शनिवार, 30 नवंबर 2019

मुंबई का सबक़



सत्य, त्याग औ नैतिकता को, नहीं भूल कर अपनाना,
इर्द-गिर्द, कुर्सी के, बुन लो, जीवन का, ताना-बाना,
गठबंधन की राजनीति का, मर्म, यही हमने जाना,
अगर ज़रुरत पड़े, गधे को बाप, मान, मत शर्माना.

मंगलवार, 26 नवंबर 2019

बाबा भारती और खड़ग सिंह

आज से 12-13 साल पहले की बात होगी. उन दिनों मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में कार्यरत था. ग्रेटर नॉएडा में हम अपने मकान का ग्राउंड फ्लोर किराए पर उठाते थे और उसकी ऊपरी मंज़िल अपने उपयोग के लिए रखते थे. आजकल की ही तरह उन दिनों भी ग्रेटर नॉएडा में किराएदारों की भारी किल्लत थी. हमारा ग्राउंड फ्लोर आदतन फिर किराए के लिए खाली हो गया था.
मुझे ‘मिशन-किराएदार’ के लिए अल्मोड़ा से ग्रेटर नॉएडा प्रस्थान करना पड़ा. लम्बी छुट्टी लेने में असमर्थ होने के कारण पांच-छह दिनों के अन्दर ही मुझको एक किराएदार खोजना था. मैंने कई प्रॉपर्टी डीलर्स से बात की जिनमें से कई इच्छुक किराएदारों को लेकर हमारा मकान दिखाने आए भी लेकिन हमको किराएदार के रूप में सिर्फ़ पढ़ा-लिखा, नौकरी-पेशा, शाकाहारी और वो भी सीमित परिवार वाला बन्दा चाहिए था. इसलिए बात बनते-बनते हर बार बिगड़ ही रही थी.
एक प्रॉपर्टी डीलर दल-बल के साथ मेरा स्व-घोषित भतीजा बन गया था. अपनी मीठी-मीठी, लल्लो-चप्पों वाली बातों से, इस दल ने मेरा दिल जीत लिया. इस मित्र-मंडली ने कई लोगों को मेरा मकान दिखाया पर किसी से भी डील नहीं हो पाई. मेरे अल्मोड़ा लौटने का वक़्त क़रीब आ रहा था. मुझे लग रहा था कि मकान में ताला लगाकर ही मुझे लौटना होगा लेकिन तभी एक ऐसा नौजवान मेरे पास आया जो कि किराएदार के रूप में मेरी शर्तों को पूरा करता था. चूंकि यह नौजवान बिना किसी प्रॉपर्टी डीलर के आया था इसलिए उसके अनुरोध पर मैंने प्रॉपर्टी डीलर को कमीशन के रूप में दिया जाने वाला 15 दिन का किराया उसके लिए माफ़ कर दिया. एडवांस, सीक्योरिटी, एग्रीमेंट वगैरा, सब कुछ ठीक-ठाक हो गया.
अगले दिन मुझे अल्मोड़ा के लिए प्रस्थान करना था कि तभी मेरा स्व-घोषित भतीजा अपने दल के साथ आ धमका. इस बार भतीजे की बातों में चाशनी नहीं, बल्कि करेला घुला हुआ था. भतीजे ने बताया कि मेरा किराएदार पहले उसके पास आया था इसलिए उसे और मुझे यानी कि हम दोनों को ही, कमीशन की रकम उसको देनी चाहिए थी. मुझे उसकी यह मांग स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि मेरा किराएदार स्वतंत्र रूप से मेरे पास आया था.
बहस होती रही. न वो टस से मस हुआ और न ही मैं झुका और बात बिगड़ती चली गयी. अंत में भतीजा दहाड़ा –
‘अंकल जी, मैं यहाँ का नामी गुंडा हूँ और फिर हम चार लोग हैं. हमको बिना पैसे दिए आप अल्मोड़ा साबुत तो नहीं जा पाएंगे.’
