1960 के दशक का, फिल्म ससुराल का गाना – ‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, चश्मे बद्दूर’ बहुत मकबूल हुआ था. मुहम्मद रफ़ी जब इस गाने में ‘चश्मे बद्दूर’ शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में गाते हैं तो आज भी सुनने वाला झूम-झूम जाता है. पर इस ‘चश्मे बद्दूर’ शब्द ने मुझे मेरे बचपन से लेकर मेरे बड़े होने तक बहुत परेशान किया है. आम तौर पर यह माना जाता है कि पहलौटी और आखिरी औलाद को नज़र बहुत लगती है. हमारे माता-पिता की पहली संतान तो जल्दी ही चल बसी थी पर उनकी आख़िरी संतान, अर्थात मैं, आज भी बरक़रार हूँ.
मेरी माँ की नज़रों में, मैं नज़र लगने के लिए सबसे बड़ा सुपात्र था. उनकी दृष्टि में उनके गोलू-मोलू, डबल कान्हा (मेरे नाम के ‘गोपेश’ और ‘मोहन’ दोनों का ही अर्थ कृष्ण होता है) से प्यारा कोई और बच्चा तो हो ही नहीं सकता था. ऊपर से उनकी आख़िरी संतान होने के कारण मुझे किसी की नज़र लगने की और भी अधिक सम्भावना रहती थी. अगर मैं नहा-धोकर, नए कपड़े पहनकर उनके सामने खड़ा हो जाता था तो वो काजल का टीका लेकर मेरी तरफ दौड़ पड़ती थीं और मैं उनसे जान बचाकर इधर-उधर भागता रहता था. मेरे न्यायधीश पिताजी, मेरी माँ की तरह कतई अन्धविश्वासी नहीं थे लेकिन इस मामले को वो अपने ज्यूरिसडिक्शन से बाहर का मानते थे.
मेरे बचपन के तीन साल इटावा में गुज़रे थे. हम अपने घर के पास के एक मैदान में बैडमिंटन खेलते थे. इस मैदान के पास एक कोठी में एक निस्संतान मद्रासी दंपत्ति किराये पर रहता था. मद्रासी आंटी अपने बंगले से हम बच्चों को खेलते हुए देखकर बहुत खुश होती थीं. मद्रासी अंकल जब-तब हमारे साथ बैडमिंटन खेलने आ जाते थे और हमको तमाम शटल काक्स उपहार में दे दिया करते थे. मद्रासी आंटी मुझे अपने घर बुलाती रहती थीं पर मुझे तो अपनी माँ के निर्देशों का पालन करने की हिदायत थी. माँ को लगता था कि मद्रासी आंटी मुझ पर ज़रूर कोई टोटका कर देंगी. फिर मैं उनके घर कैसे जा सकता था? पर एक बार उनके बार-बार बुलाने पर मैं उनके घर चला ही गया. वाह! आंटी ने अपने घर को मंदिर जैसा सजा रक्खा था और वहां मेरी खातिर किसी देवता जैसी हो रही थी. मद्रासी आंटी फिर बिना बुलाये हमारे घर पहुँच गयीं. उन्होंने माँ से बार-बार अनुरोध किया कि वो मुझे उनके घर भेज दिया करें. माँ ने तरह-तरह के बहाने बनाकर उनका अनुरोध ख़ारिज कर दिया. मद्रासी आंटी के जाने के बाद मेरी कान-पकड़ाई हुई और फिर उनके घर जाने पर मेरी जमकर पिटाई किये जाने की धमकी भी दी गयी. इसके बाद बहुत देर तक तरह-तरह के अनुष्ठान करके कोयले, लाल मिर्च और न जाने क्या-क्या की मदद से मेरी नज़र उतारी गयी.
