सोमवार, 30 नवंबर 2015

गुरुवे नमः

गुरुवे नमः
जनवरी, 1975 से मैंने लखनऊ विश्विद्यालय के मध्य कालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास विभाग में गुरुदेव की भूमिका निभाना प्रारम्भ किया था. 5 वर्ष वहां पर अध्यापन करने की बहुत खट्टी-मीठी यादें मुझे कभी गुदगुदाती हैं तो कभी रुलाती हैं. हमारा विभाग कला संकाय के मुख्य भवन के कोने में स्थित था जो कि अपनी शानो-शौकत के लिए सारे जहाँ से अच्छा था. हमारे विभाग के व्याख्यान कक्ष ऐसे थे कि कोई कबाड़ खाना भी उनके सामने भव्य लगे. गर्मी के मौसम में बाबा आदम के ज़माने के उनके पंखे अगर ढंग से चल जाते थे तो विद्यार्थीगण व अध्यापक गण बाकायदा जश्न मनाते थे. एक बड़ा सा कमरा हमारा स्टाफ़-रूम था जिसे कि हम वेस्टर्न हिस्ट्री डिपार्टमेंट के अध्यापकों के साथ शेयर करते थे. खैर इतनी असुविधा के दिन 5 साल में ही समाप्त हो गए क्योंकि फिर लखनऊ विश्वविद्यालय को मेरी सेवाओं की आवश्यकता ही नहीं रह गयी.
आसमान से गिरकर मैं मार्च, 1980 में राजकीय स्नातकोत्तर विद्यालय, बागेश्वर के खजूर में अटक गया. उन दिनों हमारा विद्यालय एक पुराने डाक बंगले में था जिसमें कि टीन शेड वाले कुल जमा 8-10 कमरे हुआ करते थे. इनके बीच में वॉली बॉल या कबड्डी खेलने भर का एक विशाल मैदान भी था. स्टाफ़-रूम के नाम पर एक खोखा हमको उपलब्द्ध कराया गया था जहाँ ज़रा भी ज़ोर से अगर हम बात करते थे तो उसकी गूँज क्लास-रूम्स तक पहुँचती थी और फिर मिलते थे प्रिंसिपल साहब के धमकियों भरे लम्बे उपदेश. हम अध्यापकों के लिए आवासीय सुविधा शून्य थी पर आये दिन कॉलेज की नयी बिल्डिंग और टीचर्स’ क्वार्टर्स बनने की बात होती रहती थी. बागेश्वर प्रवास के आठ महीने मैंने एक पंजाबी लाला के मकान के एक हिस्से में शान से गुज़ार दिए.
नवम्बर, 1980 से जून, 2011 तक, अर्थात अवकाश प्राप्ति तक मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में अपनी सेवाएँ दीं. मेरे देखते-देखते परिसर की छोटी सी इमारत बढ़ती चली गयी लेकिन हम इतिहास विभाग वालों के नसीब में दो-तीन पुराने व्याख्यान कक्ष और जेल की कोठरी जैसा स्टाफ़ रूम ही बदा था.
दो टर्म्स तक हमारे कुलपति रहे स्वर्गीय एम. डी. उपाध्याय को कक्षाओं का मुआयना कर अध्यापकों की शिक्षण-कला देखने का बड़ा शौक़ था. एक बार वो मेरे क्लास में भी मुआयना करने आये तो मैं लेक्चर देना छोड़कर उन्हें टूटी कुर्सी-मेज और खस्ता हाल ब्लैक बोर्ड दिखाने लगा. मुझसे सुधार करने के झूठ-मूठ के वादे करके वो बेचारे अपने दल-बल के साथ भाग खड़े हुए. आगे से इतिहास विभाग में मुआयना करने से पहले वो पूछ लेते थे –
‘उस क्लास-रूम में जैसवाल तो नहीं है?’
पच्चीस साल तक स्टाफ़-रूम शेयर करने के बाद मुझे विभाग में बरामदे के एक हिस्से से बनाया गया अपना खुद का कक्ष मिल गया. सात गुणा आठ फुट के इस विशाल कक्ष में बैठकर मैं फूला नहीं समाता था. हाँ यह बात और है कि मैं नहीं चाहता था कि कोई बाहरी या कोई अपना आकर मेरे विभागीय कक्ष में मुझसे मिले.
कुमाऊँ विश्वविद्यालय में, खासकर उसके अल्मोड़ा परिसर में आवासीय सुविधा की मांग करने वालों में मैं सबसे मुखर था पर पच्चीस साल के अनवरत प्रयास के बाद भी मैं अपने मिशन में नाकाम का नाकाम ही रहा. मेरे वो साथी जिन्हें कि परिसर में आवासीय सुविधा मिल चुकी थी, यह क़तई नहीं चाहते थे कि और टीचर्स’ क्वार्टर्स बनें. ऐसे हमदर्द साथी विश्वविद्यालयों के अलावा और कहाँ मिल सकते हैं?
अपनी नौकरी के पहले आठ साल मैंने अल्मोड़ा परिसर की नीचे स्थित खत्यारी मोहल्ले के सीलन और पिस्सू भरे मकानों में गुज़ारे थे. आवासीय दृष्टि से मैं काला पानी को को इससे बेहतर जगह मानता हूँ. मेरे साथ मेरे दर्जनों साथी अध्यापक भी इन खोली-नुमा मकानों में रहा करते थे और रास्ते में आते-जाते शराबियों के शोर और उनके झगड़ों का आनंद उठाने के लिए मजबूर हुआ करते थे.
सूर, मीरा या तुलसी जैसा कोई भक्त भी भगवान की खोज में इतना क्या रहता होगा जितना कि मैं एक अच्छे मकान की खोज में रहता था. मैंने और मेरे मित्र प्रकाश उपाध्याय ने कर्बला से लेकर कसार देवी तक सैकड़ों मकानों की ख़ाक छान ली पर कोई सफलता हाथ नहीं लगी. खत्यारी में मेरे मकान मालिक ठाकुर साहब अपने दो कमरों के मकानों का बड़ा नक्शा लिया करते थे. एक बार उन्होंने मुझसे कहा –
‘साहब बहादुर, मेरे मकान में तो आपको हवा-पानी, धूप सब मिलती है, ऊपर से पूरा मकान पक्का. किराये में एक सौ का पत्ता बढ़ाना तो बनता है.’
बार-बार नल के हड़ताल पर रहने से महीने में औसतन 10 दिन नौले (प्राकृतिक जल-स्रोत) से पानी भर-भर कर पहले से ही मेरी कमर टूट चुकी थी. मैंने सुलगकर जवाब दिया –
‘भला हो ठाकुर तुम्हारा. पेड़ पर टंगे-टंगे हमारा पूरा खानदान थक चुका था, तुम्हारी बदौलत मकान में रहने को मिल गया, वो भी पक्के वाले में. पर हम तुम्हारा किराया नहीं बढ़ाएंगे, अलबत्ता तुम्हारे घर से ही विदा हो जायेंगे.’
अल्मोड़ा कैंट से लगे दुगालखोला में बिताये गए हमारे 23 साल अपेक्षाकृत काफ़ी आराम से गुज़रे. अवकाश प्राप्ति से 5 साल पहले पाताल लोक जैसे स्थान पर मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मकान आवंटित किया गया जिसे मैंने हाथ जोड़कर अस्वीकार कर दिया.
मेरी श्रीमतीजी और दोनों बेटियां इस गरीब गुरूजी की गर्दिश की परमानेंट साथी रही हैं. मेरी बेटियां जब बच्चियां ही थीं, तभी मैंने तय कर लिया था कि जो हादसा उनकी माँ के साथ हुआ है, वो उनके साथ नहीं होने दूंगा, अर्थात, उनकी शादी किसी अध्यापक के साथ नहीं होने दूंगा. भगवान ने मेरी सुन ली. मेरे दोनों दामाद अध्यापक नहीं हैं. मेरे संस्मरण को पढ़कर मेरे कुछ साथी नाराज़ हो सकते हैं पर मेरे साथियों की बेटियों में से भी शायद ही किसी ने अध्यापक का वरण किया होगा.  
गाँव-गाँव में डिग्री कॉलेज और कस्बे-कस्बे में विश्वविद्यालय खोलने की कीमत, रोटी-रोज़ी की तलाश में किसी भी शर्त पर काम करने वाले हम जैसों मजबूरों को चुकानी पड़ती है. गुरुजन की देह भी हाड़-मांस की बनी होती है. उन्हें भी इज्ज़त से रहने का हक़ है पर ये हक़ अगर उन्हें मिलता भी है तो अवकाश प्राप्ति से कुछ ही समय पहले या उसके भी बाद.

