लखनऊ विश्वविद्यालय में मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए. करना मेरे लिए एक सुखद अनुभव था. इतिहास पढना मुझे बेहद अच्छा लग रहा था. हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर नागर मुझे हमेशा बढ़ावा देते थे. प्रोफ़ेसर नागर के प्रोत्साहन ने ही मुझमें अपने ही साथियों को पढ़ाने की हिम्मत दिलाई थी. पांच-छह साथियों को तो मैं अब बाकायदा पढाने भी लगा था.
हमारे क्लास में एक बुजुर्गवार मोहतरमा थीं. उनका असली नाम न बताकर उन्हें सिर्फ आपा कह लेते हैं. मामूली शक्लो-सूरत की आपा के चेहरे से सिर्फ मायूसी और बेबसी बरसती थी. इतिहास ज्ञान के मामले में वो पूरी तरह पैदल थीं. आपा मुगले आज़म वाली भारी-भरकम उर्दू बोला करती थीं और हिंदी लिखने में उन्हें हमेशा दिक्कत होती थी, अंग्रेजी से तो उनका छत्तीस का आंकड़ा था. उनका रिकॉर्ड था कि उन्होंने कभी प्रथम या द्वितीय श्रेणी के दर्शन नहीं किये थे. आपा मेरे सहपाठियों में मेरी सबसे बड़ी प्रशंसक थीं और उनके लिए मैं सुपर हीरो हुआ करता था. आपा को मुझे रोजाना एक घंटा अलग से पढ़ाना पड़ता था. मेरे क्लास की लड़कियां इस बात को लेकर मुझ पर खूब ताने कसती रहती थीं. उनके समझ में नहीं आता था कि इस निरूपा राय किस्म की आपा पर मैं अपना इतना वक़्त कैसे बर्बाद कर लेता हूँ. लड़कियों ने मुझसे इस रहस्य का उदघाटन किया कि आपा को उनके शौहर ने शादी के सात साल तक औलाद न होने की वजह से तलाक दे दिया था. अब आपा ने बी. एड. करने के दस साल बाद पढाई फिर से शुरू की थी. पर इन जानकारियों के बाद मेरे दिल में आपा के लिए इज्ज़त और बढ़ गयी और उनको पढ़ाने में मैं अब और भी ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा था.
आपा गाती बहुत अच्छा थीं, खासकर पुराने दर्द भरे नगमे गाने में तो उनका कोई जवाब ही नहीं था. खाली पीरियड्स में आयोजित संगीत गोष्ठियों में हमारी फरमाइश पर उन्होंने पता नहीं कितने गाने गाए होंगे. कोई न कोई पकवान बनाकर लाना और उसे सबसे बचा कर सिर्फ मुझे खिलाने की आपा की आदत, मुझ जैसे हॉस्टल का बेस्वाद खाना खाने वाले को बहुत पसंद थी. मेरे हॉस्टल और क्लास के भी साथी, महा बेशरम जनाब खान साहब की नाक बहुत तेज़ थी, वो आपा के पास बैठकर सिर्फ खुशबू से यह जान लेते थे कि आपा आज क्या माल लेकर आई हैं. खान साहब आपा पर ताने कसते हुए कहते थे-
‘गोपू बनिए की आये दिन खातिर और अपने खान भैया को सिर्फ ठेंगा? आपा, कुछ तो शर्म करो.’
आपा भी ज़ोरदार जवाब देने में माहिर थीं –
‘गोपू मेरा उस्ताद है उसकी खातिर तो मैं ऐसे ही करुँगी और तेरी खातिर तो सिर्फ डंडों से ही करुँगी. मैंने अब तक तीन-तीन डंडे ही देखें हैं पर चार कभी नहीं, मुझ पर तेरा साया भी पड़ गया तो एम. ए. में मेरे चार डंडे आयेंगे. गुरु-दाक्षिणा में वो चारो डंडे तेरे सर पर ही तो फोडूंगी.’
आपा को आंसर शीट में क्या लिखना है, इससे ज्यादा मैंने यह सिखाया कि उन्हें उसमें क्या नहीं लिखना है और यह भी सिखाया कि उन्हें हर सवाल के जवाब को बराबर तवज्जो देनी है. आपा की गाढ़ी उर्दू की जगह अब सरल हिंदी ने ले ली थी. मेरी और आपा की मेहनत रंग लाई. मेरे एम. ए. पार्ट वन में उच्चतम अंक आये और आपा के आये 49 प्रतिशत. आपा ने हम दोनों की सफलता की पहली किश्त की क्लास भर में मिठाई बांटी फिर एम. ए. फाइनल में हम आपा-मिशन 50 प्रतिशत में जुट गए. एम. ए. फाइनल में मैंने टॉप किया और आपा के कुल 52 प्रतिशत अंक आये.
