रविवार, 27 जून 2021

फ़िक्रमंद और मेहरबान भाभीजियाँ

 1980 में मैंने जब लेक्चरर के रूप में कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के अल्मोड़ा कैंपस में अपनी पारी शुरू की तो मैंने वहां कई कीर्तिमान स्थापित कर दिए.

पहला कीर्तिमान था –

मैं अपने कैंपस का मोस्ट एलिजिबिल बैचलर था.
अब इस सवाल का उठना लाज़मी है कि तीस साल से महज़ बारह दिन छोटा शख्स अपने तबक़े का मोस्ट एलिजिबिल बैचलेर कैसे हो सकता है !
इस सवाल का जवाब मेरे दूसरे कीर्तिमान से जुड़ा है.
अल्मोड़ा कैंपस में मेरे नाम दूसरा कीर्तिमान यह था कि अपनी मित्र-मंडली में मैं अकेला ही अविवाहित बचा था.
मुझ से तीन-चार साल क्या, पांच साल छोटे भी, अपने सर पर सेहरा बाँध चुके थे और उन में से कईयों ने तो मुझे ताउजी कहलवाने का सम्मान भी दिलवा दिया था.
प्रथम परिचय में आम तौर भाभीजियों का मुझ से पहला सवाल हुआ करता था –
‘भाई साहब ! भाभी जी को आप अपने साथ क्यों नहीं लाए?’
अपने अविवाहित होने का जैसे ही मैं खुलासा करता था तो अधिकतर भाभीजियों के श्री-मुख खुलने के बाद बंद होने से ही इंकार कर दिया करते थे.
राजा भर्तृहरि के अंदाज़ में कहूं तो –
रूप-यौवन संपन्न, विशाल-कुल वाले और विद्या-युक्त देवर का क्वारा ही रह जाना इन सभी भाभीजियों के लिए किसी अजूबे से कम नहीं था.
इन फ़िक्रमंद भाभीजियों ने शायद मुकेश का गाया ख़ूबसूरत नग्मा –
‘मुझे तुम से कुछ भी न चाहिए
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो -- -’
कभी नहीं सुना था और दूसरे के फटे में अपनी टांग अड़ाना ये न सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ समझती थीं बल्कि ऐसा करना अपना हक़ भी मानती थीं.
एक दिन मैं भगवे रंग का कुर्ता पहन कर एक मित्र के बच्चे की बर्थ-डे पार्टी में चला गया. बर्थ-डे बेबी की मम्मी यानी कि हमारी भाभी जी ने मुझ से पूछा –
‘भाई साहब, आपने क्या स्वामी विवेकानंद की तरह से सन्यासी बनने का इरादा कर लिया है?’
मैंने दुखी हो कर जवाब दिया –
‘भाभी जी, भगवा वस्त्र धारण करने से न तो मैं स्वामी विवेकानंद बन सकता हूँ और न ही दाढ़ी रखने से विनोबा भावे!
आप अपने लिए कोई सुयोग्य देवरानी खोजने की कोशिश तो कीजिए.’
यह सुन कर कि मेरे सर पर आजन्म ब्रह्मचारी रहने का कोई भूत नहीं चढ़ा है, हमारी भाभी जी की बांछें खिल गईं.
उन्होंने तुरंत मुझे अपनी ननद के लिए एडवांस में बुक कर लिया.
इस एडवांस बुकिंग की सूचना मिलते ही मेरे हाथ-पैर कांपने लगे. इसलिए नहीं कि मैं स्वामी विवेकानंद और विनोबा भावे की कैटेगरी से निकलने को तैयार नहीं था, बल्कि इसलिए कि इन भाभी जी के पतिदेव यानी कि हमारे मित्र निहायत ही मग्घे (गंवार और बेवकूफ़) किस्म के प्राणी थे. मैं सोच रहा था –
‘अगर भाभी जी की ननदिया यानी कि हमारे दोस्त की बहन भी उन्हीं के जैसी मग्घी हुईं तो फिर मेरा क्या होगा?’
एडवांस बुकिंग की इस बात को बीते हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि मुझे भाभी जी का फिर बुलावा आ गया. मुझे बताया गया कि इस बार उनका अपना हैप्पी बर्थ-डे है.
मैं भाभी जी के लिए अच्छा-खासा गिफ्ट लेकर उनके दौलतखाने पर पहुंचा तो देखा कि वहां मेरे अलावा कोई और मेहमान नहीं है. लेकिन उनके घर में किसी एक नए सदस्य की बढ़ोत्तरी ज़रूर हो गयी थी. परिवार की यह नई सदस्य भाभी जी की ननदिया थीं जो कि मेरे लिए चाय की ट्रे लेकर आई थीं.
