सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

मोरारजी भाई

आज मोरारजी भाई का 120 वां जन्मदिन है. उन्हें सादर प्रणाम. 
मूत्र-चिकित्सा के पक्षधर और भारत में 14 कैरेट के स्वर्णाभूषणों के जन्मदाता, भोजन में अन्न के त्यागी किन्तु दूध, मेवे तथा फलों के अनुरागी, मोरारजी भाई अपनी हठवादिता और गाँधीवादी उसूलों (अपने बेटे कांति भाई के कारनामों की अनदेखी करने की कमज़ोरी को छोड़कर) के लिए प्रसिद्द हैं. मोरारजी भाई जब वृहत्तर बम्बई प्रान्त के मुख्यमंत्री थे तो उनके पास सरकारी कर्मचारी वाहन भत्ते की मांग लेकर गए. मोरारजी भाई ने उन्हें टहलकर ऑफिस तक आने-जाने की सलाह दी. जब कर्मचारियों ने घर से ऑफिस की ज़्यादा दूरी का हवाला दिया तो उन्होंने कहा 
'वाहन भत्ता तो आपको नहीं मिलेगा पर मैं आप सबको सरकार की ओर से मुफ़्त साइकिल दिला सकता हूँ.

1969 में राष्ट्रपति के चुनाव में मतभेद के बाद मोरारजी भाई इंदिरा गाँधी के विरोधी खेमे का नेतृत्व कर रहे थे.1971 के आम चुनाव से पहले मोरारजी भाई झाँसी के सर्किट हाउस में ठहरे थे जो कि हमारे बुंदेलखंड कॉलेज के बहुत नज़दीक था. हम बी. ए. द्वितीय वर्ष के आधा दर्जन छात्र उन्हें देखने सर्किट हाउस के गेट पर खड़े हो गए. हमको देखकर दो आदमी हमारी तरफ़ लपके तो हम खिसकने लगेपर यह क्याउन दोनों ने प्यार से हमको रोका और फिर वो हमको लॉन में बैठे मोरारजी भाई से मिलाने के लिए ले गए. मिनट की इस संक्षिप्त भेंट में मोरारजी भाई द्वारा विद्यार्थियों के नाम सन्देश का एक हर्फ़ भी मुझको याद नहीं है पर यह याद है कि उनके साथ हमने समोसेमिठाई और चाय का रसास्वादन किया था. यह बात और है कि मोरारजी भाई का नमक खाकर भी हम कभी भी उनके सगे न हुए. वैसे नमक का हक़ अदा किये बिना (स्मृति ईरानी सहित) देश के हर नेता-नेत्री से मैं ऐसी संक्षिप्त भेंट करने को तैयार हूँ.

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

रे गंधी मति अंध तू

बिहारी का एक दोहा है –
‘कर फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहि,
रे गंधी मति अंध तू, इतर दिखावत काहि?’
(एक इत्र बेचने वाला, एक सज्जन को इत्र की फ़ुलेल देता है, जिसको कि कान के पीछे लगाया जाता है, वह सज्जन उस इत्र की फ़ुलेल को खाकर, उसे मीठा बताकर उसकी सराहना करते हैं. कवि इत्र बेचने वाले की भर्त्सना करते हुए उससे पूछता है – अरे अक्ल के अंधे इत्र-फ़रोश, तू किसे इत्र दिखा रहा है? अर्थात, सुपात्र के समक्ष ही अपनी बात कहनी चाहिए.)
इस दोहे की पृष्ठभूमि में मुझे अपने दो विद्वान साहित्य-मर्मज्ञ मित्रों की याद आ गई है.
वाणिज्य संकाय में एंट्रीप्रीन्योरशिप पर आयोजित एक सेमिनार के बाद हो रहे एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का मैं संचालन कर रहा था. इस में ‘हम होंगे कामयाब’ का गायन भी हुआ. मेरे एक विद्वान मित्र इसको सुनकर आयोजकों पर और मुझ पर आगबबूला हो गए. समारोह के बाद उन्होंने मुझे फटकारते हुए कहा-
‘मिस्टर साहित्य प्रेमी, तुम्हारे रहते हुए इस एंट्रीप्रीन्योरशिप पर हो रही सेमिनार में ‘जाने भी दो यारो’ फ़िल्म का गाना कैसे गा दिया गया?’
अकबर इलाहाबादी मेरे सबसे प्रिय शायर हैं. वक़्त, बेवक्त मैं उनके अशआर उदधृत करता रहता हूँ. एक बार मैंने मित्रों को ग्रामोफ़ोन पर कहा गया अकबर इलाहाबादी का यह शेर सुनाया –
‘भरते हैं मेरी आह को वो ग्रामोफ़ोन में,
कहते हैं, आह कीजिए और दाम लीजिए.’
मेरे मित्र जो कि मध्यकालीन इतिहास के प्रसिद्द विद्वान हैं, उन्होंने मुझे मेरे इतिहास विषयक अज्ञान के लिए झिड़कर मुझे दुरुस्त करते हुए कहा –

‘जैसवाल साहब, अकबर को इलाहाबाद का नहीं, आगरा और फ़तेहपुर सीकरी का कहिए. एक बात और बता दूँ – अकबर के ज़माने तक ग्रामोफ़ोन का आविष्कार हुआ ही नहीं था.’                