उच्च शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने वालों से मेरा कर बद्ध निवेदन है कि वो कोई भी नया विश्वविद्यालय अथवा नया विद्यालय स्थापित करने से पहले यह ज़रुर देख लें कि वहां बुनियादी सुविधाएँ हैं या नहीं और अगर उन्हें गुरुजन की भद्रा उतारने का, उनको तरसाने का, उनको तड़पाने का, रुलाने का, खिजाने का, इतना ही शौक़ है तो वो कमसे कम ‘गुरुवे नमः’ का जुमला शास्त्रों, पुराणों तथा पाठ्य-पुस्तकों से हमेशा-हमेशा के लिए निकलवा दें.          

सोमवार, 16 नवंबर 2015

ईमां हमरा का दोस है?

ई मां हमरा का दोस है –
आज से 50 साल पहले पिताजी की पोस्टिंग बाराबंकी में हुई थी. मैंने हाई स्कूल और इन्टर वहीँ से किया है. एक मजिस्ट्रेट के रूप में अपने उसूलों के लिए पिताजी की बड़ी ख्याति थी लेकिन चपरासियों से घर का काम कराने की ब्रिटिश कालीन अफ़सरी परंपरा से उन्हें कोई परहेज़ नहीं था. पिताजी के कोर्ट से जुड़े हुए दोनों चपरासी कचहरी के दायित्वों का निर्वाहन करने के अतिरिक्त हमारे घर में आकर छोटे-मोटे काम भी किया करते थे. पिताजी का एक चपरासी, क़ुतुब अली बहुत स्मार्ट था, वो बातें करने में बहुत उस्ताद था और अपनी बातों में दूसरे चपरासी को ऐसा फांसता था कि वो बेचारा दोनों चपरासियों के ज़िम्मे का काम अकेला करता था और हमारे जनाब क़ुतुब अली स्टूल पर बैठे-बैठे उस पर हुक्म चलाते रहते थे. अपनी लच्छेदार बातों के बल पर वो हम सबका चहेता बन गया था. अपने जोड़ीदार के रूप में क़ुतुब अली को हमेशा किसी ऐसे बौड़म की तलाश रहती थी जो कि उसके इशारों पर नाच सके. क़ुतुब अली के आतंक से उसके जोड़ीदार भयभीत रहते थे इसलिए उनमें से कोई भी उसके साथ ज़्यादा देर टिक नहीं पाता था.
एक बार एक लड़का नुमा बिना दाढ़ी-मूछ वाला शख्स क़ुतुब अली का जोड़ीदार बनकर आया. मेरी माँ को कद-काठी से वो बहुत कमज़ोर लगा. उन्होंने नाज़िर के इस चपरासी-चयन पर अपनी नाराज़गी जताते हुए क़ुतुब अली से कहा –
‘ये सींकिया पहलवान, बित्ते भर का लड़का घर का क्या काम कर पायेगा? नाज़िर से कह कर कोई ठीक-ठाक सा आदमी लाओ.’
सींकिया पहलवान और बित्ते भर के लड़के ने माँ को संबोधित करते हुए अपनी तुतलाती हुई सी ज़ुबान में कहा –
‘माता राम हम बित्ता भर का लड़का नाहीं हैं, अट्ठाईस साल के पूरे पट्ठा हैं. तुम्हरे मुल्ला क़ुतुब अली से चार गुना काम कर सकत हैं. तुम हमसे गोमाता की सेवा कराय सकत हो. हम उन्निस बिसवां के बाजपेयी बाम्हन हैं, हमसे तुम पूजा-पाठ भी कराय सकत हो.’
क़ुतुब अली ने चुटकी लेते हुए हामी भरी –
‘माताजी! ये पंडित सही कह रहा है, ये घर का सब काम-काज जानता है. इसकी इत्तरी माता घर का सारा काम इसी से तो कराती है.’
माँ ने हैरानी से पूछा –
‘ये इत्तरी माता कौन है? या तो स्त्री बोलो या फिर माता बोलो.’
इसका जवाब क़ुतुब अली के बजाय पंडितजी ने दिया –
‘ई मुल्लाजी की  बात पर ध्यान मत देओ माता राम. हम अपनी मेहरारू की बहुत इज्जत करते हैं याही खातिर लोग उनका हमरी इत्तरी माता कहत हैं.’
क़ुतुब अली ने हँसते हुए कहा –
‘हाँ, रोज उनके चरन दबावत हो, खाना पकावत हो, कपरा-लत्ता धोवत हो और गाहे-बगाहे लात भी खावत हो.’
माँ को इत्तरी माता के इस प्रसंग में दाल में कुछ काला लगा पर उस वक़्त बात आई-गयी हो गयी.
पंडित हमारी गाय की बहुत सेवा करता था पर उसका दूध दुहते समय अच्छा-ख़ासा कच्चा दूध, सीधे -सीधे गाय के थनों से ही गटक जाता था. घर में चूल्हे-चौके के काम में वो ज़रुरत से ज्यादा दिलचस्पी लेता था. शाम को हमारी माँ यानी अपनी माता राम के हाथ से चकला-बेलन छीन के वो कभी पराठे बनाने बैठ जाता तो कभी कोई भरवां सब्ज़ी बनाने लगता. माता राम से पुरस्कार में अपनी ही बनाई डिश को प्रसाद के रूप में पाकर पंडित धन्य-धन्य हो जाता था. पंडित ने हमारा शाम का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी ज़बरदस्ती खुद ही ओढ़ ली थी और उसकी एवज़ में वो हमारे यहाँ भरपेट भोजन किया करता था.
