शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

शिकायत और हिदायत


सुश्री कुसुम कोठारी की एक सुन्दर कविता है जिसमें एक ग़रीब मेहनतकश बिटिया कुछ सपने देखती है. इस सुंदर कविता ने मुझे भी चंद पंक्तियाँ लिखने के लिए प्रेरित किया है लेकिन मेरी इस कविता में आशा बहुत कम है और व्यावहारिकता ज़रुरत से कुछ ज़्यादा है.    
बेटी की शिकायत -
छोटे मालिक से न मिलूंगी, और न उनके घर जाऊंगी,
ना नाचूं उनके कहने पर, नहीं कभी गाना गाऊंगी,
जब तब देखो मुझे छेड़ते, कैसी-कैसी हरकत करते,
कभी कमर या हाथ पकड़ते, कभी नोट हाथों में धरते.

कभी अजब तस्वीर दिखाते, कभी मुझे बांहों में भरते,
दम घुटता है, पैर कांपते, जीना क्या ये, डरते डरते.
अम्मा मैं स्कूल जाऊंगी, पढ़-लिख कर फिर मेम बनूंगी,
झाडू बर्तन नहीं करूंगी, तिल-तिल कर, अब नहीं मरूंगी.

माँ की हिदायत -
बेटी, सपने देख, मगर, गर रहें अधूरे, तो मत रोना,
 बर्तन-झाड़ू करती रहना, पढ़ने में तू वक़्त न खोना.
छोटे मालिक की नज़रों से, बचने की कोशिश मत करना,
कुछ उल्टा-सीधा हो जाए, तो अपना धीरज मत खोना.

बड़के मालिक का भी मुझ पर, जाने कैसे दिल था आया,   
बरसों तक दरियादिल होकर, फिर मेरा हर खर्च उठाया.
लेकिन जब ढल गयी जवानी, फिर झाडू, फिर बर्तन-पानी,
जाने कितने घर में ख़ुद को, दोहराती है यही कहानी. 

मेरी गलती मत दोहराना, जज़्बातों में कभी न आना,    
धन-कुबेर की धन-वर्षा का, तू जी भर आनंद उठाना.
गर्दिश की काली रातों को, दौलत से तू दूर भगाना,
सुख के दिन में, दुखिया माँ को, लेकिन बिटिया, नहीं भुलाना.

21 टिप्‍पणियां:

  1. और भी बहुत कुछ है । फिर भी काफी लिख दिये। बढ़िया अभिव्यक्ति।

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  2. धन्यवाद सुशील बाबू. कहा जाता है - 'थोड़े लिखे को बहुत समझना'
    तो आगे का तुम ख़ुद ही समझ लो.

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 11/01/2019 की बुलेटिन, " ५३ वर्षों बाद भी रहस्यों में घिरी लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी रचना सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी.
      'ब्लॉग बुलेटिन' के प्रत्येक अंक का मैं रस्वास्वादन करता हूँ.

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  4. आदरनिय गोपेश जी -- Hindi tool is not working today |

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  5. रेनू जी, मैं इंतज़ार करूंगा कि आप मेरे ब्लॉग पर मेरी कविता पढ़ सकें. वैसे मेरी यह कविता फ़ेसबुक पर भी है.

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  6. तील हम है,
    और गुड़ हो आप,
    मिठाई हम है,
    और मिठास हो आप,
    इस साल के पहले त्योंहार से
    हो रही आज शुरुआत…
    आपको हमारी ओर से परिवार सहित
    मकर संक्रांति की शुभकामनाये !!

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    1. दोस्त !
      मकर संक्रांति की आपको भी बहुत-बहुत बधाई !
      ईश्वर से प्रार्थना है कि आपके लिए और आपके परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए हर त्यौहार ही क्यों, आने वाला हर दिन, मीठा और रंगीन हो.

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  7. समाज को आईना दिखाती यथार्थवादी चिंतन से परिपूर्ण रचना जो सामाजिक विकृतियों की बख़िया उधेड़ती है। पाठक के दिलोदिमाग़ में एक कसक लम्बे समय तक बनी रहेगी इसे पढ़ने के बाद।
    सादर नमन सर।
    मकर संक्रांति की शुभकामनाएँ।

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    1. रवीन्द्र सिंह यादव जी,
      सबसे पहले जन्मदिन की एक बार और शुभकामनाएँ और मकर संक्रांति की भी शुभकामनाएँ.
      मेरी कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ! हम लोग पता नहीं क्यों समाज में व्याप्त अनाचार और अमीरों, शक्तिशालियों द्वारा गरीबों, बेबसों के यौन-शोषण के कटु सत्य को स्वीकार करने से हिचकते हैं जब कि हमको खुलकर इसे स्वीकार करना चाहिए और बहुत मुखर होकर उसके खिलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए.

