पुलिस वालों को देखकर लोगों की
घिग्घी बंध जाती है या उन्हें सांप सूंघ जाता है पर मुझे तो वो अपने दोस्त और
मददगार ही लगते हैं.
इसका कारण मुख्य रूप से यह है कि उन्हें अपना दोस्त समझने के संस्कार मुझे घुट्टी
में मिले हैं.
पिताजी जुडीशियल मजिस्ट्रेट थे
इसलिए सिपाहियों और दरोगाओं का हमारे यहाँ छुट्टियों के दिनों में भी, किसी को
ज़मानत दिलाये जाने की खातिर या किसी को जेल भिजवाने की खातिर, या ऐसे ही और कामों
की वजह से आना जाना लगा ही रहता था. मजिस्ट्रेट साहब को फ़ौजी सलाम के साथ-साथ मुझ
भैया जी को भी कभी-कभार खाकी वर्दी-धारियों की मुस्कान भरी सलाम मिल जाया करती थी.
बाराबंकी में हमारी फूस वाली कोठी
जामुन के पेड़ों के लिए पूरे शहर में मशहूर थी. हमको ज़मीन पर अपने-आप टपके हुए,
पिलपिले जामुन बिलकुल अच्छे नहीं लगते थे पर जामुन के पेड़ों पर चढ़कर ख़ुद जामुन
तोड़ने की कला से हम जैसे डरपोक कोसों दूर थे. सभी साहसी जामुन प्रेमियों के लिए
हमारा खुला ऑफ़र होता था –
‘जामुन के पेड़ पर चढ़कर, जामुन तोड़कर
थैले में भरो. आधे ख़ुद ले जाओ और आधे हमारे हवाले कर दो.’
पिताजी के परम मित्र, डी. एस. पी.
तिवारी ताउजी, एक फुर्तीले नौजवान सिपाही के हाथों, हमारे यहाँ अपने बंगले की
सब्जियां भिजवाया करते थे और बदले में वो हमारे घर से अपने लिए जामुन मंगवाते थे. नौजवान
सिपाही एक पेड़ पर चढ़कर जामुन तोड़ता था, फिर वो दूसरे पर चढ़कर अपना और हमारा थैला,
जामुनों से भरता था. यह मोगली अवतार हमारे बंगले के पिछवाड़े लगे बेल के पेड़ों पर
चढ़कर भी यही फ़िफ्टी-फ़िफ्टी का खेल दोहराता था और माँ के लिए उनके प्रिय बेल के
शर्बत की व्यवस्था करवाता था. हमको खट्टे-मीठे फल मुहैया करने वाले इस मोगली ने
पुलिस वालों को मेरी दृष्टि में कितना ऊपर उठा दिया था, इसका शब्दों में बयान करना
मुश्किल है.
झाँसी में पिताजी ने एक पुरानी लैंडमास्टर कार खरीदी थी जो कि आम तौर पर
धक्के खाने के बाद ही स्टार्ट हुआ करती थी. हमारी कोठी के पास ही बुंदेलखंड कॉलेज
का चौराहा था जिस पर ट्रैफिक पुलिस का एक सिपाही तैनात रहता था. जब वो मुझे और
पिताजी के दोनों चपरासियों को, पिताजी की कार में धक्का देते हुए देखता था तो वो
भी उस में अपना योगदान देने के लिए आ जाता था और हमारे पिताजी थे कि जब कार
स्टार्ट हो जाती थी तो उस सिपाही को धन्यवाद देने की ज़हमत भी नहीं उठाते थे, बस
उनके चेहरे पर एक हलकी सी मुस्कान आ जाती थी जिसका कि मतलब होता था - ‘शाबाश’.
