अनूठे क्रिकेट प्रेमी –
मैंने अपनी ज़िन्दगी में बैडमिंटन, टेबल टेनिस, टेनिस,
क्रिकेट, फ़ुटबाल. वॉलीबॉल, हॉकी, बिलियर्ड्स, कबड्डी, खो-खो, गेंद-तड़ी और न जाने
क्या-क्या खेला है पर अधिकांश भारतवासियों की भांति मेरे प्राण क्रिकेट में ही
बसते हैं. 1960 के दशक में क्रिकेट कमेन्ट्री (कानपुर और दिल्ली के टेस्ट मैचेज़ को
छोड़कर) सिर्फ अंग्रेजी में आती थी पर अंग्रेजी में लगभग पैदल जैसवाल साहब को तब भी
रेडियो से चुपक कर कमेंट्री सुनते हुए देखा जा सकता था. जब भारत खेल रहा होता था
और अगर ज्यादा तालियां बजती थीं तो मतलब था कि हमारे किसी बैट्समैन ने फोर (तब
सिक्सर मारने का चलन नहीं था) लगा दिया है और प्रतिद्वंदी टीम के खेलते समय अगर
ज्यादा हल्ला होता था तो समझ लो कि कोई आउट हो गया है.
पुराने भारतीय क्रिकटरों पर हमारे बड़े भाई साहब का लिखा
क्रिकेट गीत हम लोग राष्ट-गान की धुन पर गाया करते थे –
‘विजय हज़ारे, वीनू मनकद, विजय माजरेकर,
नाना जोशी, नरेंद्र तम्हाने, पौली उम्रीगर,
घोर्पदे, देसाई, गुप्ते, मनहर हार्डीकर,
गायकवाड़, बोर्डे, फडकर, नारी कोंट्रेक्टर.’
मेरी छोटी बेटी रागिनी 2003 में अपने
इन्टरमीजिएट एक्ज़ाम्स के दौरान रात के दो-ढाई बजे वर्ड कप के मैच देखा करती थीं और
मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने इंडिया-ऑस्ट्रेलिया फाइनल के दौरान समस्त परिवार-जन को
टीम इंडिया की लाइट ब्लू ड्रेस पहनने के लिए मजबूर किया था. खैर यहाँ मुझे अपने परिवार
के क्रिकेट--प्रेम की चर्चा से अधिक चर्चा अनूठे क्रिकेट प्रेमियों की करनी है.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम ए. हिस्ट्री और लाल बहादुर
शास्त्री हॉस्टल, दोनों में ही मेरे साथी खान साहब ऑस्ट्रेलिया में हो रही टेस्ट
सिरीज़ के समय सुबह-सुबह मुझे ट्रांज़िस्टर से चुपके देख कर बड़े दुखी होते थे. भारत
इस सिरीज़ में लगातार हार रहा था. भारत की इस लगातार हार पर खान साहब ने अपनी
एक्सपर्ट ओपिनियन दे ही डाली –
‘ये गोरे मरदूद ऑस्ट्रेलिया वाले, सुबह पांच-छह बजे से ही
इंडिया वालों को खिला देते हैं. खुद तो उन्हें उल्लू की तरह अँधेरे में भी दिखाई
देता होगा (उन दिनों बिजली की रौशनी में मैच की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था) पर
बेचारे इंडिया वाले, उनकी सी ऑंखें कहाँ से लायें? बुरी तरह से हारेंगे नहीं तो
क्या जीतेंगे?’
हमारे हॉस्टल के एक अन्य मित्र बुधी कुंदेरन, फारूख इंजीनियर आदि को गोल कीपर कहते थे.
हमारे हॉस्टल के एक अन्य मित्र बुधी कुंदेरन, फारूख इंजीनियर आदि को गोल कीपर कहते थे.
कानपुर में वेस्टइंडीज़ और भारत के बीच वन डे इंटरनेशनल मैच
हो रहा था. वीआईपी एनक्लोज़र में मेरे बड़े भाई साहब और उनके सहयोगी व मित्र (ऊतर
प्रदेश शासन में सचिव पद पर नियुक्त) अपनी श्रीमतीजी के साथ विराजमान थे. किसी
वेस्टइंडीज़ के खिलाड़ीने दो बेरहम छक्के जड़े तो बड़े साहब की श्रीमतीजी ने उनसे एक
भोला सा सवाल पूछ डाला –
‘सुनिए जी. ये कैसे पता चलता है कि ये फ़ोरर है या सिक्सर?’