क़ुतुब अली ने हमको बताया कि पंडित की इत्तरी माता उसे खाना नहीं देती है और उसके पिताजी यानी बड़े पंडितजी उसकी तनख्वाह, उसे बक्शीश में मिले पैसे वगैरा भी उससे छीन लेते हैं. इसी लिए भूखा पंडित खाने के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है और काम के बदले हमेशा पेट भरने की जुगाड़ में रहता है. मज़े की बात यह थी कि हमारी माँ को आसमान से टपकी भोजन के बदले खाना बनाने की यह व्यवस्था रास आ रही थी.
एक बार पंडित बड़ा खुश होकर हमारे यहाँ लड्डू लाया. माँ ने कारण पूछा तो पंडित चहचहा कर बोला-
‘माता राम हमारे यहाँ बालरूप भगवान पधारे हैं.’
क़ुतुब अली ने पंडित को टोकते हुए कहा –
‘माता राम ऐसे नहीं समझेंगी. ये बताओ कि तुम्हारे घर भैया ने जनम लिया है.’
ये पूर्ण अहिंसक बात सुनकर आग-बबूला होकर पंडित लम्बे-चौड़े क़ुतुब अली पर टूट पड़ा. हम लोगों ने जैसे-तैसे दोनों को अलग किया. पंडित ने क़ुतुब अली की बांह में जोर से काट खाया था पर हमारे समझ में यह नहीं आ रहा था कि अच्छी –खासी चोट खाने के बाद भी क़ुतुब अली बिना रुके हंसे क्यों चला जा रहा था.
उस दिन के बाद से पंडित बिलकुल बुझा-बुझा सा रहने लगा. क़ुतुब अली ने भी इत्तरी माता को लेकर या बाल रूप भगवान के जनम को लेकर उससे फिर कोई मज़ाक़ नहीं किया. एक दिन पंडित आया तो उसका सूजा मुंह देखकर माँ हैरान रह गयीं. बहुत टटोलने पर भी पंडित ने अपनी बदहाली का राज़ नहीं खोला पर इस घटना के अगले ही दिन वो हमारी गाय की कोठरी में खुद को फांसी लगाने की नाकाम कोशिश करते हुए पकड़ा गया. पिताजी के दो तमाचे खाकर ही पंडित ने अपनी पूरी दास्तान उन्हें सुना डाली.
पंडित नपुंसक था. उसके विधुर बाप ने उसकी शादी सिर्फ इसलिए कराई थी कि वो उसकी पत्नी को अपनी अंकशायनी बनाकर रख सके. बेचारा पंडित जब भी इस व्यवस्था का विरोध करता था तो उसकी पत्नी और उसका बाप दोनों उसकी पिटाई करते थे. उसके घर में पधारे बाल रूप भगवान दर-असल उसके बेटे नहीं बल्कि भाई थे और इसी लिए क़ुतुब अली का ताना सुनकर वह उसके खून का प्यासा हो गया था.
पंडित ने पिताजी के पैर पकड़कर रोते हुए कहा –
साहेब, अगर हम नामरद हैं तो ईमां हमरा का कसूर है? काहे हम रोज आपन बाप और आपन मेहरारू के जूता खांय? काहे उनकी गाली खांय? काहे लोग रोज हमरा मखौल उड़ायं? आप हमका फांसी लगाए से काहे रोके? हम अबके आपके कोठे पे नाहीं, आपन घर में फांसी लगाय लेब.’     
पिताजी ने पुचकार कर बड़ी मुश्किल से पंडित को शांत किया और फिर अगले दिन उन्होंने बड़े पंडितजी यानी पंडित के पिताजी को घर बुलाकर उनकी वो आवभगत की कि वो अपने बेटे को मारना, उसके पैसे छीनना या उसे परेशान करना हमेशा के लिए भूल गए. पंडित की इत्तरी माता बाल-गोपाल सहित मायके चली गयीं जहाँ से वो कुछ दिनों बाद ही अपने बच्चे के साथ किसी नए मित्र के साथ भाग गयीं.
पंडित ने बड़े पंडितजी के सुधरने की खुशी में और अपनी इत्तरी माता व बाल रूप भगवान के अंतर्ध्यान होने पर हमको जमकर लड्डू खिलाये. हमारे बाराबंकी प्रवास के अंत तक पंडित पिताजी की सेवा में रहा. पिताजी के हस्तक्षेप से पंडित के दिन तो फिर गए लेकिन ऐसे हजारों-लाखों और पंडित अभी भी रोज़ाना अपमान, शोषण और प्रतारणा का  कड़वा घूँट पीने के लिए मजबूर हैं.
हमको पर-पीड़ा में इतना आनंद क्यूँ आता है? किसी के घाव कुरेदने में हमको इतनी संतुष्टि क्यूँ मिलती है? किसी के अभाव का या उसकी विकलांगता का, उसके अधूरेपन का, कैसे हम मज़ाक़ उड़ा लेते हैं? इन हालात के मारों के दिल से ये आवाज़ ज़रूर उठती होगी –