आपा के वालिद का एक मुस्लिम कन्या विद्यालय के मैनेजमेंट में काफी दबदबा था. एम. ए. में 50 प्रतिशत अंक लाने पर आपा की वहां नौकरी पक्की हो जानी थी. आपा को एम. ए. की सफलता पर नौकरी मिल भी गयी. आपा-मिशन 50 प्रतिशत की सफलता, उनको नौकरी मिलने, मेरे टॉप करने और यूजीसी फ़ेलोशिप मिलने की मिली-जुली खुशी में आपा के घर पर दावत रखी गयी. उनके वालिद, उनकी वालिदा, सभी मेरे नाम से अच्छी तरह वाकिफ थे. मुझे ज़िन्दगी में कभी एक साथ इतनी दुआएं नहीं मिलीं, एक साथ कभी इतना प्यार नहीं मिला. मेरे सामने तोहफों का अम्बार लगा था लेकिन खुश होने की जगह मेरी आँखें आंसुओं से भरी हुई थीं.
इसके बाद आपा की ज़िन्दगी में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हुआ. कुछ साल बाद दो बच्चों के बाप, खाते-पीते परिवार के एक विधुर से उनकी शादी हो गयी. आपा का माँ बनने का सपना भी पूरा हो गया. आपा लखनऊ से बाहर चली गयीं. मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी की जॉब छूटी तो फिर मैंने कुमाऊँ यूनिवर्सिटी जॉइन कर ली. आपा से फिर मुलाक़ात नहीं हुई पर मुझे आज भी याद आता है बड़े प्यार और अधिकार से उनका मुझे गोपू कहकर बुलाना, याद आते हैं उनके गाए हुए खूबसूरत नगमे, याद आते हैं उनके बनाए हुए स्वादिष्ट पकवान, पर सबसे ज्यादा याद आती हैं – बे-इन्तहा दुलार बरसाती हुई उनकी ममता भरी आँखें.
हमारे क्लास में एक बुजुर्गवार मोहतरमा थीं. उनका असली नाम न बताकर उन्हें सिर्फ आपा कह लेते हैं. मामूली शक्लो-सूरत की आपा के चेहरे से सिर्फ मायूसी और बेबसी बरसती थी. इतिहास ज्ञान के मामले में वो पूरी तरह पैदल थीं. आपा मुगले आज़म वाली भारी-भरकम उर्दू बोला करती थीं और हिंदी लिखने में उन्हें हमेशा दिक्कत होती थी, अंग्रेजी से तो उनका छत्तीस का आंकड़ा था. उनका रिकॉर्ड था कि उन्होंने कभी प्रथम या द्वितीय श्रेणी के दर्शन नहीं किये थे. आपा मेरे सहपाठियों में मेरी सबसे बड़ी प्रशंसक थीं और उनके लिए मैं सुपर हीरो हुआ करता था. आपा को मुझे रोजाना एक घंटा अलग से पढ़ाना पड़ता था. मेरे क्लास की लड़कियां इस बात को लेकर मुझ पर खूब ताने कसती रहती थीं. उनके समझ में नहीं आता था कि इस निरूपा राय किस्म की आपा पर मैं अपना इतना वक़्त कैसे बर्बाद कर लेता हूँ. लड़कियों ने मुझसे इस रहस्य का उदघाटन किया कि आपा को उनके शौहर ने शादी के सात साल तक औलाद न होने की वजह से तलाक दे दिया था. अब आपा ने बी. एड. करने के दस साल बाद पढाई फिर से शुरू की थी. पर इन जानकारियों के बाद मेरे दिल में आपा के लिए इज्ज़त और बढ़ गयी और उनको पढ़ाने में मैं अब और भी ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा था.
