सोमवार, 30 सितंबर 2019

काले मेघा, इतना तू मत पानी दे

अब के बारिश में तो ये, कार-ए-ज़ियाँ होना ही था,
अपनी कच्ची बस्तियों को, बे-निशाँ होना ही था,
किस के बस में था हवा की, वहशतों को रोकना,
बर्ग-ए-गुल को, ख़ाक, शोले को, धुआँ, होना ही था.
मोहसिन नक़वी
(कार-ए-ज़ियाँ – अनिष्ट, बर्ग-ए-गुल - फूल का पत्ता)
हुइ है वही, जो राम रचि राखा -
अब के बारिश भी सड़क को, नहर तो होना ही था,
हेलिकॉप्टर से निरीक्षण, बाढ़ का, होना ही था.
डूब कर कुछ तो मरे, कुछ घर के नीचे दब गए,
रक्म-ए-राहत को उड़न-छू, आदतन, होना ही था.

सोमवार, 23 सितंबर 2019

बेटी-दिवस

बेटी-दिवस -
कल बेटी दिवस था. कल बेटियों की शान में कसीदे पढ़े गए होंगे, उन्हें घर की रौनक बताया गया होगा. सोशल मीडिया में उन पर गीतों, कविताओं और आलेखों की भरमार रही होगी. स्चूलों और कॉलेजों में उन पर भाषण भी दिए गए होंगे.
आगे भी बेटी-दिवस पर ऐसा ही होता रहेगा. साल में एक दिन बेटी का गुणगान करने की नौटंकी चलेगी, बाक़ी 364 दिन उसे ख़ुद को उपेक्षा, दमन, शोषण और लिंग-भेद से बचाने के लिए संघर्ष करना होगा.
क़रीब पच्चीस साल पहले अल्मोड़ा में मेरे एक आत्मीय मुस्लिम परिवार में मुझे सपरिवार शादी में बुलाया गया. मैं मर्दों की टोली में, और मेरी 10 और 8 साल की बेटियां, अपनी मम्मी के साथ महिलाओं की टोली में शामिल हो गईं. महिला-मंडली ने मेरी श्रीमतीजी और बच्चियों का स्वागत किया. दो बुजुर्गवार खालाओं ने शरबत, मिठाई वगैरा सर्व किये जाने से पहले ही मेरी श्रीमतीजी पर सवालों की झड़ी लगा दी –
‘कहाँ रहती हो? तुम्हारे शौहर क्या करते हैं? तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’ वगैरा वगैरा.
मेरी श्रीमतीजी के बाक़ी जवाब तो ठीक लगे पर उनका-
‘हमारे दो बच्चे हैं.’
वाला जवाब खालाओं के समझ में नहीं आया. एक खाला ने पूछा –
‘फिर अपने दोनों बच्चों को तुम शादी में लाई क्यों नहीं?’
मेरी श्रीमतीजी ने मुस्कुराकर बेटियों की तरफ इशारा करते हुए कहा –
‘लाई तो हूँ. यही तो हैं हमारे दोनों बच्चे.’
दोनों खालाओं के तो मानों पैरों तले ज़मीन सरक गयी. दोनों हैरत से एक साथ बोलीं –
‘हाय अल्ला ! कोई बेटा नहीं है तुम्हारे? बस, ये दो बेटियां ही हैं तुम्हारे?’
मेरी श्रीमती जी ने इस पर हामी भरी तो एक खाला ने आह भरते हुए कहा -
‘बच्चियां तो तुम्हारी काफी बड़ी हो गयी हैं, अब तो तुमको सब्र करके बेटियों से ही काम चलाना पड़ेगा.’
इस किस्से पर तो हमको गुस्सा भी आ सकता है और हंसी भी आ सकती है लेकिन एक और किस्सा ऐसा है जिस पर हम अपने समाज को, उसके अन्याय के लिए और ख़ुद को, अपनी बुज़दिली के लिए, सिर्फ़ कोस सकते हैं.
क़रीब चालीस साल पहले हमारे एक परिचित खाते-पीते जैन परिवार की एक लड़की किसी प्रतिष्ठित परिवार में ब्याही गयी. लड़की सूरत-शक्ल की अच्छी थी, लड़के वालों को दान-दहेज़ भी खूब दिया गया लेकिन ससुराल में पहले दिन से ही लड़की पर ज़ुल्मो-सितम ढाए जाने लगे. खबर लड़की के मायके वालों तक पहुँची तो उन्होंने उसकी ससुराल वालों को कुछ कीमती उपहार और भिजवा दिए. मामला कुछ दिनों के लिए शांत हो गया लेकिन फिर समाचार आया कि स्टोव फटने से लड़की जल गयी और उसकी मौत हो गयी. लड़की वालों ने उसकी ससुराल वालों पर हत्या का केस दायर करने का फ़ैसला कर लिया. लेकिन फिर बीच-बचाव करने वाले कूद पड़े. मृत लड़की की ससुराल वाले, उसके मायके वालों को मोटी रकम देने को तैयार थे. आख़िरकार दोनों पक्षों में समझौता हो गया. आप सोचेंगे कि वो कौन माँ-बाप होंगे जो कि अपनी बेटी के हत्यारों से पैसा लेकर चुपचाप बैठ जाएंगे. लेकिन इस समझौते में पैसे का लेन-देन हुआ ही नहीं, बल्कि दोनों परिवारों की सहमति से मृत लड़की की छोटी बहन की शादी बिना दान-दहेज़ के अपने जीजा से करा दी गयी.
सवाल उठता है –
‘हम बेटी-दिवस मनाने वाले अगर अपनी एक बेटी के हत्यारे परिवार में अपनी दूसरी बेटी ब्याह सकते हैं या फिर अगर हम ख़ुद ऐसा नहीं करते लेकिन ऐसा करने वालों को अपने समाज से बहिष्कृत नहीं करते तो फिर हमको इन्सान कहलाने का क्या हक़ है?’
बेटी-दिवस मनाने का हक़ हमको तभी मिलना चाहिए जब हम उन पर बुरी नज़र डालने वाले हर शख्स का जीना हराम कर दें, व्यभिचारियों को संतों का दर्जा देकर उनकी चरण-वंदना न करें, और न ही उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनकर जन-प्रतिनिधि सभाओं में भेजें.
बेटियों को हम आरक्षण भले न दें लेकिन उनकी उन्नति में आड़े आने वाली बाधाओं का, अपनी लिंग-भेदी मानसिकता का, जड़ से खात्मा ज़रूर करें.
चोरी-छिपे गर्भस्थ शिशु का लिंग-परीक्षण करवा कर कन्या-भ्रूण हत्या के लिए सबसे बदनाम इस देश में –
‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’
और
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवताः’
के कोरे नारों या कोरे भाषणों से बेटियों का कुछ भला नहीं होने वाला है. इसके लिए हमको अपने समाज की और ख़ुद की सोच को बदलना होगा.

