रविवार, 17 नवंबर 2024

मेरे चार अटपटे-चटपटे गुरुजन

 मुदर्रिसी में ख़ुद 36 साल गुज़ारने वाले मुझ नाचीज़ के बारे में मेरे पुराने शागिर्द क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन अपने छात्र-जीवन में मैं ख़ुद और मेरे तमाम साथी, अपने अटपटे-चटपटे उस्तादों के बारे में एक से एक ऊट-पटांग बातें कहा और सोचा करते थे.

इस संस्मरण में मैं कक्षा चार से ले कर कक्षा आठ तक के अपने चार अटपटे-चटपटे गुरुजन को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा हूँ.
1.
इटावा के पुरबिया टोला में स्थित मॉडल स्कूल में कक्षा चार-कक्षा पांच में पढ़ते समय मुझ शहरी बालक को टाट पर और पटरी पर बैठ कर ठेठ गंवारू माहौल को पूरे दो साल तक बर्दाश्त करना पड़ा था.
हमको गणित पढ़ाने वाले तिवारी मास्साब कक्षा में हमको जोड़-गुणा-भाग पढ़ाते समय बीड़ी का कश लगाने में ज़रा भी तक़ल्लुफ़ नहीं करते थे.
धूम्रपान के महा-विरोधी परिवार के एक जागरूक सदस्य की हैसियत से मैंने तिवारी मास्साब को टोकते हुए एक दिन कह दिया –
‘मास्साब ! आप क्लास में बीड़ी क्यों पीते हैं? मेरे पिताजी कहते हैं कि क्लास में बीड़ी पीने वाले को तो जेल में डाल देना चाहिए.’
तिवारी मास्साब ने आगबबूला हो कर मुझ से पूछा –
‘तू बित्ते भर का छोकरा कक्षा में बीड़ी पीने पर अपने पिताजी से कह कर हमको क्या जेल भिजवाएगा? वैसे तेरे पिताजी करते क्या हैं?’
मैंने रौब के साथ जवाब दिया –
‘मेरे पिताजी जुडिशिअल मजिस्ट्रेट हैं.’
यह सुनते ही तिवारी मास्साब की मानो घिग्घी बंध गयी. उन्होंने मुझे प्यार से पुचकारते हुए कहा –
‘बेटा ! हम तो बीड़ी नंबर 207 पीते हैं. इसको पीने से किसी को कोई हानि नहीं होती है. इसको तो क्लास में पीने पर भी कोई पाबंदी नहीं है.’
मैंने बड़ी मासूमियत से एक सवाल दाग दिया –
‘आपकी ये बात क्या मैं पिताजी को बता दूं?’
मास्साब ने अपनी सुलगी हुई बीड़ी को तुरंत फेंकते हुए ऐलान किया –
‘आज से कक्षा में हम बीड़ी नहीं पियेंगे.’
2.
अपने इटावा-प्रवास के आख़िरी साल मैंने गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज के क्लास 6 में प्रवेश लिया था.
हमको साइंस पढ़ाने वाले एस० एन० किदवई मास्साब यानी की ‘स० न० क्यू०’ अपनी उल-जलूल वेशभूषा की वजह से और विद्यार्थियों की बिला वजह पिटाई करने की आदत के कारण छात्रों के बीच में – ‘सनकी मास्साब’ के नाम से मशहूर थे.
वैसे हमारे ‘सनकी मास्साब’ का साइंस पढ़ाने में कोई जवाब नहीं था.
कई बार छोटे-छोटे एपरेटस ला कर वो हमको क्लास में साइंस के दिलचस्प एक्सपेरिमेंट्स कर के दिखाते थे.
प्रसिद्द आविष्कारों के बारे में बारीकी से बताने में और वैज्ञानिकों के जीवन की दिलचस्प कहानियां सुनाने में उनका कोई जवाब नहीं था.
हमारी बदकिस्मती से हमको साइंस पढ़ाने के लिए कोई नए मास्साब आ गए और ‘सनकी मास्साब’ को हमको संस्कृत पढ़ाने की ज़िम्मेदारी दे दी गयी.
‘सनकी मास्साब’ को संस्कृत का – ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ भी नहीं आता था. संस्कृत का एक छोटा सा वाक्य पढ़ते वक़्त वो बेचारे औसतन एक दर्जन बार अटकते-भटकते ही नहीं थे बल्कि कठिन शब्दों को तो गटकते भी थे.
अपनी ज़िंदगी में हमने ‘सनकी मास्साब’ के सौजन्य से ही पहली बार कुंजी के दर्शन किए थे.
संस्कृत गद्य को भी गा-गा कर पढ़ने की कला मैंने उन से ही सीखी थी.
संस्कृत में मेरे महा-पैदल होने की बुनियाद ‘सनकी मास्साब’ ने ही डाली थी.
3.
अगर अटपटे गुरुजन के गुस्ताख़ उपनाम रखने के दंड-स्वरुप कारावास का प्रावधान होता तो शायद ही कोई विद्यार्थी खुली हवा में सांस ले पाता.
