गुरुभक्त बालक –
मेरा बचपन गीता प्रेस गोरखपुर से
प्रकाशित उपदेश-प्रधान कहानियां पढ़कर ही बीता था. ऐसी पुस्तकें हमको बिना मांगे ही
नियमित रूप से भेंट की जाती थीं. गुरु-भक्त बालक, माता-पिता के भक्त बालक,
परोपकारी बच्चे, सत्यवादी बच्चे और न जाने क्या-क्या हमको ज़बरदस्ती पढ़ना पड़ता था.
खैर इससे ये बात तो अच्छी हुई कि गुरुजन के प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा
उत्पन्न हो गयी. श्वेत दाढ़ी, श्वेत ही वस्त्र और उनसे भी अधिक शुद्ध और पवित्र
उनका आचरण, उनका अपिरिमित ज्ञान, भला किसको ‘गुरुर ब्रह्मा, गुरुर विष्णो, गुरुर
देवो महेश्वरो’ गाने-गुनगुनाने के लिए प्रेरित नहीं करेगा? पर दुर्भाग्य से मुझे
ऐसे पूज्यनीय गुरुजन ज़रा कम ही मिले. मेरे कुछ गुरुजन दुर्वासा टाइप थे तो कुछ परशुराम
टाइप,, कुछ रंगीन थे तो कुछ संगीन और कुछ बे-वजह ग़मगीन. ऐसे गुरुजन से छिपकर मैं
अक्सर अपने श्रद्धा-सुमन उन्हें अर्पित करता रहता था जिसके कारण गुरु-कृपा मुझ पर
कुछ ज़्यादा ही बरसती रहती थी. मुझे अपनी कान-पकड़ाई और हलकी-फुल्की पिटाई की कुल
गिनती करने में दो-चार दिन तो लग ही जाएंगे.
मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में एम. ए.
करने पहुंचा तो एक कैसिनोवा-कम-कन्हैयाजी जैसे टैक्नीकलर गुरूजी ने हमारा जीवन
धन्य कर दिया. हमसे मुश्किल से तीन-चार वर्ष बड़े हमारे गुरूजी एक बड़ी हस्ती के
साहबज़ादे थे. गुरूजी शक्लो-सूरत से तो आर. डी. बर्मन टाइप थे लेकिन उनके
नाजो-अंदाज़ राजेश खन्ना वाले थे. हमको याद नहीं पड़ता कि हमारे कैसिनोवा गुरूजी ने
कोई भी कपड़ा कभी दुबारा पहना हो. गुरूजी यूँ तो आमतौर पर स्कूटर पर ही विभाग में
आते थे पर जब उन्हें अपनी किसी खासमखास को किसी सिनेमा हॉल में रोमांटिक फिल्म
दिखाने और उसके बाद कपूर रेत्रां, क्वालिटी, रॉयल कैफ़े में खातिर करने के लिए ले
जाना होता था तो वो हमारी छाती पर मूंग दलने के लिए कार लेकर आते थे. हमारी सहपाठी
छात्राएं अपने-अपने सपनों में उनकी लीला देख कर आपस में उनकी चर्चा करती रहती थीं और
अक्सर आपस में इस बात पर शर्त लगाती रहती थीं कि उनके डैशिंग सर आज क्या पहनकर
आयेंगे और किस वाहन से आएंगे. भले ही हम जल-भुन कर खाक़ हो जायं पर उनकी
प्रशंसिकाएं हमारे सामने ही निर्लज्ज गोपिकाएँ बनकर अपने कन्हैया पर बे-भाव मरा करती थीं.
हमारे कैसिनोवा गुरूजी को अपनी
छात्राओं से जितना प्यार था, अपने छात्रों से उनका उतना ही बैर था. हमको
डांटने-फटकारने का कोई भी मौका वो अपने हाथ से कभी जाने नहीं देते थे. हमारे क्लास
की सबसे कूड़-मगज किन्तु सबसे सुन्दर बाला को हम गुरूजी की बेगमे-ख़ास कहते थे. ये
बेगमे-ख़ास आये दिन गुरूजी की कार में बैठकर सत्संग करने जाती थी फिर हमारी
व्यंग्यात्मक मुस्कान से चिढ़कर उनसे हमारी चुगली कर हमको डांट पड़वाया करती थी. और
हम कृतज्ञ आरुणिनुमा गुरुभक्त छात्र अक्सर अपनी साइकिल से टक्कर मारकर अपने
कैसिनोवा गुरूजी की कार को पलटने का सपना देखा करते थे.
