वो जो दिन रात रहा करता था गुलज़ार कभी
गुलो-बुलबुल का हसीं बाग उजड़ता क्यूं है
जी-हुज़ूरों से जो यशगान सुना करता था
आज बीबी से फ़क़त ताने ही सुनता क्यूं है
किसी अखबार में फ़ोटो भी नहीं दिखती है
फिर भी मनहूस बिना नागा ये छपता क्यूं है
अब न फ़ीता है न कैंची न कोई माइक है
तालियाँ सुनने को दिल हाय मचलता क्यूं है
दोस्त तो दोस्त पड़ौसी भी फ़क़र करता था
आज हर कोई मेरे साए से भी बचता क्यूं है
जादू कुछ मुझ में नहीं था तो मिरी कुर्सी में
जान कर दिल ये मुआ फिर भी तड़पता क्यूं है
'गुलो-बुलबुल का हसीं बाग़ उजड़ता क्यूं है' (चर्चा अंक - 3840) में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद दोस्त !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी.
हटाएंदोस्त तो दोस्त पड़ौसी भी फ़क़र करता था
जवाब देंहटाएंआज हर कोई मेरे साए से भी बचता क्यूं है
कुर्सी गयी खेल खत्म... कुर्सी के बिना क्या औकात...
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब
हौसलाफ़जाई के लिए शुक्रिया सुधा जी.
हटाएंवैसे कुर्सी जाने से खेल ख़त्म नहीं होता. कुर्सी जाने के बाद जो खेल शुरू होता है, उसमें पहले नायक की भूमिका निभाने वाला, किसी एक्स्ट्रा के रोल में आ जाता है.