प्राचीन
मिस्र-सभ्यता में सैकड़ों साल तक देश की अधिकांश सम्पदा शासकों के शवों के ऊपर
पिरामिड बनाने में बहा दी जाती थी.
मुस्लिम
शासक भारत में मक़बरे बनाने की परम्परा लेकर आए. इनमें शाहजहाँ ने तो प्रजा पर
नए-नए करों का बोझ लादकर अपने बेगम मुमताज़ महल की याद में ताजमहल बनवाया था.
कविवर
सुमित्रानंदन पन्त की ताजमहल पर पंक्तियाँ हैं –
‘हाय मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव, पूजन,
जब विषण्ण, निर्जीव, पड़ा हो जग का जीवन,
---
शव
को दें हम रूप, रंग, आदर मानव का,
मानव
को हम कुत्सित रूप, बना दें, शव का.’
लार्ड
कर्ज़न ने देश-व्यापी अकाल के समय भूख से बिलखते हुए और मरते हुए इंसानों की परवाह
न करते हुए करोड़ों रूपये विक्टोरिया मेमोरियल के निर्माण में खर्च कर दिए थे.
बहन
मायावती ने तो कमाल ही कर दिया था. उत्तर प्रदेश सरकार के अरबों रूपये उन्होंने
प्रेरणा-स्थल के निर्माण में खर्च कर दिए और अपनी तथा अपने कुनबे के सदस्यों की
भव्य मूर्तियाँ भी स्थापित करवा दीं.
मेरी
चार पंक्तियाँ हैं –
‘हर मुर्दे को कफ़न भले
ही हो न मयस्सर,
पर
हर शासक का स्मारक, बन जाता है.
उजडें
बस्ती, गाँव, घरों में जले न चूल्हा,
मूर्ति
खड़ी करने में, सारा धन जाता है.’
आज
के ज़माने में मूर्ति-निर्माण के मामले में ऐतिहासिक पात्रों ने पौराणिक पात्रों को
बहुत पीछे छोड़ दिया है. हर गली, हर मोहल्ले में, कोट पहने, भारतीय संविधान का वृहद्
ग्रन्थ हाथ में उठाए, बाबा साहब भीम साहब अम्बेडकर की प्रतिमा आपका मार्ग-दर्शन करने के
लिए खड़ी मिलेगी.
आज
लौह पुरुष सरदार पटेल की जयंती पर लगभग 3000 करोड़ रुपयों में बनी उनकी 182 मीटर ऊंची मूर्ति का प्रधानमंत्री
द्वारा अनावरण होगा. विश्व की इस सबसे विशाल, सबसे ऊंची प्रतिमा – ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’ की स्थापना से हमको
क्या हासिल होगा, इसको समझना बहुत
मुश्किल काम है. निर्विवाद रूप से सरदार
पटेल ने भारत के एकीकरण में अभूतपूर्व योगदान दिया था किन्तु क्या इसी कारण से
उनकी यह प्रतिमा स्थापित की जा रही है?
कोई
बच्चा भी यह समझता है कि इसके पीछे का मुख्य कारण है – गुजरात तथा देश के अन्य भागों में बसे हुए महत्वपूर्ण
पटेल वोट-बैंक को अपने पक्ष में करना तथा नेहरु-पटेल मतभेद और नेहरु-पटेल
प्रतिस्पर्धा को अपने फ़ायदे के लिए भुनाना.
अभी
मूर्ति-निर्माण की इस प्रक्रिया पर विराम नहीं लगा है. भविष्य में छत्रपति शिवाजी
और बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की भी गगनचुम्बी प्रतिमाएं नए कीर्तिमान स्थापित
करने वाली हैं.
वैसे
देखा जाए तो ऐतिहासिक पात्रों की तो क्या, देवी-देवताओं और
भगवानों की मूर्तियाँ बनाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है. हमको सौ-दो सौ फ़ुट ऊंचे भगवान रामचंद्र या उन से भी ऊंचे हनुमान
जी क्यों चाहिए?
गोमटेश्वर
में बाहुबली स्वामी की एक चट्टान से तराशी गयी 57 फ़ुट ऊंची प्रतिमा हमारी कला की
अमूल्य धरोहर है किन्तु आज मांगीतुंगी में अपना सर्वस्व त्यागने वाले भगवान ऋषभदेव
की 108 फ़ुट ऊंची प्रतिमा के निर्माण में करोड़ों रूपये खर्च कर हम क्या उनके
उपदेशों पर अमल कर रहे हैं? (मैं ये बात जैन
मतावलंबी होने के बावजूद कह रहा हूँ.)
हम
कब तक स्थानों के नाम बदलते रहेंगे? हम कब तक नेताओं के
स्मारक बनाते रहेंगे? कब तक उनकी भव्य
मूर्तियाँ बनाते रहेंगे?
आज
दिल्ली में आधा यमुना तट नेताओं की समाधियों ने घेर रक्खा है. चेन्नई में
विश्व-प्रसिद्द मरीना बीच तमाम नेताओं की समाधियों से सुशोभित है.