पढ़ाई में अपने साथियों से आगे रहने पर
भी अपने कैसिनोवा गुरूजी से शाबाशी में मुझे हमेशा डांट-फटकार ही मिलती थी. कैसिनोवा
गुरूजी विभागीय पुस्तकालय में पुस्तक वितरण का दायित्व भी सँभालते थे पर क्या मजाल
कि मुझे कभी अपनी मन-पसंद किताब मिल जाय. हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर नागर ने
मॉडर्न इंडिया के लिए मुझे बी. डी. बासु की पुस्तक - ‘इंडिया अंडर द ब्रिटिश
क्राउन’ पढ़ने की सलाह दी. मैं कैसिनोवा गुरूजी से वह पुस्तक मांगने गया तो पता चला
कि उन्होंने किसी और को वह पुस्तक इशू कर दी है. मैं निराश लौट ही रहा था कि
बेगमे-ख़ास ने मुझे रोक कर कहा –
‘गोपेश, तुम्हें बी. डी. बासु की किताब
चाहिए क्या?’
अँधा क्या चाहे, बस दो आँखें. मैंने
हामी भरी तो नवाबज़ादी ने फ़रमाया –
‘वो किताब मेरे पास है. मैं उसे तुमको
पढ़ने को तो दे दूंगी पर तुमको उससे हिंदी में नोट्स बनाकर मुझे देने होंगे.’
मैं पढ़ाई के मामले में क्लास में सबकी
मदद करने को तैयार रहता था पर उस चुगलखोर बेगमे-ख़ास से मुझे बाक़ायदा चिढ़ थी. फिर
भी बी. डी. बासु की पुस्तक हासिल करने के लिए मैंने उसकी यह शर्त भी मान ली. अगले
पूरे एक सप्ताह तक मैंने सारे और काम छोड़ कर उस पुस्तक को आदि से अंत तक पढ़ा, उससे
विस्तृत नोट्स बनाए फिर बेगमे-ख़ास को उसे यह कहकर लौटा दिया कि यह तो बिलकुल बेकार
किताब है. निराश और दुखी बेगमे-ख़ास ने बी. डी. बासु की पुस्तक कैसिनोवा गुरूजी को
वापस सुपुर्द कर दी. मुझे बेगमे-ख़ास को धोखा देने का या झूठ बोलने का आज भी कोई
अफ़सोस नहीं है किन्तु मैं खुद को बी. डी. बासु का गुनहगार मानता हूँ जिनकी कि इतनी
अच्छी किताब की मैंने स्वार्थवश बुराई की थी.
हमारे एक और कान्हाजी टाइप गुरूजी थे
पर उनकी उम्र हमारी जैसी नहीं बल्कि पचास पार थी. गुरूजी को हम विद्यार्थियों की
मौज-मस्ती में शामिल होने का बहुत शौक़ था. फ़िल्मी अन्त्याक्षरी में हमारे सीनियर
कान्हाजी लड़कियों की टीम में बिना बुलाए शामिल होकर सारा मज़ा किरकिरा कर दिया करते
थे. पर ये गुरूजी हम पर मेहरबान रहा करते थे. कुछ स्मार्ट लड़कियां क्लास ख़त्म होने
के बाद हम जैसे एकाद सौभाग्यशाली लड़कों को साथ लेकर (हमारे सीनियर कान्हाजी लड़कों
को अपने साथ लाने की गुस्ताखी से बहुत दुखी होते थे.) गुरूजी के पास पहुंचकर कहती
थीं –
‘सर, आज तो आपके क्लास में मज़ा आ गया.
क्या नोट्स लिखाते हैं आप? सर, आप कितनी किताबें कंसल्ट करते होंगे? सौ या उससे भी
ज़्यादा?’
गुरूजी गिलोगिल्ल होकर कहते –
‘तुम मेरे नोट्स की तारीफ़ कर रही हो पर
ये गोपेश हैं कि मेरे नोट्स देने के खिलाफ़ रहते हैं, कहते हैं कि सिर्फ लेक्चर
दीजिए.’
लड़कियां मेरी इस नादानी पर मुझे मेरे
सामने ही कोसतीं फिर धीरे से गुरूजी से चाय पिलाने की फरमाइश कर देतीं. गुरूजी
मुझे विभाग के चपरासी को बुलाने के लिए भेज देते. पांच मिनट में ही चाय, समोसे और
रसगुल्लों के साथ गुरूजी लड़कियों से मधुर वार्तालाप करने का रसास्वादन कर रहे होते
थे और मन ही मन मुझे अच्छा-ख़ासा चूना लगाने के लिए कोस भी रहे होते थे.