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

नपुंसक कौन?

नपुंसक कौन?
अल्मोड़ा में, हमारे पड़ौस में एक परिवार रहता था. अंकल, आंटी और उनके दो बेटे. बड़ा बेटा जो कि काफ़ी शरीफ और तमीज़दार था, वो किसी संस्थान में क्लर्क था और छोटे गंजेड़ी, भंगेड़ी साहबज़ादे परम निखट्टू थे. अंकल आंटी की एक बेटी थी, जो कि अमेरिका में सेटल थी. बड़े बेटे की शादी हो चुकी थी लेकिन आंटी के विस्तृत वृतांत के अनुसार उनकी बहू का शादी से पहले ही किसी से अफ़ेयर था, इसलिए वो उनके सोने जैसे सपूत को हमेशा के लिए छोड़कर चली गयी थी और जाते-जाते उन्हें दो लाख रुपयों की चोट भी पहुंचा गयी थी.
हमारे कुछ और पड़ौसी दबी-दबी ज़ुबान में इस सोने जैसे सपूत को नपुंसक बताते थे. अंकल-आंटी के पड़ौसियों के अनुसार इस बहू द्वारा अपनी ससुराल वालों को चोट पहुँचाने की बात सही थी लेकिन इसको वह आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट बताते थे जो कि अंकल-आंटी की अमेरिका वासी बेटी ने बहू के घर वालों को दो लाख रूपये देकर कराया था. आंटी अक्सर अपने लड़के के बारे में झूठी अफवाहें उड़ाने वालों से हम लोगों को सावधान करती रहती थीं पर मुझे पड़ौसियों की इस कहानी में दम दिखाई देता था . अंकल-आंटी के बड़े सपूत थे ही ऐसे ही-मैन. तीस-पैंतीस किलो का यह बांका नौजवान अपने संस्थान से लौटते समय अपना छोटा सा बैग भी ऐसे कराहते और हाँफ़ते हुए लाता था जैसे वह कोई पहाड़ उठाकर ला रहा हो. बेचारी आंटी अपने सपूत को नाश्ते में रोजाना एक दर्जन बादाम घिसकर खिलाती थी, मलाईदार दूध भी देती थी पर भैयाजी सूखे छुआरे के सूखे छुआरे ही रहे आए, उनकी सेहत में कभी भी कोई सुधार नहीं हो पाया.
अंकल अपने बड़े बेटे की दूसरी शादी कराने के मामले में बिलकुल उदासीन थे पर आंटी अपने कमाऊ सपूत का घर दुबारा बसाने के लिए जी-जान से कोशिश कर रही थीं. पहली बहू से ठोकर और धोखा खा चुकी आंटी इस बार किसी सुकन्या को बिना-दान दहेज़ के अपनी बहू बनाने को तैयार थीं. आख़िर उनकी कोशिश रंग लाई और उनके सपूत की दुबारा शादी हो गयी. हम बरात में तो नहीं गए पर हमने भी नयी बहू के शुभागमन पर दी जाने वाली दावत का लुत्फ़ उठाया. नयी बहू सुन्दर, बहुत ही ज़िन्दा दिल और मिलनसार थी. अपनी सासू माँ के लाख रोकने पर भी वो रोज़ाना हमारे घर आ जाया करती थी. मेरी श्रीमतीजी की तो वह मुंह-बोली भतीजी बन गयी थी. पर कुछ दिनों बाद नयी बहू का हमारे घर आना बंद हो गया यहाँ तक कि वो अपने घर से बाहर भी दिखाई नहीं पडी. मेरी श्रीमतीजी ने आंटी से इस बदलाव का कारण पूछा तो उन्होंने टालमटोल जवाब देकर बात ख़त्म कर दी. अब आए दिन अंकल-आंटी के घर से रोने-चिल्लाने की आवाज़ें भी आने लगीं. मोहल्ले में अफ़वाह का बाज़ार फिर गर्म हुआ कि नयी बहू भी पुरानी बहू की तरह अपने नपुंसक पति को छोड़कर अपने मायके वापस जाना चाहती है.