पिताजी जब आज़मगढ़ में चीफ़ जुडिशिअल
मजिस्ट्रेट थे तो वो एक बार महावीर जयंती के अवसर पर मुझे और माँ को लेकर कार (अब
हमारी कार एम्बेसडर थी और उसे धक्का देकर स्टार्ट करने की कोई ज़रुरत नहीं पड़ती थी) से बनारस गए. जैन मंदिर से थोड़ी
दूर पर ही कोतवाली थी. पिताजी ने इत्मीनान से कार कोतवाली के अन्दर पार्क की.
टकटकी लगाकर देखने वाले सिपाहियों से और सब-इंस्पेक्टर से न तो उन्होंने कुछ पूछा
और न ही किसी को कुछ अपने बारे में बताया. फिर हम सब मंदिर के लिए चल दिए. जब तक
हम मंदिर से लौटकर कोतवाली पहुँचे तब तक हमारे खाने का समय हो चुका था. हमारे पास
पूड़ियाँ और सब्ज़ी थी पर हम बिना दही के खाना कैसे खा सकते थे? हमलोगों के साथ
पिताजी कोतवाली के हॉल में पहुंचे, वहां पड़ी एक बड़ी सी टेबल पर माँ ने हमारा खाना
सजाया. पिताजी ने एक सिपाही को बुलाकर 10 रूपये का नोट दिया और फिर फ़रमाया –
‘जल्दी से आधा किलो दही, मेम साहब
और भैया के लिए नीबू, अदरक, काला नमक डलवाकर दो गन्ने के गिलास और मेरे लिए एक कम
चीनी वाली शिकंजी ले आओ.’ (ये किस्सा 44 साल पुराना है, तब ये सारा सामान कुल 3-4
रुपयों में आ गया होगा.)
पिताजी के मुगले आज़म वाले रौब-दाब
के बीच मैंने हतप्रभ सब-इंस्पेक्टर को पिताजी का परिचय दे दिया. फिर क्या था?
पुलिस-मित्र हम लोगों की सेवा और भी अधिक तत्परता से करने लगे. हमारे खाना खाने के
दौरान हमारी कार भी झाड़-पौंछ कर चमका दी गयी.
पिताजी के अवकाश-ग्रहण के बाद हमारे
घर में पुलिस-मित्रों की आवाजाही पूरी तरह से ख़त्म हो गई पर मेरे लिए पुलिस वाले
कभी गब्बर सिंह की तरह बच्चों को रातों में डराने वाले नहीं रहे. अल्मोड़ा में मेरे
मित्र डॉक्टर अग्रवाल मुझसे पूछा करते थे –
जैसवाल साहब, आप इन पुलिस वालों से
इतने कॉन्फिडेंस से कैसे बतिया लेते हैं?’
अल्मोड़ा की ही बात है. एक हेड
कांस्टेबल इतिहास में प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में एम. ए. कर रहा था. गाइडेंस
के लिए वो मेरी शरण में आया और फिर उसके हफ़्ते में दो-तीन चक्कर तो (मेरे घर के)
लग ही जाते थे. वो उत्तर प्रदेश के एटा जिले का रहने वाला था. जब से उसे यह पता
चला कि एटा, मेरी ननिहाल है तो वो पढ़ाई के अलावा सारी बातें, मुझसे ब्रज भाषा में
ही करने लगा था.
निस्वार्थ-भाव से पढ़ाने वाले मुझ
गुरु जी को वो किसी न किसी रूप में औब्लाइज करना चाहता था. कभी वो मुझसे कहता –
‘गुरु जी, रीगल सिनेमा बारो मोय
जानतो ऐ. (रीगल सिनेमा वाला मुझे जानता है).
फ्री में पिक्चर देखबे कूँ मन करे
तो मोय बतइयो.’ (मुफ्त में फ़िल्म देखने का मन करे तो मुझे बताइएगा).
अब गुरु जी ही क्या, कोई भी भला
मानस उस बिगड़े प्रोजेक्टर वाले, नरक समान दम-घोंटू सिनेमा हॉल में जाकर फ़िल्म देखने की कल्पना भी
नहीं कर सकता था.
