कहते हैं - 'बिन घरनी, घर, भूत का डेरा'
दुबई में नाती-नातिन के साथ आनंद मनाकर 62 दिन बाद घरनी 'भूत के डेरे' में पधारी हैं और इस भूत के डेरे को फिर से घर बनाने में, भूत की तरह जुट गयी हैं.
लेकिन हाय! वो भी क्या दिन थे !
एक मक़बूल शेर है -
कहीं वो आके मिटा दें न इन्तिज़ार का लुत्फ़,
कहीं क़ुबूल न हो जाय, इल्तिजा मेरी.
अगर मेरी जगह आज जोश मलिहाबादी होते तो वो कहते -
'हाय मेरे हिज्र के दिन, क्यूँ मुझे धोखा दिया,
ऐन दिलचस्पी का आलम था, उन्हें बुलवा लिया?'
दुबई में नाती-नातिन के साथ आनंद मनाकर 62 दिन बाद घरनी 'भूत के डेरे' में पधारी हैं और इस भूत के डेरे को फिर से घर बनाने में, भूत की तरह जुट गयी हैं.
लेकिन हाय! वो भी क्या दिन थे !
एक मक़बूल शेर है -
कहीं वो आके मिटा दें न इन्तिज़ार का लुत्फ़,
कहीं क़ुबूल न हो जाय, इल्तिजा मेरी.
अगर मेरी जगह आज जोश मलिहाबादी होते तो वो कहते -
'हाय मेरे हिज्र के दिन, क्यूँ मुझे धोखा दिया,
ऐन दिलचस्पी का आलम था, उन्हें बुलवा लिया?'
बधाई हो। दावत कर डालिये इसी बात पर।
जवाब देंहटाएंदावत तैयार करने वाली के हाथ में झाडू है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..........,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीनाजी. कृपया अपनी टिप्पणी को विस्तार दिया करिए.
हटाएंअगर मैं यह लिखती कि झाड़ू हाथ में है तो बच के रहियेगा तो यह असभ्यता के दायरे में आता इसलिए उपरोक्त प्रतिक्रिया सही लगी.
हटाएंबेलन की बात छोड़ कर बस झाडू बताये हैं ।
हटाएंओलंपिक्स में भाला फेंक, चक्का फेंक, गोला फेंक (हैमर थ्रो की हिंदी याद नहीं आ रही है)के साथ बेलन फेंक और झाडू फेंक भी जुड़ जाएं तो हमारी वीरांगनाएँ दो स्वर्ण पदक तो जीत कर ले ही आएंगी.
हटाएंझाडू से मेरी रक्षा करने के लिए धन्यवाद मीना जी.
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १४ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. आप लोगों का स्नेह मुझ पर यदि यूँ ही बना रहेगा तो मेरी कलम भी यूँ ही चलती रहेगी.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय गोपेश जी -- एक तो पति और दूसरा अतिरिक्त सद्गुण - हास्य कवि होना -- यानि एक करेला दूसरा नीम चढा !!!!आपकी लेखनी की महिमा बढ़ जाती अगर आप हमारी बहना के सम्मान में कुछ ऐसा लिख देते --
जवाब देंहटाएंपरदेशन ने आ कर
घर बना दिया मकान मेरा ,
छद्म जाले - धूल हुई गायब -
चम् चम हुआ परीस्तान मेरा !
खा -खा बदमज़ा खाना -
थी भूख लगनी बंद हुई -
आज उनके हाथ की खिचड़ी -
छप्पन भोग आनन्द हुई ;
चप्पा चप्पा घर का -
आह्लादित और हैरान हुआ -
टूटे बटन भी लग गये -
था देख जिन्हें जी हलकान मेरा !!!!!!!!!~
पर पति आखिर पति ठहरे -- उन्हें याद ही कहाँ रहता है प्रेम से खिलाई रोटियों और टूटे बटनों का हिसाब !!!!!
सादर ---
रेनू जी, अगर मेरी श्रीमती जी चुनाव में मेरे खिलाफ़ खड़ी हो जायं तो औरों की तो बात ही क्या, मेरा वोट भी उन्हें ही मिलेगा और ख़ासकर आपकी इस शानदार काव्यात्मक प्रशंसा के बाद. वैसे आप ने जासूसी कब से शुरू कर दी? हमारे घर की अन्दर की बातों की ऐसी प्रामाणिक जानकारी आपको किस सूत्र से प्राप्त हुई? आपकी कलम बहुत नटखट है, चटपटी है और चाट मसाले की तरह थोड़ी चरपरी भी है. आपको शाबाशी और मुबारकबाद तो बनती है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस सहृदयता की आभारी रहूंगी आदरणीय गोपेश जी | आपने मेरे छोटे से मज़ाक को कितनी सरलता से लिया मुझे अभिभूत कर दिया सादर आभार और नमन |
हटाएंआपके नए लेख पर चाहकर भी लिख नहीं पा रही जल्द ही आऊँगी | ध्रुव जी के लिंक में भी अभी लिखकर आई जरुर देख लें | सादर
जवाब देंहटाएंरेनू जी, मैंने ध्रुव जी के लिंक को खंगाल डाला पर आपकी रचना दिखी नहीं. शायद उसके लिए मुझे अगले सोमवार तक का इंतज़ार करना पड़ेगा.
हटाएंगोपेश जी -- मैंने अपनी रचना के बारे में नही कहा था वो तो मैंने आपके सम्मान में कुछ शब्द लिखे थे | दो हफ्ते से मेरी कोई रचना ध्रुव जी के लिंकों में नही आ पायी | सादर --
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