आधा पाव चमेली के तेल से भीगे हुए और महकते हुए बालों के जूड़े वाली इस स्मार्ट बाला को देख कर मेरे दिल में अचानक ही एक पंक्ति गूंजने लगी.
आप पूछेंगे क्या –
‘दो बदन प्यार की आग में जल गए
एक चमेली के मंडवे तले !’?
या फिर –
‘मेरा नाम है चमेली मैं हूँ मालन अलबेली ---‘?
लेकिन मेरे दिल में गूंजने वाली पंक्ति किसी गीत की नहीं थी बल्कि एक कहावत की थी –
‘छछून्दर के सर में चमेली का तेल !’
जल-पान के दौरान भाभी जी के आदेश पर उनकी ननदिया ने मुझे एक ख़ूबसूरत नग्मा भी सुना दिया –
‘लगिजा गले शे फ़िर ये हंशीं राति हो न हो
सायद फ़िर इश जनमि में मुलाकाति हो न हो –‘
मिमियाती हुई वाणी में इस निर्दोष उच्चारण को सुन कर तो मेरे पांवों तले ज़मीन सरक गयी. मैं मन ही मन सोच रहा था –
‘अगर इन मोहतरमा चमेली-बाला से मेरी शादी हो गयी तो मेरी बाक़ी बची ज़िंदगी तो इनका शीन-क़ाफ़ दुरुस्त करने में (उच्चारण-दोष सुधारने में) ही बीत जाएगी.’
चलते-चलते मैंने भाभी जी से झूठ-मूठ में कह दिया कि लखनऊ में मेरी शादी तय हो गयी है.
आग-बबूला हुई भाभी जी ने फिर बरसों तक मुझ से कभी सीधे मुंह बात तक नहीं की.
एक और भाभी जी थीं जो कि मेरी शादी कराने के लिए जी-जान से जुटी थीं. परेशानी यह थी कि इन भाभी जी द्वारा सुझाई गयी सभी कन्याएं अल्मोड़ा की ऐसी विख्यात कुमारियाँ थीं जिन से कि दोस्ती तो बहुत लोग करना चाहते थे लेकिन जिनके साथ शादी के खूंटे में कोई नहीं बंधना चाहता था.
ऐसे प्रस्तावों में सीरियसनेस कम और मेरी खिंचाई करने की दुर्भावना ज़्यादा हुआ करती थी.
भाभी जी के ऐसे सभी घातक प्रस्ताव किसी बर्थ-डे पार्टी में या फिर किसी अन्य आयोजन के समय पंद्रह-बीस लोगों के सामने रक्खे जाते थे.
मेरी ऐसी सार्वजनिक खिंचाई में भाभी जी का साथ उनके पतिदेव भी दिया करते थे.
हमारी ये वाली भाभी जी तो अच्छी-खासी स्मार्ट थीं पर उनके पतिदेव यानी कि हमारे मित्र, नाटे, गंजे और गोल-मटोल थे. इस जोड़ी के पीठ पीछे हम लोग इसे –
‘कौए की चोंच में अनार की कली’ कहा करते थे.
नौ बार अपनी सार्वजनिक जग-हंसाई के बाद मैंने एक पार्टी में जमा डेड़ दर्जन भाई साहबों और भाभीजियों के सामने नहले पर दहला देने का फ़ैसला कर लिया. मैंने हाथ जोड़ कर अपनी मैरिज काउंसलर भाभी जी से कहा –
'भाभी जी, आप और आपके पतिदेव अगर अल्मोड़ा कैंपस से लेकर लाला बाज़ार तक अगर मेरे साथ चलें तो शादी के लिए मुझे योग्य कन्या तो एक दिन में ही मिल जाएगी.’
भाभी जी ने और भाई साहब ने हैरान हो कर एक साथ पूछा –
‘आपके साथ अल्मोड़ा कैंपस से लाला बाज़ार तक हमारे घूमने से आपको योग्य कन्या कैसे मिल जाएगी?’
मैंने भाभी जी से कहा –
‘मैं आपके पतिदेव को और आपको सबको दिखा कर कहूँगा –
जब इस नाटे, गंजे और गोल-मटोल को, इतनी स्मार्ट कन्या मिल सकती है तो मुझ जैसे अच्छे-खासे नौजवान को कोई योग्य कन्या क्यों नहीं मिल सकती?’
डेड़ दर्जन ठहाकों के बीच गुस्से से तमतमाए चेहरे वाली मैरिज काउंसलर भाभी जी ने अपने पतिदेव के साथ उस महफ़िल को फ़ौरन गुड बाय कर दिया.
आगे की कथा में कोई थ्रिल या कोई एडवेंचर नहीं है.
जनता की बेहद मांग पर मैंने साल भर के अन्दर ही इन मददगार भाभीजियों की मदद के बिना ही शादी कर ली.
मेरी ख़ुशकिस्मती है कि मेरी श्रीमती जी अच्छा गाती हैं, उनका शीन-क़ाफ़ भी दुरुस्त है. सबसे अच्छी बात यह है कि वो अपने सर में चमेली का तेल नहीं लगाती हैं.

शनिवार, 19 जून 2021

जेल-संवत

 हमारे बाबा स्वर्गीय श्री लाडली प्रसाद जैसवाल के लिए ग्रेट विशेषण का प्रयोग किया जाना सर्वथा आवश्यक है.