एक दिन रोती-चीखती नयी बहू भागकर हमारे घर आ गयी और मेरी श्रीमतीजी से प्रार्थना करने लगी कि वो मुझसे कहकर उसे उसके मायके भिजवा दे. नयी बहू ने अपने पति को नपुंसक तो बताया ही, साथ ही साथ आंटी पर उसने यह भी इल्ज़ाम लगाया कि वो चाहती हैं कि वह (नयी बहू) अपने देवर से सम्बन्ध स्थापित कर ले और उनके बड़े बेटे की नपुंसकता की बात किसी से नहीं कहे. इस प्रस्ताव का विरोध करने पर उसको घर में ही क़ैद होने के अलावा अपनी सास और देवर की रोज़ाना मार भी खानी पड़ रही थी. रहम दिल ससुर की बदौलत उसे रूखा-सूखा खाना ज़रूर मिल रहा था पर वो भी मार-पीट की डोज़ खाने के बाद.
अब तक आंटी हमारे घर आकर मुझे और मेरी श्रीमतीजी को डांटने-फटकारने के लिए पहुँच चुकी थीं. उनका धमकी भरा सन्देश था कि हम परदेसी लोग उनके घरेलू मामले में कोई टांग न अड़ाएं और चुपचाप उनकी कुल्टा बहू को उनके हवाले कर दें. बेचारी बहू के चेहरे से खून बहता देखकर मैं आग-बबूला होकर आंटी का हुक्म मानने से इंकार कर रहा था. हल्ला सुनकर कई पड़ौसी भी जमा हो गए थे जिन में से दो-चार मुझसे आंटी की बात मान लेने के लिए मुझ पर ज़ोर भी दे रहे थे. मैंने उनसे दृढ़ता से कहा –
‘ये लड़की इन ज़ालिम लोगों से अपनी जान बचाकर मेरे घर आई है अब तो मैं पुलिस बुलाकर ही इस मामले का निबटारा करवाऊंगा. ये लोग इसकी मर्ज़ी के बगैर इसे ज़बरदस्ती अपने घर नहीं रख सकते हैं.’
पुलिस बुलाने की मेरी धमकी कारगर रही. मेरे विरोधियों की भीड़ छटने लगी और मुझे धमकी देने वाली आंटी अब मेरे हाथ-पैर जोड़ने लगीं. पुलिस नहीं बुलाई गयी लेकिन आंटी और उनका छोटा सपूत नयी बहू की इच्छानुसार अल्मोड़ा में ही रह रहे उसके किसी रिश्तेदार के यहाँ उसे भेजने को तैयार हो गए. फ़ोन किये जाने के एक घंटे ही बाद नयी बहू के रिश्तेदार आकर उसे अपने घर ले गए.
इस दुखद अध्याय का अंत पिछली कहानी की ही तरह हुआ. अंकल-आंटी की अमेरिका वासी सुपुत्री ने अल्मोड़ा आकर अपनी इस नयी भाभी के घर वालों को भी पहली भाभी के घर वालों की तरह ही एक मोटी सी रकम देकर मामला रफा-दफ़ा कराया.
इस प्रसंग के बाद मैं मोहल्ले का नायक और खलनायक दोनों ही एक साथ बन गया. मेरी श्रीमतीजी को भी अपने टांग-अड़ाऊ पतिदेव के खिलाफ़ काफ़ी कुछ सुनना पड़ा. उस भोली सी, मासूम सी, निरीह लड़की की आँखों में कृतज्ञता का भाव देखकर मुझे यही लगा कि मैंने कोई गुनाह नहीं किया.
इस घटना के बाद आंटी ने अपने ही-मैन पुत्र की तीसरी शादी करने की फिर कोई कोशिश नहीं की.  
इस प्रसंग से यह तो सिद्ध हो गया कि अंकल-आंटी का बड़ा सपूत नपुंसक था. पर मेरा अपने पाठकों से और समाज से एक प्रश्न है –