बड़े साहब ने मेरे बड़े भाई साहब को कनखियों से देखकर अपनी
नादान श्रीमतीजी को झिडकते हुए जवाब दिया –
‘इतना भी नहीं जानतीं? जैसवाल साहब तुम्हारे बारे में क्या
सोचेंगे? सीधी सी बात है, अगर बॉल इधर-उधर से बाउंड्री पार करे तो फ़ोर और वीआईपी
एनक्लोज़र की तरफ पार करे तो सिक्स.’
चेतन शर्मा का नाम सुनकर हमारे दिमाग में जो तस्वीर उभरती
है वो उस नायक की नहीं होती है जिसने कि वर्ड कप में हैट ट्रिक ली थी बल्कि उस
खलनायक की उभरती है जिसकी फ़ुलटॉस बॉल पर दुष्ट जावेद मियांदाद ने सिक्स़र मारकर
पाकिस्तान को टूर्नामेंट जिताया था. हमारे क्रिकेट विशेषज्ञ एक मित्र ने चेतन
शर्मा को कोसते हुए कहा –
‘फ़ुल टॉस बॉल से तो अच्छा था कि कमबख्त नो बॉल कर देता.’
मैं और मेरा मित्र प्रकाश उपाध्याय वन डे मैचों के दीवाने
हुआ करते थे. हमारे एक परम मित्र के यह समझ में ही नहीं आता था कि भारत की एक जीत
पर हम कैसे तीन-तीन दिन तक उत्सव मनाते रहते थे. हम लोगों की देखा-देखी हमारे इन परम
मित्र को भी क्रिकेट का चस्का लग गया. एक दिन शरमाते हुए उन्होंने अपनी एक शंका
मेरे सामने रक्खी –
‘जैसवाल साहब, आप तो कहते हैं कि क्रिकेट में हर टीम में 11
प्लेयर ही होते हैं पर कमेंट्रेटर तो ट्वेल्थ मैन का भी ज़िक्र कर रहा था.’
मैंने उनके सवाल के जवाब में एक सवाल दागा –
लीप ईयर का मतलब समझते हो? 1984 लीप ईयर है, और सालों से
इसमें क्या फ़र्क होता है?
चतुर मित्र ने तपाक से जवाब दिया –
इस साल 365 की जगह 366 दिन होते हैं, यानी एक दिन एक्स्ट्रा
होता है.’
अब मेरा उत्तर था –
‘शाबाश, सही जवाब. चूँकि यह लीप ईयर है इसलिए टीम में 11 की
जगह 12 प्लेयर खेल रहे हैं. अगले तीन सालों तक तुम किसी मैच में ट्वेल्थ मैन का
नाम नहीं सुनोगे.’
अंतिम किस्सा 1999 वर्ड कप का सुनाता हूँ. श्री लंका के
खिलाफ गांगुली-द्रविड़ की 318 रन की पार्टनरशिप को कौन भूल सकता है? गांगुली का दो
कदम आगे बढ़कर बॉलर के सर के ऊपर से सिक्स मारने का अंदाज़ बहुत खूबसूरत होता था.
मेरे एक मित्र मेरे साथ मैच देख रहे थे. गांगुली ने एक सिक्स लगाया तो हम सबने
तालियाँ बजाईं पर मित्र ने दो-बार एक्शन रि-प्ले पर भी ताली बजाई. फिर उछलकर
बोले-
‘वाह! एक साथ तीन छक्के! क्या जैसवाल साहब, गांगुली लगातार
तीन सिक्सर मार रहा है और आप हैं कि एक बार ही ताली बजाकर चुप बैठ गए?’
अच्छा हुआ मेरे उन मित्र ने युवराज सिंह का टी-ट्वेंटी वर्ड
कप में एक ओवर में 6 सिक्सर्स का कमाल नहीं देखा वरना उसका एक्शन रि-प्ले देखकर वो
कहते कि युवराज सिंह ने एक ओवर में 18 सिक्सर लगाए हैं.
अनूठे क्रिकेट प्रेमियों के यादगार किस्से तो बेशुमार हैं, पर
इस अध्याय के लिए फिलहाल इतने ही काफ़ी हैं.
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