शनिवार, 21 सितंबर 2019

बहुत नाइंसाफ़ी है


बहुत नाइंसाफी है -
स्वामी चिल्मयानंद ('चिन्मयानन्द' नाम में उतना दम नहीं लगता) के साथ बहुत अन्याय हुआ है. भगवान श्री कृष्ण ने शिशुपाल के 100 अपराध क्षमा करने के बाद उसके 101 वें अपराध पर अपना सुदर्शन चक्र उस पर चलाया था जब कि एसआईटी ने उनकी 43 क्लिप्स वायरल होते ही उनको जेल में डाल दिया.
एक आध्यात्मिक संत ज़रा सा लौकिक क्या हुआ, लोगों ने तो हंगामा ही खड़ा कर दिया.
और फिर अगर कुछ जगह प्रधानमंत्री की अपील -
'बेटियां पढ़ाओ, बेटियां बचाओ'
को गलतफहमी में -
'बेटियां पढ़ाओ लेकिन उनको क़तई मत बचाओ'
समझ लिया गया तो उस पर इतनी हाय-तौबा मचाने की क्या ज़रुरत है?
चाचा मुलायम के अंदाज़ में हम कहेंगे -
जोशीले नेता हैं, इस जोश में कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो क्या उन्हें फांसी पर चढ़ा दोगे?
रास-लीला रचाने वाले हमारे संत का दर्द कोई तो समझे. स्वर्ग की सुख-सुविधा से उन्हें दूर रखना तो उनके लिए सज़ाए-मौत से भी बदतर है -
मेनका रक्से-हुनर, अपना न दिखलाएगी,
और जापान की, गीशा भी नहीं आएगी,
शहर-ए-बैंकॉक की, सुविधा जो न मिल पाएगी,
जेल में जान तो, फिर, पल में, चली जाएगी.
हमको विश्वास है कि उनकी इस व्यथा को सुनकर, उसे पढ़कर, उसे अपने दिल से महसूस कर, जेल के अधिकारी जेल का माहौल ज़रूर बदलेंगे और उसे रंगीन ज़रूर बनाएँगे.

