नव-वर्ष की पहली संध्या पर, 'वो, वो-मैं, मैं'' वाला इतना लम्बा साक्षात्कार देखकर मन में एक प्रश्न उठा –
'इसमें तमाम व्यूज़ तो हाईस्कूल स्तर के भी नहीं थे फिर इसे 'इंटरव्यू' क्यों कहा गया?’
एक और प्रश्न -
'शेखचिल्ली, तू कभी हिन्दोस्तां आया नहीं,
फिर यहाँ शागिर्द तेरे, तख़्त कैसे पा गए?'
फिर यहाँ शागिर्द तेरे, तख़्त कैसे पा गए?'
और आखिर में मेरी बात से नाराज़ हुए आक़ा के एक अंध-भक्त को एक दोस्ताना सलाह -
' उनके जुमलों पर भरोसा, अब तो करना छोड़ दे,.
जग-हंसाई लाज़मी, तू तिलमिलाना छोड़ दे.'
जग-हंसाई लाज़मी, तू तिलमिलाना छोड़ दे.'
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 05 जनवरी 2019को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद यशोदा जी.
जवाब देंहटाएं'मुखरित मौन' के प्रत्येक अंक का मैं आनंद उठाता हूँ. कल के अंक की प्रतीक्षा रहेगी.
आहा मिर्ची | :)
जवाब देंहटाएंउनको मिर्ची लगी तो, मैं क्या कर्रूँ?
हटाएंबोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय।
जवाब देंहटाएंआगे कुआँ पीछे खाई।
कुछ लोग दुनिया बदल डालने की सनक पाल लेते हैं।
आपकी खरी चोखी बात किसी को चुभेगी तो किसी का दिल बाग़-बाग़ करेगी।
सादर नमन सर।
रवीन्द्र सिंह यादव जी, आप फ़ेसबुक पर मेरी वाल पर देखिएगा, मेरी बात से नाराज़ होकर दो अंध-भक्तों ने मुझे किस क़दर कोसा है. इनका ऐसा तिलमिलाना बड़ा मज़ेदार लगता है. अगर इनके आक़ा की सरकार कहीं गिर गयी तो मुझे डर है कि इनमें कुछ लोग ख़ुदकुशी ही न कर बैठें.
हटाएंलेकिन अच्छा है कि मेरे पाठकों में आप जैसे जागरूक भी हैं जो कि आँख मूंदकर किसी का अनुकरण नहीं करते.
सर,सत्य स्वीकार कर पाना इतना आसान थोड़ी होता है...अभी तो शुरु हुआ है..आगे और भी हँगामें बाकी है...।
जवाब देंहटाएंफिल्म 'बैजू बावरा' के गाने 'दूर कोई गए, धुन ये सुनाए' की एक लाइन है - 'अभी से है ये हाल तो आगे ना जाने क्या होय ---' की याद आ गयी.
हटाएंलेकिन श्वेता जी, इनके लिए अच्छे दिन तो अब आने से रहे.
उनके जुमलों पर भरोसा, अब तो करना छोड़ दे,.
जवाब देंहटाएंजग-हंसाई लाज़मी, तू तिलमिलाना छोड़ दे.'.....बहुत ख़ूब आदरणीय 👌
सादर
प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनिता जी.
हटाएंफ़ेसबुक पर मेरे आलेख पर दो मित्रों की ज़हर उगलती टिपण्णी के जवाब में मैंने इस शेर को इस आलेख में और जोड़ दिया है. अंध-भक्त बड़े दिलचस्प किस्म के बेवकूफ़ होते हैं जो नित्य नई-नई मूर्खताएं करते हुए ख़ुद को बहुत सयाना समझते हैं.
फिर किसके जुमले को गले लगाया जाए साहब ये तो बता दें , है कोई ऐसा बेदाग शख्स । अपने बापू ने भी तो कुर्सी नेहरु के हवाले कर दिया।
जवाब देंहटाएंहिन्द- चीन भाई करने में जनाब उधर देश की अस्मत से खेल बैठें और इधर कश्मीर का रोग लगा गये।
बाजीगरों का तमाशा देखना किसे नहीं पसंद है।
1.जुमलेबाज़ कोई भी हुकूमत करे, वो हम प्रजा रूपी खरबूजों पर, काम तो छुरी वाला ही करता है.
हटाएं2. बापू पर और कोई भी इल्ज़ाम लगाया जा सकता है पर उन्होंने हमारे ऊपर हुकूमत कर के हमको कोई धोखा नहीं दिया.
3. किसी जुमलेबाज़ को हम कहाँ गले लगाते हैं, वही ज़बर्दस्ती हमारे गले पड़ जाता है.
4. और हाँ, मैं किसी भी छुरी का भक्त नहीं हूँ. अब चाहे वो नेहरु हों या फिर और कोई.
एक तरफ आग का दरिया है दूसरी तरफ लावा ... जाएँ तो कहाँ जाएँ ...
जवाब देंहटाएंइसलिए काज़ल के बोल ...
ये कहानी फिर सही ...
दिगंबर नसवा जी, इस प्रकार के लोकतंत्र में हम को आज़ादी है कि हम खुदकुशी के लिए चाहे आग का दरिया चुनें और चाहे लावा उगलता हुआ ज्वालामुखी चुनें.
जवाब देंहटाएंऔर अपना नेता को चुनने में भी आज़ादी है कि चाहे चोर चुनें, चाहे डाकू चुनें.
बस एक शेर याद आया आदरणीय गोपेश जी |
जवाब देंहटाएंबर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था -
हर शाख में उल्लू बैठा है -- अंजामे गुलिस्तान क्या होगा ?
रेनू जी, गुलशन उजड़ रहा है तो फिर वो पेड़, वो शाखें, भी तो नहीं रहेंगी जिन पर कि उल्लू बैठते हैं.
हटाएंसशक्त सृजन
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद संजय भास्कर जी.
हटाएंहर छूरी धार दार है खरबूजे तो स्वाहा होने ही है ऊंठ किसी करवट बैठे कोई फर्क नही पडना।
जवाब देंहटाएंखरी खरी तिरछी नजर।
कुसुम जी, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' के प्रसिद्द काव्य-संकलन -'हम विषपायी जनम के' के बारे में तो सुना था, उसकी कुछ कविताएँ पढ़ी भी हैं किन्तु 'हम खरबूज़े जनम के' तो हम ख़ुद को होते देख भी रहे हैं.
जवाब देंहटाएं