‘ईमां हमरा का दोस है?’                 

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

पिताजी का फिल्म-प्रेम

पिताजी का फिल्म-प्रेम –
मेरे पिताजी को फिल्मों से उतना ही प्रेम था जितना कि कबीर दास को कागज़, कलम और दवात से. मेरी माँ को फिल्म देखने का और फ़िल्मी चर्चा करने का बहुत शौक़ था और मेरे लिए तो फिल्में परमानन्द प्राप्ति का सबसे अचूक नुस्खा थीं.
अपने छात्र-जीवन में पिताजी ने इक्का-दुक्का क्लासिक अंग्रेजी फिल्में ज़रूर देखी थीं पर एक बार सिनेमा हॉल में उनका पर्स किसी ने उड़ा लिया, तबसे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि फिल्में या तो अपनी जेब कटवाने वाले बेवकूफ देखते हैं या फिर उनका शिकार करने वाले जेबकतरे.
हमारे बचपन में हमारे लिए फिल्में देखना किसी त्यौहार से कम नहीं होता था. माँ और हम बच्चों के लाख खुशामद करने पर भी पिताजी हमको फिल्म दिखाने के लिए पसीजते नहीं थे और उस पर से मेरे पढ़ाकू बड़े भाई साहब भी पिताजी के स्वर में अपना स्वर मिलाकर हमारी मांगों के ठुकराए जाने का माहौल तैयार कर देते थे. खुशकिस्मती से हमें साल में दो-तीन फिल्में देखने को मिल जाती थीं, कभी रिज़ल्ट अच्छा आने पर, कभी पिताजी के लाड़ले, हमारे छोटे मामा के अनुरोध पर तो कभी किसी फिल्म की ज़्यादा ही तारीफ़ सुनने पर. बचपन में लखनऊ में बिताये गए तीन सालों में हमको वहां के 17 सिनेमाओं में घर से एक किलोमीटर दूर पर स्थित कैपिटल सिनेमा में इतवार की सुबह महीने में एकाद बार जाने का मौका मिलता था पर फिल्में देखने के लिए नहीं बल्कि वहां पर लगने वाली बोरिंग किन्तु शिक्षाप्रद डाक्यूमेंट्री फिल्म्स देखने के लिए. डाक्यूमेंट्री फिल्म्स के साथ अगर किसी फिल्म का ट्रेलर दिखाई दे जाता था तो हम अपना जीवन धन्य मानते थे.
फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ की हम सबने बहुत तारीफ़ सुनी थी पर हमारे न्यायधीश पिताजी का फैसला था – ‘इस फिल्म के नाम से ही पता चलता है कि यह ठगों पर बनाई गयी है.
‘मदर इंडिया ‘ हमको इसलिए नहीं दिखाई गयी क्योंकि इसकी कहानी कैथरीन मेयो की भारत विरोधी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ पर आधारित रही होगी. मेरे बड़े भाई साहब ने कहानी की हकीक़त जानते हुए भी चुप लगाना ज़रूरी समझा था.
हमारे घर में रेडियो आया तो विविध भारती और रेडियो सीलोन हमारे लिए अमृत वर्षा करने वाले बादल बन गए पर पिताजी के लिए रेडियो का मतलब न्यूज़, आराधना और क्रिकेट कमेन्ट्री सुनना हुआ करता था. बुद्धवार की शाम आठ बजे हम भक्तगण बिनाका गीतमाला सुनने के लिए अपनी-अपनी सांस रोककर बैठ जाते थे और आमतौर पर शाम 9 बजे वाली अंग्रेजी न्यूज़ सुनने वाले हमारे पिताजी हमारे रंग में भंग डालने के लिए रेडियो पर 8 से 9 के बीच वाले हिंदी समाचार सुनने लगते थे.
