मंगलवार, 16 जुलाई 2019

शाकाहार



जैन परिवारों में आम तौर पर शाकाहार जीवन का एक अभिन्न अंग होता है. जैनों में शाकाहार का मतलब होता है बिना लहसुन-प्याज़ का बना भोजन.
पुराने ज़माने में हमारे परिवार की ज़्यादा भक्त किस्म की महिलाएं तो अशुद्धता के भय से बाज़ार से लाया गया कुछ भी पकवान खाती ही नहीं थीं और उन से निचले दर्जे की भक्तिनें अपनी शुद्धता के लिए प्रतिष्ठित हलवाइयों की दुकानों से लाए गए पकवानों के अलावा किसी बाहरी व्यंजन को हाथ भी नहीं लगाती थीं. लेकिन हमारे परिवार के बेचारे मर्द इस तरह के कठोर नियमों का पालन करने में प्रायः असमर्थ हुआ करते थे. पढ़ाई के सिलसिले में उन्हें घर से बाहर रहना पड़ता था और तब जो भी और जैसा भी शाकाहारी भोजन उन्हें मिलता था उसे बिना चूं-चपड़ किए ही उन्हें खाना पड़ता था.
हमारे बाबा गौंडा में डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर और सेक्रेटरी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड थे. अक्सर उन्हें दौरे पर भी जाना होता था. छोटे दौरों में उनकी कार में एक बड़ा सा टिफ़िन साथ हुआ करता था और बड़े दौरों में उनके साथ उनका भक्तनुमा रसोइया साथ जाया करता था.
अपने लिए रसोइए का चयन करने के लिए बाबा की शर्तें बड़ी सख्त हुआ करती थीं. बाबा को एक बार रसोइए की दरकार थी. उनके मित्र डिप्टी कलेक्टर सक्सेना जी ने उनके लिए एक महाराज भेजा.
महाराज से बाबा का पहला सवाल था
बिना लहसुन-प्याज़ का शाकाहारी खाना बना लेते हो?’
महाराज का जवाब था
हुजूर, कानपुर में हम एक ठो जैनी सेठ के यहाँ तीन साल खाना बनाय चुके हैं.
बाबा का दूसरा सवाल था
ख़ुद मांस-अंडा तो नहीं खाते हो?’
महाराज ने हाथ जोड़कर कहा
हम तो कंठी लिए हैं साहेब ! अंडा-मांस कबहूँ नहीं खाया और बिना पूजा-पाठ किए अन्न को भी हम हाथ नाहीं लगात हैं.
बाबा ने फ़रमाया
ठीक है महाराज, तुम कल से ही काम पर लग जाओ. वैसे तुम सबसे अच्छा क्या पका लेते हो?’
महाराज ने शेखी बघारते हुए कहा
अब का, का बताई अरु का, का गिनाई ! रोटी, पराठा, पूरी, सब्जी, दाल-बाटी, चूरमा, लड्डू सब बनाय लेत हैं. और साहेब, पूरे गौंडा में हमतें नीक माछी-भात कौनों नाहीं बनाय सकत है.
बाबा अपना त्रिनेत्र खोलकर दहाड़े
माछी-भात? तू तो ख़ुद को भगत बता रहा था, अब ये माछी-भात कहाँ से आ गया?’
महाराज ने उन्हें समझाया
साहेब, माछी में कौनों दोस नाहीं होत है. बंगाले में तो माछी को जल- तुरई कहत हैं.
अगला दृश्य क़तई अहिंसक नहीं था. जल-तुरई पकाने में निष्णात महाराज आगे-आगे भाग रहे थे और बेंत लिए हुए हमारे बाबा उनके पीछे-पीछे.
महाराज-प्रेषक बेचारे सक्सेना डिप्टी कलेक्टर को भी काफ़ी दिनों तक हमारे बाबा से अपने लिए जान का खतरा बना रहा.
पिताजी ने कानपूर के डी. ए. वी. कॉलेज से बी. ए. किया था. उनके हॉस्टल में शुद्ध शाकाहारी भोजन की उत्तम व्यवस्था थी. लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने एम. ए. इंग्लिश और एलएल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया और हमारे बड़े चाचाजी ने बीएस. सी. में. उन दोनों के हीवेट हॉस्टल में शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था नहीं थी. इसके लिए हमारे बाबा ने उन दोनों के लिए अलग से एक महाराज की व्यवस्था करा दी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बेकारी ने सुरसा जैसा मुंह फाड़ लिया था. पिताजी जैसे इंग्लिश में एम. ए. और साथ में एलएल. बी. के टॉपर को भी मन-पसंद नौकरी नहीं मिल रही थी. आख़िरकार अम्मा और माँ की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने आर्मी में जाने का फ़ैसला कर लिया. शॉर्ट सर्विस कमीशन के लिए उनका तुरंत बुलावा भी आ गया. पिताजी ने इंटरव्यू में अधिकारियों का दिल जीत लिया. जल्द ही पिताजी को नियुक्ति पत्र भेजे जाने की बात भी हो गयी. लेकिन अब पिताजी ने सैनिक अधिकारियों पर एक सवाल दाग दिया
सर, आर्मी मेस में हमारे जैसे वेजीटेरियंस के लिए क्या इंतज़ाम होता है?’
एक अधिकारी ने जवाब दिया