‘क्या शारीरिक दृष्टि से असमर्थ वह लड़का ही नपुंसक था? अपनी बहू की बेबसी पर तरस खाने वाले लेकिन पूर्णतया निष्क्रिय अंकल को, दुष्ट आंटी का समर्थन करने वालों को और मेरा विरोध करने वाले समाज के गण्यमान नागरिकों को भी मैं नपुंसक न कहूं तो और क्या कहूं?’                                  

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

नेताजी उवाच

मुल्क मेरी मिल्कियत, कुर्सी मेरा ईमान है,
हिर्सो-नफरत दीन तो, मेरा खुदा शैतान है.
लोग मुझको बे-वजह, कहते हैं क्यूँ सोज़े-जहाँ,
बस्तियां ही तो जलीं, गुलज़ार हर श्मशान है.

(मिल्कियत – संपत्ति, हिर्सो-नफरत – ईर्ष्या और घृणा, सोज़े-जहाँ – दुनिया को आग लगाने वाला)  

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

गुनाहों का देवता

गुनाहों का देवता –
धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ हिंदी साहित्य का अब तक का सबसे रूमानी उपन्यास है. इस उपन्यास को पढ़कर न जाने कितनों ने रोमांस करना सीखा होगा. आश्चर्य की बात है कि इस उपन्यास पर अब तक कोई फ़िल्म नहीं बनी है. रोमांटिक फ़िल्में बनाने के लिए विख्यात स्वर्गीय यश चोपड़ा से तो हमको यह आशा अवश्य थी कि वो इस पर कोई फ़िल्म बनायेंगे पर पता नहीं क्यूँ यशजी ने इस पर फ़िल्म बनाने का विचार ही नहीं किया.
सन साठ के दशक में एक सफल फ़िल्म निर्माता, धर्मवीर भारती के पास ‘गुनाहों का देवता’ पर फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव लेकर पहुंचे. वो इसके लिए भारतीजी को एक मोटी रकम देने के लिए भी तैयार थे. भारतीजी ने हामी भरने से पहले पूछ लिया –
‘आपने अब तक कौन-कौन सी फ़िल्में बनाई हैं?’
फ़िल्म निर्माता ने जवाब दिया –
‘अजी, बड़ी हिट फ़िल्में बनाई हैं. आपने ‘काली टोपी लाल रूमाल’ फ़िल्म तो देखी होगी. वो इस खाकसार ने ही बनाई है.’
भारतीजी ने उन फ़िल्म निर्माता से आगे कोई बात ही नहीं की. लेकिन किस्सा यहाँ ख़त्म नहीं हुआ. उन फ़िल्म निर्माता ने ‘गुनाहों का देवता’ नाम से फ़िल्म बनाई जिसमें उन्होंने जीतेंद्र और राज श्री जैसे महान कलाकारों को लिया था. फ़िल्म के टाइटल से भ्रमित होकर पता नहीं कितने अभागे इस फ़िल्म को देखने पहुँच गए थे.
‘गुनाहों का देवता’ की कहानी पर अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी को लेकर ‘एक था चंदर, एक थी सुधा’ फ़िल्म की कुछ शूटिंग इलाहाबाद में हुई भी थी पर दुर्भाग्य से यह फ़िल्म पूरी नहीं बन पाई.

आज गुलज़ार या उनकी जैसी समझ वाला कोई निर्माता, निर्देशक इस महान उपन्यास पर ईमानदारी से फ़िल्म बनाये तो मारधाड़, फूहड़ रोमांस और बे सिर-पैर की कामेडी पर बनी फ़िल्मों से फैला प्रदूषण कुछ कम हो सकता है.

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

फैज़ साहब से क्षमा याचना के साथ

मौजूदा हालात के मद्देनज़र और जैसवाल साहब की सलाह मानकर, फैज़ अहमद फैज़ द्वारा अपनी मकबूल नज़्म में एक शेर का इज़ाफ़ा –
‘ऐसी महंगाई में, होटल में भला, क्यूँ जाएं?
यहीं नज़दीक की, मशहूर चाट, खा आएं.   

मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरे मेहबूब न मांग --------’

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

संशोधित शेर

मीर तक़ी मीर ने कहा था –
‘पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने, गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है.
आजकल के हालात बयान करने के लिए इसमें कुछ अलफ़ाज़ तब्दील कर दिए गए हैं –
‘पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है,

फॉरेन हैण्ड, विपक्षी साज़िश, बस दो यही, बहाने हैं.’