मैंने फिर भी पैसे देने से इंकार करते हुए, बेख़ौफ़ होकर, चांडाल-चौकड़ी को एक सुझाव दिया –
‘वीर बालकों ! एक 56 साल के अकेले बुज़ुर्ग को उसके घर में मारने में क्या मज़ा आएगा? ऐसा करो कि तुम लोग मुझे चौराहे पर मारो ताकि तुम्हारी बहादुरी सैकड़ों लोग देख सकें.’
फिर क्या हुआ?
फिर वही हुआ जो कि सुदर्शन की कहानी – ‘हार की जीत’ में बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह के बीच हुआ था. डाकू खड़गसिंह और उसके तीनों साथी, बाबा भारती को पूरी तरह से साबुत छोड़कर अपनी-अपनी नज़रें झुका कर लौट गए.
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम लोग स्थायी रूप से ग्रेटर नॉएडा में बस गए. कई साल बीत गए. एक दिन बाज़ार से मैं पैदल ही लौट रहा था कि एक शानदार ऑडी कार मेरे सामने रुकी, उसमें से एक नौजवान और एक नवयुवती उतरे. पहले उस नौजवान ने मेरे पैर छुए और फिर उस नवयुवती ने. बिना पहचाने ही मैंने उन दोनों को आशीर्वाद दे दिया.
अब उस नौजवान ने पूछा –
‘अंकल जी, आपने मुझे पहचाना?’
अंकल जी बुद्धू बन कर कुछ देर तक चुपचाप खड़े रहे फिर बोले –
‘भई, बुढ़ापे में याददाश्त कमज़ोर हो जाती है. कुछ याद नहीं आ रहा. हाँ, तुम मुझे अंकल कह रहे हो तो इसका मतलब यह तो निकलता है कि तुम मेरे कोई स्टूडेंट नहीं हो.’
नौजवान ने मुस्कुराकर कहा –
‘हाँ, मैं आपका कोई स्टूडेंट नहीं हूँ. आपको याद नहीं आ रहा है. मैं तो वही लड़का हूँ जिस से मकान के कमीशन को लेकर आप से चक-चक हुई थी.’
मेरे दिमाग की बत्ती फ़ौरन जल उठी और वह दस साल पुराना दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरने लगा. मेरे दिमाग में एक शरारत कौंधी. मैंने अपने हाथ जोड़कर उस नौजवान से पूछा –
‘बालक ! क्या तेरे पुराने साथियों ने तेरा साथ छोड़ दिया जो तू अब अपनी प्यारी सी दुल्हनिया के साथ निहत्थे राहगीरों को लूटने लगा है?’
बालक ने शर्माते हुए कहा –
‘अंकल जी, आपने अभी भी मुझे माफ़ नहीं किया है.’
मैंने उसे इत्मीनान दिलाते हुए कहा –
‘तुझे और तेरे साथियों को तो मैंने तभी माफ़ कर दिया था लेकिन अपनी उस बेवकूफ़ी के लिए मैंने ख़ुद को आज तक माफ़ नहीं किया है. सच कहूं तो मैं तुम सब का तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ कि तुम लोगों ने मुझ दूध के जले को छाछ भी फूँक-फूँक कर पीना सिखा दिया है.’
कहानी का सुखद अंत हुआ. बाबा भारती खुल कर हँसते हुए और अपनी दुल्हनिया सहित खड़ग सिंह, खिसियानी हंसी हँसते हुए, एक-दूसरे से विदा हुए.

शनिवार, 23 नवंबर 2019

मुंबई की ताज़ा ख़बर

1. पीठ में भोंका छुरा, ऐ दोस्त ! तू हमदर्द था,
बे-रहम दुनिया में, जी पाना, बड़ा सरदर्द था.
2. सीने में दुश्मन की गोली, झेल, दोस्त बच जाता है,
मगर पीठ पर वार तिरा, यमलोक उसे पहुंचाता है.
3. दिल अभी उद्धव का, टूटा है नहीं,
अपने दल के भी, विभीषण चाहिए.