आर्मी मेस में भी वेजीटेरियन फ़ूड बनता है. तुमको इस मामले में फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं है.
अब पिताजी का दूसरा सवाल था
सर, क्या कोई ऐसा मेस भी होता है जिसमें एक्सक्लूसिवली वेजीटेरियन फ़ूड बनता हो? मैं ऐसे मेस में तो खाना खा ही नहीं सकता जहाँ नॉन-वेज बनता हो.
उस ऑफ़िसर ने मुस्कुराते हुए पूछा
नौजवान ! हम तुम्हारा इंटरव्यू ले रहे हैं या तुम हमारा इंटरव्यू ले रहे हो? अगर तुम ऐसे पक्के वेजीटेरियन हो तो फिर आर्मी को अभी से गुड बाय कर दो.
और पिताजी आर्मी को गुड बाय करके खाली हाथ लौट आए.
माँ और पिताजी ने अपनी ज़िंदगी में कभी किसी ऐसी दावत का लुत्फ़ नहीं उठाया जहाँ कि अंडा, मांस, मछली आदि परोसे भी गए हों.
पिताजी जब दौरे पर जाते थे तो घर से मोइन पड़ी ढेर सारी पूड़ियाँ, बेड़मी और अचार साथ ले जाते थे और फिर कहीं भी किसी हलवाई के यहाँ से दही खरीद कर मज़े से सात्विक भोजन कर लिया करते थे.
रायबरेली के जिलाधीश मुर्तज़ा साहब का पिताजी के प्रति बड़ा स्नेह था. होली पर मुर्तज़ा साहब सपत्नीक हमारे घर पधारे और उन्होंने माँ के हाथों बने पकवान का आनंद उठाया. अब जब ईद आई तो माँ-पिताजी को मुबारकबाद देने मुर्तज़ा साहब के यहाँ जाना पड़ा. मुर्तज़ा साहब माँ-पिताजी की मुश्किल समझते थे. उन्होंने उनका स्वागत सिर्फ़ केले, संतरे और अंगूर खिलाकर किया ताकि उन्हें छीलने के लिए उनके घर के चाकू-छुरी का भी इस्तेमाल न हो.
हमारे विद्यार्थी जीवन में हॉस्टल मेस में इतवार के लंच में सामिष भोजन की परंपरा थी. हम लोग उस दिन हॉस्टल मेस का खाना खाते ही नहीं थे. मैं तो इतवार के दिन अमीनाबाद जाकर नेतराम हलवाई की पूरियां खाता था और फिर उन्हें हज़म करने के लिए फ़िल्म देखता था.
माँ-पिताजी लहसुन-प्याज़ पड़े भोजन को सामिष भोजन से कम खतरनाक नहीं समझते थे. हॉस्टल के मेस में हम लोगों को मजबूरन लहसुन-प्याज़ पड़े खाने से ही अपना पेट भरना पड़ता था. माँ तो चाहती थीं कि हम लोग रोज़ अमीनाबाद जाकर नेतराम हलवाई की पूरियां ही उड़ाएं. अब चूंकि हम ऐसा नहीं करते थे तो उनकी दृष्टि में हमारा भ्रष्ट होना तो तय ही था.
मुझे छोड़कर मेरे सभी भाई और मेरी बहन कई साल सपरिवार विदेश में रहे थे. पिताजी को हमेशा यही फ़िक्र रहती थी कि कहीं उनके बच्चे विलायत जाकर खान-पान में भ्रष्ट न हो जाएं. उनके लिए अच्छी बात यह थी कि उनके सभी बच्चे विदेश में भी महा-शाकाहारी बने रहे.
हमारे एक चाचाजी शाकाहारी तो थे लेकिन केक, पेस्ट्री और आइसक्रीम खाते समय ये कभी नहीं पूछते थे कि उनमें अंडा पड़ा है कि नहीं. पिताजी उन्हें खुलेआम भ्रष्ट चटोरा कहा करते थे.
हमारे एक और चाचाजी थे जिन्हें उनके एक दोस्त ने आलू की टिक्की बताकर कबाब खिला दिए थे. खैर, धोखे से कुछ भी खा लेना क्षम्य था लेकिन जब उन कबाब-खोर चाचा जी ने पिताजी के सामने स्वादिष्ट कबाब की शान में कसीदे पढ़ने शुरू किए तो पिताजी ने उनके कान पकड़ कर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया.
घर का सबसे छोटा और सबसे उत्पाती सदस्य होने के कारण मैं पिताजी से भी बहुत लिबर्टी ले लिया करता था. मेरी शादी से पहले माँ-पिताजी अल्मोड़ा आए थे. हम लोग बाहर घूम कर अल्मोड़ा वापस आ रहे थे. रास्ते में गरम पानी पर हमको लंच लेना था. वहां हर भोजनालय में सब्जी-दाल में लहसुन प्याज़ था. एक हलवाई पूरी बना रहा था. साथ में थे आलू के गुटके और ककड़ी का रायता. रायता तो ठीक पर आलू के गुटके में प्याज़-लहसुन पड़ा था. मैंने आलू के गुटकों को पानी से धुलवाकर और उन्हें दुबारा छुंकवा कर, काम-चलाऊ शुद्ध करवा लिया. पिताजी ने अपने मुंह में पहला कौर रखते ही आलू के गुटके रिजेक्ट कर दिए लेकिन माँ ने मेरी बात का भरोसा कर के उन्हें शुद्ध मानकर खा लिया.
बाद में मेरी मक्कारी पकड़ी गयी. पिताजी को बड़ा अफ़सोस हुआ था कि वो तीन साल पहले ही सी. जे. एम. के पद से रिटायर क्यों हो गए. अगर वो उन दिनों भी सी. जे. एम. होते तो उनका और माँ का धर्म भ्रष्ट करने के इल्ज़ाम में मुझे 2-3 साल के लिए तो वो अन्दर करवा ही देते.