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

विरह वेदना

विरह वेदना –
हफ़ीज़ जालंधरी का एक मक़बूल शेर है –
‘क्यूँ हिज्र के नाले रोता है, क्यूँ दर्द के शिक़वे करता है,
जब इश्क किया तो सब्र भी कर, इसमें तो सभी कुछ, होता है.’     
(हिज्र – विरह, नाले रोता है - आर्तनाद करता है)
अब इस शेर को पृष्ठभूमि में रखकर एक लघु कथा सुनिए.
मेरे एक मित्र सबके सामने अपनी श्रीमतीजी से बे-इन्तहा प्यार करने का दावा किया करते थे लेकिन खुद ही उनको उनकी मर्ज़ी के खिलाफ अपने मायके जाने के लिए प्रेरित करते रहते थे. आम तौर पर सावन के महीने में भाई को, अपनी बहन, उसकी ससुराल से उसके मायके लाने के लिए भेजा जाता है. हमारे मित्र के साले साहब भी सावन में अपनी दीदी को लेने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे और अगर किसी कारण से वो न आ पाएं तो खुद हमारे मित्र ही अपनी श्रीमतीजी को उनके मायके छोड़ आते थे. मित्र की श्रीमतीजी बार-बार उन्हें वापस ले जाने के लिए फ़ोन करती रहती थीं लेकिन हमारे मित्र दीपावली से पहले पत्नी-मिलन के लिए तैयार ही नहीं होते थे. तीज, रक्षा बंधन, दशहरा, करवा चौथ, दीपावली, भैया दूज और छठ, इन सभी त्योहारों के अवसर पर प्राप्त उपहारों का पुलिंदा लेकर जब हमारा मित्र परिवार अपने घर लौटता था तो उसे अपना सामान उठवाने के लिए कम से कम दो-तीन मेटों (कुलियों) की ज़रुरत पड़ती थी.
इस चार महीने के विरह काल में हमारे मित्र इतना पैसा अवश्य बचा लेते थे कि वो या तो एक मोटा सा फिक्स्ड डिपोज़िट बनवा लें या फिर घर के लिए फ्रिज, टीवी या वाशिंग मशीन जैसा कोई बड़ा आइटम ले लें. मज़े की बात यह थी कि इस वार्षिक विरह के चार महीनों में हमारे मित्र जहाँ भी जाते तो अपनी विरह वेदना का दर्द सबके साथ बांटा करते थे. मेरी भी कई शाम उनका बिरहा सुनने में बीता करती थीं. एक बार आदतन जब वो मुझे अपना बिरहा सुना रहे थे तो मैंने हफ़ीज़ जालंधरी के उपरोक्त शेर को किंचित परिवर्तित करके उन्हें सांत्वना देते हुए कहा -                  
‘क्यूँ हिज्र के नाले रोता है, क्यूँ दर्द के शिक़वे करता है,

बीबी मैके भिजवाने से, खर्चा भी तो कम, होता है.’      

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

दौरे-जवानी

दौरे-जवानी -
ठीक-ठाक घर में रहने का सुख तब मिला जब बच्चे बाहर सेटल हो गए, कार तब आई जब उसकी सवारी करने के लिए सिर्फ हम पति-पत्नी रह गए. भारत भ्रमण और एकाद बार विदेश भ्रमण करने की औक़ात तब हुई है जब कि सफ़र (उर्दू का) करना सफ़रिंग में तब्दील हो गया है . कहते हैं कि इतिहास (उर्दू में तारीख़) खुद को दोहराता है. लेकिन इसको ग़लत बताते हुए एक शायर कहता है –
‘झूठ है कि तारीख़ हमेशा, अपने को दोहराती है,
अच्छा मेरा दौरे जवानी, थोड़ा सा दोहराए तो.’

आज से दस दिन बाद, दो दिन के लिए लखनऊ जा रहा हूँ. वहां मौक़ा मिला तो नक्खास (कबाड़ का सबसे बड़ा बाज़ार) जाकर एच. जी. वेल्स की किसी टाइम मशीन को खोजने की कोशिश करूँगा. उसकी मदद से शायद मेरा दौरे-जवानी वापस आ जाए.