कभी वो मुझसे पूछता – ‘गुरूजी,
दारू-शारू?’
ऐसे सवालों पर उसे जवाब के रूप में डांट
और जान से मारे जाने की धमकी मिलती थी.
एक बार उसने मुझसे पूछा – ‘गुरूजी,
कोऊ तुमकूं परेसान कत्त होय तो बा सारे कूँ पिटवा दूं?’ (आपको अगर कोई परेशान करता
हो तो उस साले को पिटवा दूं?)
इस बार मैंने उसकी सेवाओं का भरपूर
लाभ उठाने के लिए उस से कहा –
‘हाँ, एक आदमी तो मुझे बहुत परेशान
करता-रहता है. उसकी पिटाई का इंतज़ाम करवा दो तो मैं खुश हो जाऊंगा.’
भक्त छात्र ने तमतमाकर, मुट्ठी
बांधकर, मुझसे पूछा –
‘गुरूजी, नाम बताओ बा सारे का’ (उस
साले का नाम बताइए)
मैंने इस सवाल के जवाब में एक सवाल
दाग दिया –
‘क्या तू अपना नाम ख़ुद नहीं जानता?
अपने ऊटपटांग सवालों से और ऊल-जलूल सेवाओं के अपने प्रस्तावों से एक तू ही तो है
जो मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करता है.’
एक लखनऊ का किस्सा भी पेशे-ख़िदमत है
–
मेरे अल्मोड़ा जाने के बाद मेरा
पुराना लम्ब्रेटा स्कूटर लखनऊ में लगभग अनाथ हो गया था. उसके सारे डाक्यूमेंट्स भी
इधर से उधर कहीं गायब हो गए और ख़ुद उसकी दशा ऐसी हो गयी कि बिना धक्का दिए उसने
स्टार्ट होना ही छोड़ दिया था. छुट्टियों में जब मैं लखनऊ पहुँचता था तो सबसे पहले मुझे
अपनी शाही सवारी को मूर्छा से उठाने के लिए संजीवनी बूटी का इंतज़ाम करना पड़ता था.
एक बार आधे घंटे की मशक्क़त करने के
बाद स्टार्ट कर के मैं अपने पुष्पक विमान को निशातगंज ले गया. गलती से वन-वे लेन
में, मैं उल्टी दिशा से घुस गया. एक ट्रैफिक पुलिस वाले ने मुझे रोक लिया और मुझसे
बोला –
‘वन-वे वाला इतना बड़ा बोर्ड आपको
दिखाई नहीं दिया क्या? चलिए, अपने पेपर्स दिखाइए.’
मैंने कहा –
‘पेपर्स तो नहीं हैं.’
उसने कहा –
‘तो जाइए, घर से लेकर आइए.’
मैंने दुखी होकर कहा –
‘भैया, पेपर्स तो सब इधर-उधर हो गए
हैं. घर में भी नहीं हैं.’
सिपाही महोदय ने दृढ़ता से कहा –
‘तब तो आपका स्कूटर ज़ब्त होगा.
पेपर्स लाइए और फिर जुर्माना भर के स्कूटर वापस ले जाइएगा.’
मैंने मुस्कुराते हुए उस से कहा –
‘दोस्त, तुम मेरा स्कूटर ज़ब्त ही कर
लो, मैं तो ख़ुद इस से छुटकारा पाना चाहता हूँ. इसे बेचकर मुझे हज़ार-बारह सौ जो
मिलने वाले थे, उस से तो तुम्हारा जुर्माना भी ज़्यादा ही होगा.’
मेरी बात सुनकर अब सिपाही ख़ुद चकरा
गया. फिर अचानक उसने मुझसे पूछा –
‘आप क्या कहीं टीचर हैं?’
