सुश्री
कुसुम कोठारी की मधुर कविता -
आज
नया एक गीत ही लिख दूं।
वीणा
का गर
तार न झनके
मन का कोई
साज ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं
तार न झनके
मन का कोई
साज ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं
मीहिका
से
निकला है मन तो
सूरज की कुछ
किरणें लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
निकला है मन तो
सूरज की कुछ
किरणें लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
धूप
सुहानी
निकल गयी तो
मेहनत का
संगीत ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
निकल गयी तो
मेहनत का
संगीत ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कुछ
खग के
कलरव लिख दूं
कुछ कलियों की
चटकन लिख दूं
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कलरव लिख दूं
कुछ कलियों की
चटकन लिख दूं
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
क्षितिज
मिलन की
मृगतृष्णा है
धरा मिलन का
राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
मृगतृष्णा है
धरा मिलन का
राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
चंद्रिका
ने
ढका विश्व को
शशि प्रभा की
प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
ढका विश्व को
शशि प्रभा की
प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
इस मधुर कविता
पर मेरी कटु प्रतिक्रिया -
तब तक नया गीत
मत लिखना -
गलियों में
आवारा भटका,
बचपन फिर, गुमराह न निकले,
बेबस, औ निरीह अबला की,
दुःख से भरी
कराह न निकले.
खग-कलरव या
मधुर चांदनी
पर तो गीत, बहुत लिख डाले,
गीत नया लिखना तब
ही जब,
मज़लूमों की आह
न निकले.
जय हो। गीत नहींं लिखते इसीलिये हम :)
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू, तुमको पता नहीं चलता. तुम गीत ही लिखते हो किन्तु उसका रूप कुछ भिन्न होता है. कभी अ-गीत जैसा तो कभी अ-कविता जैसा.
हटाएंकबीर जी के पक्के शिष्य हैं आप और शायद इसलिए आपकी लेखनी में व्यवहारिक कटु सच्चाई होती है । मगर मुझे लगता है कि कला का एक उद्देश्य जीवन को सुन्दर बनाना भी होता है । मुझे कुसुम जी का आशावाद और आपका कटु यथार्थ दोनों ही बहुत सही और अच्छे लगे ।
जवाब देंहटाएंमेरी और कुसुम जी की कविताओं के इस तुलनात्मक अध्ययन और दोनों की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीनाजी. कबीर के अतिरिक्त फ़ैज़ भी मुझे बहुत अज़ीज़ हैं. फ़ैज़ कहते हैं -
हटाएं'और भी गम हैं, ज़माने में मुहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा,
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ---'
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २३०० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...
जवाब देंहटाएंछुटती नहीं है मुँह से ये काफ़िर लगी हुई - 2300 वीं ब्लॉग बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी रचना सम्मिलित होने का समाचार मुझमें उत्साह भर देता है. मैं आज ही इसके नए अंक का आनंद उठाता हूँ.
हटाएंआदरणीय गोपेश जी -- जीवन में सपनों के रंग भरती रचना में आपने जीवन के करूण और वीभत्स पोत दिए |कुछ पल के लिए ये सपने सुहाने बहलाते आपने कडवे सत्य की तस्वीर दिखाकर मन को दहला दिया | सादर --
जवाब देंहटाएंरेनू जी,
हटाएंमजाज़ ने कहा है -
बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों का, पेचो-ख़म नहीं है.
और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ क्या कहते हैं, ये सबको पता है.
मैं तो उन द्रोणाचार्यों का अदना सा एकलव्य हूँ.
वो जॉन इलिया साब का एक शेर है ना कि
जवाब देंहटाएंक्या तक्लुफ़ करें ये कहने में
कि जो भी खुश हैं हम उनसे जलते हैं.
भावार्थ यह है कि जिस जमाने में इंसानियत मरी पड़ी हो..न्याय ही न्याय की भीख मांग रहा हो उस जमाने में कोई कैसे खुश रह सकता है? मैं तो खुश नहीं रह सकता...
शानदार लेखन है आपका.
पधारिये- ठीक हो न जाएँ
धन्यवाद रोहतास घोरेला जी. जॉन एलिया दुरुस्त फ़र्माते हैं. हम सपने ज़रूर देखें पर उनके टूट जाने पर हैरान कभी न हों.
हटाएंआपकी रचना का रसास्वादन करूंगा फिर अपनी प्रतिक्रिया दूंगा, उसका लिंक भेजिए.
चित और पट
जवाब देंहटाएंदो पहलू होते हैं,
किसी भी बात के..
दोनों ज़रूरी हैं.
सही कहा आपने नूपुरम जी.
हटाएंकेवल आशावाद तो मृग-मरीचिका के समान होता है, उसे यथार्थ के कटु सत्य से जोड़ना ही चाहिए वरना बार-बार ठोकरें खानी पड़ती हैं.
क्षितिज मिलन की
जवाब देंहटाएंमृगतृष्णा है
धरा मिलन का
राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, गोपेश जी।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी.
हटाएंकुसुम जी की सुन्दर और आशावादी कविताओं पर मुझ कबीर के यथार्थवादी चेले को कुछ हटकर सूझता है तो मैं दुस्साहस करके उन्हें प्रस्तुत कर देता हूँ.