आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी जी द्वारा उद्धृत एक प्राचीन कथा -
सबेरा कैसे होगा ?
सबेरा कैसे होगा ?
किसी गांव में एक डोकरी रहती थी , उसके पास एक मुर्गा था.
जब मुर्गा बांग देता तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली- 'तुम लोग मुझे नाराज करते हो तो मैं अपना मुर्गा लेकर दूसरे गांव में
चली जाऊंगी. मुर्गा न होगा तो बांग कौन देगा? मुर्गा बांग न देगा तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'
जब मुर्गा बांग देता तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली- 'तुम लोग मुझे नाराज करते हो तो मैं अपना मुर्गा लेकर दूसरे गांव में
चली जाऊंगी. मुर्गा न होगा तो बांग कौन देगा? मुर्गा बांग न देगा तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'
मेरे द्वारा रचित एक नवीन कथा
सवेरा तो होकर ही रहेगा -
सवेरा तो होकर ही रहेगा -
किसी गांव में एक डोकरी रहती थी, उसके पास दर्जनों मुर्गे थे और उन मुर्गों में बड़ा भाई-चारा था.
ये सभी मुर्गे जब एक साथ बांग देते थे तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली –
'तुम लोग मुझे नाराज करोगे तो मैं अपने सारे मुर्गे लेकर दूसरे गांव में
चली जाऊंगी. मुर्गे नहीं होंगे तो बांग कौन देगा? मुर्गे बांग न देंगे तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'
दूसरे गाँव में जाते ही बुढ़िया के सारे के सारे मुर्गे, अपनी खातिरदारी देखकर फूल कर कुप्पा हो गए, उनमें घमंड आ गया और घमंड के मारे वो एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बनकर राजनीति में प्रविष्ट हो गए.
अब हर-एक मुर्गा अलग-अलग समय पर बांग देने लगा.
गाँव वाले परेशान ! किस मुर्गे की बांग सुनकर वो यह मानें कि सूरज उग आया है और किस की बांग सुनकर वो यह समझें कि अभी सूरज नहीं उगा है.
आखिरकार गाँव वालों ने आपस में चोंच लड़ाने वाले उन मुर्गों को अपने गाँव से बाहर निकाल दिया.
और आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.
अब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों जैसा क़दम क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर बाग़ देने वाले सियासती मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से निकाल क्यों नहीं फेंकते?
यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर बांग देने वाले इन सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा.
ये सभी मुर्गे जब एक साथ बांग देते थे तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली –
'तुम लोग मुझे नाराज करोगे तो मैं अपने सारे मुर्गे लेकर दूसरे गांव में
चली जाऊंगी. मुर्गे नहीं होंगे तो बांग कौन देगा? मुर्गे बांग न देंगे तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'
दूसरे गाँव में जाते ही बुढ़िया के सारे के सारे मुर्गे, अपनी खातिरदारी देखकर फूल कर कुप्पा हो गए, उनमें घमंड आ गया और घमंड के मारे वो एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बनकर राजनीति में प्रविष्ट हो गए.
अब हर-एक मुर्गा अलग-अलग समय पर बांग देने लगा.
गाँव वाले परेशान ! किस मुर्गे की बांग सुनकर वो यह मानें कि सूरज उग आया है और किस की बांग सुनकर वो यह समझें कि अभी सूरज नहीं उगा है.
आखिरकार गाँव वालों ने आपस में चोंच लड़ाने वाले उन मुर्गों को अपने गाँव से बाहर निकाल दिया.
और आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.
अब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों जैसा क़दम क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर बाग़ देने वाले सियासती मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से निकाल क्यों नहीं फेंकते?
यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर बांग देने वाले इन सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा.
आमीन। जरूर उगेगा मतलब उगेंगे मुर्गे जल्दी ही 2019 में।
जवाब देंहटाएंहम तो शाकाहारी हैं पर तुम लोग इन ग़लत वक़्त पर बांग देने वाले मुर्गों को डीप-फ्राई कर हज़म कर जाओ तो हमको ख़ुशी होगी.
हटाएंइनको हजम कर पाना आसान नही है सर..ऐसे मुर्गो से देश को बचाने के लिए कोई और तरीका ढूढ़ना होगा...वैसे बहुत ही बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद निधि जी.
हटाएंइन सियासती मुर्गों की बांगों ने हमारा हर सवेरा ख़राब किया है. इनको अगर डीप फ्राई न भी किया जाए तो कम से कम इनके गलों में साइलेंसर फ़िट करना तो सही होगा.
मुर्गों की आबादी बहुत बढ़ गयी है,उनके चहेतों की भी । घर- घर ऐसे सियासती मुर्गे मिलेगें । जरा बचके रहें साहब ,कहीं वे ही हम देशी मुर्गों को अपने गुर्गों के द्वारा खदेड़ न दें।
जवाब देंहटाएंव्याकुल पथिक जी, हम देसी मुर्गे इन सियासती मुर्गों की बांगों से कब के पकाए जा चुके हैं, बस, इनके गुर्गों के द्वारा हमारे खाए जाने की देर है.
हटाएंऔर आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.
जवाब देंहटाएंअब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों जैसा क़दम क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर बाग़ देने वाले सियासती मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से निकाल क्यों नहीं फेंकते?
यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर बांग देने वाले इन सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा....बहुत ही प्रभावी शब्द बहुत अच्छा संदेश ....जो अब न जगा वो कभी न जगेगा, मुर्गों की बांग का इंतज़ार करता रहेगा.. बहुत ही प्रभावी लेख आदरणीय |
सादर
धन्यवाद अनीता जी.
हटाएंतरह-तरह के अंधेर करने वाले इन सियासती मुर्गों की बांग से हमको सवेरा होने की सूचना नहीं मिलती बल्कि उन्हें सुनकर तो हमारी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है. इन से दूर रहने में ही हमारी-आपकी भलाई है.
मुर्गे निकाल तो दें पर कोई तो सूरज ले के निकले ... अभी तो सब के सब अपनी अपनी बांग देने वाले मुर्गे हैं ... इन्ही में से किसी एक को चुनना होगा ...
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी बुनी है आपने ... आज के सन्दर्भ में सटीक ....
दिगंबर नसवा जी,
हटाएंइन ग़लत वक़्त पर बांग देने वाले मुर्गों में से ही किसी को चुनने की मजबूरी होगी तो मैं मतदान से दूर ही रहूँगा. लोगबाग़ मुझे मेरा लोकतान्त्रिक कर्तव्य याद दिलाएंगे पर मैं मतदान के दिन उनकी भर्त्सना के बावजूद घर में ही दुबका रहूँगा.