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सारांश

सारांश –
मेरी स्वर्गीया बहिन मुझसे आठ साल भी बड़ी नहीं थीं लेकिन मुझ पर दादी-नानी वाला रौब झाड़ा करती थीं. परन्तु उनके बच्चे जयंत और श्रुति मुझसे उम्र में बहुत छोटे होते हुए भी मेरे साथ तमाम दोस्ताना लिबर्टीज़ लिया करते थे. ईमानदारी की बात यह है कि मुझे भी उनके साथ धमाचौकड़ी मचाने में और फिर बहिनजी की डांट-फटकार खाने में बड़ा मज़ा आता था. 1980 के दशक में जीजाजी बॉम्बे में पोस्टेड थे और मैं अल्मोड़ा में. जाड़े की छुट्टियों में बहिनजी, बच्चों के साथ, हमारे लखनऊ के घर और फिर अपनी ससुराल आगरा का टूर लगाया करती थीं. जाड़ों की छुट्टियों में हम लोग भी लखनऊ में ही होते थे. दोनों बच्चों को अपने स्कूटर पर बिठाकर लखनऊ घुमाना, फिल्म दिखाना और फिर लालबाग के शर्मा चाट हाउस में चाट खिलाना मेरा वार्षिक दायित्व हुआ करता था.
1984 की बात रही होगी. हमारी श्रुति की फरमाइश थी कि लीला सिनेमा में लग रही धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा की एक्शन फिल्म 'जीने नहीं दूंगा' उन्हें दिखाई जाय. जयंत और मेरे लाख मनाने के बावजूद साहबज़ादी उसी कंडम फिल्म को देखने के लिए अड़ी रहीं.
हजरतगंज के मेफेयर सिनेमा के सामने के स्कूटर स्टैंड पर जब मैं अपना स्कूटर पार्क कर रहा था तो मेफेयर सिनेमा में ‘सारांश’ फिल्म का बड़ा सा पोस्टर लगा हुआ था. इस फिल्म की बहुत तारीफ़ सुनी थी पर मेरे लाख अनुरोध करने पर भी दुष्ट बच्चे अपनी फिल्म बदलने को तैयार नहीं हुए. मजबूरन हमको लीला सिनेमा के लिए जाना पड़ा. लीला सिनेमा जाकर मैंने फिल्म 'जीने नहीं दूंगा' की सिर्फ दो टिकट्स खरीदीं. स्पेशल ट्रीट का खुला ऑफर देकर मैंने बच्चों को पटा लिया कि मैं उनसे अलग जाकर ‘सारांश’ देख आऊँ पर साथ में उनसे यह वचन भी ले लिया कि वो बहिनजी को मेरी इस चोरी के बारे में कुछ नहीं बताएँगे.
‘सारांश’ देखकर आनंद आ गया. क्या फिल्म थी, अनुपम खेर की क्या एक्टिंग थी. इस फिल्म की एक और अच्छाई यह थी कि इसकी अवधि बच्चों वाली उस एक्शन फिल्म की अवधि से काफ़ी कम थी. इस कारण मैं बच्चों वाली फिल्म छूटने से पहले ही लीला सिनेमा पहुँच गया. फिल्म के बाद बच्चों को  स्पेशल ट्रीट दी गयी. बच्चे खुश और मामा भी खुश. पर मेरी कहानी का अभी तो इंटरवल ही हुआ है.
घर पहुंचकर बच्चों ने अपनी मम्मी और मामी के सामने ही-ही-ही करते हुए ‘समरी’, ‘समरी’ का राग अलापना शुरू कर दिया. किसी के कुछ समझ में नहीं आया तो श्रुतिजी अपनी मम्मी से ‘समरी’ का हिंदी अर्थ पूछने लगीं. कुछ देर सोचने के बाद बहिनजी के दिमाग की बत्ती ऑन हुई. उन्होंने मुझसे पूछा –
‘तूने बच्चों को ‘सारांश’ दिखा दी?’
मैं जब तक जवाब दूँ तब तक साहबज़ादी ने उन्हें करेक्ट किया –
‘हमने तो धर्मेन्द्र वाली 'जीने नहीं दूंगा' ही देखी थी मम्मी.’
मीराबाई ने शायद ऐसी ही किसी सिचुएशन के लिए कहा होगा –
‘अब तो बात फैल गयी, जाने सब कोई.’
बहिनजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था –
‘नालायक, तू बच्चों को लीला सिनेमा में छोड़कर ‘सारांश’ देखने चला गया था? अगर मेरे बच्चों को कोई उठा ले जाता तो तू क्या जवाब देता?’
मैंने क्रमशः इन्टरमीजियेट और क्लास सिक्स्थ में पढ़ने वाले हृष्ट-पुष्ट बच्चों पर एक नज़र डाली फिर हाथ जोड़कर बहिनजी के सवाल के जवाब में एक सवाल दाग दिया –
‘सिस्टर, इन बच्चों को उठाने के लिए दारा सिंह जैसा बिज़ी आदमी लीला सिनेमा क्यूँ आता?’
इस सवाल को सुनकर बच्चे तो आगबबूला हो गए पर बहिनजी सहित बाक़ी लोग हंस पड़े. आगे से फिर मैं ऐसी कोई गुस्ताखी नहीं करूँगा, यह वचन लेकर बहिनजी ने मुझे माफ़ कर दिया.

अंत भला तो सब भला. कहानी का सुखद अंत हुआ लेकिन मेरे द्वारा धोखेबाज़ बच्चों की कान-खिचाई करने के बाद.                                                                           

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

बच्चों से सावधान

बच्चों से सावधान –
‘अंकल, आप क्या किसी होटल में कुक हैं?’
‘नहीं तो. मैं कुक हूँ, ये तुमसे किसने कहा?’
‘पापा कह रहे थे कि आप बहुत पकाते हैं?’    
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‘सुन्दर आंटी के पति से बच्चे का सवाल –
अंकल. प्लीज अपने गौगल्स उतारिए. हमको कुछ देखना है.’
‘लो उतार दिए गौगल्स. अब बताओ, क्या देखना है.’
‘बताइए ये कितनी उँगलियाँ हैं?’
‘तीन हैं बेटा.’ 