मैंने अपना परिचय दिया तो वो मुझसे
हाथ जोड़ कर बोला –
‘गुरूजी, अपना स्कूटर ले जाइए और
इसे फ़ौरन बेच दीजिए.’
मैंने अपने इन नए मित्र को धन्यवाद
दिया और फिर उसकी मदद से ही स्कूटर को धक्का देकर स्टार्ट कर मैं उसी स्कूटर के
लिए खरीदार खोजने के लिए निकल पड़ा.
ग्रेटर नॉएडा में मेरा मकान बन रहा
था. बाथरूम और किचन की फ़िटिंग्स खरीदने के लिए मैं प्लंबर के साथ दिल्ली गया. हमने
ढेर सारा सामान ऑटो में भरा और फिर हम ग्रेटर नॉएडा के लिए चल पड़े. ग्रेटर नॉएडा
की चौकी पर चेकिंग करने वाले पुलिस दस्ते ने हमको रोक लिया. हमारे पास इतना अधिक
सामान ले जाने के लिए आवश्यक कागज़ात नहीं थे. इंस्पेक्टर ने मुझ पर यह आरोप लगाया
कि मैं इतना सारा सामान बेचने के इरादे से ले जा रहा हूँ. मैंने जब ये कहा कि ये
सारा सामान मेरे निजी मकान के लिए है तो उसने मुझसे पूछा –
‘आपके घर में कितने बाथरूम और कितने
किचन हैं?’
मैंने जवाब दिया –
‘दोनों मंज़िलें मिलाकर कुल 5 बाथरूम
हैं और 2 किचन.’
इंस्पेक्टर ने ताना मारते हुए पूछा –
‘इतना बड़ा मकान बनवा रहे हैं आप, और
चल रहे हैं इस खटारा ऑटो पर?
मैंने जवाब दिया –
‘भैया, ग़नीमत है कि अभी ऑटो से चलने
के पैसे मेरे पास बचे हैं. हो सकता है कि मकान पूरा करते-करते, आगे से घर का सारा
सामान मुझे सर पर ढोकर लाना पड़े.’
इंस्पेक्टर को मेरा जवाब सुनकर हंसी
आ गयी. उसने पूछा –
‘आप करते क्या हैं?’
लखनऊ प्रसंग की ही तरह एक बार फिर
मेरा परिचय पाकर पुलिस मित्रों ने प्रेम-पूर्वक मुझे बिना किसी जुर्माने के, सामान
सहित विदा कर दिया.
और अब आख़री किस्सा.
2013 में हम पति-पत्नी को, अपनी बड़ी
बेटी और दामाद से मिलने दुबई जाना था. पासपोर्ट बनवाने के लिए हम पासपोर्ट ऑफ़िस
गए, वहां की औपचारिकताएं पूरी करने के एक हफ़्ते बाद इन्टरनेट पर हमको पुलिस
इन्क्वायरी कराने के लिए निर्देश मिले. हमारे जानकार मित्रों ने बाताया कि बिना
दान-दक्षिणा के पुलिस इन्क्वायरी संपन्न नहीं होती है.
हम ज़रूरी दस्तावेज़ और न्यौछावर के
लिए ज़रूरी रकम के साथ कोतवाली पहुँच गए. वहां मैंने अपना परिचय दिया. हमको पता चला
कि पुलिस इन्क्वायरी के लिए हमारे कागज़ात कोतवाली में पहले ही पहुँच चुके हैं.
कोतवाली में किसी कर्मचारी के घर
में बेटा हुआ था, उसकी खुशी में हमको भी लड्डू खाने को मिले. मेरे लिए फीकी वाली
और मेरी श्रीमती जी के लिए कम चीनी वाली चाय भी आई. हम समझ गए कि बलि की वेदी पर
चढ़ाए जाने से पहले बकरे की पूजा की जा रही है.
