गुरुवार, 30 मार्च 2017

दि गिफ्ट ऑफ़ मजाइ



दि गिफ्ट ऑफ़ मजाइ –
गर्भवती वर्जिन मैरी को बड़े प्यार से अपने यहाँ रखने वाले गरड़िओं के यहाँ जब यीशु का जन्म होता है तो वो नव-जात बालक को पहनने के लिए उपहार में बड़े-बड़े कपड़े देते हैं. उन कपड़ों में से बालक के पहनने के लिए तो एक भी कपड़ा उपयुक्त नहीं होता है लेकिन उनसे यीशु के लिए उनका बेशुमार प्यार ज़रूर झलकता है.
‘ओ’ हेनरी ने इसी कथा को आधार बनाकर अपनी अमर कथा – दि गिफ्ट ऑफ़ मजाइ’ की रचना की जिसमें कि गरीबी में जी रहा एक प्यार करने वाला जोड़ा क्रिसमस पर एक दूसरे को उपहार देता है. लड़का अपनी घड़ी बेचकर लड़की के बालों में लगाने वाली क्लिप खरीदता है और लड़की अपने खूबसूरत बाल बेचकर लड़के की घड़ी के लिए बहुत कीमती स्ट्रैप खरीदती है.
इस कहानी में भी प्रेमी जोड़े में से किसी एक का भी उपहार दूसरे के काम नहीं आता पर उनका आपस में प्यार ज़रूर दिख जाता है.            
1987 की बात है. उन दिनों हम अल्मोड़ा परिसर के नीचे खत्यारी मोहल्ले में रहते थे. एक स्मार्ट सा जोड़ा हमारे घर आया और हमसे शिक्षा विभाग के डॉक्टर वांगू के बारे में पूछने लगा. डॉक्टर वांगू साल भर पहले कुमाऊँ विश्वविद्यालय छोड़कर मेघालय चले गए थे और उनके जाने के बाद हम उन्हीं के मकान में शिफ्ट हो गए थे. हमने उन दोनों को बुलाकर बिठाया फिर थोड़ी बहुत बातचीत होने लगी. आगंतुक कर्नल कुमार थे, पिछले साल, जब वो रानीखेत में पोस्टेड थे तब उन्होंने कुमाऊँ विश्विद्यालय से व्यक्तिगत छात्र के रूप में इतिहास विषय में एम. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा 58 प्रतिशत अंकों के साथ उत्तीर्ण की थी. अब वो दिल्ली में पोस्टेड थे और वहां से एक महीने की छुट्टी लेकर एम. ए. फ़ाइनल की परीक्षा देने के लिए अल्मोड़ा आए थे. उन्हें आशा थी कि डॉक्टर वांगू किसी इतिहास के प्रोफ़ेसर से उनकी भेंट करा देंगे और उन्हें एम. ए. फ़ाइनल की तैयारी करने में उन से कुछ मदद मिल जाएगी. यह वृतांत सुनकर हम पति-पत्नी हंसने लगे. जब कर्नल कुमार को पता चला कि मैं इतिहास विषय का ही अध्यापक हूँ तो वो बहुत प्रसन्न हुए. उनसे बातचीत कर मुझे यह पता चल गया कि वो काफ़ी बुद्धिमान हैं और परीक्षा के लिए उनकी अपनी तैयारी भी काफ़ी अच्छी है.
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अपने विद्यार्थियों की आमतौर पर दयनीय बौद्धिक स्थिति और पढ़ाई के प्रति उनकी घोर अरुचि से क्षुब्ध मैं बेचारा, हमेशा अच्छे विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए लालायित रहता था. कर्नल कुमार में मुझे एक जागरूक और उत्साही विद्यार्थी मिल गया था.
कर्नल कुमार पंद्रह दिनों तक मेरे घर पर आकर दो-तीन घंटे मुझसे पढ़ते रहे और अपनी शंकाओं का समाधान कराते रहे. मुझे उनको पढ़ाने में बहुत आनंद आया. हम दोनों अच्छे-खासे दोस्त भी बन गए.
कर्नल कुमार ने सभी प्रश्न-पत्रों में अपनी बुद्धिमत्ता और अपनी तैयारी का परिचय दिया और मौखिकी परीक्षा में भी उन्होंने आतंरिक परीक्षक तथा वाह्य परीक्षक को बहुत प्रभावित किया. इसके बाद दो महीने तक मेरी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई. परीक्षा का जब परिणाम निकला तो मेरी उत्सुकता केवल कर्नल कुमार का परिणाम देखने में थी. कर्नल कुमार ने परीक्षा में न केवल प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी बल्कि विश्विद्यालय में उन्होंने सर्वोच्च स्थान भी प्राप्त किया था. मैं कर्नल कुमार की सफलता को अपनी सफलता मान रहा था और अपनी इस ख़ुशी को उनके साथ बांटना चाहता था पर वो तो दिल्ली में थे.
परिणाम घोषित होने के पंद्रह दिन बाद कर्नल कुमार मेरे घर पधारे. हम दोनों ने एक-दूसरे को बधाई दी. चाय-पान के बाद विदा होते समय कर्नल कुमार ने एक बड़ा सा पैकेट निकाला और फिर उसे मेरे सामने ही खोला. उसमें दो बहुत ही ख़ूबसूरत शराब की बोतलें थीं. कर्नल कुमार के कोई दोस्त उनके लिए इटली से ये कलेक्टर्स आइटम लाए थे पर उनको लगा कि इसके असली हकदार तो डॉक्टर जैसवाल हैं. अब इस नाटक का अगला अंक तो और भी नाटकीय था. कर्नल कुमार मेरे साथ सेलिब्रेट करने के लिए एक बोतल खोलना चाह रहे थे पर मैं था कि हँसे जा रहा था, हँसे जा रहा था.
बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोक कर मैंने कर्नल कुमार को बताया कि मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाता और मेरे घर में शराब के साथ सेलिब्रेट करने की बात तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता.
बेचारे कर्नल कुमार बहुत दुखी हो गए. मैंने उनकी बोतलें उनको प्यार से लौटा दीं. पर मुझे उपहार में जो उन्होंने अपना प्यार दिया, अपनी कृतज्ञता का जैसे इज़हार किया उसे मैंने आज भी अपनी यादों में संजोकर रक्खा है.                                              