‘अरे! आपको तो सब दिखाई देता है. फिर पापा आप के लिए ये क्यूँ कह रहे थे कि अंधे के हाथ बटेर लग गयी है?’      

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

प्रश्नोत्तर

प्रश्नोत्तर –
मैंने बड़े प्यार से अपनी श्रीमतीजी से पूछा –
‘ये बताओ, मेरे हर प्रस्ताव पर तुम्हारी प्रतिक्रिया ‘नहीं’, ‘लेकिन’ या ‘क्या बच्चों जैसी बात करते हैं?’ से ही क्यूँ शुरू होती है?’
श्रीमतीजी ने बड़े दुलार से उत्तर दिया –

‘वैसे ही जैसे मेरी हर फरमाइश पर आपका जवाब ‘अभी नहीं’, ‘अगले साल देखेंगे’, इनकम डिटेल्स या संतोष-धन की महत्ता पर प्रवचन से शुरू होता है.’         

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

अनूठे क्रिकेट प्रेमी

अनूठे क्रिकेट प्रेमी –
मैंने अपनी ज़िन्दगी में बैडमिंटन, टेबल टेनिस, टेनिस, क्रिकेट, फ़ुटबाल. वॉलीबॉल, हॉकी, बिलियर्ड्स, कबड्डी, खो-खो, गेंद-तड़ी और न जाने क्या-क्या खेला है पर अधिकांश भारतवासियों की भांति मेरे प्राण क्रिकेट में ही बसते हैं. 1960 के दशक में क्रिकेट कमेन्ट्री (कानपुर और दिल्ली के टेस्ट मैचेज़ को छोड़कर) सिर्फ अंग्रेजी में आती थी पर अंग्रेजी में लगभग पैदल जैसवाल साहब को तब भी रेडियो से चुपक कर कमेंट्री सुनते हुए देखा जा सकता था. जब भारत खेल रहा होता था और अगर ज्यादा तालियां बजती थीं तो मतलब था कि हमारे किसी बैट्समैन ने फोर (तब सिक्सर मारने का चलन नहीं था) लगा दिया है और प्रतिद्वंदी टीम के खेलते समय अगर ज्यादा हल्ला होता था तो समझ लो कि कोई आउट हो गया है.
पुराने भारतीय क्रिकटरों पर हमारे बड़े भाई साहब का लिखा क्रिकेट गीत हम लोग राष्ट-गान की धुन पर गाया करते थे –
‘विजय हज़ारे, वीनू मनकद, विजय माजरेकर,
नाना जोशी, नरेंद्र तम्हाने, पौली उम्रीगर,
घोर्पदे, देसाई, गुप्ते, मनहर हार्डीकर,
गायकवाड़, बोर्डे, फडकर, नारी कोंट्रेक्टर.’   
     मेरी छोटी बेटी रागिनी 2003 में अपने इन्टरमीजिएट एक्ज़ाम्स के दौरान रात के दो-ढाई बजे वर्ड कप के मैच देखा करती थीं और मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने इंडिया-ऑस्ट्रेलिया फाइनल के दौरान समस्त परिवार-जन को टीम इंडिया की लाइट ब्लू ड्रेस पहनने के लिए मजबूर किया था. खैर यहाँ मुझे अपने परिवार के क्रिकेट--प्रेम की चर्चा से अधिक चर्चा अनूठे क्रिकेट प्रेमियों की करनी है.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम ए. हिस्ट्री और लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल, दोनों में ही मेरे साथी खान साहब ऑस्ट्रेलिया में हो रही टेस्ट सिरीज़ के समय सुबह-सुबह मुझे ट्रांज़िस्टर से चुपके देख कर बड़े दुखी होते थे. भारत इस सिरीज़ में लगातार हार रहा था. भारत की इस लगातार हार पर खान साहब ने अपनी एक्सपर्ट ओपिनियन दे ही डाली –
‘ये गोरे मरदूद ऑस्ट्रेलिया वाले, सुबह पांच-छह बजे से ही इंडिया वालों को खिला देते हैं. खुद तो उन्हें उल्लू की तरह अँधेरे में भी दिखाई देता होगा (उन दिनों बिजली की रौशनी में मैच की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था) पर बेचारे इंडिया वाले, उनकी सी ऑंखें कहाँ से लायें? बुरी तरह से हारेंगे नहीं तो क्या जीतेंगे?’