रायबरेली के गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में क्लास 7 में और क्लास 8 में हमको गणित पढ़ाने वाले महा गोलमटोल टी० पी० श्रीवास्तव (त्रिभुवन प्रसाद श्रीवास्तव) मास्साब अपने हाथ में हमेशा एक संटी लिए रहते थे.
नमस्ते न करने पर वो हर बे-ख़बर और हर बे-अदब विद्यार्थी को – ‘बड़े बदतमीज़ हो.’ कह कर एक संटी ज़रूर लगा दिया करते थे.
अपनी जान बचाने के लिए हम बालकगण उन्हें देखते ही – ‘मास्साब नमस्ते’ का नारा बुलंद कर दिया करते थे.
गणित पढ़ते वक़्त हम भोले-भाले और निरीह विद्यार्थियों को अपनी हर एक गलती पर और अपनी हर एक भूल पर, मास्साब से एक-एक ज़ोरदार संटी का प्रसाद मिलना ज़रूरी होता था.
टी० पी० श्रीवास्तव मास्साब की इस दयालुता के कारण हम कृतज्ञ और श्रद्धालु विद्यार्थी पीठ पीछे उन्हें – ‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ कह कर बुलाया करते थे.
‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ अपनी विशाल तोंद की वजह से ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते वक़्त उसका सिर्फ़ आधा ऊपरी हिस्सा इस्तेमाल करते थे क्योंकि ज़्यादा झुकने पर उनकी तोंद आड़े आ जाती थी.
दुष्ट लड़के तो यह दावा भी करते थे कि अगर मास्साब ब्लैक बोर्ड के निचले हिस्से में कुछ लिखते थे वो उनकी तोंद की रगड़ खा कर पूरा का पूरा पुंछ जाता था.
‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ की सिर्फ़ आधा ब्लैक बोर्ड इस्तेमाल करने की इस मजबूरी देख कर जब हम आदर्श विद्यार्थी ‘ही. ‘ही’, ‘ही’ किया करते थे तो वो हमारी पीठों पर और हमारी तशरीफ़ों पर, कितनी बार अपनी संटी से शाबाशी दिया करते थे, इसकी गणना कर पाना मेरे लिए आज भी मुश्किल है.
4.
रायबरेली में अपने पुस्तक कला के मास्साब छोटे नकवी साहब के बारे में मैं अपनी पुस्तक – ‘मुस्कुराइए ज़रा’ के – ‘पुस्तक-कला की कक्षा’ शीर्षक एक संस्मरण में विस्तार से लिख चुका हूँ लेकिन इस वक़्त उनके बारे में फिर से कुछ लिखने के लोभ से मैं ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूँ.
छोटे नकवी मास्साब ही नहीं बल्कि हम विद्यार्थी भी, पुस्तक कला की कक्षा को अपनी खाला का घर समझते थे.
दिन के आख़िरी पीरियड में होने वाली पुस्तक कला की कक्षा में हम विद्यार्थी या तो कागज़ के हवाई जहाज उड़ाते रहते थे या फिर एक-दूसरे पर (कभी-कभी मास्साब पर भी) चौक का निशाना लगाने की प्रैक्टिस करते रहते थे.
क्लास में हमारे छोटे नकवी मास्साब या तो अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकियाँ लिया करते थे या फिर अपने बारहमासी नजले की वजह से नाक से विचित्र-विचित्र आवाज़ें निकाल-निकाल कर उसे बार-बार साफ़ कर, अपने गले में टंगे अंगौछे से पोंछा करते थे.
मास्साब की नाक के इस अनवरत प्रवाह के कारण हम दुष्ट विद्यार्थी उन्हें प्यार से – ‘नकबही मास्साब’ कहा करते थे.
‘नकबही मास्साब’ की कक्षा में अदल-बदल कर लगभग एक दर्जन विद्यार्थी लघुशंका निवारण के लिए जाते थे जो कि फिर घंटा ख़त्म होने तक बाहर कबड्डी खेलते रहते थे और घंटा बजने पर सिर्फ़ अपना-अपना बस्ता उठाने के लिए क्लास में घुसते थे.
मास्साब की बाज़ार में स्टेशनरी की दुकान थी जहाँ पर कि वो हम विद्यार्थियों द्वारा बनाए गए लिफ़ाफ़े, बुक-कवर्स, फ़ाइल-कवर्स, वगैरा, हमारी इजाज़त लिए बिना, बेच दिया करते थे.
मास्साब की इस चोरी और ऊपर से सीनाज़ोरी पर कई बार पीड़ित छात्रों से उनकी कहा-सुनी हो जाया करती थी.
आज की अपनी धृष्टता को मैं यहीं विराम देता हूँ. वैसे मेरे अटपटे-चटपटे गुरुजन अभी भी बाक़ी हैं लेकिन उनको मैं अपने श्रद्धा-सुमन किसी अन्य दिन अर्पित करूंगा.