इन
स्मारकों के, इन समाधियों के, इन मूर्तियों के, रख-रखाव में या तो हमको
रोज़ाना लाखों-करोड़ों रूपये खर्च करने होंगे या फिर इन्हें चील-कौओं के
विश्राम-स्थल बनाकर राम-भरोसे छोड़ देना होगा. दोनों बातें ग़लत हैं लेकिन इन में से
एक तो होकर ही रहेगी.
अपने
शौक़ के लिए, अपनी ख्याति के लिए, या ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए,
देश के संसाधनों का ऐसा अपव्यय कहाँ तक जायज़ है?
इस
बात में कोई संदेह नहीं कि आजीवन सादा जीवन व्यतीत करने वाले लौहपुरुष सरदार पटेल
की आत्मा अपने सपूतों की इस भव्य श्रद्धांजलि को देखकर और इस पांच सितारा नौटंकी से
व्यथित होकर आज खून के आंसू रो रही होगी.
बहुत खूब। जरूरी है लिखना। सलाम आपकी कलम को।
जवाब देंहटाएंमेरी ओर से और मेरी कलम की ओर से भी धन्यवाद मित्र ! तुम्हारे जैसे कद्रदान हों तो कलम को चलते रहने की प्रेरणा मिलती रहेगी.
हटाएंबाप रे इतना बेबाक...सर, ऐसा लिखेंगे तो कहीं ऐसा न हो आपकी क़लम को ऐतिहासिक मूर्ति का रुप दे दिया जाय।
जवाब देंहटाएंश्वेता जी, बचपन से आज तक मेरे गुरु रहे मेरे बड़े भाई साहब मुझे हमेशा, संभल जाने की और सावधानी से लिखने-बोलने की सलाह देते रहे हैं पर मैं अपनी आदत से मजबूर हूँ.
हटाएंमोमिन कह गए हैं -
उम्र सारी तो कटी, इश्क़-ए-बुतां में मोमिन,
आख़री वक़्त में क्या खाक़ मुसलमां होंगे.'
वाह ! साधुवाद !!!
हटाएंधन्यवाद मीना जी.
हटाएंधन्यवाद रवींद्र सिंह यादव जी. 'पांच लिंकों का आनंद' के माध्यम से मेरे विचार सुधी पाठकों तक पहुंचेंगे. मैं 1 नवम्बर के अंक की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंभव्य मूर्तियों का निर्माण कतई आवश्यक नहीं है। अभी तक हमारे देश में अच्छी सड़कों की सुविधा भी केवल गिनेचुने शहरों या इलाकों में है,गरीबों के इलाज के लिए अच्छे अस्पतालों की कमी है,हर गाँव में अच्छे स्कूल कॉलेज नहीं बने हैं,पुस्तकालय नहीं हैं....और भी बहुत सारी मूलभूत नागरिक सुविधाओं का अभाव है। ऐसे में मूर्तियों पर इतने करोड़ों रुपए खर्च करना निरी मूर्खता है। वैसे ही हर वर्ष गणेशोत्सव और दुर्गापूजा पर विशालकाय मूर्तियाँ बनाना और उनका विसर्जन कर देना....हर वर्ष कितना धन बर्बाद होता है,उसका सदुपयोग हो सकता है। मैं आपसे इस विषय पर पूर्ण सहमत हूँ। अच्छा विषय, निर्भीक लेखनी को सलाम।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी. हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर से उड़ने वालों का भला खस्ताहाल सड़कों से क्या सरोकार? और फिर वो तो अपने जुकाम का इलाज कराने के लिए भी विदेशों के पांच सितारा हॉस्पिटल्स में जाते हैं, उन्हें बिना डॉक्टर के, बिना दवाओं के गंदे भारतीय अस्पतालों से क्या लेना-देना? मेरी तो दिली तमन्ना है कि मैं मूर्तियों के निर्माण पर सरकार का अरबों रुपया बहाने वालों का ही विसर्जन कर दूं.
हटाएंधन्यवाद हर्षवर्धन जी. आप लोगों का स्नेह और उत्साहवर्धन मेरे लिए अमूल्य है. मैं आज ही 'ब्लॉग बुलेटिन' के इस नए अंक का आनंद उठाऊँगा.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन तरीके से आपने सत्य प्रर्दशित कर दिया
जवाब देंहटाएंनमन है आपकी लेखनी को खरी बात कही है आपने बहुत बहुत आभार
धन्यवाद अनुराधा जी. मेरे एक मित्र भी मेरी जैसी ही खरी-खरी कहने में पारंगत थे. अब उन्होंने फ़ेसबुक से किनारा कर लिया है. उन्होंने लिखने से क्यों किनारा किया, यह पता नहीं चल पा रहा है पर कुछ-कुछ अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है.मुझे डर है कि कहीं मेरा पत्ता भी यूँ ही काट न दिया जाए.
हटाएंधन्यवाद अमित निश्छल जी.
जवाब देंहटाएं