2016 में हम पति-पत्नी 12 दिन के पैकेज टूर पर यूरोप गए थे. हमको इंग्लैंड, फ़्रांस, स्विटज़रलैंड और इटली, सब जगह भारतीय भोजनालयों में बिना लहसुन-प्याज़ वाली स्वादिष्ट जैन थाली सर्व की गयी. लेकिन रोम से दिल्ली आते समय वायुयान में हमको जैन-मील के नाम पर एक पाव के साथ उबला पालक, उबली बीन्स और उबले छोले दिए गए. इस से बुरा खाना हमने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं खाया था.

आज खान-पान के मूल्य बदल गए हैं हमारे परिवार के सभी मूल-सदस्य आज भी शाकाहारी हैं लेकिन परिवार में शामिल बहुओं और दामादों के विषय में इस नियम का लागू रह पाना पूरी तरह संभव नहीं है.
मैं यह कल्पना कर के भी काँप जाता हूँ कि हमारे बाबा, पिताजी या माँ आज खान-पान का बदला माहौल देखते तो वो क्या करते?
किस-किसको वो भ्रष्ट कहते, किस-किस चटोरे कबाबखोरे को, उसके कान पकड़ कर, वो उसे अपने घर से बाहर निकालते और किस-किस धोखेबाज़ को अपना धर्म भ्रष्ट करने के इल्ज़ाम में वो जेल भिजवाते?

शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

इमरजेंसी - 3

एक और मीसा-बंदी

25, जून 1975 को इमरजेंसी की घोषणा हुई.  आए दिन सरकार का विरोध करने वालों को 'मीसा (‘मेंटेनेंस ऑफ़ इंडियन सिक्यूरिटी एक्ट’) के तहत गिरफ़्तार कर के जेलों में ठूंसा जा रहा था. मीसा का यह तानाशाही फ़रमान निहायत ही खतरनाक था. इसके अंतर्गत संविधान के अंतर्गत मिले नागरिक अधिकारों की धज्जियाँ उड़ा दी गयी थीं. मीसा के नाम पर बिना किसी वारंट के, किसी को भी, कभी भी, गिरफ्तार किया जा सकता था और गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी ज़मानत कराने का अवसर भी नहीं दिया जाता था.

इंदु बुआ ने खिसकती कुर्सी पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए न्याय-नैतिकता को ताक पर रख कर इमरजेंसी के नाम पर तानाशाही की एक ऐसी अनोखी मिसाल क़ायम की थी जिसने अंग्रेज़ी राज के दमन और अत्याचार की यादों को फिर से ताज़ा कर दिया था.

