सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा आदि का नाटक हम 1960 के दशक से देखते और सहते आ रहे हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्ति - 'निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल' को सुन-सुन कर तो हमारे घरों के पालतू तोते भी उसे गुनगुनाने में निष्णात हो गए हैं. हिंदी को भारत के माथे की बिंदी बताने की रस्म आज हिंदी-भाषी क्षेत्र का बच्चा-बच्चा निभा रहा है. अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने की पंक्ति- 'हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा' का अर्थ समझे बिना आज के दिन हिंदी भक्त उसे दोहराते आए हैं. यहाँ यह बता दूं कि इस पंक्ति में 'हिंदी' का अर्थ है - हिंद का निवासी यानी कि हिन्दुस्तानी यहाँ हिंदी भाषा से इसका कोई लेना देना नहीं है. 

भारतेन्दुकालीन हिंदी नवजागरण में हिंदी के सर्वतोमुखी विकास का सार्थक प्रयास प्रारंभ हुआ. हिंदी को स्थानीय बोलियों और साहित्य की भाषा से कहीं ऊपर शिक्षा, राजकाज, न्यायपालिका और व्यापार की भाषा के रूप में विकसित करने के प्रयास प्रारंभ हुए. फूट डाल कर शासन करने की नीति अपनाने वाले अंग्रेज़ शासकों ने इसे हिंदी-उर्दू तथा हिन्दू-मुसलमान का आपसी झगड़ा बना दिया. कबीर के शब्दों में कहें तो - 'अरे इन दोउन राह न पाई' हिंदी-उर्दू के झगड़े ने, देवनागरी लिपि और अरबी-फ़ारसी लिपि की आपसी टकराहट ने दोनों का नुकसान किया और अंग्रेज़ी भाषा का तथा रोमन लिपि का प्रभुत्व ज्यों का त्यों बना रहा. बहुत कम हिंदी समर्थक यह मानते हैं कि मानक हिंदी उर्दू की ऋणी है. भारतेंदु के युग में जिस खड़ी बोली का विकास किया गया, द्विवेदी युग में जिसका परिष्कार किया गया, उसका पहला पन्ना तो अमीर ख़ुसरो सात सौ साल पहले लिख चुके थे. उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू, हिंदी से बहुत आगे थी और हिंदी का हर प्रतिष्ठित विद्वान उन दिनों उर्दू भाषा तथा उर्दू अदब का जानकार हुआ करता था. स्वतंत्रता के बाद हिंदी का ही क्या, सभी भारतीय भाषाओँ का जिस तरह विकास होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. हमारी कोई राष्ट्रभाषा नहीं बनी और व्यावहारिक दृष्टि से अंग्रेज़ी ही राजकाज, न्याय और उच्च शिक्षा की भाषा बनी रही. 1960 के दशक के हिंदी आन्दोलन को मुख्य रूप से संभाला अवसरवादी नेताओं ने, जिन्होंने कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम के लिए विलायत भेजने से कभी परहेज़ नहीं किया. हिंदी का विरोध करने वालों ने भी अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी भाषाओँ का विकास करने के स्थान पर निजी स्वार्थ और सत्ताग्रहण को वरीयता दी. 