रविवार, 15 सितंबर 2019

सत्रह का पहाड़ा

बड़े से बड़े आलिमों के और फ़ाज़िलों के खानदान में भी आमतौर पर एक न एक अक्ल से पैदल हो ही जाता है. यूँ तो हमारा खानदान, जैन-जैसवाल बिरादरी के सबसे पढ़े-लिखे खानदानों में गिना जाता था लेकिन उस में भी एक अक्ल के प्यादे हुए थे.
हमारे पर-दादा जिला अलीगढ़ की तहसील, हाथरस के सबसे बड़े प्लीडर थे. पर-दादा की प्रैक्टिस ज़ोरों में चलती थी और उनकी हवेली उन दिनों हाथरस की सबसे भव्य रिहायशी इमारतों में गिनी जाती थी. हमारे पर-दादा सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहते थे. दिन तो उनका अदालत में गुज़र जाता था और बाक़ी वक़्त उनका अपनी बैठक में अपने मुंशी के साथ मुकद्दमों की तैयारी करने में गुज़रता था.
घर में क्या हो रहा है और क्या-क्या करना है, इसका सारा सर-दर्द हमारी पर-दादी उठाया करती थीं. किस लड़के की, किस लड़की से, कब शादी करनी है, किस लड़की के लिए कहाँ वर ढूढ़ना है, क्या दान-दहेज़ देना है, इसकी पर-दादा जी को कोई फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं होती थी. घर में उनकी भूमिका तो बस, आज के किसी एटीएम की तरह हुआ करती थी.
पर-दादा जी के बेटों में एक को छोड़कर बाक़ी सब बेटे ज़हीन थे लेकिन उनमें से एक महज़ भैंस हांकने की अक्ल रखते थे. हर क्लास में फ़ेल होना उनकी आदत में शुमार हुआ करता था. पर-दादा जी आमतौर पर इस होनहार बेटे की शैक्षणिक उपलब्धियों से अनभिज्ञ रहते थे लेकिन जब भी उन्हें उसके रिज़ल्ट में लाल स्याही से लिखे हुए गोलों की जितनी संख्या दिखाई देती थी वो अपने होनहार सपूत की तशरीफ़ पर उसी अनुपात में बेंत से शाबाशी ज़रूर देते थे.
पुराने ज़माने में पढ़े-लिखे घरों में भी बाल-विवाह का प्रचलन था. घर की औरतों को इस से कोई मतलब नहीं होता था कि लड़के-लड़कियां पढ़ाई में ध्यान दे रहे हैं या नहीं. उनको तो बस, उनकी शादी करने की जल्दी हुआ करती थी. हमारी पर-दादी दो बेटों की शादी करा चुकी थीं. अब उनके बुद्धू बेटे की शादी होने की बारी थी. पर-दादी को इस से कोई सरोकार नहीं था कि उनके लला सातवीं जमात में ही अटके हुए हैं. उन्होंने तो अच्छी लड़की देखी तो ठलुआ बैठे अपने चौदह साल के सपूत की भी शादी करवा दी. सुन्दर सी दुल्हन पाकर उनके सपूत का ध्यान पढ़ाई से पहले से भी ज़्यादा हट गया और फिर उन्होंने कक्षा सात में ही स्थायी रूप से जमे रहने का फ़ैसला कर लिया.
पानी सर के ऊपर से गुज़र चुका था. पर-दादा जी को लगा कि अब उन्हें अपने मझले सपूत की पढ़ाई का बीड़ा ख़ुद उठाना होगा. उन्होंने हुक्म सुना दिया कि वो जब तक बैठक में रहकर अपना काम करेंगे, तब तक उनके साहबज़ादे उन्हीं के सामने बैठ कर पढ़ाई करेंगे.