रविवार, 10 नवंबर 2024

प्रभुजी, तुम चन्दन, हम पानी

 जहाँ भी तुम क़दम रख दो

वहीं पर राजधानी है
न ही इज्ज़त की है चिंता
न ही आँखों में पानी है
इशारों पर हिलाना दुम
ये पेशा खानदानी है
तुम्हारे फेंके टुकड़ों से
क्षुधा अपनी मिटानी है
चरण-रज नित्य श्रद्धा से
हमें मस्तक लगानी है
कहो दिन को अगर तुम रात
तो लोरी सुनानी है
तुम्हारी धमकियाँ-गाली
हमारी बेद-बानी है
तुम्हारे झापडों की मार भी
लगती सुहानी है
क्यों हम कबिरा सा सच बोलें
मुसीबत क्या बुलानी है
तुम्हारे वास्ते है बेच दी हमने अकल अपनी
तुम्हारे नाम पर ये आत्मा गिरवी रखानी है
मुसाहिब हैं हमारा काम हाँ में हाँ मिलाना है
तुम्हारी हर जहालत पर हमें ताली बजानी है
न ओहदा है न रुतबा है भला इसकी शिक़ायत क्यों
हमें जूती उठाने दीं तुम्हारी मेहरबानी है

रविवार, 20 अक्तूबर 2024

व्यावहारिक ज्ञान की बातें

सीता जी को माता अनसूया का उपदेश -
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी,
आपद काल, परिखि अहिं चारी.
चुनाव-प्रत्याशियों को हमारा उपदेश -
छल, प्रपंच, चोरी, मक्कारी,
सफल सियासत के गुण, चारी.
चोर, दस्यु, तस्कर, व्यभिचारी,
ये चुनाव में, सब पर भारी.
हमारे ऐसे विद्यादान की निरर्थकता -
हम से पढ़, पंडित भया,
बेघर, निर्धन होय,
बिश्नोई लॉरेन्स का,

चेला सुख से सोय. 