आज़ादी के 73 साल बाद भी हिंदी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में प्रामाणिक मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध कराने में अक्षम है. आज भी न्यायालयों की कार्रवाई आमतौर पर अंग्रेज़ी में ही होती है. हमारी जन-प्रतिनिधि सभाओं में भी अंग्रेज़ी बोलने वालों का दबदबा रहता है. आमतौर पर हम हिंदी भाषी केवल एक भाषा जानते हैं लेकिन अन्य भाषाभाषियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वो हिंदी सीखें. मेरी दृष्टि में हिंदी का विकास करने के लिए हमको किसी भी भाषा से कुछ भी अच्छा लेने से परहेज़ नहीं करना चाहिए. सिर्फ़ हिंदी जानने वाले हिंदी का समुचित विकास नहीं कर सकते. भाषा को धर्म से जोड़ने की ग़लती भी हिंदी का नुक्सान कर रही है. हिंदी को सिर्फ़ हिन्दुओं की भाषा नहीं बनने देना चाहिए. उसमें शुद्ध, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ शब्दों का बाहुल्य नहीं होना चाहिए. अगर उसमें उर्दू, पंजाबी, तेलगु आदि भाषाओँ के ही नहीं बल्कि अंग्रेज़ी के शब्द भी आ जाएं तो कोई हर्ज़ नहीं है. ऑक्सीजन को ओशोजन और नाइट्रोजन को नत्रजन कह कर हम हिंदी की सेवा नहीं. बल्कि उसको हानि पहुंचा रहे हैं. आज हमने देवनागरी लिपि में नुक्ते का प्रयोग कम कर के उसे उर्दू से बहुत दूर कर दिया है. हम हिंदी भाषा को और देवनागरी लिपि को अधिक समर्थ बनाने का, उन्हें अधिक लचीली बनाने का प्रयास करें, न कि उन्हें एक सीमित दायरे में बाधें. हिंदी को गंगा की तरह होना चाहिए जो कि सभी नदियों का जल ख़ुद में मिलाने में कभी संकोच नहीं करती है. 

अध्यापन में सारी उम्र बिताने के बाद मैं तो इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि फ़िलहाल भारत में तरक्की करने के लिए नई पीढ़ी को अंग्रेज़ी तो सीखनी ही पड़ेगी और अगर हो सके तो कोई अन्य भाषा जैसे चीनी या जापानी भी कोई सीख ले तो उसे आगे बढ़ने से फिर कोई नहीं रोक सकता. हिंदी की विशेषता गिनाते समय हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्फ़ हिंदी का ज्ञान हमको सफल नेता तो बना सकता है लेकिन अन्य क्षेत्रों में हमारा पिछड़ना तय है. हमारे जैसे पढ़े-लिखे हिंदी भाषी शायद ही कोई अन्य भारतीय भाषाएँ जानते हैं. क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? तमिल और बांगला जैसी महान भाषाओँ के ग्रंथों को मूल रूप में हम हिंदी भाषी पढ़ ही नहीं सकते. हिंदी का विकास हो रहा है पर वह बाज़ार की आवश्यकता है. हिंदी का प्रचार मुम्बैया सिनेमा की बदौलत हो रहा है तो इस पर भी हमको गर्व करने का अधिकार नहीं है. हमने हिंदी को सक्षम बनाने के लिए कुछ नहीं किया है. मुझे हिंदी बोलने में शर्म नहीं आती लेकिन मुझे हम हिंदी भाषियों की काहिली पर, हमारी हठवादिता पर बहुत शर्म आती है. हिंदी दिवस को, हिंदी पखवाड़े को, हम हिंदी युग तो तभी बना पाएंगे जब हम इमानदारी से उसके विकास के लिए प्रयास करेंगे. और जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक एक दूसरे को हिंदी दिवस की, हिंदी पखवाड़े की, बधाई देकर अपना मन बहला लेंगे और हिंदी की सेवा करने का ख़ुद को श्रेय देकर अपनी पीठ थपथपा लेंगे.

16 टिप्‍पणियां:

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    1. संक्षिप्त किन्तु प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए धन्यवाद मित्र !

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  2. फ़िर भी हिन्दी दिवस पर शुभकामनाएं।

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    1. हिंदी दिवस की तुमको भी हार्दिक शुभकामनाएँ दोस्त !

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-9 -2020 ) को "हिंदी बोलने पर शर्म नहीं, गर्व कीजिए" (चर्चा अंक 3825) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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    1. 'हिंदी बोलने पर शर्म नहीं, गर्व कीजिए' (चर्चा अंक - 3825) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी जी.
      हिंदी दिवस की आपको हार्दिक बधाई !