बाबा ग्रेट थे. भगवान ने उनका जैसा पीस न तो उन से पहले बनाया था और न ही उनके बाद बनाया.
हमारे बाबा पुख्ता रंग के गंजे प्राणी थे लेकिन उन्हें दूसरों के रंग-रूप की खिल्ली उड़ाने में बहुत मज़ा आता था.
किसी काली रंगत वाले को ही क्या, वो तो सांवली रंगत वाले को भी उल्टा तवा कहा करते थे.
बाबा जब पिताजी की बारात लेकर हमारी ननिहाल एटा पहुंचे तो समधियाने में उनके रूप का वर्णन कई गीतों में गुंजायमान हुआ.
बाबा ने –
‘मेरो समधी कित्तो कारो - - -‘
पर ख़ुद हंस-हंस कर ताल दी थी.
लेकिन जब महिलाओं ने हमारे सादाबादी (आगरा-अलीगढ़ के बीच एक क़स्बा) खानदान की शान में –
‘सादाबादी बड़े सवादी (खाने-पीने के शौक़ीन),
नोन-मिर्च पे, बेची दादी.’
गाया तो वो बाक़ायदा बुरा मान गए.
हमारे नाना जी के लाख माफ़ी मांगे जाने पर ऊपरी तौर पर तो उन्होंने समधिनों को उनकी इस गुस्ताख़ी के लिए माफ़ कर दिया लेकिन फिर उन्होंने समधियाने को नीचा दिखाने का कोई मौक़ा कभी छोड़ा नहीं.
हमारे नाना, मामा आदि आम तौर पर छोटे क़द के हुआ करते थे.
बाबा उनकी तुलना धनिए की और पोदीने की, झाड़ों से किया करते थे.
हमारे नाना जी एटा के प्रतिष्ठित मुख्तार (हाई स्कूल करने के बाद मुख्तारी का डिप्लोमा लेकर कोई भी व्यक्ति लोअर कोर्ट्स में पैरवी कर सकता था) थे.
उन्हें हिंदी-उर्दू आती थी. अंग्रेज़ी में नाना जी का हाथ तंग था और फ़ारसी उन्हें नहीं आती थी.
हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी और फ़ारसी के जानकार हमारे बाबा, नाना जी को जब भी चिट्ठी लिखते थे तो वो या तो अंग्रेज़ी में होती थी या फिर फ़ारसी में.
नाना जी अटक-अटक के, अंग्रेज़ी की चिट्ठी तो पढ़ लेते थे लेकिन फ़ारसी की चिट्ठी पढ़वाने के लिए और उसकी व्याख्या करवाने के लिए, उन्हें एक मौलवी साहब को एक-एक चिट्ठी के दो-दो आने देने पड़ते थे.
बाबा के खानदान की तुलना में हमारी ननिहाल काफ़ी कमज़ोर हुआ करती थी.
हमारे नाना जी के बड़े भाई साहब यानी कि हमारे बड़े नाना जी, एटा के बारथर गाँव के पटवारी थे.
हमारे बाबा उन्हें व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ - ‘एस. डी. एम. बारथर’ कहा करते थे.
हाँ, हमारी माँ की ननिहाल बड़ी रईस हुआ करती थी.
हमारी माँ के नाना जी बरमाना गाँव के ज़मींदार थे.
बारह सौ बीघा तो उनके खेत थे.
महा-नाना जी के यहाँ गुलाब की खेती हुआ करती थी और उनके यहाँ का गुलाब का इत्र और गुलाब जल सारे ब्रज-क्षेत्र में मशहूर था.
समधियाने से भेंट में आने वाले गुलाब जल और गुलाब के इत्र का इंतज़ार तो हमारे बाबा भी बड़ी बेसब्री से किया करते थे.
माँ के नाना जी यूँ तो अपने इलाके की बहुत इज्ज़तदार हस्ती थे लेकिन उनके दामन पर एक ज़बर्दस्ती का दाग लग गया था.
1927 में उनके गाँव वालों का अपने पड़ौस के गाँव वालों से ज़बर्दस्त झगड़ा हो गया था.
इस झगडे में दोनों गाँवों के एक-एक शख्स की मौत भी हो गयी थी.
इस झगडे के वक़्त माँ के नाना जी बरमाना में थे भी नहीं लेकिन दोनों गाँवों के ज़मींदारों को भी इस झगड़े में भागीदार माना गया.