शनिवार, 12 अक्तूबर 2024

असत्यमेव जयते

 असत्यमेव जयते –

नाभि पे अपनी, कवच चढ़ा कर,
उतरा रावण, आज समर में,
लंकापति बनने का सपना,
भाई का अब, हुआ अधर में.
छुप कर बाली, भले मार लो,
किन्तु दशानन, बड़ा सजग है,
साम-दाम औ दंड-भेद से,
जीता उसने, सारा जग है.
राम लौट जाओ, फिर वन को,
बिना जानकी, बन सन्यासी,
आजीवन तप-ध्यान-मनन से,
दूर करो, नैराश्य, उदासी.
हर बस्ती, हर शहर-गाँव में,
पापी, सत्ता में, रहते हैं,
भक्त किन्तु हनुमान सरीखे,
दर्द गुलामी का, सहते हैं.
फिर न दशहरे का, उत्सव हो,
फिर न कहीं, पुतलों का दहन हो,
पाप, अधर्म, असत्य, अमर हैं,
इसी मन्त्र का, जाप गहन हो.
पाप, अधर्म, असत्य, अमर हैं,
इसी मन्त्र का, जाप गहन हो.
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बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

गांधी जयन्ती

आज की ख़बर –
तेरी छाती पे गोलियां बरसा,
तेरी समाधि पे जाते हैं, फूल बरसाने,
तू अमन और अहिंसा की, बात करता है,
वो चल पड़े, तुझे बम की ज़ुबान सिखलाने.
आगे बढ़ो बाबा -
एक हाथ में लाठी ठक-ठक,
और एक में,
सत्य, अहिंसा तथा धर्म का,
टूटा-फूटा, लिए कटोरा.
धोती फटी सी, लटी दुपटी,
अरु पायं उपानहिं की, नहिं सामा,
राजा की नगरी फिर आया,
बिना बुलाए एक सुदामा.
बतलाता वो ख़ुद को, बापू,
जिसे भुला बैठे हैं बेटे,
रात किसी महफ़िल में थे वो,
अब जा कर बिस्तर पर लेटे.
लाठी की कर्कश ठक-ठक से,
नींद को उनके, उड़ जाना था,
गुस्ताख़ी करने वाले पर,
गुस्सा तो, बेशक़ आना था.
टॉमी को, खुलवा मजबूरन,
उसके पीछे, दौड़ाना था,
लेकिन एक भले मानुस को,
जान बचाने आ जाना था.
टॉमी को इक घुड़की दे कर,
बाबा से फिर दूर भगाया,
गिरा हुआ चश्मा उसका फिर,
उसके हाथों में थमवाया.
बाबा लौटा ठक-ठक कर के,
नयन कटोरों में जल भर के,
जीते जी कब चैन मिला था,
दुःख ही झेला उसने मर के.
भारत दो टुकड़े करवाया,
शत्रु-देश को धन दिलवाया,
नाथू जैसे देश-रत्न को,
मर कर फांसी पर चढ़वाया.
राष्ट्रपिता कहलाता था वह,
राष्ट्र-शत्रु पर अब कहलाए,
बहुत दिनों गुमराह किया था,
कलई खुल गयी वापस जाए.
विश्व उसे जानता नहीं है,
देश उसे मानता नहीं है,
उसकी राह पे चलने का प्रण,
अब कोई ठानता नहीं है.
बाबा अति प्राचीन हो गया,
पुरातत्व का सीन हो गया,
उसे समझना मुश्किल है अब,
भैंस के आगे बीन हो गया.
दो अक्टूबर का अब यह दिन,
उसे भुलाने का ही दिन है,
त्याग-तपस्या को दफ़ना कर,
मधुशाला जाने का दिन है.
आओ उसकी लाठी ले कर,
इक-दूजे का हम सर फोड़ें,
विघटित, खंडित, आहत, भारत,
नए सिरे से, फिर हम तोड़ें.
विघटित, खंडित, आहत, भारत,
नए सिरे से, फिर हम तोड़ें.

रविवार, 18 अगस्त 2024

बैलेंस्ड डाइट

 (मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह ‘कलियों की मुस्कान’ की एक कहानी आपकी सेवा में प्रस्तुत है. इस कहानी को मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है और इसका काल है – 1990 का दशक !

पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वो गीतिका के इन गुप्ता अंकल में मेरा अक्स देखने की कोशिश न करें. )
बैलेन्स्ड डाइट
भगवान ने कुछ लोगों को कवि बनाया है, सुन्दर दृष्य देख कर या किसी ट्रैजेडी के बारे में सुन कर उनके मन में कविता के भाव उमड़ने लगते हैं. कुछ को नेता का जिगर दिया गया है, इन्हें तिकड़म और जुगाड़ लगाना पसन्द होता है.
जिनको अपराधी का दिमाग मिला है, उनको ठाँय-ठूँ और ढिशुम-ढिशुम का कान-फोड़ संगीत पसंद आता है.
मीरा के नयनों में नन्दलाल बसते हैं, एम. एफ़ हुसेन के दिल में माधुरी दीक्षित रहती हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल के प्राण पकवानों में बसते हैं.
गुप्ता अंकिल कहते हैं –
‘भगवान ने हमको हमको सूंघने की ऐसी शक्ति दी है जो दो मील से पकवानों की खुशबू पकड़ लेती है, आँखें ऐसी दी हैं जिन्हें सिर्फ़ पकवानों की ही फ़िगर और उनका गैटअप लुभाता है और जीभ ऐसी दी है जिसे मीठा, नमकीन, खट्टा, तीख़ा, चरपरा, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पश्चिम भारतीय, इटालियन, कान्टिनेन्टल, थाई, मैक्सिकन, मंचूरियन, चायनीज़ सब पसन्द है.'
गुप्ता अंकिल को पकवानों की किस्मों की जानकारी हासिल करने के लिए पता नहीं क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं.
अब पापड़ की ही बात लीजिए तो क्या आप अमृतसरी, राजस्थानी, सिन्धी और गुजराती पापड़ में फ़र्क कर सकते हैं? नहीं न! पर गुप्ता अंकिल पापड़ों में आँख मूंद कर सिर्फ़ जीभ का इस्तेमाल कर फ़र्क कर सकते हैं. खाने के मामले में उनका भौगोलिक और ऐतिहासिक ज्ञान बहुत व्यापक है.
गुप्ता अंकल को यह नहीं मालूम कि ताजमहल कहाँ है या विक्टोरिया मेमोरियल कहां है लेकिन वो यह ज़रूर बता सकते हैं की आगरा की किस दुकान पर सबसे बढ़िया पेठा-दालमोठ मिलते हैं या कोलकाता की किस दुकान पर सबसे अच्छे संदेस और रसगुल्ले मिलते हैं.
हमारी ही तरह विशुद्ध शाकाहारी होने की वजह से गुप्ता अंकिल को बिरयानी, तन्दूरी मुर्ग या कबाब की पर्याप्त जानकारी नहीं है पर दुनिया भर के तमाम शाकाहारी व्यन्जनों के विषय में उन्हें चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया ज़रूर कहा जा सकता है.
लोगबाग मथुरा-वृन्दावन भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली देखने जाते हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल वहाँ पेड़े खरीदने जाते हैं.
दिल्ली में उनके लिए सारे रास्ते चाँदनी चौक की पराठेवाली गली से होकर गुज़रते हैं.
लखनऊ में वो आँखें बन्द कर अमीनाबाद की प्रसिद्ध चाट की दुकानों पर और चौक की ठन्डाई की दुकान पर पहुँच सकते हैं.
चाय के बागानों में ऊँची-ऊँची तनख्वाहों पर प्रोफ़ेशनल टी-टेस्टर्स रक्खे जाते हैं लेकिन पता नहीं क्यों मिठाई बनाने वाले और नमकीन या चाट बनाने वालों को ऐसे एक्सपर्ट्स की ज़रूरत नहीं होती. अगर उन्हें ऐसे एक्सपर्ट् की ज़रूरत होती तो क्या गुप्ता अंकिल कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसरी कर अपनी जि़न्दगी किताबों में माथापच्ची करने और स्टूडेन्ट्स को इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने में बरबाद करते?
वो तो ऊँची तनख्वाह लेकर दिन में चौबीसों घन्टे और साल में तीन सौ पैसठों दिन अपने दोनों हाथों की दसो उंगलियाँ घी में और अपना इकलौता सर कढ़ाई में रख लेते.
गुप्ता अंकल बड़े हुए तो उनकी शादी की बात चलने लगी.
होने वाली दुल्हन के रूप-रंग, शिक्षा-दीक्षा, घर-परिवार के बारे में मालुमात करना तो औरों की जि़म्मेदारी थी पर शादी से पहले उन्होंने लड़की की अर्थात हमारी होने वाली आंटी की सिर्फ़ पाक-विद्या में परीक्षा ली थी. उनकी बनाई फूली-फूली गोल पूडि़यों, सुडौल स्वादिष्ट समौसों और मूँग की दाल के बने सुनहरे हल्वे ने गुप्ता अंकिल का दिल जीत लिया था.
शादी के बाद गुप्ता अंकिल का घर प्रामाणिक कलकतिया सन्देश, मद्रासी दोसा, गुजराती ढोकला, देहलवी चाट, पंजाबी छोलों और बनारसी कलाकन्द का निर्माण केन्द्र बन गया.
अपनी शादी के सात साल गुप्ता अंकिल ने किचिन के इर्द-गिर्द घूमते हुए और पकवानों को चखते हुए गुज़ार दिए पर कुदरत को उनका ऐसा सुख मन्ज़ूर नहीं था. पकवान बनवाने और उन्हें अकेले ही कम से कम आधा हज़म कर जाने के शौक ने कब उनका वज़न सौ किलो तक पहुँचा दिया.
कब उनकी कमर का नाप फ़ोर्टी फ़ोर इंचेज़ तक पहुँचा, कब उनको बिठाने के लिए रिक्शे वाले डबल किराए की माँग करने लगे और कब उनके नाप के इनर वियर्स ख़ास-ख़ास दुकानों के अलावा छोटी-मोटी दुकानों पर मिलना बन्द हो गए, यह किसी को पता ही नहीं चला.
एक बार गुप्ता अंकल कुछ गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो उन्हें तमाम टैस्ट्स कराने पड़े. पता चला कि उनको डायबटीज़ हो गयी है.
डॉक्टर्स ने उनकी मिठाइयों पर रोक लगवा दी, चाट-पकौडों जैसी भोली-भाली मासूम चीज़ों के खाने पर भी पाबन्दी लगा दी गयी.
डॉक्टर मेहता, गुप्ता अंकिल के बचपन के दोस्त थे पर इस समय उन्होंने गुप्ता अंकिल के सबसे बड़े दुश्मन का रोल निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्होंने गुप्ता अंकिल के घर के सभी सदस्यों को और हम दोनों बहनों को भी उनके ऊपर जासूस बना कर छोड़ दिया था.
गुप्ता अंकिल के सभी हितैषियों को उनके हाथ से कोई भी पकवान छीनने का अधिकार डॉक्टर मेहता ने दे दिया था.
गुप्ता अंकल का नन्हा बेटा बंटी और उनके परम मित्र की बेटियाँ यानी कि हम दोनों बहनें आज भी अपने इस अधिकार का धड़ल्ले से उपयोग कर रही हैं.
