मंगलवार, 29 सितंबर 2020

कुर्सी बिन सब सून

 वो जो दिन रात रहा करता था  गुलज़ार कभी


गुलो-बुलबुल का हसीं बाग  उजड़ता क्यूं है


जी-हुज़ूरों से जो यशगान सुना करता था


आज बीबी से फ़क़त ताने ही सुनता क्यूं है


किसी अखबार में फ़ोटो भी नहीं दिखती है


फिर भी मनहूस बिना नागा ये छपता क्यूं है  


अब न फ़ीता है न कैंची न कोई माइक है


तालियाँ सुनने को दिल हाय मचलता क्यूं है 


दोस्त तो दोस्त पड़ौसी भी फ़क़र करता था


आज हर कोई मेरे साए से भी बचता क्यूं है


जादू कुछ मुझ में नहीं था तो मिरी कुर्सी में


जान कर दिल ये मुआ फिर भी तड़पता क्यूं है   

7 टिप्‍पणियां:

  1. 'गुलो-बुलबुल का हसीं बाग़ उजड़ता क्यूं है' (चर्चा अंक - 3840) में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद दोस्त !

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  3. दोस्त तो दोस्त पड़ौसी भी फ़क़र करता था
    आज हर कोई मेरे साए से भी बचता क्यूं है
    कुर्सी गयी खेल खत्म... कुर्सी के बिना क्या औकात...
    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब

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    1. हौसलाफ़जाई के लिए शुक्रिया सुधा जी.
      वैसे कुर्सी जाने से खेल ख़त्म नहीं होता. कुर्सी जाने के बाद जो खेल शुरू होता है, उसमें पहले नायक की भूमिका निभाने वाला, किसी एक्स्ट्रा के रोल में आ जाता है.

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