मुदर्रिसी में ख़ुद 36 साल गुज़ारने वाले मुझ नाचीज़ के बारे में मेरे पुराने शागिर्द क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन अपने छात्र-जीवन में मैं ख़ुद और मेरे तमाम साथी, अपने अटपटे-चटपटे उस्तादों के बारे में एक से एक ऊट-पटांग बातें कहा और सोचा करते थे.
इस संस्मरण में मैं कक्षा चार से ले कर कक्षा आठ तक के अपने चार अटपटे-चटपटे गुरुजन को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा हूँ.
1.
इटावा के पुरबिया टोला में स्थित मॉडल स्कूल में कक्षा चार-कक्षा पांच में पढ़ते समय मुझ शहरी बालक को टाट पर और पटरी पर बैठ कर ठेठ गंवारू माहौल को पूरे दो साल तक बर्दाश्त करना पड़ा था.
हमको गणित पढ़ाने वाले तिवारी मास्साब कक्षा में हमको जोड़-गुणा-भाग पढ़ाते समय बीड़ी का कश लगाने में ज़रा भी तक़ल्लुफ़ नहीं करते थे.
धूम्रपान के महा-विरोधी परिवार के एक जागरूक सदस्य की हैसियत से मैंने तिवारी मास्साब को टोकते हुए एक दिन कह दिया –
‘मास्साब ! आप क्लास में बीड़ी क्यों पीते हैं? मेरे पिताजी कहते हैं कि क्लास में बीड़ी पीने वाले को तो जेल में डाल देना चाहिए.’
तिवारी मास्साब ने आगबबूला हो कर मुझ से पूछा –
‘तू बित्ते भर का छोकरा कक्षा में बीड़ी पीने पर अपने पिताजी से कह कर हमको क्या जेल भिजवाएगा? वैसे तेरे पिताजी करते क्या हैं?’
मैंने रौब के साथ जवाब दिया –
‘मेरे पिताजी जुडिशिअल मजिस्ट्रेट हैं.’
यह सुनते ही तिवारी मास्साब की मानो घिग्घी बंध गयी. उन्होंने मुझे प्यार से पुचकारते हुए कहा –
‘बेटा ! हम तो बीड़ी नंबर 207 पीते हैं. इसको पीने से किसी को कोई हानि नहीं होती है. इसको तो क्लास में पीने पर भी कोई पाबंदी नहीं है.’
मैंने बड़ी मासूमियत से एक सवाल दाग दिया –
‘आपकी ये बात क्या मैं पिताजी को बता दूं?’
मास्साब ने अपनी सुलगी हुई बीड़ी को तुरंत फेंकते हुए ऐलान किया –
‘आज से कक्षा में हम बीड़ी नहीं पियेंगे.’
2.
अपने इटावा-प्रवास के आख़िरी साल मैंने गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज के क्लास 6 में प्रवेश लिया था.
हमको साइंस पढ़ाने वाले एस० एन० किदवई मास्साब यानी की ‘स० न० क्यू०’ अपनी उल-जलूल वेशभूषा की वजह से और विद्यार्थियों की बिला वजह पिटाई करने की आदत के कारण छात्रों के बीच में – ‘सनकी मास्साब’ के नाम से मशहूर थे.
वैसे हमारे ‘सनकी मास्साब’ का साइंस पढ़ाने में कोई जवाब नहीं था.
कई बार छोटे-छोटे एपरेटस ला कर वो हमको क्लास में साइंस के दिलचस्प एक्सपेरिमेंट्स कर के दिखाते थे.
प्रसिद्द आविष्कारों के बारे में बारीकी से बताने में और वैज्ञानिकों के जीवन की दिलचस्प कहानियां सुनाने में उनका कोई जवाब नहीं था.
हमारी बदकिस्मती से हमको साइंस पढ़ाने के लिए कोई नए मास्साब आ गए और ‘सनकी मास्साब’ को हमको संस्कृत पढ़ाने की ज़िम्मेदारी दे दी गयी.
‘सनकी मास्साब’ को संस्कृत का – ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ भी नहीं आता था. संस्कृत का एक छोटा सा वाक्य पढ़ते वक़्त वो बेचारे औसतन एक दर्जन बार अटकते-भटकते ही नहीं थे बल्कि कठिन शब्दों को तो गटकते भी थे.
अपनी ज़िंदगी में हमने ‘सनकी मास्साब’ के सौजन्य से ही पहली बार कुंजी के दर्शन किए थे.
संस्कृत गद्य को भी गा-गा कर पढ़ने की कला मैंने उन से ही सीखी थी.
संस्कृत में मेरे महा-पैदल होने की बुनियाद ‘सनकी मास्साब’ ने ही डाली थी.
3.
अगर अटपटे गुरुजन के गुस्ताख़ उपनाम रखने के दंड-स्वरुप कारावास का प्रावधान होता तो शायद ही कोई विद्यार्थी खुली हवा में सांस ले पाता.