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  8. आदरणीय गोपेश जी -- सबसे पहले आपको मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें | आप सपरिवार सकुशल और स्वस्थ रहें और अपने प्रखर बिंदास लेखन से सबको मुस्कुराहटें प्रदान करते रहें यही कामना है |परसों हिन्दी टूल ने दिक्कत दी तो आज उपस्थित हूँ -- अपने वादे के अनुसार | समाज के मर्मान्तक सच को वो आइना दिखाया आपने कि मन बहुत उदास हो गया पढ़कर | एक सरल बालिका और विपन्नता से जूझती माँ की नैतिकता से कोसों दूर ये हिदायत मन को झझकोर जाती है | हम लोग छोटे शहर में रहते हैं शायद ऐसी घटना मैंने नहीं सुनी पर गाँव में जमींदार लोगों और बड़े शहरों में वहशी लोगों की अय्याशी के किस्से अख़बारों में अक्सर दिखाई पड़ते रहते हैं |गरीबी में कोई कहाँ तक समझौता कर लेता है ये बात मन को बींध जाती है |और लानत है उन लोगों पर जो धन और ओहदे की आड़ में किसी गरीब की अस्मत से खिलवाड़करते हैं और शर्मिंदा भी नहीं होते | पर शिक्षा का आलोक जरुर समाज की इस विकृति को मिटने में सक्षम होगा ये आशा करनी चाहिए फ़िलहाल तो इस बात पर तो मैं निरुत्तर हूँ | फिर भी इस दुस्साहसी रचना के लिए आपको बधाई देती हूँ| इतने मुखर लेखन के लिए बहुत साहस चाहिए | मैं फिलहाल FB नहीं हूँ | ब्लॉग के लिए ही पर्याप्त समय नहीं है |लेकिन भविष्य में जरुर आना चाहूंगी | और वहां आकर आप और आप जैसे अन्य प्रबुद्धजनों की वाकपटुता को देखना रोचक रहेगा | सादर आभार और शुभकामनायें |

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    1. रेनू जी, विलम्ब से ही सही, लोड़ी और मकर संक्रांति की आपको बधाई भगवान करे आपका भाग्य-सूर्य हमेशा चमकता रहे.
      मेरी इस कविता को कुछ लोग वास्तविकता से परे मान रहे हैं लेकिन मेरे हिसाब से मैंने तो 'टिप ऑफ़ दि आइसबर्ग' दिखाया है. हक़ीक़त तो इस से और भी अधिक घिनौनी है.
      फ़ेसबुक और ब्लॉग के माध्यम से कभी-कभी बड़े अच्छे लोगों से वैचारिक आदान-प्रदान हो जाता है. आप से मिलने का सौभाग्य भी अपने ब्लॉग के ज़रिये ही हुआ है. आप फ़ेसबुक पर आइए, आपको अच्छा लगेगा लेकिन उस पर कूड़ा-विचार, बनावटी देशभक्ति और लाठी-बल वाली राम-भक्ति परोसने वालों से दूर ही रहिएगा.

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    2. जी गोपेश जी-aap जैसे विरल चिंतक से मिलना मेरा सौभाग्य है। मैं अभी पारिवारिक दायित्वों में पूरी तरह व्यस्त रहती हूँ। शौक बडी चीज है अन्यथा ब्लॉग पर भी कई बार आ नहीं पाती।fb के बारे में यही सी सुनकर लगता हैं कि ब्लॉग ही काफी हैं।आपकी रचना पर संदेह का प्रश्न ही नहीं। समाज के ये कटु सत्य बहुत डरावने हैं और उसका विद्रुप रूप को उजागर करते हैं। सुन कर रौंगटे खड़े होते हैं तो भुगत भोगी कैसे जी पाते होंगे।


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    3. रेनुबाला जी, इतने उदार शब्दों में मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !
      मैं कबीर का अनुयायी हूँ और कागद की लेखी से अधिक आँखिन की देखी पर विश्वास करता हूँ. मेरी यह कविता मेरी अपनी आँखिन की देखी और मेरे जैसे बहुतों की आँखिन की देखी का सजीव चित्रण है. ऐसे हादसे जितने प्रकाश में आते हैं, उस से कहीं अधिक कितनों के गलों में घुट कर रह जाते हैं.
      धन-बल, लाठी-बल, कुर्सी-बल, बड़े से बड़े अनाचार को दबा सकता है. राजशाही और तानाशाही में तो ऐसे सामाजिक अपराध होते ही आए हैं किन्तु तथाकथित लोकशाही में भी जब ऐसा होता है तो मेरे जैसे किसी की कलम इसके खिलाफ़ चल जाती है.
      आप सुविधानुसार फ़ेसबुक और ब्लॉग से जुड़िए. ये सब बातें अभिरुचि और फ़ुर्सत दोनों मांगती हैं. हम जैसे अवकाश-प्राप्त और पारिवारिक दायित्वों से मुक्त हो चुके लोगों जैसा समय आपके पास थोड़ी हो सकता है?
      खैर आप जब भी फ़ेसबुक और ब्लॉग से जुड़ें, आपका स्वागत है.

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    4. जी गोपेश जी | सादर --

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  9. यथार्थ ...
    कडुवे सच को बाखूबी लिखा है और सच कहा है आपके व्यवहारिक शब्द बहुत कुछ कह रहे हैं ...

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    1. धन्यवाद दिगंबर नसवा जी,
      आप जैसा सहृदय कवि मेरी कविता को और उस गरीब मासूम लड़की की भावनाओं को बखूबी समझ सकता है किन्तु कुछ लोगों को यौन-शोषण की यह घिनौनी तस्वीर एक कपोल-कल्पना मात्र लगती है.

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  10. कडुवे सच को एकदम बढ़िया तरीके से लिखा है यथार्थवादी चिंतन से परिपूर्ण

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  11. मेरी इस यथार्थवादी कविता के उदार आकलन के लिए धन्यवाद संजय भास्कर जी !

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  12. कविता के आरम्भ में आपने स्पष्ट कर दिया कि मेरी कविता में आशा कम व्यवहारिकता अधिक है । सच्चाई कई बार कड़वी होती है पर सत्य तो है ना , तकलीफदेह प्रसंग ।

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    1. मीना जी, पैसा क्या-क्या ख़रीद सकता है और मुफ़लिसी क्या-क्या बेच सकती है, अगर इसका हिसाब क्या जाए तो खरीदे हुए और बिके हुए सामानों की फ़ेहरिस्त में ईमान. धर्म, ज़मीर, जिस्म और सपने तो ज़रूर ही आ जाएंगे.

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