रविवार, 6 सितंबर 2015

शिक्षक हड़ताल


1986 में फोर्थ पे कमीशन लागू होना था. हम यूनिवर्सिटी और डिग्री कॉलेज टीचर्स की मांग थी कि हमको सम्मानजनक वेतनमान के साथ-साथ केन्द्रीय कर्मचारियों की भाँति चिकित्सा व्यय, एलटीसी, एचआरए, एचडीए, हाउसिंग लोन आदि भी मिले किन्तु हमारी इन जायज़ मांगो को सुनने के लिए न तो केंद्र सरकार तैयार थी और न ही प्रदेश सरकार. बहुत दिनों तक हमारी मांगों पर जब कोई ध्यान नहीं दिया गया तो फिर हमने अगस्त, 1987 में अपनी मांगे पूरी करवाने के लिए देश-व्यापी हड़ताल की. कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के हम शिक्षकगण रोज़ एक हॉल में एकत्र होकर हड़ताल से जुड़े नवीनतम समाचारों से एक-दूसरे को अवगत कराते थे और आगे की अपनी रणनीति तैयार करते थे. मैं पूरे जोशो-खरोश से इस हड़ताल में भाग ले रहा था. शिक्षक हड़ताल के दौरान मेरा कवि-रूप बहुत मुखर हो चला था. रोज़ हॉल के ब्लैक बोर्ड पर मैं शिक्षक हड़ताल से सम्बंधित कोई नयी कविता लिखता था, फिर साथियों की फरमाइश पर उसे, उन्हें सुनाता भी था. हमारी स्थिति तो शापग्रस्त देवी अहल्या की दुर्दशा से भी कहीं बढ़कर थी –

‘जो रस था वह निचुड़ गया है, बस हड्डी है, मांस नहीं है,

गुरु, सालों हड़ताल करें पर, शासक का रिसपौन्स नहीं है.

शिलाखंड हो गए गुरूजी, जीवन में रोमांस नहीं है,

किसी राम की चरण-धूलि से तरने का भी चांस नहीं है.’

उन दिनों देश में बोफोर्स तोप कमीशन काण्ड, पनडुब्बी काण्ड और स्विस बैंकों में काले धन को लेकर बहुत हंगामा हो रहा था. मैंने अपनी एक कविता में माँ शारदा की हत्या करने के अपराध की तुलना में इन घपलों को बहुत छोटा बताया था –

‘आप तोपें खाइए, पन्डूब्बियाँ भी खाइए,
खोलकर खाते विदेशी, देश का धन खाइए.
खाइए जनतंत्र भी, पर कीजिये इतनी कृपा,
ज्ञान का दीपक बुझा, माँ शारदा मत खाइए.’

शिक्षक दिवस से पहले उत्तर प्रदेश के तमाम अध्यापकों ने लखनऊ में विधान सभा के सामने धरना देकर खुद को गिरफ्तार कराने का फैसला किया. अल्मोड़ा के मेरे दोस्त चाहते थे कि मैं लखनऊ में अपने काव्य-पाठ से समस्त हड़ताली अध्यापकों का जोश बढ़ाऊँ. अल्मोड़ा से लखनऊ जाने वाले दल में मुझे भी शामिल कर लिया गया. मेरे घर में यह समाचार सुनकर कोहराम मच गया. मेरी श्रीमतीजी संभावित लाठी चार्ज में मेरी निश्चित पिटाई की सोचकर बाकायदा हल्ला मचा रही थीं और मेरी बड़ी बेटी, चार साल की गीतिका, को डर था कि वीरू दादा (वीर बहादुर सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रति उसके मन में इतना सम्मान क्यूँ था, इसका पता मुझे अब तक नहीं चला है) मुझको जेल में डालकर खुद मेरी पिटाई करेगा. खैर परिवारजन के हर विरोध को अनसुना और अनदेखा कर मैं मिशन शिक्षक हड़ताल के लिए लखनऊ कूच कर गया.

लखनऊ में अलीगंज हाउसिंग स्कीम में हमारा मकान था. दरवाज़ा पिताजी ने खोला. उन्होंने मुझे घूरते हुए मेरा स्वागत किया और फिर मुझसे पूछा –‘नेताजी, टीचर्स’ स्ट्राइक में गिरफ़्तारी देने आये हो?'

मेरे हाँ कहने पर पिताजी नाराज़ होकर चले गए. माँ को मेरे इरादे पता चला तो उन्होंने हाय-हाय करना शुरू कर दिया पर मैं बहादुरी से हर बाधा को पार कर विधान सभा जाने के लिए तैयार होने लगा. डायनिंग टेबल पर नाश्ता करते समय माँ ने पूछा कि वो शाम को मेरे लिए क्या बनायें तो पिताजी अपने कमरे से ही बोले –
‘इनका शाम का खाना जेल में होगा.’