हमारे सीनियर कान्हाजी अक्सर लड़कियों
से पिकनिक का प्रोग्राम बनाने के लिए कहा करते थे. एक बार गुलाब सिनेमा में
एवर-ग्रीन फ़िल्म ‘मुगले आज़म’ लगी तो हम दस-बारह लड़के-लड़कियों ने फ़िल्म देखने का
प्रोग्राम बना लिया. हम लोग इस प्रोग्राम में किसी भी गुरूजी को शामिल नहीं करना
चाहते थे पर पता नहीं कैसे सीनियर कान्हाजी को इसकी भनक लग गयी और फिर वो
ज़बर्दस्ती हमारे साथ हो लिए. हम फ़िल्म देखने पहुंचे. गुरूजी ने लपक कर सेंटर
कोर्नर की सीट पर कब्ज़ा कर लिया फिर हमारे ग्रुप की सबसे सुन्दर और शोख लड़की शबाना
से उन्होंने कहा –
‘शबाना, तुम हमारे पास बैठो, हमको
उर्दू ज़रा कम आती है. तुम हमको डिफिकल्ट उर्दू वर्ड्स की मीनिंग बताती रहना.’
शबाना गुरूजी का अनुरोध कैसे ठुकरा
सकती थी? वो जैसे ही गुरूजी के बगल की सीट पर बैठने के लिए बढ़ी तो उसे रोक कर
मैंने अपने क्लास की सबसे उम्र-दराज़ और महा सीधी-सादी आपा को आगे करते हुए गुरूजी
से कहा –
‘सर, शबाना क्या खाक़ उर्दू जानती है.
उर्दू-ज्ञान में तो हमारी आपा का कोई जवाब ही नहीं है.’
मैंने आपा से कहा -
‘आपा, आप सर के बगल में बैठिए और उनका
उर्दू-ज्ञान बढ़ाइए.’
आश्चर्य! पूरे साढ़े तीन घंटे तक गुरूजी
को फ़िल्म में कोई डायलॉग ऐसा मुश्किल नहीं लगा जिसका कि अर्थ पूछने की उन्हें
ज़रुरत महसूस हुई हो.
अगले कई दिनों तक गुरूजी मुझसे न जाने
क्यूँ खफ़ा रहे. मैंने तो उनका उर्दू-ज्ञान बढ़ाने का सबसे अच्छा प्रबंध किया
था.
सीनियर कान्हाजी लड़कियों पर सदैव
मेहरबान रहते थे पर वो नादान थीं कि बस, कैसिनोवा गुरूजी का जाप किया करती थीं.
सीनियर कान्हाजी अपने आते ही लड़कियों के फूटने का नज़ारा देखने के लिए मजबूर हो
जाते थे. होली पर टाइटल देने की बुरी रस्म थी. होली पर हमारे विभाग में सबको कुछ न
कुछ टाइटल दिया गया. हमारे सीनियर कान्हाजी को टाइटल के नाम पर कविता की एक पंक्ति
दे दी गयी –
‘मुझको आता हुआ देखकर, चिड़ियाँ क्यूँ
उड़ जाती हैं?’
मैंने अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के
लिए सीता माता की तरह किसी भी अग्नि-परीक्षा से गुज़र जाने की पेशकश की पर सीनियर
कान्हाजी ने इस टाइटलबाज़ी के लिए केवल मुझे ही दोषी माना.
कैसा दुर्भाग्य है? मुझ जैसे गुरुभक्त
को गुरुजन का प्यार नहीं, हमेशा प्रताड़ना ही मिली. फ़िल्म ‘प्यासा’ के शायर विजय
(गुरुदत्त) की तरह गाने का मन कर रहा है –
‘हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काँटों का
हार मिला, खुशकिस्मत थे लोग जिन्हें, गुरुजन का प्यार मिला.'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक अधूरी ब्लॉग-बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन में मेरी पोस्ट को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद.
हटाएंबढ़िया कभी यहाँ के कान्हाओं पर भी कुछ कहिये :)
जवाब देंहटाएंहमारे देश में तीस साल से ज़्यादा पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ने पर कोई कानूनी कार्रवाही नहीं हो सकती इसलिए 36 पहले छोड़ चुके लखनऊ विश्वविद्यालय के कान्हाओं की लीला का बखान तो कर सकता हूँ, अल्मोड़ा के कान्हाओं का ज़िक्र तो अब अगले जनम में संभव हो सकेगा.
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