पर-दादा जी अपने बेटे की पाठ्य-पुस्तकों को देख-देख कर उसे काम देते रहते थे और फिर वक़्त मिलने पर उसका काम चेक भी कर लिया करते थे. पर-दादा जी के इस सपूत को गणित विषय सबसे कठिन लगा करता था. उसे जोड़ करना और घटाना तो आता था लेकिन गुणा-भाग कर पाना उसके बस में नहीं था और पहाड़े याद करना तो उसे पहाड़ पर चढ़ने से भी ज़्यादा मुश्किल लगा करता था. दो दिन पहले इस होनहार विद्यार्थी को सत्रह का पहाड़ा याद करने का काम दिया गया था लेकिन वह –
‘सत्रा इकम सत्रा, सत्रा दुनी चौंतीस, सत्रा तीया इक्यावन’ के बाद हर बार - ‘सत्रा चौके’ में अटक जाता था.
सत्रा चौके कुछ भी हो जाता था लेकिन कभी अड़सठ नहीं होता था. सत्रह का पूरा पहाड़ा सुने बिना बालक को खाना भी नसीब नहीं होने वाला था. इधर होनहार बालक – 'सत्रा चौके बासठ' तक पहुंचा ही था कि घर के अन्दर कांसे का थाल बजने लगा. कुछ ही देर बाद घर की बड़ी नौकरानी बैठक में आई और पर-दादा जी को बधाई देकर कहने लगी –
‘बाबूजी,, मिठाई खबाओ, इनाम देओ. तुम्हाए हियाँ पोता भयो ऐ.’
(बाबू जी मिठाई खिलाओ, इनाम दो, तुम्हारे घर पोता हुआ है.)
बाबूजी ने तुरंत नौकरानी को चांदी का एक रुपया प्रदान किया. फिर नौकरानी से मुख़ातिब होकर उन्होंने उस से कहा –
‘हमारे घर में पोता हो गया और हमको तो यह भी पता नहीं था कि किस बहू के बच्चा होने वाला था. यह तो बताओ कि किस बहू के बेटा हुआ है.’
नौकरानी जब तक जवाब दे तब तक 'सत्रा चौके बासठ' बताने वाला होनहार विद्यार्थी बोल पड़ा –
‘कासगंज बारी बऊ के छोरा भयो ऐ !’
(कासगंज वाली बहू के बेटा हुआ है.)
उस ज़माने में घरों में बहुओं को उनके नाम से नहीं, बल्कि उनके मैके के स्थान से पुकारा जाता था. मसलन, जिस बहू का मायका कासगंज में था उसे - कासगंज वाली बहू कहा जाता था.
पर-दादा जी ने अपने सपूत से यह सूचना प्राप्त की और – ‘अच्छा !’ कह कर वो किसी मुक़द्द्दमे की फ़ाइल देखने लगे. लेकिन कुछ देर बाद अचानक उन्होंने चौंक कर अपने साहबज़ादे से पूछा –
‘कासगंज वाली बहू तो तेरी वाली हुई. तू बाप बन गया?’
साहबज़ादे ने शरमाते हुए कहा –
‘हाँ बाबूजी. जे हमाओ लल्ला ऐ. तुम बाबा है गए. मोय पांच रुपय्या इनाम के देओ.’
(हाँ बाबूजी, ये हमारा बेटा है. आप बाबा बन गए हैं. मुझे इनाम के पांच रूपये दीजिए.)
बेटे की फ़रमाइश सुनकर पहली बार दादा बने हमारे पर-दादा जी का रिएक्शन अप्रत्याशित था –
उन्होंने अपने बेटे के बाएँ गाल पर एक झन्नाटेदार झापड़ रसीद किया फिर उस पर चिल्लाते हुए उस से पूछा –
‘नालायक ! सत्रह के पहाड़े में अभी तू – सत्रा चौके बासठ पर अटका है और पन्द्रह साल की उम्र में ही बाप बन गया ?’
अगला दृश्य - दुःख और सुख का अद्भुत सम्मिश्रण था.
नया-नया बाप बना हमारा नायक बुक्का फाड़कर रो रहा था और घर के अन्दर से औरतें ढोलक बजाते हुए सोहर गा रही थीं.