बचपन बीता, हम बड़े हो गए और खुद अपने पैरों पर खड़े भी हो गए. मैंने हॉस्टल-प्रवास के दौरान अपना पूरा पॉकेटमनी फिल्में देखने में खर्च किया था और अब जबकि अपनी खुद की कमाई आनी शुरू हो गयी तो फिर पुरानी अधूरी हसरतों को पूरा करने से मुझे कौन रोक सकता था. एक आदर्श पुत्र की भांति मैंने अपनी माँ की फ़िल्म दिखाने की फ़रमाइशों को पूरा करना अपना फ़र्ज़ समझा. अब मुझमें इतनी हिम्मत आ गयी थी कि पिताजी को भी मजबूर कर दूं कि वो माँ को ले जाकर फिल्म दिखाएँ. ‘फ़िल्म देखने से बच्चे बिगड़ जायेंगे’ वाली पिताजी की दलील अब बेमानी हो गयी थी क्यूंकि उनकी अंतिम संतान यानी कि मैं भी अब सेटल हो चुका था. लेकिन पिताजी को ऐसी-वैसी फिल्म देखने और माँ को ले जाकर उसे दिखाने के लिए तैयार नहीं किया जा सकता था. मैंने उन्हें ‘मुगले आज़म’ देखने के लिए तैयार किया. फिल्म तो उन्हें पसंद आयी पर शहज़ादे सलीम को उसकी बदतमीजियों के लिए वो मुगले आज़म की तरह खुद भी थप्पड़ लगाना चाहते थे. शहज़ादे सलीम के सन्दर्भ में माँ से कहा गया पिताजी का यह वाक्य मुझे आज भी याद है –
‘अब पता चला. तुम्हारे छोटे साहबज़ादे ने बदतमीज़ी से जवाब देना किस से सीखा है.’
‘गूंज उठी शहनाई’ फिल्म में बिस्मिल्ला खान ने शहनाई बजाई थी, उनका नाम सुनकर पिताजी फिल्म देखने को राज़ी हो गए. हम सिनेमा हॉल पहुंचे तो वहां फिल्म बदल चुकी थी और ‘आ गले लग जा’ लग गयी थी. मैंने पिताजी को फिल्म तब्दील हो जाने की सूचना देना उचित नहीं समझा. फिल्म देखी गयी और पिताजी जब-तब मुझे और माँ को गुस्से से घूरते रहे. फिल्म ख़त्म होने के बाद उन्होंने माँ को अपना फैसला सुनाया –
‘तुम्हारा बेटा धोखेबाज़ है. फिल्म की कहानी बेहूदा थी पर बच्चे और शत्रुघ्न सिन्हा का रोल अच्छा था.’
1985 में बहुत दिनों बाद हमारे घर में फिर से कार आई थी. मेरी धर्मपत्नी ने पिताजी से ट्रीट के रूप में प्रतिभा सिनेमा में फिल्म दिखाने की फरमाइश कर दी तो वो इंकार नहीं कर सके. पिताजी ने मुझसे पूछा – ‘प्रतिभा में कौन सी फिल्म लगी है?’
मैंने जवाब दिया –‘दि वाइफ.’
पिताजी ने हैरानी से फिर पूछा – ‘तुम्हारी माँ को इंग्लिश फिल्म पसंद आयेगी?’
मैंने पिताजी को जवाब दिया – ‘आजकल हिंदी फिल्मों के टाइटल अंग्रेज़ी में भी रक्खे जाते हैं. ये अच्छी फिल्म है, आप सब को पसंद आयेगी.’ 
सिनेमा हॉल में ‘तवाइफ़’ टाइटल और ‘दि वाइफ’ को मुजरा करते देखकर पिताजी आगबबूला हो गए पर फिर फिल्म की कहानी उन्हें पसंद आ गयी और उन्होंने हम लोगों को माफ़ कर दिया.
बिमल रॉय और ऋषिकेश मुकर्जी की फिल्में पिताजी को पसंद आती थीं और कुछ हद तक बी. आर. चोपड़ा की फिल्में भी, पर उनकी प्रसिद्द फ़िल्म ‘क़ानून’ के अदालत वाले सीन उन्हें बेहद नागवार गुज़रे थे पिताजी का कहना था कि अगर उनके कोर्ट में वकील ऐसी बदतमीज़ी और ड्रामेबाज़ी करते तो वो उनके कान पकड़वाकर उन्हें कोर्ट से बाहर निकलवा देते.
फिल्मों को लेकर मेरी धोखेबाज़ी पर पिताजी बहुत नाराज़ होते थे पर फिर पता नहीं क्यूँ हमसे छुप-छुप कर हँसते भी थे और फिर से मुझसे धोखा खाने के लिए तैयार भी हो जाते थे. आज पिताजी को हमसे बिछुड़े एक अर्सा हो गया है पर आज भी, इस उम्र में भी उन्हें कोई प्यारा सा धोखा देने का और गुस्से से उनकी घूरती हुई ऑंखें देखने का मन करता है.

‘आई मिस यू पिताजी.’              

