शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सारांश

सारांश –
मेरी स्वर्गीया बहिन मुझसे आठ साल भी बड़ी नहीं थीं लेकिन मुझ पर दादी-नानी वाला रौब झाड़ा करती थीं. परन्तु उनके बच्चे जयंत और श्रुति मुझसे उम्र में बहुत छोटे होते हुए भी मेरे साथ तमाम दोस्ताना लिबर्टीज़ लिया करते थे. ईमानदारी की बात यह है कि मुझे भी उनके साथ धमाचौकड़ी मचाने में और फिर बहिनजी की डांट-फटकार खाने में बड़ा मज़ा आता था. 1980 के दशक में जीजाजी बॉम्बे में पोस्टेड थे और मैं अल्मोड़ा में. जाड़े की छुट्टियों में बहिनजी, बच्चों के साथ, हमारे लखनऊ के घर और फिर अपनी ससुराल आगरा का टूर लगाया करती थीं. जाड़ों की छुट्टियों में हम लोग भी लखनऊ में ही होते थे. दोनों बच्चों को अपने स्कूटर पर बिठाकर लखनऊ घुमाना, फिल्म दिखाना और फिर लालबाग के शर्मा चाट हाउस में चाट खिलाना मेरा वार्षिक दायित्व हुआ करता था.
1984 की बात रही होगी. हमारी श्रुति की फरमाइश थी कि लीला सिनेमा में लग रही धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा की एक्शन फिल्म 'जीने नहीं दूंगा' उन्हें दिखाई जाय. जयंत और मेरे लाख मनाने के बावजूद साहबज़ादी उसी कंडम फिल्म को देखने के लिए अड़ी रहीं.
हजरतगंज के मेफेयर सिनेमा के सामने के स्कूटर स्टैंड पर जब मैं अपना स्कूटर पार्क कर रहा था तो मेफेयर सिनेमा में ‘सारांश’ फिल्म का बड़ा सा पोस्टर लगा हुआ था. इस फिल्म की बहुत तारीफ़ सुनी थी पर मेरे लाख अनुरोध करने पर भी दुष्ट बच्चे अपनी फिल्म बदलने को तैयार नहीं हुए. मजबूरन हमको लीला सिनेमा के लिए जाना पड़ा. लीला सिनेमा जाकर मैंने फिल्म 'जीने नहीं दूंगा' की सिर्फ दो टिकट्स खरीदीं. स्पेशल ट्रीट का खुला ऑफर देकर मैंने बच्चों को पटा लिया कि मैं उनसे अलग जाकर ‘सारांश’ देख आऊँ पर साथ में उनसे यह वचन भी ले लिया कि वो बहिनजी को मेरी इस चोरी के बारे में कुछ नहीं बताएँगे.
‘सारांश’ देखकर आनंद आ गया. क्या फिल्म थी, अनुपम खेर की क्या एक्टिंग थी. इस फिल्म की एक और अच्छाई यह थी कि इसकी अवधि बच्चों वाली उस एक्शन फिल्म की अवधि से काफ़ी कम थी. इस कारण मैं बच्चों वाली फिल्म छूटने से पहले ही लीला सिनेमा पहुँच गया. फिल्म के बाद बच्चों को  स्पेशल ट्रीट दी गयी. बच्चे खुश और मामा भी खुश. पर मेरी कहानी का अभी तो इंटरवल ही हुआ है.
घर पहुंचकर बच्चों ने अपनी मम्मी और मामी के सामने ही-ही-ही करते हुए ‘समरी’, ‘समरी’ का राग अलापना शुरू कर दिया. किसी के कुछ समझ में नहीं आया तो श्रुतिजी अपनी मम्मी से ‘समरी’ का हिंदी अर्थ पूछने लगीं. कुछ देर सोचने के बाद बहिनजी के दिमाग की बत्ती ऑन हुई. उन्होंने मुझसे पूछा –
‘तूने बच्चों को ‘सारांश’ दिखा दी?’
मैं जब तक जवाब दूँ तब तक साहबज़ादी ने उन्हें करेक्ट किया –
‘हमने तो धर्मेन्द्र वाली 'जीने नहीं दूंगा' ही देखी थी मम्मी.’
मीराबाई ने शायद ऐसी ही किसी सिचुएशन के लिए कहा होगा –
‘अब तो बात फैल गयी, जाने सब कोई.’
बहिनजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था –
‘नालायक, तू बच्चों को लीला सिनेमा में छोड़कर ‘सारांश’ देखने चला गया था? अगर मेरे बच्चों को कोई उठा ले जाता तो तू क्या जवाब देता?’
मैंने क्रमशः इन्टरमीजियेट और क्लास सिक्स्थ में पढ़ने वाले हृष्ट-पुष्ट बच्चों पर एक नज़र डाली फिर हाथ जोड़कर बहिनजी के सवाल के जवाब में एक सवाल दाग दिया –
‘सिस्टर, इन बच्चों को उठाने के लिए दारा सिंह जैसा बिज़ी आदमी लीला सिनेमा क्यूँ आता?’
इस सवाल को सुनकर बच्चे तो आगबबूला हो गए पर बहिनजी सहित बाक़ी लोग हंस पड़े. आगे से फिर मैं ऐसी कोई गुस्ताखी नहीं करूँगा, यह वचन लेकर बहिनजी ने मुझे माफ़ कर दिया.

अंत भला तो सब भला. कहानी का सुखद अंत हुआ लेकिन मेरे द्वारा धोखेबाज़ बच्चों की कान-खिचाई करने के बाद.                                                                           

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा तो आप पहले से ही ऐसे थे :P
    बढ़िया है ।

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  2. अब तो मैं सुधर गया हूँ. अब संत जैसवाल साहब को थिएटर जाकर फिल्म देखने में खास मज़ा नहीं आता.

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