माँ के नाना जी को लोअर कोर्ट से सज़ा हो गयी. उन्हें जेल जाना पड़ा.
बाद में हाई कोर्ट से वो बा-इज्ज़त बरी हुए लेकिन तब तक जेल में वो पूरा एक बरस काट चुके थे.
बाबा को अपने समधियाने की इस दुखती रग पर हाथ रखना बहुत अच्छा लगता था.
बाबा और नाना जी की जब भी भेंट होती थी तो नाना जी के ससुर जी के जेल-गमन और जेल-प्रवास का ज़िक्र तो बाबा छेड़ ही दिया करते थे.
बेचारे नाना जी के पास विनम्र मुस्कान के साथ ऐसी चोटों को बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा भी नहीं होता था.
हमारे नाना जी की मृत्यु के बाद बाबा को समधियाने की इस दुखती रग पर हाथ रखने के लिए नए सुपात्रों की ज़रुरत पड़ी.
बाबा की ख़ुशकिस्मती से उन्हें हमारे जितेन्द्र मामा के रूप में ऐसा सुपात्र मिल गया.
पिताजी जब आगरा में पोस्टेड थे तब बाबा कुछ महीनों के लिए उनके पास रहने आए थे.
उन दिनों हमारे जितेन्द्र मामा हॉस्टल में रह कर आगरा कॉलेज से बी. ए. कर रहे थे.
जितेन्द्र मामा का अपना हर इतवार बहन-जीजा और बच्चों के साथ बीतता था.
बाबा के आगरा-प्रवास में जितेन्द्र मामा को बाबा के किस्सों का स्थायी श्रोता बनना पड़ता था.
बाबा के पास किस्सों का ख़ज़ाना हुआ करता था.
कभी उनके इंजीयनियरिंग कॉलेज के किस्से, तो कभी फ़र्स्ट वार के किस्से, तो कभी सेकंड वर्ड वार के किस्से !
इन सभी ऐतिहासिक किस्सों को हमारे बाबा हमारे महा-नाना जी के जेल-गमन से, जेल-प्रवास से या फिर जेल-रिहाई से, ज़रूर जोड़ दिया करते थे.
जैसे कि बाबा की कॉलेज लाइफ़ का कोई किस्सा हो तो वो जितेन्द्र मामा को संबोधित करते हुए वो कहते –
‘तुम्हारे नाना जी के जेल जाने से से क़रीब पंद्रह साल पहले की यह बात है - -‘
फ़र्स्ट वर्ड वार के दौरान गौंडा में अश्वेत सैनिकों की घघरिया पलटन
(सैनिको की इस पलटन की पोशाक टॉप और स्कर्ट हुआ करती थी) आई थी जिसका कि एक-एक फ़ौजी दो-दो मुर्गे खा जाता था.
बाबा घघरिया पलटन का कोई किस्सा जब सुनाना शुरू करते थे तो उसका कालक्रम निर्धारित करते हुए कहते थे –
‘तुम्हारे नाना जी के जेल जाने से क़रीब 11-12 साल पहले घघरिया पलटन जब गौंडा आई थी तब उसने सात दिन में गौंडा के सारे मुर्गे और बकरे डकार लिए थे ---- ’
सेकंड वर्ड वार के दौरान बढ़ी महंगाई का कोई किस्सा बाबा कुछ इस तरह शुरू करते थे –
‘तुम्हारे नाना जी के जेल से छूटने के करीब बारह साल बाद सोना रातों-रात दोगुनी कीमत का हो गया था -- - - -’
जितेन्द्र मामा की शक्ल में हमारे बाबा को एक विनम्र, धैर्यवान और सहनशील श्रोता मिल गया था.
अगर देखा जाए तो जितेन्द्र मामा समधियाने की वो अकेली शख्सियत थे जो कि हमारे बाबा को पसंद थे.
हमारे बाबा जन्म-कुंडली बहुत अच्छी बनाते थे.
यह बात और है कि उन पर आधारित उनकी भविष्यवाणियाँ अक्सर ग़लत निकला करती थीं.
एक दिन बाबा को हमारे जितेन्द्र मामा पर बड़ा प्यार आया. उन्होंने मामा से कहा –
‘चलो जितेन्द्र कुमार ! तुम्हारी कुंडली बनाते हैं !
हाँ, तुम ये बताओ कि तुम कब पैदा हुए थे !’
जितेन्द्र मामा ने हाथ जोड़ कर जवाब दिया –
‘नाना जी के जेल से छूटने के चार साल, तीन महीने और दो दिन बाद !’