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

उसूलों वाला दरोगा

‘उसूलों पर जहाँ आंच आए, टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िन्दा हो, तो फिर, ज़िन्दा नज़र आना, ज़रूरी है.’
वसीम बरेलवी
वसीम बरेलवी के इस मकबूल शेर से मुझे एक पुराना किस्सा याद आ रहा है लेकिन इस किस्से में उसूल ज़रा मुख्तलिफ़ किस्म के हैं -
अपने बचपन में हम सबने प्रेमचन्द की कहानी ‘नमक का दरोगा’ पढ़ी होगी. क्या उसूल थे हमारे नायक के ! सेठ जी की रुपयों की थैलियाँ भी उसके उसूलों को हिला नहीं पाई थीं ! लेकिन इन उसूलों पर अडिग रहने की कीमत हमारे नायक को अपनी नौकरी से हाथ धोकर चुकानी पड़ी थी. प्रेमचंद की इस कहानी को पढ़कर हमारी इस कहानी के नायक दरोगा मकबूल हुसेन ने भी अपने उसूलों पर अडिग रहने की कसम खाई थी लेकिन उनके ये उसूल उस अव्यावहारिक और अपने पाँव पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारने वाले नमक के दरोगा के उसूलों से बिल्कुल जुदा थे.
भारत को आज़ाद हुए बहुत वक़्त नहीं गुज़रा था. दरोगा मकबूल हुसेन जिला मुबारकपुर के एक मलाईदार थाने के इंचार्ज थे. यह थाना चुंगी नाक़े के बहुत क़रीब था और इस थाने में भांति-भांति के अपराधियों के अलावा यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाने वाले ट्रक भी थोक के भाव लाए जाते थे.
मकबूल हुसेन अपने उसूलों के बड़े पक्के थे. उनके बारे में मशहूर था कि अगर उनके वालिद भी कानून को तोड़ते हुए उनके जाल में फंस जाएं तो वो जुर्म के हिसाब से रिश्वत के अपने फ़िक्स्ड रेट से एक पैसा भी कम लेकर उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होंगे. उनके बारे में यह भी मशहूर था कि वो पैसा लेकर जेबकतरे को ही क्या, चौराहे पर दिन-दहाड़े किसी का खून करने वाले को भी बाइज्ज़त और बेदाग़ छोड़ सकते हैं.
एक बार लड़की छेड़ते हुए किसी नौजवान को पुलिस ने धर दबोचा. उस नौजवान को कोतवाली लाकर लॉक-अप में बंद कर दिया गया. नौजवान के घर संदेसा भेजा गया. कोतवाली में कुछ देर बाद दरोगा मकबूल हुसेन आए और उन्होंने कोतवाल साहब को सलाम करते हुए उनके कान में बताया कि मनचला नौजवान उनका सगा भतीजा है. कोतवाल साहब ने यह सुनते ही हुक्म दिया -
'इस नौजवान को छोड़ दो. यह तो मकबूल हुसेन का भतीजा है.'
नौजवान को फ़ौरन छोड़ दिया गया. दरोगा मकबूल हुसेन ने कोतवाल को शुक्रिया कहते हुए पचास रूपये उनकी खिदमत में पेश किए.'
कोतवाल साहब ने रूपये लौटते हुए कहा -
'क्या बात करते हो मकबूल हुसेन? हम अपनों से पैसा लेंगे?'
मकबूल हुसेन ने कोतवाल साहब की जेब में ज़बरदस्ती रूपये ठूंसते हुए जवाब दिया -
हुज़ूर, ये तो उसूलों वाली बात है. लड़की छेड़ने वाले को बेदाग़ छोड़ने का रेट पचास रूपया है, उसे आप मेरी वजह से छोड़ेंगे तो कल आप किसी कातिल को छोड़ने को मुझसे कहेंगे तो उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा. आपका आज तो पचास रूपये का नुक्सान होगा और मेरा कल नुक्सान होगा पूरे एक हज़ार का. आप भी उसूल पर क़ायम रहें और मैं भी अपने उसूल पर क़ायम रहूँ, इसी में हम दोनों की भलाई है.' .
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एक बार की बात है कि चुंगी नाक़े पर एक ट्रक पकड़ा गया जिसमें कि बिना परमिट लोहे की सरिया ले जाई जा रही थी. यह ट्रक ओवर लोडेड भी था. नाक़े पर ट्रक रोके जाने पर ट्रक ड्राइवर ने अपने मालिक को वहीं बुलवा लिया था जिसने नाक़े के मुलाज़िमों के साथ बहुत बदतमीज़ी की थी.