इमरजेंसी लागू किए जाने के समय पिताजी आज़मगढ़ में चीफ़ जुडिशियल मजिस्ट्रेट थे. पिताजी के कार्यों में जेल का मुआयना करना भी शामिल हुआ करता था. महीने में एक या दो बार वो जिला-कारागार में जाकर वहां की व्यवस्था का आकलन करते थे.
आज़मगढ़ में समाजवादी विचारधारा के अनुयायियों का काफ़ी बोलबाला था. ये लोग इमरजेंसी लागू होने से पहले इंदिरा गाँधी की सरकार का खुलकर विरोध कर रहे थे. ज़ाहिर था कि अब इन पर सरकार का क़हर बरपा होना था. समाजवादी विचारधारा के तमाम छोटे-बड़े नेताओं को मीसा के तहत जेल में डाल दिया गया और फिर वहां उनकी डंडों से जम कर खातिर की गयी.
सरकार का विरोध कर रहे आन्दोलनकारियों पर जेल में किए जा रहे इस अत्याचार की खबर पिताजी तक भी उड़ते-उड़ते पहुँच गयी. पिताजी बिना किसी सूचना के मुआयना करने के लिए जिला-कारागार पहुँच गए. पिताजी को अचानक से अपने सामने देख कर जेलर महोदय की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. पिताजी ने बिना किसी भूमिका बनाए उन से कहा –
तुम्हारी जेल में मीसा के तहत बंद पोलिटिकल प्रिज़नर्स के साथ सख्ती की जाने की बड़ी शिकायतें आ रही हैं. चलो, मुझे उन सबसे मिलवाओ. मैं ख़ुद उन से बात कर के यह पता करूंगा कि तुम लोग उनकी कैसे-कैसे और क्या-क्या खातिर कर रहे हो.
जेलर ने कुछ अटकते हुए, थोड़ा हकलाते हुए, जवाब दिया –
नहीं हुज़ूर ! ऐसी कोई बात नहीं है. आप ख़ुद ही चलकर देख लीजिएगा. बस अभी चाय आती है फिर मैं आपको उन सबसे मिलवाता हूँ.’
पिताजी ने सख्ती से कहा –

चाय मैं घर से पीकर आया हूँ. इस से पहले कि इन मीसा के तहत बंद क़ैदियों तक तुम्हारी पसंद का बयान देने का तुम्हारा कोई पैगाम पहुंचे, मुझे उनसे अभी मिलना है.

जेलर ने आज़िज़ी से कहा –
हुज़ूर, बस 10 मिनट दीजिए.’
लेकिन हुज़ूर थे कि एक सेकंड भी रुके बिना ख़ुद ही मीसा-क़ैदियों की खोलियों की तरफ़ चल पड़े.
इन पोलिटिकल प्रिज़नर्स की दशा बहुत ही दयनीय थी. उनके रहने और खाने-पीने की व्यवस्था देख कर किसी को भी दरबों में मुर्गियां रक्खे जाने की याद आ सकती थी. 

आज़मगढ़ के कोई यादव वक़ील भी इन मीसा-बंदियों में थे. पिताजी उन्हें एक स्थानीय समाजवादी नेता के रूप में थोड़ा-बहुत जानते थे.

यादव साहब के लिए जेल में फ़ाइव-स्टार सुविधाएँ देखकर पिता जी ने जेलर से पूछा –
मिस्टर यादव पर डाके डालने का इल्ज़ाम है या क़त्ल करने का?’
जेलर ने पिताजी का व्यंग्य समझे बिना जवाब दिया –
हुज़ूर, इनको तो शहर में शांति भंग करने के कारण मीसा में बंद किया गया है. ये तो पोलिटिकल प्रिज़नर हैं.
पिताजी ने फिर सवाल दागा –
पोलिटिकल प्रिज़नर्स के साथ क्या इतना बुरा सुलूक किया जाता है? तुमने इनको सोने के लिए कितना बेहूदा बिस्तर दे रक्खा है और पानी वाला घड़ा तो लगता है कि अंग्रेज़ों के ज़माने का है.’   
जेलर जब तक अपनी सफ़ाई में कुछ कहे उस से पहले पिताजी ने यादव जी से कहा –
मिस्टर यादव, जेल में आपको जो भी परेशानी हो वो आप मुझे बताइए और ज़रूरी हो तो जेल-एडमिनिस्ट्रेशन  के खिलाफ़ रिटेन कम्प्लेन कीजिए.

लेकिन जेलर से खौफ़ खाए मिस्टर यादव ने जेल-एडमिनिस्ट्रेशन  के खिलाफ़ कोई रिटेन कम्प्लेन नहीं की.

सहमे हुए जेलर साहब जब पिताजी को जेल के बाहर छोड़ने आए तो पिताजी जाते-जाते उन्हें धमकी दे गए –
इस बार की ही तरह मेरे अगले इंस्पेक्शन की भी तुमको ख़बर नहीं होगी. किसी भी क़ैदी को टार्चर करने का तुमको हक़ नहीं है.

कुछ दिनों बाद पिताजी ने एक बार फिर जिला-कारागार का औचक निरीक्षण किया. इस बार मीसा के तहत बंद क़ैदियों की स्थिति पहले से कहीं बेहतर थी. मीसा-क़ैदी, वक़ील श्री यादव से पिताजी दुबारा मिले. साफ़-सुथरे कमरे  की, नए बिस्तर की और नए पानी के घड़े की सुविधा भोग रहे श्री यादव ने पिताजी को तहे-दिल से शुक्रिया अदा किया.