हमारे हॉस्टल के एक अन्य मित्र बुधी कुंदेरन, फारूख इंजीनियर आदि को गोल कीपर कहते थे.  
कानपुर में वेस्टइंडीज़ और भारत के बीच वन डे इंटरनेशनल मैच हो रहा था. वीआईपी एनक्लोज़र में मेरे बड़े भाई साहब और उनके सहयोगी व मित्र (ऊतर प्रदेश शासन में सचिव पद पर नियुक्त) अपनी श्रीमतीजी के साथ विराजमान थे. किसी वेस्टइंडीज़ के खिलाड़ीने दो बेरहम छक्के जड़े तो बड़े साहब की श्रीमतीजी ने उनसे एक भोला सा सवाल पूछ डाला –
‘सुनिए जी. ये कैसे पता चलता है कि ये फ़ोरर  है या सिक्सर?’
बड़े साहब ने मेरे बड़े भाई साहब को कनखियों से देखकर अपनी नादान श्रीमतीजी को झिडकते हुए जवाब दिया –
‘इतना भी नहीं जानतीं? जैसवाल साहब तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे? सीधी सी बात है, अगर बॉल इधर-उधर से बाउंड्री पार करे तो फ़ोर और वीआईपी एनक्लोज़र की तरफ पार करे तो सिक्स.’
चेतन शर्मा का नाम सुनकर हमारे दिमाग में जो तस्वीर उभरती है वो उस नायक की नहीं होती है जिसने कि वर्ड कप में हैट ट्रिक ली थी बल्कि उस खलनायक की उभरती है जिसकी फ़ुलटॉस बॉल पर दुष्ट जावेद मियांदाद ने सिक्स़र मारकर पाकिस्तान को टूर्नामेंट जिताया था. हमारे क्रिकेट विशेषज्ञ एक मित्र ने चेतन शर्मा को कोसते हुए कहा –
‘फ़ुल टॉस बॉल से तो अच्छा था कि कमबख्त नो बॉल कर देता.’
मैं और मेरा मित्र प्रकाश उपाध्याय वन डे मैचों के दीवाने हुआ करते थे. हमारे एक परम मित्र के यह समझ में ही नहीं आता था कि भारत की एक जीत पर हम कैसे तीन-तीन दिन तक उत्सव मनाते रहते थे. हम लोगों की देखा-देखी हमारे इन परम मित्र को भी क्रिकेट का चस्का लग गया. एक दिन शरमाते हुए उन्होंने अपनी एक शंका मेरे सामने रक्खी  –
‘जैसवाल साहब, आप तो कहते हैं कि क्रिकेट में हर टीम में 11 प्लेयर ही होते हैं पर कमेंट्रेटर तो ट्वेल्थ मैन का भी ज़िक्र कर रहा था.’
मैंने उनके सवाल के जवाब में एक सवाल दागा –
लीप ईयर का मतलब समझते हो? 1984 लीप ईयर है, और सालों से इसमें क्या फ़र्क होता है?
चतुर मित्र ने तपाक से जवाब दिया –
इस साल 365 की जगह 366 दिन होते हैं, यानी एक दिन एक्स्ट्रा होता है.’
अब मेरा उत्तर था –
‘शाबाश, सही जवाब. चूँकि यह लीप ईयर है इसलिए टीम में 11 की जगह 12 प्लेयर खेल रहे हैं. अगले तीन सालों तक तुम किसी मैच में ट्वेल्थ मैन का नाम नहीं सुनोगे.’
अंतिम किस्सा 1999 वर्ड कप का सुनाता हूँ. श्री लंका के खिलाफ गांगुली-द्रविड़ की 318 रन की पार्टनरशिप को कौन भूल सकता है? गांगुली का दो कदम आगे बढ़कर बॉलर के सर के ऊपर से सिक्स मारने का अंदाज़ बहुत खूबसूरत होता था. मेरे एक मित्र मेरे साथ मैच देख रहे थे. गांगुली ने एक सिक्स लगाया तो हम सबने तालियाँ बजाईं पर मित्र ने दो-बार एक्शन रि-प्ले पर भी ताली बजाई. फिर उछलकर बोले-
‘वाह! एक साथ तीन छक्के! क्या जैसवाल साहब, गांगुली लगातार तीन सिक्सर मार रहा है और आप हैं कि एक बार ही ताली बजाकर चुप बैठ गए?’ 
अच्छा हुआ मेरे उन मित्र ने युवराज सिंह का टी-ट्वेंटी वर्ड कप में एक ओवर में 6 सिक्सर्स का कमाल नहीं देखा वरना उसका एक्शन रि-प्ले देखकर वो कहते कि युवराज सिंह ने एक ओवर में 18 सिक्सर लगाए हैं.

अनूठे क्रिकेट प्रेमियों के यादगार किस्से तो बेशुमार हैं, पर इस अध्याय के लिए फिलहाल इतने ही काफ़ी हैं.