गुप्ता अंकिल कभी आंटी की खुशामद कर डायटिंग में थोड़ी ढील दिए जाने की नाकाम कोशिश करते हैं तो कभी अपने ऊपर छोड़े गए जासूस, हम बच्चों को चाकलेट-टॉफ़ी की रिश्वत दे कर खाने-पीने का प्रोहिबिटेड माल गड़पने का असफल प्रयास करते हैं. लेकिन हम बड़े प्रिंसिपल्स वाले बच्चे हैं, हमको गुप्ता अंकिल से चाकलेट-टॉफ़ी लेने में कोई ऐतराज़ नहीं है पर अपने फ़र्ज़ से बँधे रहने की वजह से वक़्त रहते ही हम उनकी शिकायत गुप्ता आंटी से कर देते हैं.
शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, बर्थ-डे पार्टी, मैरिज-एनीवर्सरी, प्रमोशन या गृह-प्रवेश किसी की भी पार्टी हो पर गुप्ता अंकिल की किस्मत में भुना हुआ पापड़, सलाद, सूखी रोटी, सब्ज़ी और दाल ही आते हैं. सबसे ज़्यादा दुख की बात यह है कि चैम्पियन कुक हमारी गुप्ता आंटी अब अपने पतिदेव के खाने में ड्रापर से घी डालने लगी हैं. गाजर के हल्वे के साथ गर्मा-गर्म मौइन की कचौडि़यां खिलाने वाली उनकी चैंपियन कुक श्रीमती जी पता नहीं कब किसी फ़ैमिली सीरियल की खूसट और अत्याचारी सास में तब्दील हो गईं हैं.
गुप्ता अंकिल तो आज भी पकवान चुराने तक को तैयार रहते हैं पर आजकल उनके घर में हर तर माल पर ताला लगा रहता है और हर जगह – ‘चाबी खो जाए’ वाला किस्सा सुनाई देता है.
कैलोरी-चार्ट, वेट-चार्ट, कार्बोहाइड्रेट की मात्रा, लो कैलोस्ट्रोल-डाइट जैसी नितान्त टैक्निकल बातों से गुप्ता अंकिल जैसे लिटरेचर के प्रोफ़ेसर का क्या लेना देना?
वो कैसे मान लें कि एक छोटा सा रसगुल्ला उनके ब्लड शुगर लेवेल पर कहर ढा सकता है.
तली हुई मूँगफली जैसी मासूम चीज़ को कैलोरीज़ और कार्बोहाइड्रेट का भण्डार कैसे माना जा सकता है?
आलू और अरबी जैसी शानदार सब्जियों के बदले में कोई करेले या तोरई की बोरिंग सब्जियाँ क्यों खाए?
फलों में अंगूर, आम, केले और चीकू जैसे शाही फलों से नाता तोड़ कर वो खीरे, ककड़ी और मूली-गाजर जैसी घटिया चीज़ों को क्यों अपनाएँ?
पुरानी कहावत है - ‘ पतली ने खाया, मोटी के सर आया. ’ अब उनका वज़न नहीं घटता तो क्या इसके लिए उन्हें दोषी ठहराना चाहिए?
पर कौन समझाए दोस्त से दुश्मन बने डॉक्टर मेहता को और पुराने ज़माने में तर माल खिलाने वाली पर अब सिर्फ़ सलाद खिलाने वाली उनकी अपनी ही श्रीमतीजी को?
सचिन या नवजोत सिंह सिद्धू किसी वन-डे मैच में धड़ाधड़ सिक्सर्स लगायें तो जश्न तो बनता है पर ऐसा कोई भी जश्न हमारे बेचारे गुप्ता अंकल यह जश्न एक-दो लड्डू खाकर भी नहीं मना सकते,
गुप्ता अंकिल की साहित्य-सेवा तो इस संतुलित-आहार ने चौपट ही कर दी है. गुप्ता अंकिल की काव्य प्रतिभा चाय के साथ पोटैटो-चिप्स और गर्मा-गर्म पकौड़े खा कर ही निखर पाती है. डॉक्टर मेहता के इस डायटिंग के कानून से साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कितनी हानि हो रही है, इसे कौन समझ पाएगा?
सूखी, उबाऊ और उबली जि़न्दगी जीते-जीते गुप्ता अंकिल तंग आ चुके हैं. टीवी पर बहुत से योगिराज भी उन्हें सताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. पूरी-पराठों की जगह सूखी रोटी, दम आलू की सब्ज़ी की जगह कच्ची लौकी खाने और करेले का जूस पीने का नुस्खा बता-बता कर उन्होंने गुप्ता आंटी को पहले से भी ज़्यादा सतर्क और स्ट्रिक्ट बना दिया है.
पिछली दो-तीन ब्लड-रिपोर्ट्स संतोषजनक आ जाने के बाद डॉक्टर मेहता ने तरस खा कर गुप्ता अंकिल को डायटिंग में कुछ छूट दे दी हैं. अब वो महीने में एकाद बार कुछ मीठा, कुछ नमकीन खा सकते हैं पर फिर सुबह-शाम उन्हें एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए पाँच-पाँच किलोमीटर ब्रिस्क वाक करना पड़ता है. इसके बाद योगिराजों के सुझाए आसन उनको अलग से करने पड़ते हैं.
पापा के सजेशन पर अब गुप्ता अंकल को हर बार बदपरहेज़ी करने पर नीम की तीस पत्तियों चबानी पड़ती हैं और करेले का एक गिलास जूस भी पीना पड़ता है. पर ऐसी सज़ाएं पाने के बावजूद गुप्ता अंकिल अब बड़े रिलैक्स्ड रहने लगे हैं.
अब उनका थोड़ा वक्त तर माल खाने में और बहुत सारा वक्त एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए ब्रिस्क वाक करने में खर्च होता है.
गुप्ता अंकिल के संतुलित जीवन से डॉक्टर मेहता भी खुश है और हमारी गुप्ता आंटी भी.
गुप्ता अंकिल आजकल सबको अपनी बैलंस्ड डायट और एक्सरसाइज़ के बारे में बताते रहते हैं पर हम जासूसों ने उनकी चालाकी की पोल खोल दी है. हमने पता कर लिया है कि मॉर्निंग वाक के बहाने वो घर से दो चार किलोमीटर दूर जा कर किसी छोटी-मोटी दुकान पर चोरी से समौसे और जलेबी पर हाथ साफ़ कर लेते हैं.
गुप्ता आंटी ने पापा से रिक्वेस्ट की है कि मॉर्निंग वाक में वो अपने मित्र का साथ दें और उनके पेटूपने पर पूरा कन्ट्रोल रखें.
पापा मुस्तैदी से अपने दोस्त के प्रति अपना फ़र्ज़ निभा रहे हैं और उनके नियम तोड़ने पर तुरंत उन्हें एक-दो डन्डे भी रसीद कर देते हैं.
गुप्ता आंटी मॉर्निंग-वाक पर जाने से पहले ही अपने पतिदेव की सभी जेबें खाली कर देती हैं.
हमारे गोल-मटोल गुप्ता अंकिल अब काफ़ी दुबले हो गए हैं.
रिक्शे वालों ने उनसे डबल किराया माँगना भी बन्द कर दिया है.
अब एक्स्ट्रा लार्ज साइज़ के कपड़ों की खोज में उन्हें खून-पसीना भी एक नहीं करना पड़ता पर हमारे गुप्ता अंकिल फिर भी खुश नहीं हैं. उनके हिसाब से जीवन में बैलंस्ड-डायट लेने से बड़ी कोई सज़ा नहीं है. उनका मन करता है कि वो बगावत कर दें, पेटूपने के खुले आकाश में फिर से उड़ान भरें पर फिर डॉक्टर मेहता के उपदेश, पापा के डन्डे की मार या गुप्ता आंटी की फटकार के डर से वो डिसिप्लिन्ड सोल्जर की तरह सारे निर्देशों को रिलीजसली फ़ालो करते हुए पाए जाते हैं.