सोमवार, 9 नवंबर 2015

उत्तराखंड की लोरी

आज उत्तराखंड की स्थापना को 15 साल हो जायेंगे. समस्त उत्तराखंडवासी, विशेषकर कुमाऊँवासी खुद को छला गया, पिटा गया, लुटा गया, ठगा गया और सौतेला गया (अभी-अभी गढ़ा गया शब्द) अनुभव करते हैं. इन 15 सालों में हमको कितनी ज़िम्मेदार सरकारें मिलीं, जनता के कल्याण हेतु कितने समर्पित और प्रतिबद्ध जन-प्रतिनिधि और अधिकारीगण मिले, हमारी कितनी प्रगति हुई, कितना विकास हुआ, उसका लेखा-जोखा मैंने उत्तराखंड (पहले उत्तराँचल) की स्थापना से पहले ही कर डाला था. उत्तराखंड या उत्तराँचल की स्थापना से किन-किन की जेबें भरनी थीं, किन-किन को ऐश करने थे और किन-किन को पूर्ववत बदहाल ही रहना था और मदिरालयों को आबाद ही रहना था, यह सबको पता था लेकिन जब उसकी स्थापना हेतु आन्दोलन चल रहा था तो सभी आन्दोलनकारी दिवा-स्वप्न देखने में ही मगन थे. पर मेरे जैसे टेढ़ी बुद्धि के आलोचक इन मन के लड्डुओं में यथार्थ का नमक डालने का काम कर रहे थे. एक भविष्यवक्ता बनकर इस कविता की रचना मैंने जनवरी. 1999 में की थी. मार्च, 1999 में मैंने नैनीताल में उत्तराखंड पर आयोजित एक सेमिनार में इसका पाठ भी किया था जिसमें कि प्रोफ़ेसर शेखर पाठक और श्री आर. एस. टोलिया भी उपस्थित थे. अब पाठकगण इतने सालों बाद अपना फैसला सुनाएँ कि मुझे मार दिया जाय या सटीक भविष्यवाणी करने पर इनाम देकर छोड़ दिया जाय.                
उत्तराखण्ड की लोरी
पुत्र का प्रश्न -
‘मां! जब पर्वत प्रान्त बनेगा,  सुख सुविधा मिल जाएंगी?
दुःख-दारिद्र मिटेंगे सारे,  व्यथा दूर हो जाएंगी?
रोटी, कपड़ा, कुटिया क्या,  सब लोगों को मिल पाएंगी?
फिर से वन में कुसुम खिलेंगे,  क्या नदियां मुस्काएंगी?

माँ का उत्तर -
‘अरे भेड़ के पुत्र,  भेड़िये से क्यों आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह,  पर सच से क्यों डरता है?
सीधा रस्ता चलने वाला,  तिल-तिल कर ही मरता है।
कोई नृप हो, तुझ सा तो,  आजीवन पानी भरता है।।

अभी भेड़िया बहुत दूर है,  फिर समीप आ जाएगा।
नहीं एक-दो,  फिर तो वह,  सारा कुनबा खा जाएगा।।
चाहे जिसको रक्षक चुनले,  वह भक्षक बन जाएगा।
तेरे श्रमकण और लहू से,  अपनी प्यास बुझाएगा।।

बेगानी शादी में ख़ुश है,  किन्तु नहीं गुड़ पाएगा।
तेरा तो सौभाग्य पुत्र भी,  तुझे देख मुड़ जाएगा।
प्रान्त बनेगा, नेता, अफ़सर,  का मेला, जुड़ जाएगा,
सरकारी अनुदान समूचा,  भत्तों में उड़ जाएगा ।।

राजनीति की उठापटक से,  हर पर्वत हिल जाएगा।
देव भूमि का सत्य-धर्म सब,  मिट्टी में मिल जाएगा।
वन तो यूंही जला करेंगे,  कुसुम कहां खिल पाएगा?
हम सी लावारिस लाशों का,  कफ़न नहीं सिल पाएगा।।

रात हो गई, मेहनतकश भी अपने घर जाते होंगे।
जल से चुपड़ी, सूखी रोटी, सुख से वो खाते होंगे।
चिन्ता मत कर, मुक्ति कभी तो,  हम जैसे पाते होंगे।

सो जा बेटा, मधुशाला से, बापू भी आते होंगे।।‘

शनिवार, 7 नवंबर 2015

विध्वंस राग

बिहार में चुनाव हो गए. अब 8 नवम्बर को बिहार की जनता को या तो नए आक़ा मिल जायेंगे या फिर पुराने आक़ा की वापसी हो जाएगी. मुझे बिहार के सुनहरे भविष्य की कोई आशा नहीं है. वहां की जनता हमेशा से ठगी और छली जाती रही है और आगे भी उसका यही हश्र होने वाला है. 25 जुलाई, 1997 को समस्त लोकतान्त्रिक मूल्यों की हत्या करके श्री लालू प्रसाद यादव ने माता राबड़ी देवी को बिहार की हुकूमत प्रदान की थी तब श्री इंद्र कुमार गुजराल भारत के प्रधान मंत्री थे. इस अवसर पर मैंने बिहार के स्वर्णिम अतीत से लेकर उसके गर्त में जाने की गाथा पर महाकवि दिनकर की कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से प्रेरित होकर एक कविता की रचना की थी जिसमें यह आशंका व्यक्त की गयी थी कि माता राबड़ी पटना के बाद दिल्ली के तख़्त पर भी क़ब्ज़ा कर सकती हैं. हो सकता है कि किंचित सह्रदय पाठकों को यह पुरानी कविता आज भी प्रासंगिक लगे -   
        विध्वंस राग
हे महावीर औ बुद्ध, तुम्हारे दिन बीते ,
प्रियदर्शी धम्माशोक, रहे तुम भी रीते ।
पतिव्रता नारियों की सूची में नाम न पा ,
लज्जित, निराश, धरती में, समा गईं सीते ।।
नालन्दा, वैशाली, का गौरव म्लान हुआ ,
अब चन्द्रगुप्त के वैभव का, अवसान हुआ ।
सदियों से कुचली नारी की क्षमता का पहला भान हुआ ,
मानवता के कल्याण हेतु, मां रबड़ी का उत्थान हुआ ।।
घर के दौने से निकल आज, सत्ता का थाल सजाती है ,
संकट मोचन बन, स्वामी के, सब विपदा कष्ट मिटाती है ।
पद दलित अकल हो गई आज, हर भैंस यही पगुराती है ,
अपमानित, मां वीणा धरणी, फिर, लुप्त कहीं हो जाती है ।।
जन नायक की सम्पूर्ण क्रांति, शोणित के अश्रु बहाती है ,
जब चुने फ़रिश्तों की ग़ैरत, बाज़ारों में बिक जाती है ।
जनतंत्र तुम्हारा श्राद्ध करा, श्रद्धा के सुमन चढ़ाती है ,
बापू के छलनी सीने पर, फिर से गोली बरसाती है ।।
क्या हुआ, दफ़न है नैतिकता, या प्रगति रसातल जाती है ,
समुदाय-एकता, विघटन के, दलदल में फंसती जाती है ।
फलता है केवल मत्स्य न्याय, समता की अर्थी जाती है ,
क्षत-विक्षत, आहत, आज़ादी, खुद कफ़न ओढ़ सो जाती है ।।
पुरवैया झोंको के घर से, विप्लव की आंधी आती है,
फिर से उजड़ेगी, इस भय से बूढ़ी दिल्ली थर्राती है ।।
पुत्रों के पाद प्रहारों से, भारत की फटती छाती है ,
घुटती है दिनकर की वाणी, आवाज़ नई इक आती है-
गुजराल ! सिंहासन खाली कर, पटना से रबड़ी आती है ,