बुधवार, 16 जून 2021

चंदा ओ चंदा !

 1. चंदा की सोलह कलाएं -

हमारे द्वारा दिया गया चंदा
पूर्णमासी वाला चंदा होता है
जो कि खाते तक पहुँचते-पहुंचते
अमावस्या वाले चंदा में बदल जाता है.
2. अत्याखाइयों (नव-गठित शब्द) की कहानी तो अभी शुरू हुई है -
टिप ऑफ़ दि आइसबर्ग है, रोता है क्या,
आगे-आगे देखिए, होता है क्या !
3. पार तो दोनों ने कराया -
राम जी ने बेड़ा पार कराया !
धर्म-रक्षकों ने चंदा पार कराया !

रविवार, 13 जून 2021

नए राजवंश का इतिहास

 अंगने लाल (मुख्यमंत्री) –

प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी ! एक इतिहासकार की हैसियत से तुमने पूरे भारत में नाम रौशन किया है, खास कर के नए-नए राजवंशों का इतिहास लिख कर.
अब तुमको हमारे राजवंश का भी इतिहास लिखना है.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
हुज़ूर, आपके राजवंश ने हमारे प्रदेश की स्वर्ण-युग में फिर से वापसी कराई है. इस सुनहरे दौर की दास्तान लिखने का फ़ख्र अगर मुझे हासिल हो जाए तो मैं इसे अपनी खुशकिस्मती समझूंगा.
अंगने लाल –
ऐसा फ़ख्र तो हम तुमको हासिल करने देंगे पर एक शर्त है –
तुम्हारे बारे में सुना है कि तुम राजवंशों का इतिहास लिखते समय झूठ का बहुत सहारा लेते हो लेकिन हमारे राजवंश का इतिहास लिखते समय तुम कुछ भी सरासर झूठ नहीं लिखोगे.
हाँ, बढ़ा-चढ़ा कर लिखे जाने पर या अर्ध-सत्य लिखे जाने पर हमको कोई ऐतराज़ नहीं होगा.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
अन्नदाता ! आपके खानदान के सारे कच्चे-चिट्ठे मैं आप से ही जानना चाहूँगा.
इस कच्चे-चिट्ठे को मैं इतिहास के पन्नों में अर्ध-सत्य का मुलम्मा चढ़ा कर ऐसे पेश करूंगा कि आपका राजवंश, मौर्य राजवंश, गुप्त राजवंश, और मुगलिया खानदान को भी, महानता की दौड़ में पछाड़ दे.
हाँ तो माई-बाप पहले आप अपने पुरखों के बारे में बताएं.
अंगने लाल –
हमारे पुरखे तो ज़रायम-पेशा (आपराधिक गतिविधियाँ कर अपना जीवन-यापन करने वाले) लोग थे.
सुनसान सड़कों पर काफ़िले लूटने में उन्हें महारत हासिल थी.
अंग्रेज़ी राज में तो ज़रायम-पेशा क़बीलों में हमारा कबीला टॉप टेन में हुआ करता था.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
अगर अंग्रेज़ आपके क़बीले को अपराधी मानते थे तो फिर उसे अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ क्रांति का बिगुल बजाने वाला राज-परिवार कहने से भला मुझे कौन रोक सकता है?
अंगने लाल –
क्रांतिकारी ! वाह क्या दूर की कौड़ी लाए हो प्रोफ़ेसर !
लेकिन हमारे दादा जी का क्या करोगे?
वो तो बटमारी का अपना खानदानी पेशा छोड़ कर कलेक्ट्रेट में चपरासी हो गए थे.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
दयानिधान ! 'खानसामा' को - 'खानेखाना' में बदलना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है.
आपके दादाजी कलेक्ट्रेट में मुलाज़िम थे तो मैं यह लिख दूंगा कि वो कलेक्टर थे.
इसमें कलक्ट्रेट में काम करने वाली बात तो झूठी नहीं होगी.
अब आप अपने माता-पिता के बारे में बताएं.
अंगने लाल –
अपनी माता जी के खानदान के बारे में तो हमको कुछ ख़ास पता नहीं.
हाँ, इतना पता है कि वो हमारे पिताजी के साथ भागने से पहले तीन-चार अन्य प्रेमियों के साथ भी भागी थीं.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
तो फिर आपकी माता जी को मैं ख्यातिप्राप्त धाविका दिखा दूंगा.
और आपके पूज्य पिताजी क्या करते थे?
अंगने लाल –
हमारे दादा जी तो पिता जी को पंखा कुली की नौकरी दिलवाना चाहते थे लेकिन उनका मन तो सिर्फ़ मन्दिर की चौखट पर रखे हुए जूते-चप्पल चुराने में ही रमता था.
अब बताओ हिस्टोरियन बाबू ! इस सत्य पर तुम अर्ध-सत्य का मुलम्मा कैसे चढ़ाओगे?
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
मालिक ! मैं आपके पिताजी के पेशे के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा.
हाँ, इतना ज़रूर लिखूंगा कि वो बिना मन्दिर जाए कभी अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे.
अंगने लाल -
हमारे बारे में क्या लिखोगे? हम तो राजनीति में आने से पहले लाठी लेकर गाय-भैंस हांका करते थे.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
भगवान शंकर को पशुपति कहा जाता है.
कान्हा जी गाय चराते थे और ईसा मसीह, हज़रत मुहम्मद भेड़ें चराते थे.
मैं आपको इन सबका हम-पेशा बता कर आपको भी मसीहाई दर्जा दिला कर रहूँगा.
अंगने लाल – इतिहासकार बाबू ! हम लगभग अंगूठा-छाप हैं. इसका क्या करोगे?
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
मैं आपको कबीरपंथी कहूँगा.
वैसे गुरुदेव कहे जाने वाले रबीन्द्रनाथ टैगोर के पास भी कोई डिग्री नहीं थी.
अंगने लाल –
अपने नालायक लड़के का हम क्या करें? उस कमबख्त को तो राजनीति से ज़्यादा दिलचस्पी स्मगलिंग में है.
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
राजन ! मैं आपके राजकुंवर को आयात-निर्यात व्यापार के उभरते हुए सितारे के रूप में प्रस्तुत करूंगा.
वैसे भी राजनीति में उतरने से पहले इस प्रकार के साहसिक अभियानों का अनुभव तो उनके लिए लाभदायक होगा ही.
अंगने लाल –
ठीक है प्रोफ़ेसर ! लिखो हमारे राजवंश का इतिहास ! पर यह बताओ कि तुम पिछले दिनों किस राजवंश का इतिहास लिख रहे थे?
प्रोफ़ेसर चारण भाट दरबारी –
हुज़ूर, वैसे ये बात टॉप सीक्रेट है पर मैं आपको बता देता हूँ.
पिछले दिनों मैं दाऊद इब्राहीम राजवंश का इतिहास लिख रहा था.

