थिक सुरक्षा मिले, सम्मानपूर्वक जीने का हक़ मिले, तो मुझे खुद के गलत साबित होने पर बेहद खुशी होगी.
अब तो तीन तलाक़ की शिकार इशरत जहाँ बीजेपी में शामिल हो गयी है, उसी को राज्यसभा भेजकर वह मुसलमानों के प्रति अपना सदाशय सिद्ध कर सकती है. तीन तलाक़ की पुरानी पीड़िताओं के पुनर्वास के सार्थक प्रयासों से भी सरकार मुसलमानों का दिल जीत सकती है.
गो मांस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना मुसलमानों को रास नहीं आया है. गाय के चमड़े पर जिनकी रोज़ी रोटी चलती थी उनके बेरोज़गार होने पर उनके पुनर्वास के लिए सरकार ने क्या कुछ भी किया है? क्या उसने स्व-घोषित गो-रक्षकों की दादागिरी रोकने के लिए कोई ठोस क़दम उठाया है?
ऐसे बहुत से मसले हैं पर इस पर विचार करने की फुर्सत किसे है? अब आम चुनाव में महज़ 16 महीने बचे हैं. अब तो हिन्दू वोट जीतने की वेला है. तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने से मुस्लिम वोट शर्तिया कटेंगे पर उम्मीद है कि उस से कई गुने अतिरिक्त हिन्दू वोट बीजेपी की झोली में पड़ जाएंगे.
भगवान करे कि मेरी ये सभी आशंकाएं निर्मूल सिद्ध हों. इस क़ानून से वाक़ई अन्यायग्रस्त मुस्लिम महिलाओं को अगर क़ानूनी संरक्षण मिले इंसाफ़ मिले, आर्थिक सुरक्षा मिले, सम्मानपूर्वक जीने का हक़ मिले, तो मुझे खुद के गलत साबित होने पर बेहद खुशी होगी.
सटीक विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू. अभी तो जादूगर के पिटारे में आम चुनाव से पहले पता नहीं कितने खेल छुपे हुए हैं.
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’अंधियारे में शिक्षा-ज्योति फ़ैलाने वाले को नमन : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' से जुड़कर मुझे सदैव गर्व का अनुभव होता है.
हटाएंआपको सूचित करते हुए बड़े हर्ष का अनुभव हो रहा है कि ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग 'मंगलवार' ९ जनवरी २०१८ को ब्लॉग जगत के श्रेष्ठ लेखकों की पुरानी रचनाओं के लिंकों का संकलन प्रस्तुत करने जा रहा है। इसका उद्देश्य पूर्णतः निस्वार्थ व नये रचनाकारों का परिचय पुराने रचनाकारों से करवाना ताकि भावी रचनाकारों का मार्गदर्शन हो सके। इस उद्देश्य में आपके सफल योगदान की कामना करता हूँ। इस प्रकार के आयोजन की यह प्रथम कड़ी है ,यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा। आप सभी सादर आमंत्रित हैं ! "लोकतंत्र" ब्लॉग आपका हार्दिक स्वागत करता है। आभार "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएं'लोकतंत्र संवाद' ब्लॉग से जुड़कर मुझे प्रसन्नता होगी.
हटाएंव्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध क़ानून बनाने की सोचना चाहिए !!
जवाब देंहटाएंसामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अवश्य कानून बनाये जाने चाहिए किन्तु जिस समाज, जिस समुदाय का, इस सरकार से खुला बैर है क्या उसी से सरकार को सामाजिक सुधार की वैधानिक पहल करनी चाहिए. इस से पहले ढोंगी बाबाओं के सभी आश्रमों को बंद करने का कोई कानून क्यों नहीं बनाया जाता?
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