रविवार, 28 जुलाई 2024

स्कॉलर

 (1970 के दशक के मेरे छात्र-जीवन की खट्टी-मीठी यादों में वाजिद भाई सबसे ऊंचा और सबसे अहम मक़ाम रखते हैं.

वाजिद भाई के किस्से तो बेशुमार हैं पर उनकी क़ाबिलियत के किस्सों पर मैं सुकरात, अफ़लातून और अरस्तू तीनों की, कंबाइंड अक्ल को क़ुर्बान कर सकता हूँ.
मुझे यकीन है कि मेरे इस किस्से को पढ़ कर आप पाठकगण भी हमारे इस भूतो न भविष्यत् स्कॉलर के मुरीद बन जाएंगे.)
वाजिद भाई उर्फ़ हमारे होस्टाइल नवाब की अक़्लमन्दी के किस्से इतिहास की किताबों में दर्ज होने लायक हैं.
इतिहास की बारीकियों पर वाजिद भाई की पैनी पकड़ और हिन्दी, उर्दू के अलावा अंग्रेज़ी भाषा पर उनकी ज़बरदस्त महारत उनके नाम से पहले ‘स्कॉलर’ शब्द जोड़े जाने का सबब है.
वाजिद भाई के इल्मी सफ़र की शुरूआती दास्तान बहुत ट्रैजिक किस्म की है.
अपने कस्बे के स्कूल में नवीं जमात तक पास होने में उन्हें ख़ास वर्जिश नहीं करनी पड़ी क्योंकि उनके वालिद साहब उन्हीं के स्कूल में पी० टी० मास्टर थे पर हाईस्कूल में उनका रहनुमा कोई नहीं था.
नकल करने की हमारे वाजिद भाई में तब ख़ास अक़्ल नहीं थी इसलिए दो साल तो नक़ल में पकड़े जाने पर उन्होंने रैस्टीकेट हो कर आराम से घर में ही बिता दिए पर इसी दौरान उन्होंने नकल करने का हुनर सीख लिया और फिर हमारे चौहान का निशाना कभी चूका नहीं.
वैसे वाजिद भाई का रोल नम्बर होना तो चाहिए था फ़र्स्ट डिवीज़न वालों की लिस्ट में पर शायद प्रिन्टिंग मिस्टेक की वजह से वह आ गया था रॉयल क्लास में.
इन्टरमीडियेट की परीक्षा को पास करने में वाजिद भाई को ख़ास दिक़्कत नहीं हुई क्योंकि ख़ुशकिस्मती से कापियां डिस्पैच करने वाले बाबू उनकी जान-पहचान के थे.
एक बार परीक्षकों के घरों के पते जो उन्हें पता चल गए तो फिर मुश्किल कहां थी?
वाजिद भाई ने अपनी हट्टी-कट्टी अम्मी जान को बैठे-बिठाए कैंसर की मरीज़ बना दिया. कैंसर पीडि़त अम्मीजान की सेवा करने में अपना जी-जान एक करने वाले मासूम बच्चे की दुःखभरी दास्तान सुन कर अधिकांश एक्ज़ामिनर्स पिघल गए, जो दो-चार नहीं पिघले उनकी लताड़ भी खानी पड़ी पर कुल मिला कर ये सारी कसरत कामयाब रही.
हमारे वाजिद भाई इम्तहान में तीन डन्डे पा कर भी ख़ुश थे पर झूठ-मूठ में अपनी अम्मी जान को मृत्युशैया पर लिटाने की जुर्रत करने पर उन्हें अपने अब्बा जान से जितने डंडे खाने पड़े, उसकी शुमार करने के लिए उन्हें हर बार कैलकुलेटर की मदद लेनी पड़ती थी.
वाजिद भाई की बी० ए० करने की दास्तान भी कम दिलचस्प नहीं है. अंग्रेज़ी से उनको दीवानगी की हद तक इश्क था.
अपने अगले जनम में वो इंग्लैण्ड में ही पैदा होने की दुआ करते थे, भले ही अल्लाताला उन्हें वहां खानसामा बना दें.
कम से कम वो फ़र्राटे से अंग्रेज़ी तो बोल सकेंगे.
पर दो साल तक लाख सर पटकने पर भी कम्बख़्त अंग्रेज़ी ने उन्हें ऐसी-ऐसी पटकनियां दीं कि हार कर उन्होंने उससे तौबा कर ही ली.
नकल की पुर्चियां भी उनका कल्याण नहीं कर पाईं.
अब उन्होंने इतिहास, समाज शास्त्र तथा राजनीति शास्त्र जैसे अहिंसक विषय लिए और फिर बी० ए० पास कर ही डाला.
एम० ए० करने के लिए उन्होंने हिस्ट्री को क्यों चुना इसकी वजह बस ये समझ लीजिए कि इतिहास विषय की, लखनऊ विश्वविद्यालय की और मेरी किस्मत खराब थी.
वाजिद भाई और मैं दोनों ही लालबहादुर शास्त्री हॉस्टल में रहते थे
सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक वाजिद भाई मुझे हिस्ट्री की बारीकियां समझाते रहते थे पर मैं ऐसा कूढ़मगज था कि उनकी सार-गर्भित बातों की गहराई जाने बग़ैर उन पर टीका टिप्पणी करता रहता था.
वाजिद भाई को खुद को स्कॉलर कहलाने का बहुत शौक़ था. अपने इतिहास ज्ञान के झण्डे गाड़ने की चाहत में उन्होंने अपनी खोजों का प्रचार करना शुरू कर दिया.
उनकी इतिहास विषयक खोजों का मुख्य स्रोत ऐतिहासिक फि़ल्में हुआ करती थीं.
पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को सात बार हराया था, जिसे भी शक था वो पृथ्वीराज चौहान पर बनी फि़ल्म देख सकता था.
बादशाह अकबर के खि़लाफ़ सलीम की बग़ावत सिर्फ़ अनारकली को उसकी बेग़म न बनाए जाने की वजह से हुई थी. अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो फि़ल्म ‘अनारकली’ और फ़िल्म ‘मुग़ले आज़म’ क्या इतनी हिट हो सकती थीं?
हमारे वाजिद भाई के लिए ‘शमा’, ‘सुषमा’ और ‘फि़ल्म फ़ेयर’ जैसे फ़िल्मी मैग्ज़ीनों का महत्व ‘अकबरनामा’ या ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया’ से कम नहीं होता था.
यूं तो वाजिद भाई ख़ुद को लखनऊ के नवाबों का ख़ानदानी बताते थे पर उनकी जुबान में बम्बैया बोली की मिठास सबका मन मोह लेती थी. वाजिद भाई के लाख मना करने पर भी मैंने उनके इतिहास के क्लास लेने शुरू कर दिए थे.
एक हफ़्ते तक सर खपाने के बाद मैंने उन्हें औरंगज़ेब-शिवाजी सम्बन्ध वाला टॉपिक तैयार करा ही दिया.
वाजिद भाई अपनी लियाक़त का टैस्ट देने के लिए ख़ुद बहुत बेचैन थे. इस विषय पर दिया गया उनका सार-गर्भित भाषण मुझे आज भी याद है -
‘दक्षिण में बवाल मचा हुआ था. मौका पा कर शिवाजी ने वहां बमचिक मचा दी.
बीजापुर के अफ़ज़ल खां की तो उन्होंने ऐसी की तैसी कर दी.
औरंगज़ेब के मामू शाइस्ता खां की भी उन्होंने हचक के तुड़ाई की पर राजा जयसिंह उन्हें पकड़ कर मुगल दरबार ले आया.
दरबार में उनकी औरंगज़ेब से खाली-मूली में पसड़ हो गई.
औरंगज़ेब ने उन्हें अन्दर कर दिया पर शिवाजी उसे झांसा देकर खिसक लिए.