मंगलवार, 28 मार्च 2017

शायरों की मुश्किलें



शायरों की मुश्किलें –

चचा ग़ालिब ने कहा है –

‘रंज से खूगर (अभ्यस्त) हुआ इंसान तो, मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पडीं, इतनी, कि आसां हो गईं.’

इसी अंदाज़ में जोश मलिहाबादी ने अपना पहला शेर कहा –

‘हाय, मेरी मुश्किलों, तुमने भी क्या धोखा दिया,
ऐन दिलचस्पी का आलम था, कि आसां हो गईं.’

पर आजकल के हालात को देख कर जोश साहब के इस शेर को दुरुस्त कर के मुझको कहना पड़ रहा है -
    
 ‘हाय, मेरी मुश्किलों, तुमने भी क्या धोखा दिया,
 दस पुरानी हल करीं, सौ और पैदा हो गईं.’  

गुरुवार, 23 मार्च 2017

शहीद दिवस



शहीद दिवस पर -
उत्तर प्रदेश राजकीय अभिलेखागार में संरक्षित प्रतिबंधित साहित्य
संग्रहकर्ता शिवदत्त अवस्थी
शमअ वतन के परवाने
सुखदेव भगत सिंह राजगुरु – थे शमअ वतन के परवाने,
जो सोज़ दिलों में उनके था, उस सोज़ को कोई क्या जाने.
इस जंगो-जदल का आयंदा, अहवाल जो लिखने बैठेंगे,
लिक्खेंगे सुनहरी हर्फ़ों से, तारीख में इनके अफ़साने.
यह शौक़-ए-शहादत दिल में था, वह दार पे बोसा देके चढ़े,
मुश्ताक़-ए-अज़ल थे, बरसों से, लैला-ए-वतन के दीवाने.
कातिल की हिला दें बुनियादें, नारों से मिटाया नारों ने,
अब रौब सितम का बाक़ी था, इस वक़्त रुपे में दो आने.
सतलज के किनारे आती है, आवाज़ चिता के ज़र्रों से,
सुखदेव भगत सिंह राजगुरु – थे शमअ वतन के परवाने.

सोज़ – आग
जंगो-जदल – युद्ध,
अहवाल – समाचार  
दार – फांसी
मुश्ताक़-ए-अज़ल – अनादिकाल से अभिलाषी  

शईदों का सेहरा (शायर – मुश्ताक़)

वतन पे जां है गंवानी, रहे रहे न रहे,
अरे ये जिस्म है फ़ानी, रहे रहे न रहे.
फिरेगी रूह वतन में मेरी सदा आज़ाद,
वो ज़ुल्मो-ज़ोर का बानी, रहे रहे न रहे.
हो यादगारे ज़माना, ये अपनी क़ुरबानी,
जहां में और कहानी, रहे रहे न रहे.
खुदा के वास्ते कर दो इसे वतन पे निसार,
जवानों, फिर ये जवानी, रहे रहे न रहे.
वतन पे मार्के बदल लूं मैं जामए-हस्ती,
क़बा ये होके पुरानी, रहे रहे न रहे.
हम अपना खून बहाने को हैं, सदा तैयार,
ये तेग की भी रवानी, रहे रहे न रहे.
असम्बली के शिवालय में शोर बम-बम का,
है भक्त सिंह की बानी, रहे रहे न रहे.
हमारा खून तो है जेबे-दामने कातिल,
अब और कोई निशानी, रहे रहे न रहे.
जलाके वो मेरी मैयत, बहाएं सतलज में,
फिर उनकी तेग में पानी, रहे रहे न रहे.
रहेगी आबो-हवा में ख़याल की बिजुली,
ये मुश्ते-खाक़ है फ़ानी, रहे रहे न रहे.
कहूं जो बात जो दुश्मन के दिल पे काट करे,
कि फिर ये तेज़-ज़ुबानी, रहे रहे न रहे.
वतन के भी ‘मुश्ताक’ चंद लिख डालो,
सदा ये सेहरे बयानी, रहे रहे न रहे.

फ़ानी – नाशवान
जाम-ए-हस्ती – अस्तित्व रूपी वस्त्र
क़बा – वस्त्र
जेबे-दामने क़ातिल – क़ातिल की जेब और उसका दामन
सेहरे-बयानी – सेहरा गाने की कला

मंगलवार, 21 मार्च 2017

सियासत



कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूं के आसार,
और कुछ लोग भी, दीवाना बना देते हैं
(ज़हीर देहलवी)

संशोधित शेर –

कुछ तो होते हैं सियासत में, ठगी के आसार,
और कुर्सी की ललक, चोर बना देती है.

चेतावनी – संशोधित शेर को आज के सन्दर्भ में देखने वाले को पाप लगेगा.

कल की बात -
 
मुहब्बत के लिए, कुछ ख़ास दिल, मख्सूस होते हैं,
ये वो नग्मा है जो, हर साज़ पे, गाया नहीं जाता.

आज की बात -

सियासत के लिए कुछ बेशरम, मख्सूस होते हैं,
ये चिकना घड़ा, हर हाट में, पाया नहीं जाता.

(मख्सूस - विशिष्ट)