आपा गाती बहुत अच्छा थीं, खासकर पुराने दर्द भरे नगमे गाने में तो उनका कोई जवाब ही नहीं था. खाली पीरियड्स में आयोजित संगीत गोष्ठियों में हमारी फरमाइश पर उन्होंने पता नहीं कितने गाने गाए होंगे. कोई न कोई पकवान बनाकर लाना और उसे सबसे बचा कर सिर्फ मुझे खिलाने की आपा की आदत, मुझ जैसे हॉस्टल का बेस्वाद खाना खाने वाले को बहुत पसंद थी. मेरे हॉस्टल और क्लास के भी साथी, महा बेशरम जनाब खान साहब की नाक बहुत तेज़ थी, वो आपा के पास बैठकर सिर्फ खुशबू से यह जान लेते थे कि आपा आज क्या माल लेकर आई हैं. खान साहब आपा पर ताने कसते हुए कहते थे-
‘गोपू बनिए की आये दिन खातिर और अपने खान भैया को सिर्फ ठेंगा? आपा, कुछ तो शर्म करो.’
आपा भी ज़ोरदार जवाब देने में माहिर थीं –
‘गोपू मेरा उस्ताद है उसकी खातिर तो मैं ऐसे ही करुँगी और तेरी खातिर तो सिर्फ डंडों से ही करुँगी. मैंने अब तक तीन-तीन डंडे ही देखें हैं पर चार कभी नहीं, मुझ पर तेरा साया भी पड़ गया तो एम. ए. में मेरे चार डंडे आयेंगे. गुरु-दाक्षिणा में वो चारो डंडे तेरे सर पर ही तो फोडूंगी.’
आपा को आंसर शीट में क्या लिखना है, इससे ज्यादा मैंने यह सिखाया कि उन्हें उसमें क्या नहीं लिखना है और यह भी सिखाया कि उन्हें हर सवाल के जवाब को बराबर तवज्जो देनी है. आपा की गाढ़ी उर्दू की जगह अब सरल हिंदी ने ले ली थी. मेरी और आपा की मेहनत रंग लाई. मेरे एम. ए. पार्ट वन में उच्चतम अंक आये और आपा के आये 49 प्रतिशत. आपा ने हम दोनों की सफलता की पहली किश्त की क्लास भर में मिठाई बांटी फिर एम. ए. फाइनल में हम आपा-मिशन 50 प्रतिशत में जुट गए. एम. ए. फाइनल में मैंने टॉप किया और आपा के कुल 52 प्रतिशत अंक आये.
आपा के वालिद का एक मुस्लिम कन्या विद्यालय के मैनेजमेंट में काफी दबदबा था. एम. ए. में 50 प्रतिशत अंक लाने पर आपा की वहां नौकरी पक्की हो जानी थी. आपा को एम. ए. की सफलता पर नौकरी मिल भी गयी. आपा-मिशन 50 प्रतिशत की सफलता, उनको नौकरी मिलने, मेरे टॉप करने और यूजीसी फ़ेलोशिप मिलने की मिली-जुली खुशी में आपा के घर पर दावत रखी गयी. उनके वालिद, उनकी वालिदा, सभी मेरे नाम से अच्छी तरह वाकिफ थे. मुझे ज़िन्दगी में कभी एक साथ इतनी दुआएं नहीं मिलीं, एक साथ कभी इतना प्यार नहीं मिला. मेरे सामने तोहफों का अम्बार लगा था लेकिन खुश होने की जगह मेरी आँखें आंसुओं से भरी हुई थीं.
इसके बाद आपा की ज़िन्दगी में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हुआ. कुछ साल बाद दो बच्चों के बाप, खाते-पीते परिवार के एक विधुर से उनकी शादी हो गयी. आपा का माँ बनने का सपना भी पूरा हो गया. आपा लखनऊ से बाहर चली गयीं. मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी की जॉब छूटी तो फिर मैंने कुमाऊँ यूनिवर्सिटी जॉइन कर ली. आपा से फिर मुलाक़ात नहीं हुई पर मुझे आज भी याद आता है बड़े प्यार और अधिकार से उनका मुझे गोपू कहकर बुलाना, याद आते हैं उनके गाए हुए खूबसूरत नगमे, याद आते हैं उनके बनाए हुए स्वादिष्ट पकवान, पर सबसे ज्यादा याद आती हैं – बे-इन्तहा दुलार बरसाती हुई उनकी ममता भरी आँखें.
शिक्षक दिवस पर आपको ढेर सारी शुभकामनाऐं । आप हमेशा एक अच्छे शिक्षक रहे हैं और आपके विद्यार्थी हमेशा आपको याद करते रहें दुआयें मिलती रहें इससे ज्यादा की कामना शायद एक शिक्षक की होती भी नहीं है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू. शिक्षक दिवस पर आपको भी बधाई. अपने विद्यार्थियों को भी अपनी तरह बेबाक, इमानदार और अलमस्त बनाइएगा.
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