गुरुवार, 11 अगस्त 2016

घोड़ा था घमंडी

घोड़ा था घमंडी –
जातीय-गौरव और कुल-गौरव एक ऐसा मर्ज़ है जिसने कि आम भारतीय को पीढ़ी दर पीढ़ी जकड़ रक्खा है. हम अपना प्राचीन इतिहास टटोलें तो पता चलेगा हमारे पूर्वजों में कोई सूर्य का वंशज था तो कोई चन्द्र-वंशी. कोई अग्नि-कुंड से निकला था तो कोई कुम्भ से. कोई देव-पुत्र था तो कोई ऋषि-पुत्र था, किसी के पूर्वज चार वेदों के ज्ञाता थे तो किसी के तीन वेदों के. आज के ज़माने में भी कोई बीस बिस्वे का ब्राह्मण है तो कोई उन्नीस बिस्वे का, कोई ऊंची धोती वाला जोशी है तो कोई ऊंची धोती वाला पन्त है. कोई राजा अग्रसेन की संतान है, तो कोई महाराज चित्रगुप्त की.  
हमको ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे जो ये कहेंगे कि उनके पुरखे मामूली आदमी थे.
मुसलमानों में भी हिन्दुओं की देखा-देखी ये मर्ज़ घर कर गया है. सर पर ऊँगली रख शेख को, माथे पर ऊँगली रख सैयद को, नाक पर ऊँगली रख मुग़ल को और होठों पर ऊँगली रख पठान के सोशल स्टेटस को दिखाया जाता है और अमूमन आधे से ज्यादा मुसलमान खुद को हज़रत मुहम्मद के क़ुरैश खानदान का बताते हैं. भले ही उनके पुरखों ने सौ-दो सौ साल पहले ही इस्लाम क़ुबूल किया हो. कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे यहाँ मामूली आदमी और आम आदमी की औलादें कभी पैदा ही नहीं होतीं.
आज से लगभग चार सौ साल पहले जैसलमेर से आए हम जैसवाल जैन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आकर बस गए थे. हमारे खानदान की वंशावली में हमारे तेरहवें बाबा का नाम दुर्गादास लिखा है. हमारे बाबा ने इन श्री दुर्गादास के बारे में हमसे कह दिया कि वे जोधपुर के वही प्रसिद्द दुर्गादास राठौर थे जिन्होंने कि औरंगजेब की नाक में दम कर दिया था. मेरी स्वर्गीया बहनजी और हम भाई लोग तब से खुद को शाही राजपूत मानने लगे थे. जल्द ही हम भाई लोगों की तो 'रॉयल ब्लड' का होने वाली ग़लतफ़हमी दूर हो गई पर बहनजी हमारे बाबा की गप्प को फिर भी वेद-वाक्य मानती रहीं. मैंने, उन्हें समझाने का प्रयास किया कि जोधपुर और जैसलमेर दो अलग-अलग जगहें हैं और उन्हें यह भी बताया कि वीर दुर्गादास राठौर खुद एक बहुत ही साधारण परिवार से सम्बद्ध थे और उन्होंने अपना सैनिक व राजनीतिक जीवन बहुत ही मामूली ओहदे से शुरू किया था इसलिए बेहतर यही होगा कि हम खुद को वीर दुर्गादास राठौर का वंशज कहने के स्थान पर किसी मामूली दुर्गादास का वंशज मान लें. अब इस उम्र में यह बताने से क्या फ़ायदा कि इस रहस्योद्घाटन के कारण मेरे कान कितनी बार मले गए और अभी भी वो लाल-लाल क्यूँ हैं.      
ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में स्थिति इसके ठीक विपरीत है. सब जानते हैं कि वहां यूरोपीय देशों के अपराधियों को बसाया गया था. आज वहां के अनेक निवासी अपने पुरखों के अपराधों और उनको दी गई सजाओं की प्रामाणिक जानकारी हासिल करने के लिए तमाम पैसा खर्च करते हैं. ऑस्ट्रेलिया में आपको एक ऑस्ट्रेलियन किसी दूसरे ऑस्ट्रेलियन को यह कह के नीचा दिखाते हुए मिल सकता है –
तेरे ग्यारहवें दादाजी सिर्फ दो क़त्ल के जुर्म में ऑस्ट्रेलिया निर्वासित किये गए थे जब कि मेरे ग्यारहवें दादाजी 6 कत्लों के जुर्म में यहाँ भेजे गए थे.  
हमारे पास चार पैसे आ जाते हैं और हमारी सामाजिक स्थिति पहले से सुधर जाती है तो हमारा सोया हुआ जातीय गौरव जाग जाता है. कहा गया है –
माया तेरे तीन नाम – 'परसी' , 'परसा' , 'परसराम' 
हमारी मायावती बहन के भी तीन नाम हैं – ‘मायावती’ , ‘सुश्री बहन मायावती जी’ और ‘दलितों की देवी’.
हमारे गुलज़ार साहब ने अपने गीत – ‘लकड़ी की काठी’ में कहा है –
‘घोड़ा था घमंडी पहुंचा सब्ज़ी मंडी’ पर हमारे जातीय-गौरव तथा कुल-गौरव वाले घमंडी घोड़े हर मंडी, हर बाज़ार, हर गली, हर कूचे में मिल जाएंगे और अपनी लंतरानियों से, अपनी गप्पों से हमारा भेजा चाट जाएंगे

क्या इन घमंडी घोड़ों को भी पुराने ऑस्ट्रेलिया या पुराने न्यूज़ीलैंड जैसी किसी अनदेखी, अनजानी, जगह में बसाया नहीं जा सकता?               

2 टिप्‍पणियां:

  1. जी नहीं । यहाँ पर भी अधिसँख्यक और अल्पसँख्यक देखा जायेगा और अल्पसंख्य को जिता कर आस्ट्रेलिया भेज दिया जायेगा :)

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  2. मेरा आशय बसे-बसाए ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भेजने से नहीं था बल्कि ऐसे ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में भेजने से था जहाँ पानी भी रोज़ कुआँ खोद कर ही पीना पड़ता हो. फिर भला वहां जीता हुआ अल्पसंख्यक या जीता हुआ अधिसंख्यक क्यूँ भेजा जाएगा? फावड़े, कुदाली के साथ हमारे-तुम्हारे जैसे ही लोग ही भेजे जाएंगे.

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