रायबरेली के गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में क्लास 7 में और क्लास 8 में हमको गणित पढ़ाने वाले महा गोलमटोल टी० पी० श्रीवास्तव (त्रिभुवन प्रसाद श्रीवास्तव) मास्साब अपने हाथ में हमेशा एक संटी लिए रहते थे.
नमस्ते न करने पर वो हर बे-ख़बर और हर बे-अदब विद्यार्थी को – ‘बड़े बदतमीज़ हो.’ कह कर एक संटी ज़रूर लगा दिया करते थे.
अपनी जान बचाने के लिए हम बालकगण उन्हें देखते ही – ‘मास्साब नमस्ते’ का नारा बुलंद कर दिया करते थे.
गणित पढ़ते वक़्त हम भोले-भाले और निरीह विद्यार्थियों को अपनी हर एक गलती पर और अपनी हर एक भूल पर, मास्साब से एक-एक ज़ोरदार संटी का प्रसाद मिलना ज़रूरी होता था.
टी० पी० श्रीवास्तव मास्साब की इस दयालुता के कारण हम कृतज्ञ और श्रद्धालु विद्यार्थी पीठ पीछे उन्हें – ‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ कह कर बुलाया करते थे.
‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ अपनी विशाल तोंद की वजह से ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते वक़्त उसका सिर्फ़ आधा ऊपरी हिस्सा इस्तेमाल करते थे क्योंकि ज़्यादा झुकने पर उनकी तोंद आड़े आ जाती थी.
दुष्ट लड़के तो यह दावा भी करते थे कि अगर मास्साब ब्लैक बोर्ड के निचले हिस्से में कुछ लिखते थे वो उनकी तोंद की रगड़ खा कर पूरा का पूरा पुंछ जाता था.
‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ की सिर्फ़ आधा ब्लैक बोर्ड इस्तेमाल करने की इस मजबूरी देख कर जब हम आदर्श विद्यार्थी ‘ही. ‘ही’, ‘ही’ किया करते थे तो वो हमारी पीठों पर और हमारी तशरीफ़ों पर, कितनी बार अपनी संटी से शाबाशी दिया करते थे, इसकी गणना कर पाना मेरे लिए आज भी मुश्किल है.
4.
रायबरेली में अपने पुस्तक कला के मास्साब छोटे नकवी साहब के बारे में मैं अपनी पुस्तक – ‘मुस्कुराइए ज़रा’ के – ‘पुस्तक-कला की कक्षा’ शीर्षक एक संस्मरण में विस्तार से लिख चुका हूँ लेकिन इस वक़्त उनके बारे में फिर से कुछ लिखने के लोभ से मैं ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूँ.
छोटे नकवी मास्साब ही नहीं बल्कि हम विद्यार्थी भी, पुस्तक कला की कक्षा को अपनी खाला का घर समझते थे.
दिन के आख़िरी पीरियड में होने वाली पुस्तक कला की कक्षा में हम विद्यार्थी या तो कागज़ के हवाई जहाज उड़ाते रहते थे या फिर एक-दूसरे पर (कभी-कभी मास्साब पर भी) चौक का निशाना लगाने की प्रैक्टिस करते रहते थे.
क्लास में हमारे छोटे नकवी मास्साब या तो अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकियाँ लिया करते थे या फिर अपने बारहमासी नजले की वजह से नाक से विचित्र-विचित्र आवाज़ें निकाल-निकाल कर उसे बार-बार साफ़ कर, अपने गले में टंगे अंगौछे से पोंछा करते थे.
मास्साब की नाक के इस अनवरत प्रवाह के कारण हम दुष्ट विद्यार्थी उन्हें प्यार से – ‘नकबही मास्साब’ कहा करते थे.
‘नकबही मास्साब’ की कक्षा में अदल-बदल कर लगभग एक दर्जन विद्यार्थी लघुशंका निवारण के लिए जाते थे जो कि फिर घंटा ख़त्म होने तक बाहर कबड्डी खेलते रहते थे और घंटा बजने पर सिर्फ़ अपना-अपना बस्ता उठाने के लिए क्लास में घुसते थे.
मास्साब की बाज़ार में स्टेशनरी की दुकान थी जहाँ पर कि वो हम विद्यार्थियों द्वारा बनाए गए लिफ़ाफ़े, बुक-कवर्स, फ़ाइल-कवर्स, वगैरा, हमारी इजाज़त लिए बिना, बेच दिया करते थे.
मास्साब की इस चोरी और ऊपर से सीनाज़ोरी पर कई बार पीड़ित छात्रों से उनकी कहा-सुनी हो जाया करती थी.
आज की अपनी धृष्टता को मैं यहीं विराम देता हूँ. वैसे मेरे अटपटे-चटपटे गुरुजन अभी भी बाक़ी हैं लेकिन उनको मैं अपने श्रद्धा-सुमन किसी अन्य दिन अर्पित करूंगा.