जब यह मामला दरोगा मकबूल हुसेन सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे पहले ट्रक ड्राइवर के चार डंडे रसीद किए फिर हिसाब लगाकर उस ट्रक के मालिक से कहा –
‘जनाब, आपने तीन जगह कानून तोड़ा है. सबसे पहले आप का ट्रक बिना परमिट लोहे की सरिया ले जा रहा था. उसका फ़ाइन होता है दो सौ रुपया लेकिन हम इस जुर्म का आप से सिर्फ़ पचास रुपया लेंगे.
दूसरा जुर्म आपका यह है कि आपका ट्रक ओवर-लोडेड पाया गया. इसका जुर्माना भी होता है दो सौ रुपया लेकिन इसके लिए भी हम आपसे पचास रुपया ही वसूलेंगे.
अब रहा आपका तीसरा जुर्म. आपके ड्राइवर ने और आपने, चुंगी-नाक़े के मुलाज़िमों को उनकी ड्यूटी करने से रोका और उनके साथ बदतमीज़ी की. इसके लिए तो आपके ड्राइवर को और आपको फ़ौरन गिरफ़्तार करना होगा. अगर आप इस गुनाहे-अज़ीम से साफ़ बचना चाहते हैं तो इसके बदले में आपको सौ रूपये और ढीले करने होंगे.
तो कुल मिलाकर आप हमको दो सौ रूपये नज़र कीजिए और इस ट्रक को जहाँ चाहें, वहां आराम से ले जाइए.’
आज से सत्तर साल पहले दो सौ रूपये की रकम बहुत बड़ी मानी जाती थी. लेकिन इस डिमांड को सुनकर भी ट्रक मालिक की पेशानी पर एक बल भी नहीं पड़ा. उसने हिक़ारत के साथ दरोगा मकबूल हुसेन को देखा और फिर उन से पूछा –
‘दरोगा जी, आप अपनी औक़ात में ही रहिए. आप नहीं जानते कि मैं कौन हूँ.
दरोगा जी ने ताना मारते हुए कहा –
‘मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि आप पंडित नेहरु तो नहीं हैं.’
ट्रक मालिक ने अपनी रौबीली आवाज़ में दरोगा जी से पूछा –
‘आपने रफ़ीक़ कुरैशी साहब का नाम सुना है?’
(मुबारकपुर के निवासी रफ़ीक़ कुरैशी साहब प्रदेश के गृह-मंत्री थे)
दरोगा मकबूल हुसेन ने फिर अपने पुराने स्टाइल में जवाब दिया –
‘जनाब, आप रफ़ीक़ कुरैशी साहब भी नहीं हैं. मैंने कुरैशी साहब को कई बार देखा है.’
इस बार ट्रक के मालिक ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए घोषणा की –
‘मैं रफ़ीक़ कुरैशी साहब का दामाद हूँ. अब बताइए कि मुझे कुल कितना जुर्माना भरना है?’
दरोगा मकबूल हुसेन यह घोषणा सुनते ही अपनी कुर्सी से उठकर एकदम सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए.
उन्होंने अपनी ज़ुबान में चाशनी घोलते हुए कहा –
‘अपनी गुस्ताख़ी के लिए मैं आप से माफ़ी चाहता हूँ. आप तो वीआईपी हैं और वीआईपी लोगों से हमारा रेट आम लोगों से अलग होता है. आपने चुंगी नाके के मुलाज़िमों के अलावा थाना-इंचार्ज को भी उसकी ड्यूटी करने से रोका है. अब या तो इन सबका एक हज़ार रुपया जुर्माना भरिए या फिर हमको पांच सौ रूपये नज़र कीजिए.’
ट्रक के मालिक की आँखों से चिंगारियां फूटने लगीं. उसने चिल्लाते हुए दरोगा मकबूल हुसेन से कहा –
‘दरोगा जी मैं या तो तुम्हें सस्पेंड करवा दूंगा या तुम्हारी अगली पोस्टिंग काला पानी करवा दूंगा.’
दरोगा मकबूल हुसेन ने कुर्सी पर दुबारा बैठते हुए जवाब दिया –
‘हुज़ूर, अगर एक बार मैंने प्रेस वालों को बुलवा लिया तो आपको यह मामला संभालना बहुत मुश्किल हो जाएगा और कुरैशी साहब की खामख्वाह बदनामी होगी वो अलग !’
ट्रक के मालिक ने अपने ससुर कुरैशी साहब को फ़ोन लगवाया लेकिन वहां से उन्हें यही हुक्म मिला कि वो जैसे भी हो सके, इस मामले को बिना तूल दिए फ़ौरन रफ़ा-दफ़ा करें.
कुरैशी साहब के दामाद समझ गए थे कि रिश्वत के मामले में इस उसूलों वाले दरोगा से जीतना बहुत मुश्किल है. उन्होंने पलक झपकते ही पांच सौ रूपये दरोगा जी को नज़र किए और अपना ट्रक बिना किसी लिखा-पढ़ी के छुड़वा लिया.

