विरह वेदना –
हफ़ीज़ जालंधरी का एक मक़बूल शेर है –
‘क्यूँ हिज्र के नाले रोता है, क्यूँ दर्द के शिक़वे करता
है,
जब इश्क किया तो सब्र भी कर, इसमें तो सभी कुछ, होता
है.’
(हिज्र – विरह, नाले रोता है - आर्तनाद करता है)
अब इस शेर को पृष्ठभूमि में रखकर एक लघु कथा सुनिए.
मेरे एक मित्र सबके सामने अपनी श्रीमतीजी से बे-इन्तहा
प्यार करने का दावा किया करते थे लेकिन खुद ही उनको उनकी मर्ज़ी के खिलाफ अपने मायके
जाने के लिए प्रेरित करते रहते थे. आम तौर पर सावन के महीने में भाई को, अपनी बहन,
उसकी ससुराल से उसके मायके लाने के लिए भेजा जाता है. हमारे मित्र के साले साहब भी
सावन में अपनी दीदी को लेने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे और अगर किसी कारण से वो
न आ पाएं तो खुद हमारे मित्र ही अपनी श्रीमतीजी को उनके मायके छोड़ आते थे. मित्र
की श्रीमतीजी बार-बार उन्हें वापस ले जाने के लिए फ़ोन करती रहती थीं लेकिन हमारे
मित्र दीपावली से पहले पत्नी-मिलन के लिए तैयार ही नहीं होते थे. तीज, रक्षा बंधन,
दशहरा, करवा चौथ, दीपावली, भैया दूज और छठ, इन सभी त्योहारों के अवसर पर प्राप्त उपहारों
का पुलिंदा लेकर जब हमारा मित्र परिवार अपने घर लौटता था तो उसे अपना सामान उठवाने
के लिए कम से कम दो-तीन मेटों (कुलियों) की ज़रुरत पड़ती थी.
इस चार महीने के विरह काल में हमारे मित्र इतना पैसा अवश्य
बचा लेते थे कि वो या तो एक मोटा सा फिक्स्ड डिपोज़िट बनवा लें या फिर घर के लिए
फ्रिज, टीवी या वाशिंग मशीन जैसा कोई बड़ा आइटम ले लें. मज़े की बात यह थी कि इस
वार्षिक विरह के चार महीनों में हमारे मित्र जहाँ भी जाते तो अपनी विरह वेदना का
दर्द सबके साथ बांटा करते थे. मेरी भी कई शाम उनका बिरहा सुनने में बीता करती थीं.
एक बार आदतन जब वो मुझे अपना बिरहा सुना रहे थे तो मैंने हफ़ीज़ जालंधरी के उपरोक्त
शेर को किंचित परिवर्तित करके उन्हें सांत्वना देते हुए कहा -
‘क्यूँ हिज्र के नाले रोता है, क्यूँ दर्द के शिक़वे करता
है,
बीबी मैके भिजवाने से, खर्चा भी तो कम, होता है.’
लगता है कुछ नया खरीदने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है :)
जवाब देंहटाएंअब तो पत्नी गाती है - 'मैं मैके नहीं जाऊंगी, तुम देखते रहियो.' फिर नया आइटम कैसे आएगा?
जवाब देंहटाएं