गुजराल ! सिंहासन खाली कर, पटना से रबड़ी आती है  ।।

रविवार, 1 नवंबर 2015

फैंटम साहब

फैंटम साहब –
फैंटम साहब आज से साठ-सत्तर साल पुराने ज़माने के हिप्पी कहे जा सकते हैं. भव्य व्यक्तित्व के धनी, एंग्लो-इंडियन, फैंटम साहब, उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. अपनी बेबाकी, फक्कड़पन, मस्ती और स्पष्टवादिता के लिए वो सारे उत्तर प्रदेश में विख्यात नहीं बल्कि कुख्यात थे. उनके उच्च पदाधिकारी अगर उन पर अपना रौब झाड़ने की कोशिश भी करते थे तो फिर फैंटमी वाक्-प्रहारों से उन्हें कोई नहीं बचा सकता था. अपने अक्खड़पन के कारण कभी भी किसी महत्वपूर्ण पद पर उनकी नियुक्ति नहीं हुई. फैंटम साहब ने किसी से दबना तो सीखा ही नहीं था पर अपने साथियों की वो बहुत इज्ज़त करते थे और अपने मातहत कर्मचारियों को वो बड़े भाई या पिता जैसा प्यार देते थे. फैंटम साहब की ईमानदारी के किस्से बड़े मशहूर थे लेकिन उससे भी ज़्यादा मशहूर थी उनकी विनोदप्रियता. फैंटम साहब शादीशुदा थे लेकिन उनकी पत्नी उनके साथ नहीं रहती थीं. उनके साथ सिर्फ उनका एक निजी नौकर रहता था.
फैंटम साहब की लम्बी काली दाढ़ी उन्हें कवि निराला वाली छवि देती थी. धोती-कुरता उनका  प्रिय लिबास था. हिन्दुस्तानी संगीत से उन्हें बहुत लगाव था और तबला वादक के रूप में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी. फैंटम साहब को पाश्चात्य खाना पसंद था पर उसके न मिलने पर वो रोजाना कामचलाऊ व्यवस्था कर लेते थे. उनका कामचलाऊ नाश्ता-खाना बड़ा मज़ेदार होता था. उबले चने, उबले अंडे, फल और दूध ही उनका मुख्य आहार हुआ करते थे.
श्री गोबिंद बल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मंत्री थे. उन दिनों फैंटम साहब को मुख्य मंत्री के कार्यालय के एक ऐसे विभाग से सम्बद्ध कर दिया गया जहाँ पर मक्खियाँ मारने के सिवा उन्हें कोई काम ही नहीं था. खाली बैठे फैंटम साहब ने मुख्य मंत्रीजी की गतिविधियों पर आधारित कार्टून्स बनाकर सरकारी स्टेशनरी का सदुपयोग शुरू कर दिया. धीरे-धीरे उनके कार्टून्स की ख्याति पंतजी तक भी पहुँच गयी. पंतजी बहुत शालीन व्यक्ति थे. उन्होंने फैंटम साहब को बुलवाकर उनकी खैर-खबर ली –
‘मिस्टर फैंटम, आपको हमारे ऑफिस में कोई परेशानी तो नहीं है?’
फैंटम साहब ने तपाक से जवाब दिया –‘नहीं सर, कोई परेशानी नहीं है. दिन में एकाद फाइल पर सिग्नेचर करने के बाद जो टाइम बच जाता है, उसमें मैं कार्टून्स बना लेता हूँ.’
पंतजी ने पूछा – ‘क्या मैं आपके बनाये कार्टून्स देख सकता हूँ?’
फैंटम साहब ने उत्साह से पंतजी को उन्हीं पर बने कार्टून्स दिखाए. पंतजी ने झूठ-मूठ की तारीफ की तो फैंटम साहब ने उनसे एक फरमाइश कर दी –
सर, अगर मुझे कुछ बड़े कागज़ प्रोवाइड किये जाएँ तो मैं इससे भी अच्छे कार्टून बना सकता हूँ. छोटे साइज़ के पेपर पर आपके साइज़ जैसी पर्सनैलिटी के कार्टून्स अच्छे नहीं बन पाते हैं.’
पंतजी ने अपने माथे का पसीना पोछते हुए फैंटम साहब से कहा – आप जिस जिले में चाहेंगे वहां आपकी पोस्टिंग कर दी जाएगी. बस ये कार्टून बनाने वाली अपनी कला को अभी विश्राम दे दीजिये.’
1960 में फैंटम साहब की नियुक्ति इटावा के सिटी मजिस्ट्रेट के रूप में हुई. उन दिनों मेरे पिताजी वहां जुडीशियल मजिस्ट्रेट थे. फैंटम साहब ने इटावा में घुसते ही वहां के गुंडों और पुलिस की नाक में दम कर दिया. लड़कियां छेड़ने वाले शोहदों की तो उन्होंने ऐसी आवभगत करवाई कि फिर सपने में भी उन्हें लड़की दिखाई का देना तक बंद हो गया. लफंगों के लिए पुलिस वालों को उन्होंने निर्देश दिए –