शनिवार, 5 जून 2021

शौक़-ए-मुदर्रिसी

 बादशाह शाहजहाँ की आँखों के सामने ही उसका राज-पाट चला गया, उसके तीन बेटे मौत के घाट उतार दिए गए और उसे आगरे के किले के मुसम्मन बुर्ज में ताज़िंदगी एक क़ैदी की हैसियत से दिन गुज़ारने के लिए मजबूर कर दिया गया.

अकेला बूढ़ा, बेबस, लाचार, गमगीन और मायूस क़ैदी करे तो क्या करे?
शाहजहाँ ने एक क़ासिद (सन्देश वाहक) के ज़रिए अपने बेटे बादशाह औरंगज़ेब को संदेसा भिजवाया कि ख़ाली वक़्त गुज़ारने के लिए उसके पास कुछ बच्चे भेज दिए जाएं जिनको कि पढ़ा कर वह अपना वक़्त गुज़ार सके और अपना मन बहला सके.
बादशाह औरंगज़ेब ने शाहजहाँ की यह गुज़ारिश ठुकराते हुए क़ासिद से कहा –
‘अब्बा हुज़ूर अब बादशाह तो नहीं रहे पर अब वो उस्ताद बन कर अपने शागिर्दों पर अपना हुक्म चला कर अपनी बादशाहत का शौक़ पूरा करना चाहते हैं.’
औरंगज़ेब की तरह मेरी नज़र में भी शौक़-ए-मुदर्रिसी और शौक़-ए-बादशाहत में कोई ख़ास फ़र्क नहीं है.
घर का पांचवां और सबसे छोटा बच्चा होने की वजह से मुझे घर में तो कभी ज़्यादा बोलने नहीं दिया गया.
भाई-बहन की छत्र-छाया से मुक्त होने के बाद झांसी के बुंदेलखंड कॉलेज से बी. ए. करते समय मुझे अचानक ज्ञान प्राप्त हुआ कि मैं पढ़ाई के मामले में अच्छा-ख़ासा हूँ और बोल भी ठीक-ठाक लेता हूँ.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. करते समय डेरोज़ियो का अवतार बन कर अपने साथियों का बाक़ायदा क्लास लेने में मुझे मज़ा आने लगा.
(कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज के नौजवान अध्यापक डेरोज़ियो का मुदर्रिसी का जूनून इतना ज़्यादा था कि वो कॉलेज में क्लास रूम्स बंद हो जाने के बाद कॉलेज के वरांडे में क्लास लेने लगता था और कॉलेज का फाटक बंद हो जाने पर इच्छुक छात्रों को अपने घर पर बुला कर पढ़ाने लगता था. 23 साल की अल्पायु में अपने प्राण त्यागने से पहले उस ने बंगाल में जागरूक-प्रगतिशील युवकों की एक बड़ी जमात तैयार कर दी थी.)
एक प्रवक्ता के रूप में लखनऊ यूनिवर्सिटी में अपनी पारी शुरू करते समय मेरा भी सपना था कि मैं अपने विद्यार्थियों के मानस-पटल पर डेरोज़ियो की जैसी छाप छोड़ सकूं.
मेरा यह सपना तो कभी पूरा नहीं हुआ लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि मुझे पढ़ाने में हमेशा बहुत आनंद आया.
डायस पर खड़े हो कर, एकाग्र चित्त विद्यार्थियों को पिन-ड्रॉप साइलेंस के माहौल में पढ़ाने के नशे के सामने किसी शराब का नशा क्या होता होगा?
मेरा यह मानना है कि इतिहास के उबाऊ वृतांतों को ऐतिहासिक अंतर्कथाओं से और समकालीन साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति के साथ जोड़ने से, उन्हें रोचक बनाया जा सकता है.
क्लास में सिर्फ़ नोट्स के भूखे मूर्ख विद्यार्थियों को छोड़ कर मेरे सभी विद्यार्थी मेरे पढ़ाने की इस शैली को पसंद करते थे.
अल्मोड़ा में क्लास में इतिहास-विषयक मेरी क़िस्सागोई के मुरीद एम. ए. फ़ाइनल के मेरे विद्यार्थी एक बार मुझ से अनुमति लेकर तब मेरे एम. ए. पार्ट वन की क्लास में आ कर बैठ गए जब मैं रज़िया सुल्तान वाला अध्याय पढ़ाने वाला था.
पिछले साल के पढ़ाए गए टॉपिक को दुबारा उनके पढ़ने की ललक का रहस्य तुरंत मेरे दिमाग में कौंध गया. मैंने मुस्कुराते हुए उन जिज्ञासु विद्यार्थियों से कहा–