बेचारा औरंगज़ेब तो बस टापता ही रह गया.‘
वाजिद भाई के भाषण के समाप्त हो जाने के बाद का दृश्य कुछ इस प्रकार था -
मैं वाजिद भाई की छाती पर चढ़ कर उनकी धुनाई कर रहा था और बीच-बीच में रोते-रोते अपने सर के बाल भी नोंचता जा रहा था.
हमारे स्कॉलर के इतिहास ज्ञान से ज़्यादा मक़बूल उनकी अंग्रेज़ी थी.
बी० ए० में रिसर्च करने के दौरान अंग्रेज़ी में उन्हें दो साल पटकनी खानी पड़ी थी पर उनका अंग्रेज़ी का किला फ़तेह करने का हौसला एम० ए० करते वक़्त भी बुलन्द था.
उनकी अंग्रेज़ी में हॉस्टल में रहने वाला हर शख़्स होस्टाइल था और हॉस्टल की बातें होस्टेलिटी की बाते थीं.
रजिस्टर में से हिस्ट्री के नोट्स लिखने वाला और नोट्स लिखाने वाला, दोनों ही, उनकी जुबान में हिस्ट्री शीटर थे.
एक बार शाम को हॉस्टल के मित्रों ने पिक्चर देखने का प्लान बनाया. वाजिद भाई को भी इसमें शामिल करने का प्रस्ताव रक्खा गया पर उन्होंने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा -
‘यार मैं तो ज़रूर चलता पर क्या करूं बिलग्राम से मेरी खाला आ रहीं हैं. शाम को उनके साथ मेरा इंगेजमेन्ट है.‘
अब अपनी खाला जान के साथ उनके इंगेजमेंट की खबर सुनकर हम हा हा! ही ही! करें, ये कहां की तमीज़ थी?
वाजिद भाई ने नाराज़ हो कर हमसे एक हफ़्ते तक बात भी नहीं की.
स्कॉलर वाजिद भाई का ज्ञान अपनी जगह क़ायम पर था पर इम्तहान में उन्हें अपनी पुर्चियों पर ही भरोसा था.
अव्वल तो उनकी लहीम-शहीम पर्सनैलिटी को देख कर आमतौर पर इनविजलेटर्स ख़ुद ही उनके पास फटकते नहीं थे और अगर कोई हिमाक़ती इन्विजिलेटर उनसे नकल की सामग्री बरामद भी कर लेता था तो वो सारे सबूतों को निगलने से भी नहीं हिचकते थे.
वाजिद भाई की हिम्मत, दिलेरी और हेकड़ी का ही कमाल था कि एम० ए० में न सिर्फ़ वो पास हुए बल्कि उन्हें ज़िंदगी में पहली बार सैकिण्ड डिवीज़न का दीदार भी हो गया.
वाजिद भाई चाहते तो इतिहासकार बन कर इतिहास को एक नई दिशा दे सकते थे पर कुछ मेरे जैसे मित्रों की सलाह मान कर उन्होंने इतिहास की खि़दमत करने के मुबारक काम से किनारा कर लिया और एलएल० बी० में दाखि़ला ले लिया.
इस बार वाजिद भाई ने तो कमाल ही कर दिया.
उन दिनों इम्तहान देने में बड़ी सुविधा थी.
लोगबाग किताबें कन्सल्ट कर के कापियां भर कर उन्हें तीन घंटे के बजाय चार घंटों में जमा कर सकते थे.
वाजिद भाई ने एलएल० बी० की परीक्षा में बाकायदा फ़र्स्ट डिवीज़न हासिल की थी.
बक़ौल वाजिद भाई, उनकी क़ाबिलियत की हँसी उड़ाने वाले हम सभी होस्टाइलों का मुंह काला हो गया था.
इतिहास में सैकिण्ड डिवीज़न एम० ए० और एलएल० बी० की फ़र्स्ट डिवीज़न में डिग्री हासिल करने के बाद वाजिद भाई ने आई० पी० एस० . बनने की ठानी.
उनका निशाना तो पहले से ही ठीक था और पर्सनैलिटी के तो कहने ही क्या !
धर्मेन्द्र तो बेकार में ‘ ही मैन ’ कहलाते थे, दर असल ये खि़ताब तो वाजिद भाई को मिलना चाहिए था.
वाजिद भाई की पुर्चियों का जादू यू० पी० एस० सी० वालों पर नहीं चल
पाया फिर भी वो बस एक नम्बर कम होने की वजह से इन्टरव्यू में नहीं आ पाए.
हमको बाद में पता चला कि परीक्षा में एक नम्बर कम होने से उनका मतलब ये था कि उनसे एक रोल नम्बर आगे वाला लड़का रिटेन टैस्ट के लिए क्वालीफ़ाई कर गया था.
ऐसी परीक्षाओं में दो-तीन बार झक मारने के बाद वाजिद भाई ओवरएज हो गए. अब तो उन्हें अगर कोई कप्तान बना सकता थीं तो सिर्फ़ हमारी प्रधानमन्त्री.
श्रीमती इन्दिरा गांधी को उन्होंने ये ख़त लिखा -
‘मोहतरमा प्रधानमन्त्री आदाब !
आप से गुज़ारिश है कि आप कप्तानी के ओहदे के लिए रिटेन टैस्ट और उम्र की बन्दिश हटा दें क्योंकि इस काम के लिए बहादुरी की और निशानेबाज़ी में माहिर होने की ज़रूरत है न कि किताबी कीड़ा होने की और कमसिनी की.
मैं कप्तानी के ओहदे के लिए हर सूरत से क़ाबिल हूं. मैं अपनी फ़ोटो, बॉक्सिंग और निशानेबाज़ी में मिले सर्टिफि़केट्स की कॉपी भेज रहा हूँ.
सिर्फ़ इन्टरव्यू होना हो तो मेरा सेलेक्शन पक्का ही समझिए, मेरा मशवरा कुबूल हो तो मुझे इत्तिला ज़रूर कीजिएगा.
अपने पते का स्टैम्प लगा लिफ़ाफ़ा इस ख़त के साथ नत्थी कर रहा हूँ.
राजीव भाई, सोनिया भाभी, संजय भाई और मेनका भाभी को मेरा सलाम कहिएगा, बच्चों को मेरी तरफ़ से प्यार दीजिएगा.
ख़त का जवाब ज़रूर दीजिएगा । और हाँ,बिलग्राम या हरदोई घूमने का मन हो तो मुझे इत्तिला कीजियेगा.
आपका वाजिद अली शाह’
सरकारी दफ़्तरों में जहां बड़ी-बड़ी फ़ाइलें गायब हो जाती हैं वहां वाजिद भाई की पाती भी अंतर्ध्यान हो गई पर सारे लखनऊ में उसकी बड़ी चर्चा रही.
हम सब दोस्तों ने वाजिद भाई का दिल रखने के लिए उनको नक्खास के बाज़ार से कप्तान की पोशाक खरीद कर भेंट भी कर दी थी पर वो पता नहीं क्यों बरसों तक प्रधानमन्त्री के जवाब का ही इन्तज़ार करते रहे.
हमारे स्कॉलर वाजिद भाई न तो इतिहासकार बने और न ही कप्तान बन पाए. इसको हम तक़दीर का खेल ही कह सकते हैं.
इसे हम बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के भारत की बदकिस्मती ही कहेंगे कि वो इस आला दिमाग़, बा कमाल, बा हुनर, शखि़्सयत की क़द्र नहीं कर पाया.
शायद इसी वजह से ये मुल्क अब तक पूरी तरह से तरक्की भी नहीं कर पाया है.
काश कि अल्ला मियां का दिल पिघल जाए और वो इस मुल्क की किस्मत संवारने के लिए अपने रूठे हुए क़ाबिल बेटे को उसकी पसंद का कोई ऊंचा ओहदा अता करें.
आमीन, सुम्मा आमीन !
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