शनिवार, 9 जून 2018

सत्ता-भक्ति में शक्ति

पानी केरा बुदबुदा, अस भक्तन की जात,
पद छिनते छुप जाएंगे, ज्यों तारा परभात.
आजकल भक्तगण टीवी चैनलों पर और फ़ेसबुक पर छाए हुए हैं. लेकिन ये भक्त कुर्सी पर विराजमान महानुभावों की ही भक्ति करते हैं, न कि किसी मंदिर में स्थापित शिवजी की, रामजी की, कान्हाजी की या हनुमानजी की. इन सत्ता-भक्तों की वाणी अत्यंत मधुर होती है. लगता है कि ये बाबा रामदेव के दन्तकान्ति से नहीं, बल्कि डायनामाइट से दन्त-मंजन करते हैं.
बादशाह अकबर के ज़माने में दर्शनियों की एक जमात होती थी जो बादशाह के दर्शन किये बिना न पानी का एक भी घूँट लेती थी और न मुंह में अन्न का एक भी दाना डालती थी.
इंदिराजी के ज़माने में कोई बरुआ साहब हुआ करते थे जिन्हें इंदिरा जी में ही इंडिया दिखाई देता था.
महा-विद्वान पी. वी. नरसिंह राव मानव संसाधन मंत्री के रूप में कुमाऊँ विश्व विद्यालय के दीक्षांत समारोह में आए तो कह गए -
'हम पुराने लोग नई तकनीक के बारे में कुछ नहीं जानते थे. हम राजीव गाँधी जी के आभारी हैं कि उन्होंने हमको तकनीकी दुनिया में हमारा हाथ पकड़कर चलना सिखाया है.'
बिहार में जब लालू-राज था तो वहां मंदिरों में हनुमान चालीसा की जगह लालू चालीसा पढ़ा जाता था.
और वर्तमान कुर्सी भक्तों की भक्ति का तो बखान ही नहीं किया जा सकता. ये भक्त, पुराने कुर्सी भक्तों की तुलना में अधिक उत्साही हैं, अधिक समर्पित हैं, अधिक आक्रामक हैं, और सबसे बड़ी बात है कि अधिक अंधे हैं.
इन भक्तों को मतभेद स्वीकार्य ही नहीं है. जिस से उनके विचार नहीं मिलते उसको अपने त्रिशूल से भेदना इन्हें खूब आता है.
टीवी चैनल्स पर हो रही बहसों में अपने विरोधियों को ये कच्चा चबा जाने की हर संभव कोशिश करते है.
फ़ेसबुक पर पोस्ट की गयी कोई बात इन्हें अगर नागवार गुज़रे तो ये लाठी भांजते हुए अपने शिकार की ओर दौड़ पड़ते हैं. इनकी भाषा इतनी अशिष्ट होती है कि लोग चिरकीन की शायरी भूल जाएं और इनके विचार तथा तर्क इतने बचकाने होते हैं कि के. जी. में पढ़ने वाला बच्चा भी उस पर हंस पड़े.
अपनी स्पष्टवादिता के कारण अक्सर मुझे इन भक्तों के प्रकोप का भाजन बनना पड़ता है. कल मैंने अपने एक मित्र की पोस्ट पर प्रणव मुुखर्जी के भाषण और उनके राजनीतिक जीवन पर प्रतिकूल टिप्पणी क्या कर दी, एक कुर्सी-भक्त मुझ पर तलवार लेकर टूट पड़े. जैसे तैसे मेरी जान बची.
अपने सभी जागरूक मित्रों से मेरा अनुरोध है कि वो इन अति-उत्साही कुर्सी-भक्तों से ३६ का आंकड़ा रक्खें. अगर वो ऐसा नहीं करते हैं तो मैं समझूंगा कि मेरी मुफ़्त में हज़ामत कराने में उन्हें भी खुशी मिलती है.
वैसे एक बात अच्छी है. इन बरसाती मेढकों की टर-टर सत्ता परिवर्तन होते ही बंद हो जाती है पर जब तक कुर्सी पर विराजमान मूरत नहीं बदलती तब तक तो इनके शोर और इनकी हरक़तों को हमको बर्दाश्त करना ही होगा.

8 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो नाही छोड़ेंगे टर्राना। कान में रूई डाल लियो।

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    1. सुशील बाबू, कान में रुई डालने की मुझे कोई ज़रुरत नहीं है. वैसे भी सुनाई कम पड़ता है. कोई अगर टरटराता है तो मैं और कुछ नहीं करता, बस अपने कानों से हियरिंग एड निकाल लेता हूँ.

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  2. हा हा हा...रोचक,सटीक और समसामयिक परिस्थितियों पर शानदार व्यंग्य है सर।
    ऊपर की दो लाइन तो जबर्दस्त है👌👌

    सर एक दोहा रहीम का आपके सुंदर व्यंग्य के लिए-

    जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग
    चंदन विष व्याप्त नहीं, लपटे रहत भुजंग

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  3. धन्यवाद श्वेता जी. मुझको चंदन और भक्तों को भुजंग कहने के लिए शुक्रिया. वैसे रहीम के इस पुराने दोहे का तो मैं पहले ही जीर्णोद्धार कर चुका हूँ -
    सत्ता-दल, प्रति-पक्ष में, व्यर्थ आपसी जंग,
    सियासती हम्माम में, हर कोई नंग-धड़ंग'

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  4. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ११ जून २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' ११ जून २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीया शुभा मेहता जी से करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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  5. धन्यवाद मित्र ध्रुव सिंह जी. 'लोकतंत्र' संवाद मंच के माध्यम से मेरी रचना जन-जन तक पहुँचती है और मुझे नए मित्र मिलते हैं. मेरे दोस्तों का दायरा बढ़ाने के लिए शुक्रिया.

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  6. तगड़ा व्यंग है आज की परिस्थिति पर ...

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    1. धन्यवाद दिगंबर नसवा जी. अब तगड़ी गालियाँ और और तगड़ी धमकियाँ खाने के बाद कमज़ोर व्यंग्य लिखा भी कैसे जा सकता था?

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