‘मित्रो, तुम सबको एक निराश करने वाला समाचार दे दूं. मैं रज़िया वाले चैप्टर में रज़िया-याक़ूत प्रेम-प्रसंग का ज़िक्र भी नहीं करने वाला हूँ.
और हाँ, मुग़ल इतिहास के तुम्हारे क्लास में जहाँगीर वाले चैप्टर में सलीम-अनारकली वाला अफ़साना भी गायब रहेगा.’
इतना सुनना था कि बेचारे निराश विद्यार्थी मेरे क्लास से भाग खड़े हुए.
एक रहस्य की बात बताऊँ - विश्वविद्यालय में एक अध्यापक को शौक़-ए-मुदर्रिसी को पूरा करने के लिए मौके बहुत कम ही मिल पाते हैं.
एडमिशन की लम्बी प्रक्रिया, चुनाव, हड़तालें, खेल-कूद प्रतियोगिताएँ, सांस्कृतिक कार्यक्रम, वार्षिक समारोह, कन्वोकेशन, परीक्षा, परिणाम आदि के अलावा वैकेशंस और फिर अल्लम-गल्लम छुट्टियों (प्रिवेलेज लीव, कैज़ुअल लीव, मेडिकल लीव, ड्यूटी लीव, फ़्रेंच लीव, शोक सभाएं, नेताओं की जयंतियां और इनके ऊपर – ‘आज पढ़ने-पढ़ाने का मूड नहीं है’ वाली घोषणाएं) की कृपा से एक अध्यापक के रूप में अपने 36 साल के कैरियर में मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी एक सत्र में 100 से अधिक दिन क्लास हुए हों.
(मेरे जो भी साथी मेरे इस पोल-खोल कार्यक्रम से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते हैं और यह दावा करते हैं कि उन्होंने हर सत्र में 150-200 दिन पढ़ाया है, उन्हें मैं ‘झूठाचार्य’ और ‘फेंकाचार्य’ का ख़िताब देना चाहूँगा.)
इक्कीसवीं सदी आते ही हमारे इतिहास विभाग के विद्यार्थी क्लास से न जाने क्यों गायब होने लगे. उन्हें आपस में गुफ़्तगू करना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों को ज़रुरत से ज़्यादा महत्व देना, छात्र-राजनीति को ही अपना कैरियर बनाना और रोमियो-जूलियट की कथा को पुनर्जीवित करना, पढ़ने-लिखने की तुलना में कहीं ज़्यादा अच्छा लगने लगा था.
एम ए. के विद्यार्थियों में क्लास में नोट्स लिखाने के बजाय सिर्फ़ लेक्चर देने वाले जैसवाल साहब का जादू अब फीका पड़ गया था.
क्लास में दीवारों को मैं कब तक पढ़ाता?
कभी उक्ता कर मैं लाइब्रेरी चला जाता तो कभी कविताएँ लिख कर अपना मन बहलाता तो कभी किसी दूसरे विभाग में जा कर श्रद्धालु मित्रों का भेजा चाटता.
आख़िरकार अपनी पढ़ाने की ललक को संतुष्ट करने के लिए मैंने बी. ए. के क्लासेज़ लेने शुरू कर दिए.
भला हो इन छोटे बालक-बालिकाओं का जिन्होंने मेरी कक्षाओं में खासी दिलचस्पी ली.
विभाग में अपने कक्ष में ख़ाली समय में मैं अपने विद्यार्थियों की शंका-समाधान के लिए हमेशा उपलब्ध रहता था लेकिन इस सुविधा का लाभ उठाने वाले मेहरबान विद्यार्थियों की संख्या बहुवचन में कम ही हुआ करती थी.
15 अगस्त को और 2 अक्टूबर को आयोजित समारोहों में और हिंदी विभाग के कार्यक्रमों में भाषण देने के बहाने क्लास लेने का मेरा शौक़ थोड़ा-बहुत ज़रूर पूरा हुआ करता था.
आकाशवाणी अल्मोड़ा में वार्ता, कहानी, कविता और परिचर्चा के बहाने मुझे बोलने का ख़ूब मौक़ा मिला.
एक शख्स जो कि अपने खर्चे पर टिम्बकटू जा कर भी बोलने का मौक़ा न छोड़ना चाहता हो, उसे बोलने के पैसे मिलें तो उसके लिए पृथ्वी पर ही स्वर्ग क्यों नहीं बन जाएगा?
मुझे पता था कि मैं कोई चाणक्य नहीं था जो मुझे चन्द्रगुप्त मौर्य मिल जाता, न ही मैं कोई समर्थ गुरु राम दास था जो किसी वीर शिवा को छत्रपति शिवाजी बना देता. और मैं स्वामी रामकृष्ण परम हंस तो क़तई नहीं था जिनका कि सन्देश लेकर किसी स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धर्म-दर्शन की पताका समूची दुनिया में फहरा दी थी.