अगर कोई लड़का पहली बार लड़की छेड़ता हुआ पकड़ा जाये तो उसका नाम नोट कर, उसे दो थप्पड़ मारकर और वार्निंग देकर छोड़ दो. अगर दूसरी बार वो ऐसी हरक़त करे तो मौका-ए-वारदात पर ले जाकर उसकी सबके सामने पिटाई करो, उसको गंजा कर दो और उसके माँ-बाप को उसकी करतूत की खबर कर दो. और फिर अगर आगे भी वो ऐसी ही हरक़त करे तो उस पर कोई संगीन जुर्म लगाकर उसे जेल में डाल दो.’
इटावा में एक बार कमिश्नर साहब का दौरा लगा. कमिश्नर साहब आई. सी. एस. अफसर थे जो कि अपने अधीनस्थ अधिकारियों को कीड़े-मकौड़े से ज्यादा नहीं समझते थे. किसी की भी खिल्ली उड़ाना वो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे. फैंटम साहब को उनकी हरक़तें बहुत ओछी लग रही थीं पर बेचारे चुप थे. कमिश्नर साहब को फैंटम साहब की लम्बी दाढ़ी पसंद नहीं आई. उन्होंने अफसरों की भरी महफ़िल में फैंटम साहब से कहा –
‘मिस्टर फैंटम, इतनी लम्बी दाढ़ी लगाकर आप बर्नार्ड शॉ क्यूँ बनना चाहते हैं? आप अपनी दाढ़ी कटा लीजिये, बाई गॉड, आप बड़े हैण्डसम लगेंगे’
फैंटम साहब ने जवाब दिया – ‘आज ही अपनी दाढ़ी कटवा लूँगा सर, पर आपको मेरी दाढ़ी के आधे बाल अपनी गंजी चाँद पर और आधे अपने चेहरे पर लगाने होंगे. इससे आपके सर का गंजापन भी छिप जायेगा और आपके चेहरे की बदसूरती भी ढक जाएगी.’
फैंटम साहब के त्वरित न्याय के किस्से से मैं दास्ताने-फैंटम को समाप्त करता हूँ. पुलिस वालों को अक्सर अपनी उपलब्धियों के झूठे-मूठे दावे पेश करने पड़ते हैं. एक तीन मन (लगभग 110 किलो) के दीवानजी (हेड कांस्टेबल) बहुत दिनों से कोई चोर-बदमाश पकड़कर नहीं ला रहे थे. आख़िरकार एक गरीब उनके हत्थे चढ़ ही गया. उसके हाथों में हथकड़ियां डाल कर, उसे रस्सी से बांधकर उन्होंने उसे फैंटम साहब के सामने पेश किया. फैंटम साहब ने पूछा –
‘दीवानजी, क्या कुसूर है इस गरीब का? इस पर कौन सी दफ़ा लगाई है आपने?’
दीवानजी ने कहा – ‘हुज़ूर दफ़ा 109 (अपराध करने की संदेहास्पद गतिविधि को देखकर अपराध करने से रोकने के लिए किसी को पकड़ना) में इसे पकड़ा है. मुझे देखकर यह भागने लगा तो मैंने इसे पहले ललकारा और फिर भाग कर पकड़ लिया. ये कोई शातिर चोर है. इसके पास से ये आलानकब (दीवाल में सेंध मारने के लिए लोहे का नुकीला औजार) भी बरामद हुआ है.’
फैंटम साहब ने दीवानजी की मोटी काया को गौर से देखते हुए पूछा –
‘आपने इसे ललकारा, ये भागा, फिर आपने इसे दौड़कर पकड़ लिया?’
दीवानजी ने फ़रमाया – ‘जी माई-बाप, दौड़कर पकड़ लिया.’
फैंटम साहब तुरंत अपनी कुर्सी से उठे और दीवानजी, मुल्ज़िम तथा अपने पूरे स्टाफ को लेकर दीवानजी के बताए हुए मौका-ए-वारदात पर पहुंचे. वहां जाकर उन्होंने मुल्ज़िम की हथकड़ियाँ खुलवाकर उससे कहा–
‘देख भाई, दीवानजी कहते हैं कि इन्होंने तुझे दौड़कर पकड़ा है. मैं तुझे एक मौका देता हूँ. तू दीवानजी से तीन कदम दूर रहकर भागना शुरू कर. दीवानजी तुझे दौड़कर पकड़ेंगे. अगर इन्होंने तुझे दौड़कर पकड़ लिया तो तुझे चोर की सजा मिलेगी और अगर तू इनकी पकड़  में नहीं आया तो फिर तू आज़ाद है.’
बेचारे दीवानजी उस शातिर चोर को पकड़ने के लिए चार कदम दौड़े फिर पूरी तरह पस्त होकर ज़मीन पर पसर गए और चोर बिजली की स्पीड से उड़न छू हो गया. इटावा के इतिहास में यह किस्सा अमर हो गया. इस वाक़ये के कुछ दिनों बाद फैंटम साहब का तो तबादला हो गया पर उनके प्रशंसकों ने उन दीवानजी को ही फैंटम साहब कहकर पुकारना शुरू कर दिया.

आज के चाटुकारिता के इस युग में फैंटम साहब जैसे दबंग, इमानदार और मस्त-मौला अफ़सरों की बहुत ज़रुरत है पर उनको खोजने के लिए हमको अब शायद किसी और लोक में जाना होगा.