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय

बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय -
बाराबंकी में मैंने क्लास टेंथ से लेकर क्लास ट्वेल्थ तक की पढ़ाई की थी. इंटर में हमको श्री सनत्कुमार मिश्रा हिंदी पढ़ाते थे. मैंने अपनी ज़िंदगी में मिश्रा मास्साब सा खुश मिजाज़, ज़िन्दा दिल और दूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार इंसान कोई और नहीं देखा. मिश्रा मास्साब में कबीर का सा फक्कड़पन था और ‘संतोषम् परं सुखं’ का सिद्धांत उनके जीवन का मूल-मंत्र था.
मिश्रा मास्साब का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था लेकिन उनके पिताजी शिक्षित थे और स्थानीय प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे. मिश्रा मास्साब ने बचपन से पैसे की किल्लत तो देखी थी लेकिन उन्हें खाने-पीने की कभी कोई कमी नहीं रही थी. उनके अपने शब्दों में –
‘हमारे बाबूजी की दशा, ‘गोदान’ के होरी से बहुत अच्छी थी और मेरे अपने हालात उसके बेटे गोबर से, कहीं बेहतर थे.’
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी. ए., एम. ए. और एल. टी. करते समय संतू आधा दर्जन लड़कों के साथ एक दर्बे में रहता था जहाँ कि बारी-बारी से सब लोग खाना बनाते थे और बर्तन मांजते थे. इसके अलावा चूल्हे की लकड़ियाँ खरीदनी न पड़ें, इसलिए आस-पास के बागों में चोरी-चोरी लकड़हारे की भूमिका निभाना उसके कामों में शामिल था.
बाबूजी को अपनी दो बेटियों की शादी निबटानी थी इसलिए उनके पास अपने संतू को यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए पैसे थोड़े कम पड़ते थे. अपने लिए बाकी ज़रूरी पैसों का जुगाड़ उनका लाड़ला ट्यूशन कर के पूरा कर लेता था.
अपने बाबूजी पर बिना ज़्यादा बोझ डाले संतू ने न सिर्फ़ हर बार अच्छे अंक लाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर ली बल्कि पढ़ाई करने के तीन महीने बाद ही वह एल. टी. ग्रेड में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में अध्यापक भी हो गया.
गरीब संतू से एल. टी. ग्रेड का अध्यापक बनने तक की संघर्ष-पूर्ण यात्रा करने के बाद हमारे मिश्रा मास्साब ने कभी बड़े-बड़े ख़्वाब नहीं देखे. वो अपनी स्थिति से संतुष्ट थे. मोटे दहेज के लालच में उनके बाबूजी ने उनकी शादी एक बड़े घर की बिगडैल और कम पढी-लिखी अकेली संतान से करनी चाही थी लेकिन यहाँ बेटे ने बाग़ी होकर गरीब घर की एक सुन्दर और सुशिक्षित कन्या से बिना दहेज़ लिए शादी कर ली.
बाराबंकी जैसे छोटे शहर में सन साठ के दशक के हिसाब से हमारे मिश्रा मास्साब बहुत प्रगतिशील थे. शादी के बाद और एक बेटा हो जाने के बाद भी उन्होंने अपनी पत्नी यानी कि हमारी मिश्रा भाभी की पढ़ाई जारी रक्खी. अपने पारिवारिक दायित्व को देखते हुए उन्होंने अपने परिवार को एक ही बच्चे तक सीमित कर दिया था. हर शाम मिश्रा मास्साब अपने चार साल के बेटे अतुल को अपनी साइकिल पर घुमाते थे और मिश्रा भाभी उनके साथ अपनी अलग साइकिल पर चला करती थीं.
मिश्रा मास्साब को हिंदी साहित्य से बहुत प्यार था. पढ़ाते समय वो साहित्य में इतना डूब जाते थे कि उन्हें हर बार अपना पीरियड बहुत छोटा लगता था. मुझे तो रोज़ उनके क्लास का इंतज़ार रहता था.
मेरे साहित्य प्रेम से मिश्रा मास्साब बहुत प्रभावित रहते थे. उनके घर जाकर मैं अक्सर मिश्र भाभी के हाथों की मठरियां और लड्डू खाते हुए उन से प्रेमचंद की कहानियों और वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों की चर्चा करता था. नरोत्तम दास के ‘सुदामा चरित’ की तो संतू भैया ऐसी व्याख्या करते थे कि मेरी आँखों से बरबस आंसू गिरने लगते थे.
एक तरफ़ संतू भैया का बेटा अतुल हमारी गाय के दूध से बने पेड़ों का दीवाना था और मिश्रा भाभी को हमारी कोठी के जामुन और बेल बहुत पसंद थे तो दूसरी तरफ़ मेरी माँ संतू भैया के गाँव के घर में बने गुड़ और सत्तू की मुरीद थीं. मेरे अलावा संतू भैया के घर में किसी भी विद्यार्थी को इस प्रकार के आदान-प्रदान की अनुमति नहीं थी.