फिर भी मुझे तालिब-ए-इल्म की हमेशा सख्त ज़रुरत रहा करती थी.
अवकाश-प्राप्ति से दो साल पहले की बात है.
मैं ट्रेन से दिल्ली जा रहा था. मेरे सामने की सीट पर एक अपरिचित नौजवान बैठा था. उस नौजवान ने मुझे बड़ी श्रद्धा से नमस्कार किया. फिर मुझ से पूछा –
‘माफ़ कीजिएगा सर ! क्या आप प्रोफ़ेसर जैसवाल हैं?’
मैंने हामी भरी तो उसने बताया कि वह कुमाऊँ विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर से इतिहास में एम. ए. कर चुका है और मुझे नैनीताल में राष्ट्रीय आन्दोलन पर आयोजित एक सेमिनार में सुन कर वह मेरा प्रशंसक बन चुका है.
धन्यवाद की औपचारिकता के बाद उसने मुझ पर एक सवाल दाग दिया-
‘सर, गांधी जी की डांडी-मार्च को आप कहाँ तक सही मानते हैं?’
मैंने कहा –
‘बालक ! तूने तो मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया. मेरे तो समझ में ही नहीं आ रहा कि तेरे सवाल का मैं क्या जवाब दूं.’
बालक को मेरी मुश्किल क़तई समझ में नहीं आई. डांडी-मार्च पर तो कोई बच्चा भी बोल सकता था फिर जैसवाल साहब - -- -- ?
मैंने उस बालक को अपनी मुश्किल समझाते हुए कहा –
‘मेरे समझ में ये नहीं आ रहा है कि तेरे सवाल का जवाब मैं काठगोदाम से लाल कुआँ तक दूं या रूद्रपुर तक दूं या फिर दिल्ली तक!’
बालक ने हंसते हुए मेरे चरण गहे और फिर मेरे जवाब को हद से हद, काठगोदाम से रुद्रपुर तक सीमित करने की प्रार्थना भी कर डाली.
मुझे रिटायर हुए दस साल हो चुके हैं. ग्रेटर नॉएडा में मेरा शौक़-ए-मुदर्रिसी कुंठित और उदास है.
यहाँ तो कोई परिंदा भी इतिहास और साहित्य में दिलचस्पी लेने वाला नहीं मिलता.
सुबह-शाम टहलते वक़्त मिलने वाले परिचित सज्जन भी मेरा वाकिंग क्लास अटेंड करने के बजाय मुझे दूर से ही नमस्कार करने में अपनी भलाई समझते हैं.
झक मार कर मैं अपनी श्रीमती जी को ही अपना विद्यार्थी बनाने की सोचता हूँ तो वो अचानक से पी. टी. उषा का अवतार बन जाती हैं. अगर मैं अपनी दोनों बेटियों में से किसी को भी वीडियो चैटिंग के ज़रिए विस्तार से कोई रोचक ऐतिहासिक क़िस्सा सुनाना चाहूं तो वो बच्चों की काल्पनिक पुकार पर मुझ से सॉरी कह कर भाग खड़ी होती हैं.
अंतरात्मा से निकली आवाज़ मुझे निरंतर सम्बोधती रहती है -
अब किराए के भी शागिर्द न तू पाएगा
क्लास लेने को तेरा दिल ये तड़पता क्यों है
सो जा चाणक्य न अब चन्द्रगुप्त आएगा
खोल कर अपनी शिखा व्यर्थ भटकता क्यों है
लेकिन अंतरात्मा की पुकार पर तो नेतागण पार्टियाँ बदलते हैं, उसकी पुकार पर मैं क्यों अपना जीने का अंदाज़ बदलूं?
मुझ चाणक्य को अगर चन्द्रगुप्त भारत में नहीं मिला तो मैं दक्षिणी ध्रुव जाकर किसी पेंगुइन को अपना शिष्य बना लूँगा.
शौक़-ए-मुदर्रिसी मुझे था, आज भी है और आगे भी यही मेरी बैटरी चार्ज करता रहेगा.
भला हो मेरे फ़ेसबुक मित्रों का और मेरे ब्लॉग के अनुगामियों का, जिनका कि मैं आए दिन का क्लास लेता रहता हूँ.
ऐ बदनसीब शाहजहाँ ! तेरे ज़माने में अगर फ़ेसबुक होता और अपने ब्लॉग पर तुझे कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखने की आज़ादी होती तो तू शागिर्दों के लिए इतना न तड़पता.
मुदर्रिसी के बहाने तेरा शौक़-ए-बादशाहत तो बिना शागिर्दों के ही पूरा हो जाता.
तो मित्रो ! यानी कि मेरे शागिर्दों ! आज का पाठ अब संपन्न हुआ.
जल्द ही ऐसी ज़बर्दस्ती आयोजित की जाने वाली कक्षा में आप से फिर मिलूंगा.