इस घटना के कुछ महीनों बाद जून, 1976 में पिताजी का तबादला हरदोई हो गया.
देश की राजनीतिक स्थिति बदली. जनवरी 1977, में 19 महीने के ज़ुल्मो-सितम के बाद इमरजेंसी हटा दी गयी  और मार्च, 1977 में लोकसभा चुनाव कराने का निर्णय लिया गया. जनवरी, 1977 में विभिन्न राजनीतिक दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया. फिर इंदिरा गाँधी की सरकार का और ख़ुद इंदिरा गाँधी का क्या हशर हुआ, यह हम सब जानते हैं.
केंद्र में जनता पार्टी की चूंचू का मुरब्बानुमा सरकार बन गयी. उत्तर प्रदेश में कुछ ही दिनों बाद विधान सभा चुनाव में भी कांग्रेस को ज़बर्दस्त शिक़स्त मिली और वहां भी लोकसभा चुनाव की तरह जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला. उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे लेकिन अंत में मुख्यमंत्री पद के लिए डार्क हॉर्स के रूप में एक अप्रत्याशित नाम आया - आज़मगढ़ के समाजवादी नेता श्री रामनरेश यादव का.
मैंने तो रामनरेश यादव का पहले कभी नाम भी नहीं सुना था. लेकिन पिताजी अखबार में नए मुख्यमंत्री की फ़ोटो को बड़े गौर से देख रहे थे. फिर वो एकदम से मेरी तरफ़ मुखातिब होकर बोले –
आज़मगढ़ में मेरे जेल-इंस्पेक्शन का किस्सा क्या तुमको याद है?’
मैं इतिहास का विद्यार्थी तो आसानी से कुछ भूलता ही नहीं था फिर जेलर साहब की छीछालेदर वाला मज़ेदार किस्सा भला कैसे भूल सकता था?
मैंने कहा –
आपने वहां मीसा के तहत बंद क़ैदियों को कुछ फैसिलिटीज़ दिलवाईं थीं.
पिताजी ने मेरी याददाश्त का इम्तहान लिया –

मीसा के तहत क़ैद वह वक़ील कौन था, जिसने मुझे इन फैसिलिटीज़ दिलवाने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया था?’

इस सवाल को सुनते ही मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और मैंने जवाब देने के बजाय पिताजी पर ही एक सवाल दाग दिया –
पिताजी, क्या वो मीसा-बंदी वक़ील, राम नरेश यादव थे?’
पिताजी ने पास में बैठी मेरी माँ को देखकर मुस्कुराते हुए कहा –
तुम्हारा बेटा तो बड़ा स्मार्ट हो गया है.
उसूलों के पक्के मेरे पिताजी ने मुख्यमंत्री से मिलने की कभी कोई ज़रुरत नहीं समझी. पिताजी का मानना था कि उन्होंने एक पोलिटिकल प्रिज़नर को जेल में उसका हक़ दिलवा कर उस पर कोई एहसान नहीं किया था और फिर मुख्यमंत्री से तो उनका वैसे भी कोई सरोकार ही नहीं था, वो तो हाई कोर्ट के अधीन थे.  
एक ओर पिताजी थे जिन्होंने एक मीसा बंदी को, बिना कुछ ख़ास जाने, बिना कुछ ख़ास पहचाने, सिर्फ़ अपने उसूल की खातिर, सिर्फ़ एक न्यायाधीश के फ़र्ज़ की खातिर,  इंदु बुआ के और संजय भैया के, जल्लादों से पंगा लेने की हिम्मत की थी, तो दूसरी तरफ़ हमारे बाबू रामनरेश यादव थे जिन्होंने कि एक घाघ पलटी-मार नेता का असली चरित्र दुनिया के सामने पेश किया था और अपना डूबता राजनीतिक भविष्य फिर से उठाने के लिए कांग्रेस-राज के ज़ुल्मो-सितम भूलकर, कांग्रेस में शामिल होने का फैसला लिया था. इमरजेंसी के हमारे यह जुझारू नायक  सोनिया-मनमोहन राज में मध्य प्रदेश के राज्यपाल भी बने और वहां जग-प्रसिद्द व्यापम काण्ड में लिप्त भी हुए. अंततः अपनी थू-थू करा कर इस दुनिया से वो कूच कर गए.           

मंगलवार, 2 जुलाई 2019

इमरजेंसी - 2

मॉडल जेल -

लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में मेरे सेवा-काल का दूसरा साल था. इमरजेंसी के अत्याचार अपने शबाब पर थे. हर जगह एक अनजाना सा खौफ़ क़ायम था. 'मीसा’ (‘मेंटेनेंस ऑफ़ इंडियन सिक्यूरिटी एक्ट’) के नाम पर पुलिस किसी को भी, कभी भी, पकड़ कर ले जा सकती थी. ‘मीसा’ के अंतर्गत पकड़े जाने के लिए यह भी ज़रूरी नहीं था कि किसी ने देश के खिलाफ़ अथवा सरकार के खिलाफ़ कोई काम किया हो. इंदिरा गाँधी के दरबार में या संजय गाँधी के दरबार में रसूख रखने वाला कोई भी बन्दा अपने किसी भी दुश्मन के खिलाफ़ ‘मीसा’ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करवा कर उसे अनंत काल तक के लिए जेल में डलवा सकता था.