संतू भैया का घर गरीब विद्यार्थियों के लिए हमेशा खुला रहता था. दिन में कम से कम वो दो घंटे विद्या-दान करते थे. हिंदी और संस्कृत के अलावा वो उन्हें थोड़ी बहुत इंग्लिश भी पढ़ा देते थे. विद्या-दान के बाद उनके चेहरे पर जो तृप्ति और संतोष का भाव आता था, वह देखते ही बनता था.
सोलहवें साल में नादानियाँ सर पर चढ़ कर बोलती हैं. हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी प्राप्त कर के मैं ख़ुद को परम ज्ञानी समझने लगा था. अफ़सर के बेटे होने का गुरूर तो पहले से ही था. अब इंटर में पिताजी की पुरानी साइकिल, नई एच. एम. टी. घड़ी और स्टील फ्रेम का धूप का चश्मा पाकर तो मैं आसमान में उड़ने लगा था. मिश्रा नास्साब ने जो कि अब अपने घर में मेरे संतू भैया बन गए थे, मुझे कई बार चेताया था लेकिन मुझ पर तो हीरो बनने का ऐसा खुमार चढ़ा था कि मैंने उनकी इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया.
मिश्रा मास्साब अनिवार्य संस्कृत के क्लास में श्लोक पढ़ा रहे थे –
‘रूप, यौवन सम्पन्ना, विशाल कुल संभवः,
विद्या-हीने न शोभन्ते, निर्गन्धा किंशुका इव.’
मास्साब ने विस्तार से इस श्लोक की व्याख्या की लेकिन मैं क्लास में पीछे की बेंच पर बैठा धूप का चश्मा लगा कर अपनी घड़ी देखने में व्यस्त था. मास्साब ने मुझसे इस श्लोक की व्याख्या करने को कहा तो मैंने उन्हीं से अनुरोध कर दिया कि वो दुबारा इसकी व्याख्या कर दें.
मास्साब ने इस श्लोक की ऐतिहासिक व्याख्या कर दी –
‘कवि कहता है कि गोपेश रूपवान है, युवा है, साइकिल, घड़ी और धूप के चश्मे से सज्जित है, संपन्न है और ऊंचे कुल का है किन्तु हीरो बनने के चक्कर में वह विद्या-हीन हो गया है और पलाश के निर्गंध फूल के समान शोभाहीन हो गया है.’
पूरा क्लास इस व्याख्या को सुनकर मुझ पर हंस रहा था और मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि धरती माता फट जाएं ताकि मैं उसी क्षण उन में समा जाऊं.
उसी शाम मैंने मिश्रा भाभी के हाईकोर्ट में अपराधी संतू भैया की शिकायत कर दी. अपनी सफ़ाई में संतू भैया ने गंभीर होकर मुझे उपदेश दिया –
‘गोपेश ! भगवान ने तुम्हें रूप, अच्छा कुल और अफ़सर के बेटे होने का वरदान दिया है पर इसमें तुम्हारी कोई उपलब्द्धि नहीं है फिर उस पर तुम्हें घमंड करने का क्या अधिकार है? तुम बेकार की बातों में मस्त रहोगे तो कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे. और हाँ, अगर तुमने कुछ हासिल कर लिया तो फलदार पेड़ की तरह बनना जो जितना फलता है, उतना ही झुक जाता है.’
संतू भैया का यह उपदेश आज भी मेरा मार्ग-दर्शन करता है. यह बात और है कि मैं फलदार वृक्ष नहीं बन पाया इसलिए ज़्यादा नम्र-विनम्र होने की मुझे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी.
इंटर करने के बाद मेरा बाराबंकी से नाता टूट गया. लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर होने के बाद एक दोस्त की शादी में मैं बाराबंकी गया तो मेरा पहला काम संतू भैया, मिश्रा भाभी और अतुल से मिलना था. उस भरत-मिलाप का सुख अनिर्वचनीय था. लेकिन पता नहीं क्यों हम सब एक साथ रो रहे थे.
अपने 36 साल से भी अधिक अध्यापन काल में संतू भैया मेरे मार्ग-दर्शक रहे हैं. पठन-पाठन में सुख को खोजना और विद्यार्थियों के कल्याण के प्रति पूर्ण समर्पण भाव का जो मापदंड उन्होंने स्थापित किया था उस तक पहुँचने का सफल-असफल प्रयास करना मेरे जीवन का ध्येय रहा है.
आम तौर पर लोगों का आदर्श कोई बहुत सफल व्यक्ति होता है, जिसका कि समाज में रुतबा हो, जिसके नाम की तूती बजती हो, जिसके दर्जनों खितमतगार और मुसाहिब हों. लेकिन मेरे आदर्श - मिश्रा मास्साब, मेरे संतू भैया हैं जो आज भी मेरी कल्पना में साइकिल पर चलते हुए, मस्ती के साथ नरोत्तम दास के ‘सुदामा चरित’ का कोई पद गुनगुना रहे हैं.

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