रविवार, 17 नवंबर 2019

मौसमी मुर्गा


मौसमी मुर्गा –

1.    क्या विभीषण, मीर जाफ़र या कि हों जयचंद जी,
     सर कढ़ाई में इन्हीं का, उँगलियों में, इनके घी.  

2.    मेरे अफसानों में तेरा, ज़िक्र जब कभी आएगा,

    जहाँ कहीं हो, हर दल-बदलू, सज्दे में, झुक जाएगा.

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

मम्मी का मोल

नेहा की मज़ेदार ज़िन्दगी देखकर उसकी दोनों बेटियों नीतू और प्रीतू को खूब जलन हुआ करती थी. न स्कूल जाने का झंझट, न होम-वर्क का सरदर्द, न एक्ज़ाम्स में कम-ज़्यादा नम्बर्स आने की चिन्ता, न बड़ों की डांट-फटकार का डर. वाह ! क्या चैन की लाइफ़ थी. इधर बच्चियों को अपने पॉकेटमनी में ज़रा सा भी इन्क्रीमेन्ट लगवाना हो तो उन्हें घण्टों मम्मी-पापा की खुशामद करनी पड़ती थी और उधर उनकी मम्मी के खर्चों का हिसाब ही नहीं था. डॉक्टर मेहता का दावा था कि शॉपिंग के लिए तो नेहा हफ़्ते में कम से कम सात बार तो मार्केट जाती ही थी. बेचारे पतिदेव को अपनी श्रीमतीजी की शॉपिंग का हिसाब करने के लिए कैलकुलेटर की मदद लेनी पड़ती थी. नीतू और प्रीतू की तरह उनके पापा भी नेहा की आरामदायक ज़िन्दगी और अपने व्यस्त जीवन की तुलना कर के आहें भरा करते थे. जब डॉक्टर मेहता यूनीवर्सिटी जाने की तैयारी किया करते थे तो नेहा उन्हें चाय-नाश्ता देते वक़्त मज़े से एफ. एम. रेडियो पर बज रहे पुराने गानों के साथ गुनगुनाया करती थी और जब वो क्लास में अपने स्टूडेन्ट्स को साहित्य की बारीकियां सिखा रहे होते थे तो चाय पीने के बाद नेहा की दोपहर, बिस्तर पर लेटकर आराम करने में बीता करती थी. रात के खाने के बाद उसके पतिदेव जब अगले दिन का लेक्चर देने की तैयारी के लिए मोटी-मोटी किताबों में अपना सर खपाया करते थे तब वह या तो टीवी पर अपनी पसन्द का कोई सीरियल देखती थी या फ़ोन पर अपनी फ्रेंड्स के साथ गप्पें मारा करती थी.
परिवार के तीनों दुखीजन को नेहा का यह डायलौग बहुत बुरा लगता था - ‘ मुझे तो घर के कामकाज की वजह से दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती.’ प्रीतू जब छोटी थी तो वो कहा करती थी कि वो बड़ी होकर मम्मी बनेगी ताकि वो दिन भर आराम करती रहे. नीतू को भी मम्मी की साड़ियां, उनकी ज्वेलरी और कास्मेटिक्स्स के सामान देखकर बड़ी जलन होती थी. नेहा को गिफ़्ट्स भी खूब मिला करते थे. उसके पतिदेव जब मूड में होते थे तो बच्चों को मिला करती थी चाकलेट और उसे मिलती थी साड़ी. हर छोटे-बड़े गृह-युद्ध के बाद रूठी हुई नेहा को मनाने के लिए उसके पतिदेव की तरफ़ से जब शान्ति प्रस्ताव आता था तो उसके साथ उसके के लिए तोहफ़ा ज़रूर हुआ करता था.
नेहा जब घर के काम का रोना रोती थी तो उसके पतिदेव का प्रवचन शुरू हो जाता था -