खैर सब की माँओं में मेरी माँ जैसे ये गुण देखे जा सकते हैं पर कुछ सासें भी इसी श्रेणी में आती हैं. मेरी श्रीमतीजी की बड़ी बुआजी मेरी बड़ी प्रशंसक थीं. मेरी बड़ी बेटी गीतिका का जन्म मेरी ससुराल रामपुर में हुआ था. अपनी श्रीमतीजी और बिटिया को अल्मोड़ा ले जाने के लिए मैं वहां पहुंचा तो वहां बड़ी बुआजी भी थीं. बुआजी को नया सफारी सूट पहने हुए अपने दामादजी कुछ ज्यादा ही अच्छे लगे, उन्होंने लोगों से मेरी नज़र उतारने के लिए कहा पर मेरी हल्ला-मचाऊ आपत्ति पर और मेरी घूरती हुए आँखें देखकर किसी ससुराली की ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई. अगले दिन सुबह रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी के ग्राउंड में एक्सरसाइज करते हुए मेरी कमर की नस चल गयी और मैं तीन दिन बिस्तर पर लेटने के लिए मजबूर हो गया. इलाज के साथ-साथ बुआजी का नज़र-उतारू अभियान चलता रहा. लकड़ी के कोयले की स्पेशल अंगीठी जलवाकर पता नहीं कितनी बार और कितनी ज्यादा लाल मिर्च वो उसमें झोंकती रहीं. मुझे नज़र लगने के लिए बुआजी खुद को ही दोषी मानती रहीं और मैं बेचारा, अंध-विश्वास पर कई शोध-पत्र प्रस्तुत करने वाला, चुपचाप अपने दांत पीसता हुआ, उनके नाटक का निरीह पात्र बना रहा.
‘चश्मे बद्दूर’ का सबसे मज़ेदार किस्सा मेरे बड़े चाचाजी के साथ हुआ. हमारे चाचाजी लखनऊ विश्व विद्यालय में गणित विभाग में रीडर थे. पचास साल की उम्र तक चाचाजी भीष्म पितामह की तरह ब्रह्मचारी रहे फिर दादाजी बनने (मेरे बड़े भाई साहब का बेटा तब तक छह महीने का हो चुका था.) और अपने सर की खेती पूरी तरह सूखने के बाद उन्होंने शादी करने का इरादा किया. मेरी माँ अपने देवर की शादी के अवसर पर बहुत मगन थीं. उन्होंने विवाह का मंगल-गीत गाते हुए चाचाजी के काजल लगाया, उनके कान के नीचे नज़र न लगने के लिए एक टीका भी लगा दिया. चाचाजी विरोध में हल्ला मचाते रहे पर माँ का हुक्म उन्हें मानना ही पड़ा. वर-माला के समय चाची जब चाचाजी को माला पहना रही थीं तो माला उनकी पगड़ी में ऐसी फँसी कि वह अचानक खुल गयी. दसियों कैमरों के फ़्लैश एक-साथ चमक उठे और इस दूधिया रौशनी में चाचाजी की गंजी चाँद भी सौ वाट के बल्ब की तरह चमक उठी. ठहाकों के बीच चाची के परिवार की एक मोहतरमा बोल उठीं – ‘चश्मे बद्दूर’.
हम नाराज़ बाराती इन धृष्ट मोहतरमा का खून करने की योजना बना ही रहे थे कि हँसते हुए हमारे चाचाजी ने माँ को संबोधित करते हुए कहा –
‘भाभी, लगता है कि मुझे तुम्हारी ही बुरी नज़र लग गयी. तुमने मेरे कान के नीचे क्या मंतर पढ़ा था कि माला छूते ही मेरी पगड़ी और मेरी कलई एक साथ खुल गयी?’
इस ‘चश्मे बद्दूर’ कार्यक्रम ने मुझे बहुत परेशान किया है और मेरी ही तरह इसने और हजारों-लाखों की नींदें भी उड़ाई होगी. अब मैं अपने सह-पीड़ितों के साथ मिलकर यह प्रयास कर रहा हूँ कि ‘चश्मे बद्दूर’ वाला गाना बैन कर दिया जाय और नज़र लगने पर विश्वास करने वालों को और नज़र उतारने वालों को एक साल की क़ैद-ए-बा-मशक्क़त या कम से कम 10000/ का जुर्माना लगाए जाने का कानून तो बना ही दिया जाय.
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