सर पर कफ़न बांधकर क्रांतिकारियों के अंदाज़ में हम अल्मोड़ा के हड़ताली अध्यापक बाकी हड़ताली साथियों से मिले. जुलूस निकाले जाने से पहले शिक्षक नेताओं के भाषण पर भाषण हो रहे थे पर हमारे दल के मुखिया के बार-बार अनुरोध करने पर भी मेरे काव्य-पाठ का नंबर ही नहीं आया. धरना देने के लिए हम विधान सभा की ओर बढ़े तो हम सबको शालीनता के साथ गिरफ्तार करके बसों में बिठा दिया गया और फिर नारे लगाते हुए सैकड़ों अध्यापकों को पुलिस लाइन ले जाया गया. किसी मंत्री ने तो क्या, किसी ऑफिसर ने भी हम लोगों से बात तक नहीं की. हम पुलिस लाइन में आशा कर रहे थे कि मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह हमको संबोधित कर कोई खुशखबरी सुनायेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हम गिरफ्तार थे पर कहीं भी आ-जा सकते थे, चाहें तो अपने घर भी जा सकते थे. तीन-चार घंटे बीत गए, हमको जब किसी ने पानी तक को नहीं पूछा तो हम लोग आई. टी. चौराहे पर एक हलवाई की दुकान पर जाकर चाय-समोसा खा आये. छह बजे हमको रिहा कर दिया गया. हमारे लुटे-पिटे खिसियाये हुए साथियों के लिए रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड लौटने की व्यवस्था भी की गयी. मुझे तो पुलिस लाइन से तीन किलोमीटर दूर अलीगंज हाउसिंग स्कीम जाना था. मैंने इन्तज़ाम करने वाले इंस्पेक्टर से घर छोड़ने की व्यवस्था करने को कहा तो वो मुस्कुराकर बोला –
‘गुरूजी, खुद मुख्यमंत्री आपको घर तक छोड़ आते पर वो तो आ नहीं पाए हैं. अलीगंज तक का टेम्पो वाला एक रूपया लेता है, अब आपको एक रूपया देना तो बदतमीज़ी होगी, आप ऐसा करिए, मेरे कंधे पर चढ़ जाइए, मैं हनुमानजी बनकर आपको आपके घर तक पहुंचा दूंगा.’

मुझे इंस्पेक्टर की बात पर इतना गुस्सा आया, इतना गुस्सा आया कि मैं हंस पड़ा और उससे हाथ मिलाकर पैदल ही घर के लिए चल पड़ा. रास्ते में मैं शिक्षक आन्दोलन पर लिखी हुई अपनी कवितायेँ खुद को ही सुनाता जा रहा था. फिर जो हुआ उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. सफ़ेद सरकारी गाड़ियों के काफिले में से एक गाडी मेरे पास रुकी, उसमें हमारे मुख्यमंत्री श्री वीर बहादुर सिंह और केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री नरसिंह राव बैठे हुए थे. दोनों ने प्यार से मुझे अपनी गाडी में बिठाया, मेरी बातें सुनीं, मेरी कवितायेँ सुनीं, उन्हें सराहा भी और हम अध्यापकों की हर मांग पूरी करने का आश्वासन भी दिया. मुझे तो लगा कि मैं सपना देख रहा हूँ पर यह तो सब सच था. पर फिर एक दम से मुझे एक ज़ोर का धक्का लगा, मुड़कर देखा तो गाडी में बैठे एक सज्जन बड़े प्यार से मुझसे पूछ रहे थे –
‘भाई साहब, ख़ुदकुशी करने के लिए आपको मेरी ही कार मिली थी? बीच सड़क पर आप अंधे-बहरे होकर कहाँ जा रहे हैं?’
‘हाय! मेरे सपने टूट गए, जैसे भुना हुआ पापड़. खिसियाकर खम्बे नोचने अब मैं कहाँ जाऊं? अल्मोड़ा जाकर साथियों को क्या जवाब दूंगा? अपनी श्रीमतीजी का सामना कैसे करूँगा? मेरे जेल जाने की सम्भावना को सोचकर माँ ने तो मेरा खाना भी नहीं बनाया होगा. अब मैं शिक्षक हड़ताल को लेकर और कवितायेँ नहीं लिखूंगा. पर घोर निराशा के बीच अपनी बेटी गीतिका की आशंका को निर्मूल होते देख मैं खुश भी था. उसके पापा को वीरू दादा ने न तो मारा था और न ही जेल में डाला था. क्या यह अपने आप में एक बड़ी खुशखबरी नहीं थी कि श्री बुद्धू लौटकर सकुशल अपने घर वापस आ रहे थे?’





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