बिहारी का एक दोहा है –
‘कर फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहि,
रे गंधी मति अंध तू, इतर दिखावत काहि?’
(एक इत्र बेचने वाला, एक सज्जन को इत्र की फ़ुलेल देता है,
जिसको कि कान के पीछे लगाया जाता है, वह सज्जन उस इत्र की फ़ुलेल को खाकर, उसे मीठा
बताकर उसकी सराहना करते हैं. कवि इत्र बेचने वाले की भर्त्सना करते हुए उससे पूछता
है – अरे अक्ल के अंधे इत्र-फ़रोश, तू किसे इत्र दिखा रहा है? अर्थात, सुपात्र के
समक्ष ही अपनी बात कहनी चाहिए.)
इस दोहे की पृष्ठभूमि में मुझे अपने दो विद्वान
साहित्य-मर्मज्ञ मित्रों की याद आ गई है.
वाणिज्य संकाय में एंट्रीप्रीन्योरशिप पर आयोजित एक सेमिनार
के बाद हो रहे एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का मैं संचालन कर रहा था. इस में ‘हम होंगे
कामयाब’ का गायन भी हुआ. मेरे एक विद्वान मित्र इसको सुनकर आयोजकों पर और मुझ पर
आगबबूला हो गए. समारोह के बाद उन्होंने मुझे फटकारते हुए कहा-
‘मिस्टर साहित्य प्रेमी, तुम्हारे रहते हुए इस
एंट्रीप्रीन्योरशिप पर हो रही सेमिनार में ‘जाने भी दो यारो’ फ़िल्म का गाना कैसे
गा दिया गया?’
अकबर इलाहाबादी मेरे सबसे प्रिय शायर हैं. वक़्त, बेवक्त मैं
उनके अशआर उदधृत करता रहता हूँ. एक बार मैंने मित्रों को ग्रामोफ़ोन पर कहा गया अकबर
इलाहाबादी का यह शेर सुनाया –
‘भरते हैं मेरी आह को वो ग्रामोफ़ोन में,
कहते हैं, आह कीजिए और दाम लीजिए.’
मेरे मित्र जो कि मध्यकालीन इतिहास के प्रसिद्द विद्वान हैं,
उन्होंने मुझे मेरे इतिहास विषयक अज्ञान के लिए झिड़कर मुझे दुरुस्त करते हुए कहा –
‘जैसवाल साहब, अकबर को इलाहाबाद का नहीं, आगरा और फ़तेहपुर
सीकरी का कहिए. एक बात और बता दूँ – अकबर के ज़माने तक ग्रामोफ़ोन का आविष्कार हुआ
ही नहीं था.’
हा हा अकबर इलाहाबादी से अकबर फतेहपुरी तक ।
जवाब देंहटाएंतुम मेरी दुर्दशा के बारे में सोचो. ऐसे साहित्य-प्रेमी और इतिहासकार के साथ मैंने 31 साल गुज़ारे हैं.
जवाब देंहटाएंजी,ये सच है !! ??? घौर दुखद आश्चर्य ।😟😟
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