सत्र 1975-76 की परीक्षा के दिन थे. हमारे प्रातः कालीन सत्र के सीनियर सुपरिन्टेन्डेन्ट एग्ज़ाम्स महोदय निहायत खड़ूस किस्म के प्राणी थे. हम नौजवानों के तो वो जन्म-जात शत्रु थे. हमारी छोटी से छोटी गलती या भोली से भोली नादानी पर वो हमको काला पानी की सज़ा दिलवाने के लिए उत्सुक रहते थे. हम नौजवान उनकी पीठ-पीछे उन्हें खड़ूस सर कहा करते थे. एक सुबह अपनी इन्विजिलेशन ड्यूटी पर पहुँचने में मैं 10 मिनट लेट हो गया. मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ते हुए मैंने खड़ूस सर को नमस्कार किया. खड़ूस सर ने मुझे घूरा और फिर मुझसे पूछा –
‘जैसवाल, जेल जाओगे?’

मैंने व्यंग्य भरे लहजे में उन से कहा –

‘सर, ड्यूटी पर 10 मिनट लेट आने पर मुझे जेल भिजवाने की मेहरबानी क्यों? आप मुझे सीधे फांसी पर ही चढ़वा दीजिए.’

मेरी बात सुनकर खड़ूस सर ने रावण-स्टाइल अट्टहास किया फिर मुझ से बड़े प्यार से बोले –

‘तुम्हें फांसी पर चढ़वाने का फ़िलहाल हमारा कोई इरादा नहीं है. हम तो तुम्हें लखनऊ की मॉडल जेल में एग्ज़ाम कंडक्ट कराने की ज़िम्मेदारी सौंप रहे हैं.’

मैंने प्रोटेस्ट करते हुए कहा –

‘सर, मैं तो एग्ज़ाम्स के दौरान यूनिवर्सिटी में कभी रूम-इंचार्ज तक नहीं रहा हूँ. मॉडल जेल में मुझ जैसा नौसिखिया इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी कैसे निभा पाएगा?’

खड़ूस सर ने फ़रमाया –

‘अरे बर्खुरदार ! चिंता करने की कोई बात नहीं है. तुमको तो ‘मीसा’ में बंद एक लड़के का सिर्फ़ एग्ज़ाम कंडक्ट कराना है. वहां का डिप्टी जेलर मेरा स्टूडेंट रहा है. वो बड़ा स्मार्ट है, कैसे और क्या करना है, वो तुमको सब समझा देगा.’

उत्तर-पुस्तिका, प्रश्न-पत्र, इम्तहान से सम्बंधित अन्य ज़रूरी कागज़ात और दो बंदूकधारी कांस्टेबल अपने साथ लेकर, जीपा-रूढ़ जैसवाल साहब मॉडल जेल पहुंचे. डर, उत्सुकता और रोमांच – ये तीनों भाव, उनके दिलो-दिमाग में एक साथ तैर रहे थे.


‘जेल’ शब्द को सुनकर मुझमें कोई खौफ़ पैदा नहीं होना चाहिए था. पिताजी मजिस्ट्रेट थे और वो ख़ुद जेल-इंस्पेक्शन के लिए जाया करते थे. छुट्टी के दिनों में पुलिस द्वारा मुल्ज़िमों को हमारे घर लाया जाता था क्योंकि मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना उन्हें जेल में डाला ही नहीं जा सकता था. लेकिन मैंने ख़ुद कभी अन्दर जाकर जेल नहीं देखी थी और जेल के विषय में मेरी जानकारी का आधार मुख्य रूप से हमारी फ़िल्में ही थीं.

मॉडल जेल में क़ैदियों से मिलने से ज़्यादा उत्सुकता मुझे खड़ूस सर के पूर्व-छात्र इस जेलर से मिलने की थी. व्ही. शांताराम ने फ़िल्म ‘दो आँखें, बारह हाथ’ में गाँधी जी के अनुयायी एक आदर्शवादी जेलर की कहानी दिखाई है और उसमें मॉडल जेल यानी कि मुक्त-कारागार का विचार बड़ी खूबसूरती के साथ विकसित किया है. इस दयावान जेलर के साथ मिलकर खूंखार क़ैदी –

‘ऐ मालिक तेरे बन्दे हम !
ऐसे हों हमारे करम !
नेकी पर चलें और बदी से टलें,
ताकि हँसते हुए निकले दम.’
भजन, कितनी ख़ूबसूरती से गाते हैं !

वैसे मैं मनोज कुमार की फ़िल्म ‘शहीद’ के क्रूर जेलर और ‘बंदिनी’, ‘आशीर्वाद’ और ‘आराधना’ के रहमदिल जेलरों से भी परिचित हो चुका था.

लेकिन मॉडल जेल का हमारा नौजवान डिप्टी जेलर इन फ़िल्मी जेलरों से बिल्कुल अलग टाइप का था –

स्मार्ट, मिलनसार, जोश से भरा हुआ, गालियों का तड़का लगाकर, आँख मारते हुए अश्लील चुटकुले सुनाने वाला
औपचारिक परिचय होने के दस मिनट बाद ही वह मेरा दोस्त बन गया.