एक दीवानजी ने हमारे कागज़ात देखे, एक
महिला क्लर्क ने हम दोनों से अलग-अलग फॉर्म्स पर फ़ोटो लगवाए, कुछ और एंट्रीज़ हुईं,
फिर हमारे हस्ताक्षर भी हुए. इसके बाद पुलिस रजिस्टर में कुछ दर्ज किया गया. हमको
रिफ़रेन्स के लिए दो नम्बर्स दिए गए.
अब मैंने चुपके से अपनी जेब में नोट
टटोलते हुए दीवानजी से पूछा –
‘दीवानजी, आप पुलिस इन्क्वायरी के
लिए हमारे घर अब कब आएँगे? हमको अब और क्या करना होगा?’
दीवानजी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया
–
‘गुरु जी, आप दोनों की पुलिस
इन्क्वायरी तो यहीं पूरी हो गयी. हमको आप के घर आने की अब क्या ज़रुरत है? हमारे
यहाँ से ये कागज़ात नॉएडा के सेक्टर 20 वाले दफ़्तर में जाएंगे और फिर वहां से आपके
कागज़ात, पासपोर्ट ऑफ़िस चले जाएंगे. बस, उसके एक हफ़्ते बाद आप दोनों के पासपोर्ट
आपके घर पहुँच जाएंगे.’
और ऐसा ही हुआ. बिना कुछ पैसा दिए,
मुफ़्त में लड्डू खाकर, मुफ़्त की चाय पीकर, हमारी पुलिस इन्क्वायरी संपन्न हो गयी,
फिर 15 दिन में हम दोनों के पासपोर्ट भी हमारे घर आ गए.
तो मित्रों ! यह आदि से लेकर अंत तक
की सुखद कथा समाप्त हुई.
मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि
ख़ाकी वर्दी-धारियों की मुझ पर यूँ ही कृपा बनी रहे और उनकी मदद से मेरे बिगड़े हुए
काम, बिना हींग-फिटकिरी लगाए, यूँ ही चोखे होते रहें, यूँ ही संवरते रहें.
वाह बहुत सुन्दर संस्मरण हैं। कभी अल्मोड़ा कैम्पस में तैनात विश्विध्यालय के पुलिसियों पर भी कुछ लिखिये बहुत होगा आपके पास।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद सुशील बाबू. शिक्षा संकाय के चौबे के घर की चोरी का (दिसंबर, 1980 का) किस्सा है. उन्होंने कोतवाली में उसकी रिपोर्ट लिखाई थी. उस पर मैंने एक कहानी लिखी थी. कभी उसे तुम लोगों के साथ शेयर करूंगा.
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अमर क्रांतिकारियों की जयंती और पुण्यतिथि समेटे आया २८ मई “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद. 'ब्लॉग बुलेटिन' से मेरी रचनाओं का जुड़ना मेरे लिए एक सुखद अनुभूति होती है.
हटाएंरोचकता से भरपूर संस्मरण ,आरम्भ से अन्त तक ....,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीनाजी. इधर एक-दो महीनों से क्षणिकाओं और लतीफ़ों पर ध्यान ज़्यादा था. बहुत दिनों बाद संस्मरण लिखा है. आपको अच्छा लगा, यह जानकार खुशी हुई.
हटाएंबहुत सुंंदर यादों का पिटारा है सर...।
जवाब देंहटाएंआभार सुंदर संस्मरण पढ़वाने के लिए।
धन्यवाद श्वेता जी. इस यादों के पिटारे में मेरी गुस्ताखियाँ भी हैं और नादानियाँ भी. कभी-कभी डर लगता है कि मेरी बेटियां इनको पढ़कर ये न पूछें - 'हाय पापा! हमको शरीफ़ बनने का उपदेश देने वाले, ख़ुद आप इतने शरारती थे?'
हटाएंसुंदर संस्मरण पढ़वाने के लिए....धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय भास्कर जी. ये पुरानी यादें मेरे लिए टॉनिक का काम करती हैं.
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