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  4. जी आदरणीय गोपेश जी ,आपके इस लेख में एक हिंदी प्रेमी का दर्द तो है ही साथ ही हर साल हिंदी का ढोल पीटने वाले कथित हिंदी प्रेमियों को आइना दिखाया गया है | सच तो है कि अंग्रेजी प्रेम हमारी आदत में शुमार है | आजादी के बाद कथित सभ्रांत वर्ग ने जब अपने बच्चों को दून स्कूल जैसे स्कूलों में पढ़ाया तो ये मध्य वर्ग का भी सपना बन गया जिसके लिए उसने तन बेचा , मन बेचा पर बच्चों को अंग्रेज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी | और कोई भी स्कूल मात्र हिंदी पढ़ाकर तो प्रसिद्द नहीं हो सकता |आपकी बातें बहुत ही ध्यान देने योग्य हैं | भारत की दुसरी भाषाओं से भी हमारा अनुराग ना होना बहुत आश्चर्य की बात है | बच्चे भी जर्मन , रशियन, फ्रेंच , चाइनीज सब सीखना चाहते हैं पर देशी भाषाएँ नहीं | और हिंदी के नाम पर अन्य अहिन्दी भाषी राज्य तलवार निकाल कर खड़े हो जाते हैं क्योंकि वह राष्ट्र भाषा घोषित ना हो सकी | प्रशासनिक स्तर पर हिंदी को कभी उचित मान सम्मान नहीं मिल पाया | यही सब दुखद पहलु हैं हो हिंदी को आगे बढ़ाने से रोक रहे हैं | और उर्दू हिंदी को मज़हबी भाषा घोषित करने वालों से बचकर निकलना ही बेहतर | सार्थक चिंतनपरक लेख के लिए आभार और हिंदी दिवस पर आपको बहुत बहुत बधाई | हिंदी हिन्दुस्तान के माथे की बिंदी गीतों में नहीं बल्कि हकीकत में बने यही दुआ है और ----हिंदी हैं हम वतन है----- में हिंदी का अर्थ कभी बचपन में हमारे बाबाजी [ दादा जी ] ने हमें भी यही बताया था | |

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    1. इतनी विश्लेषणात्मक और सुन्दर टिप्पणी के लिए धन्यवाद रेणु जी. हमारा देश राजनीतिक कुचक्रों का शिकार रहा है और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी मानसिक दासता से ग्रस्त है. हमारा देश कभी भी भावनात्मक स्तर पर और राजनीतिक स्तर पर एक सूत्र में बंध नहीं पाया है. इन दुखद कारणों का कुपरिणाम हिंदी को भुगतना पड़ रहा है. मैं बच्चों के अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा के सीखने के क़तई ख़िलाफ़ नहीं हूँ. लेकिन हमको अपनी भाषा के प्रति अनुराग रखते हुए उन्नति के मार्ग खोजने चाहिए. हिंदी की महिमा के गीत तो बहुत लिखे गए हैं लेकिन उसके सर्वतोमुखी विकास के लिए किये जाने वाले ठोस काम बहुत कम हैं. आप भाग्यशाली थीं कि आपको ऐसे ज्ञानी दादा जी मिले. आपको भी हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े की बधाई !

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  5. हिंदी की वास्तविक और कटु स्थिती का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने। हम हिंदी युग तो तभी बना पाएंगे जब हम इमानदारी से उसके विकास के लिए प्रयास करेंगे।बिल्कुल सही कथन।

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    1. ज्योति, हिंदी के विकास का ठेका लेने वाले एक बार कुर्सी पर पहुँच जाते हैं तो हिंदी की सेवा करना भूल कर अपना घर भरने मेंलग जाते हैं. हिंदी विषयक गोष्ठियों और सेमिनार्स में क्या कभी हमने-आपने हिंदी प्रचार-प्रसार की कोई व्यावहारिक बात सुनी है?

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  6. आपने धरातल पर रख कर इतनी सटीक बातें कही हैं, जिन्हें नकारना असंभव है, सभी को लपेट लिया आपने जो सत्य और खरा खरा है ।
    एक असाधारण आलेख जो हर हिंदी के सच्चे और दिखावटी प्रेमी दोनों के लिए एक प्रतिमान स्थापित कर रहा है।
    अप्रतिम अभिनव सृजन।

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    1. ऐसी उत्साहवर्धक प्रशंसा के लिए धन्यवाद मन की वीणा.
      हिंदी की दुर्दशा के लिए हम सब हिंदी भाषी और हमारी सरकार ज़िम्मेदार हैं.
      हमको हिंदी को हर क्षेत्र में विकसित करना होगा, तभी हम उसे राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा दिलाने में सफल होंगे.
      घुड़दौड़ में तेज़ घोडा जीतता है न कि लंगड़ा घोडा.

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