अब अपने एकमात्र परीक्षार्थी से मुझको मिलना था. डिप्टी जेलर ने बताया कि ‘मीसा’ के अंतर्गत क़ैद किया गया हमारा परीक्षार्थी एक नामी कांग्रेस-विरोधी गुंडा है. परीक्षार्थी के लिए – ‘नामी गुंडा’ शब्द सुनते ही मैं उसका इशारा समझ गया कि मुझे इन्विजिलेशन करते समय इस नामी गुंडे के साथ कितनी सख्ती बरतनी है.

बेतक़ल्लुफ़ परीक्षार्थी ने उत्तर-पुस्तिका और फिर प्रश्न-पत्र प्राप्त कर मेरे ही सामने दो मोटी-मोटी किताबें कंसल्ट करते हुए उत्तर लिखने प्रारंभ कर दिए. मैं हक्का-बक्का होकर कभी परीक्षार्थी को तो कभी अपने नए दोस्त बने जेलर को देखने लगा.

इस नज़ारे को देखकर जेलर मुस्कुरा कर मुझसे बोला –

‘गुरु जी, इन्हें हम शांति से अपना काम करने देते हैं. तीन घंटे बाद इन से कॉपी लेकर जमा कर लेंगे. आइए तब तक मैं आपको मॉडल जेल दिखाता हूँ.’

मैंने प्रतिवाद करते हुए कहा –

‘मुझे तो तीनों घंटे इन्हीं के साथ इसी कमरे में रहना होगा. मैं इन्हें छोड़ कर कैसे बाहर जा सकता हूँ?’


जेलर महोदय ने मुझे आगाह किया –

‘हमारे इन दोस्त को इम्तहान देते हुए इनविजिलेटर का सर पर खड़े रहना बिल्कुल भी पसंद नहीं है. काहे को बिना बात आप इन से पंगा लेंगे? क्या पता, इमरजेंसी ख़त्म होते ही अगले चुनाव हों और उन में जीतकर ये नई सरकार में मंत्री हो जाएं ! बाहर चलिए. हम आपको पहले बढ़िया नाश्ता कराएँगे फिर जेल घुमाएँगे और क़ैदियों से मिलवाएँगे.’

जेलर मुझे अपने कमरे में ले गया. कुछ देर बाद एक क़ैदी एक बड़ी सी ट्रे में नाश्ते का सामान लेकर आ गया - आलू के पराठे, चटनी, अचार, ब्रेड, मक्खन, जैम, जलेबी और एक बड़े टी पॉट में चाय !

मैंने हँसते हुए डिप्टी जेलर से कहा – ‘दोस्त ! अगर जेल में ऐसी खातिर होती है तो फिर यहाँ के लिए मेरी एक सीट आप आज ही बुक कर दीजिए.’

जेलर ने जवाब दिया –

‘आप जैसे दोस्तों के लिए तो जान हाज़िर है. वैसे यहाँ आम क़ैदी की खातिर तो लाठी-डंडों से ही की जाती है.’

हमको नाश्ता सर्व करने वाला किस्सागो टाइप क़ैदी फ़िल्म ‘आशीर्वाद’ में उम्र क़ैद की सज़ा भुगत रहे जोगी ठाकुर (अशोक कुमार) जैसा पढ़ा-लिखा था. अपने किस्सों के बीच श्री रामचरित मानस की चौपाइयाँ सुनाना उसकी आदत में शुमार था. बातें करते हुए वह बड़े प्यार से मेरे लिए स्लाइस पर मक्खन-जैम भी लगा रहा था. मेरे पूछने पर उसने बताया कि दो क़त्ल करने के अपराध में उसे आजन्म कारावास हुआ था. जेल-प्रवास के दौरान अपने अच्छे चाल-चलन की वजह से उसे मॉडल जेल में स्थानांतरित किया गया था.

मैं मन ही मन काँप-काँप कर सोच रहा था –

‘हे भगवान ! जिस शख्स ने गंडासे से अपने दो दुश्मनों की गर्दनें उनके धड़ से अलग कर दी थीं, आज वह मुझे प्यार से ब्रेड-मक्खन खिला रहा है ! मेरे मुंह से कुछ उल्टा-सीधा निकल गया तो इस गब्बर के कोप से मुझे कौन बचाएगा?’

लेकिन ट्रे में रक्खा हर सामान बहुत लज़ीज़ था और सबसे बड़ी बात यह थी कि वह मुफ़्त का था. इसलिए जान का खतरा होते हुए भी उसका आनंद तो उठाना ही था.

हमारी सेवा कर के जब वह रामभक्त किस्सागो हमसे विदा हो लिया तो मैंने पराठे-जलेबी डकार कर, चाय का घूँट लेते हुए जेलर से पूछा –

‘क्या मॉडल जेल में हमारे इन किस्सागो मित्र की तरह के ख़तरनाक क़ैदी भी रक्खे जाते हैं?’

जेलर ने जवाब दिया –

यहाँ कुछ पोलिटिकल प्रिज़नर्स भी हैं लेकिन ज़्यादातर दफ़ा 307 और दफ़ा 302 के उम्र-क़ैद वाले मुजरिम ही हैं.’
मैंने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए पूछा –
‘इन खतरनाक क़ैदियों को आप जेल के अन्दर खुला कैसे छोड़ देते हैं?’
जेलर ने मेरे सवाल का जवाब दिया –
‘हम इन्हें सिर्फ़ जेल में खुला नहीं छोड़ते. ये हमको बताकर जेल से बाहर भी चले जाते हैं और फिर ख़ुद ही लौट भी आते हैं.’

वाक़ई यह एक अजीब बात थी कि इस मॉडल जेल की चहारदीवारी के अंदर क़ैदियों को स्वतंत्रतापूर्वक घूमन-फिरने की सुविधा के अतिरिक्त भी बहुत सी सुविधाएँ प्राप्त थीं. इनमें से बहुत सी तो ऐसी थीं जो कि हम जैसे आम गुरुजन को खुले आकाश के तले भी नसीब नहीं थीं.

मॉडल जेल की लाइब्रेरी शानदार थी. वहां के मनोरंजन कक्ष में टीवी था जब कि लखनऊ के आम घरों में अभी टीवी नहीं पहुंचा था. वॉलीबॉल, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि अनेक इंडोर-आउटडोर खेलों की वहां सुविधा थी. क़ैदियों की अपनी नाट्यशाला थी. वहां का किचिन भी हमारे छात्रावास के मेस से कहीं अधिक साफ़-सुथरा था और वहां का भोजन भी हमको मिलने वाले भोजन से बहुत बेहतर था.

तीन घंटे के बजाय हमारे ‘मीसा’ बंदी परीक्षार्थी ने साढ़े तीन घंटों में अपना काम पूरा किया. यूनिवर्सिटी से सुबह सात बजे का निकला मैं, बारह बजे के बाद वहां वापस पहुंच पाया. लेकिन इस पांच घंटे से भी अधिक लम्बी ड्यूटी से मुझे कोई शिकायत नहीं थी. शिकायत तो बाद में मुझे अपने खड़ूस सर से हुई थी जिन्होंने मुझे फिर कभी इन्विजिलेशन ड्यूटी के लिए मॉडल जेल नहीं भेजा.

मेरी जेल-यात्रा बड़ी सुखद रही. मेरे नाम में भगवान श्री कृष्ण के दो नाम – ‘गोपेश’ और ‘मोहन’ आते हैं. जब श्री कृष्ण का जन्म जेल में हो सकता है तो उनके नामाराशी इस भक्त को जेल-यात्रा में क्या कष्ट हो सकता है?

मैं सोच रहा था कि इंदिरा गाँधी या संजय गाँधी की शान के खिलाफ़ ऐसा क्या ड्रामा किया जाए कि ‘मीसा’ के अंतर्गत मुझे भी मॉडल जेल में इन तमाम सुविधाओं का उपभोग करने के लिए बंद कर दिया जाए. इमरजेंसी की चांडाल चौकड़ी के खिलाफ़ जन-आक्रोश तो जल्द ही ज्वालामुखी की तरह फटने वाला है. और इमरजेंसी के विरोधियों के सितारे जल्द ही बुलंद होने वाले हैं. सरकार को कभी न कभी तो इमरजेंसी हटानी ही पड़ेगी और फिर चुनाव तो होने ही होने हैं. ‘मीसा-बंदी’ का तमगा लगाकर अगर मैं चुनाव में खड़ा हो गया और फिर एम. एल. ए. या एम. पी. का चुनाव जीत गया तो इंदिरा-विरोधी सरकार के गठन की स्थिति में मैं उत्तर प्रदेश सरकार में या केंद्र सरकार में मंत्री का ओहदा भी पा सकता हूँ.लेकिन इन ख़याली घोड़े दौड़ाते हुए मेरे ज़हन में एक खौफ़ भी चौकड़ी भर रहा था-

अगर ‘मीसा’ के तहत बंद कर के मुझे कहीं इस सुविधा-युक्त मॉडल जेल न भेज कर किसी डरावनी अंधेरी गुफ़ा जैसी खौफ़नाक जेल में भेज दिया गया और यहाँ के दोस्त जेलर की तरह वहां का जेलर मुझ पर मेहरबान नहीं हुआ तो मेरा क्या हशर होगा, और वहां रुचिकर व्यंजनों के स्थान पर अगर मुझे सिर्फ़ लाठी-डंडे परोसे गए तो???? लाख कोशिशों के बावजूद मैं इन सबकी कल्पना करने की हिम्मत ख़ुद में जुटा नहीं पा रहा था.