‘ घर का काम होता ही कितना है? आजकल तो घर का हर काम मशीनें करती हैं. तुम तो गैस पर खाना बनाती हो, मिक्सी पर दाल-मसाले पीसती हो, ऑटोमैटिक वाशिंग मशीन से कपड़े धोती हो.’
अपने पापा की इस दलील में बच्चों को भी बहुत दम नज़र आता था. घर में बर्तन-झाड़ू करने के लिए एक आमा आती थीं. नेहा अक्सर उन्हें अपनी पुरानी साड़ियां, उनकी बेटियों के लिए बच्चियों के पुराने कपड़े दे दिया करती थी और वो खुश होकर घर के काम में उसका हाथ बटा दिया करती थीं.
बच्चे दिन-रात पढ़ाई में जुटे रहते थे पर अगर वो मौज-मस्ती के नाम पर कभी-कभार टीवी के सामने एकाद घण्टे बैठ गए या साइना नेहवाल बनने की कोशिश में कुछ ज़्यादा ही बैडमिन्टन खेल आए तो फिर उनको अपनी मम्मी का एक लम्बा लेक्चर ज़रूर सुनना पड़ता था. अक्सर बच्चे अपनी मम्मी के सामने अपने पापा का ईजाद किया हुआ ये नारा लगाते थे –
‘ बाकी सबको काम और टेंशन, मम्मी को बस, आराम और पेंशन.’
नीतू-प्रीतू सपना देखते थे कि मम्मी चली गई हैं और वो दिन चढ़ने तक आराम से अपने बिस्तर पर सो रहे हैं. कोई ज़बर्दस्ती उन्हें गरम-गरम लिहाफ़ में अपने ठन्डे-ठन्डे हाथ डाल कर जगा नहीं रहा है. खाने में बच्चों को ज़बर्दस्ती मूंग की दाल और लौकी की सब्ज़ी नहीं खिलाई जा रही है और न ही छुट्टी के दिन भी होम-वर्क के बहाने देर तक उनको टीवी देखने से रोका जा रहा है. पर सपने कभी सच भी हो जाया करते हैं. नेहा को अपने मायके में दो शादियां अटेन्ड करनी थीं. उसको कुल पन्द्रह दिन बाहर रहना था. पर नेहा को बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता थी और घर की व्यवस्था की फ़िक्र. पर उसके पतिदेव और बच्चों ने उसे भरोसा दिलाया कि कि उसकी गैर हाज़िरी में सब कुछ ठीक होगा. बच्चों ने उससे वादा किया कि वो जमकर पढ़ाई करेंगे और उसके पतिदेव ने भरोसा दिलाया कि वो घर को चकाचक रखेंगे. नेहा ने डॉक्टर मेहता की और नीतू-प्रीतू की बातों पर भरोसा कर के घर उनके जिम्मे पर छोड़ कर अपने मायके को प्रस्थान किया.
अपनी मम्मी के जाने के बाद नीतू-प्रीतू स्कूल से लौटे तो घर में बिल्कुल शान्ति थी. मम्मी की चीख-पुकार की उन्हें कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी कि उनसे डांट खाए बिना उन्हें खाना हज़म ही नहीं होता था. ख़ैर भोजन तो करना ही था. पर खाना था कहां? डायनिंग टेबिल पर उनके पापा के हाथ का एक नोट रखा था जिसमें लिखा था -
‘ प्लीज़ ! इस समय खाने की जगह बिस्किट्स, वैफ़र्स और फलों
का सेवन कीजिए. शाम को आपका डिनर आपके मन-पसन्द रैस्त्रां में होगा.’
बच्चों की तो बाछें खिल गईं. टीवी देखते हुए उन्होंने अपना अनोखा लंच लिया. शाम को बच्चे अपने पापा के साथ अपने मन-पसन्द रैस्त्रां गए. अब तक बेचारे बच्चे रोज़ाना अपनी मम्मी के हाथ का बना खाना ही निगलने के लिए मजबूर थे. पर अब उनकी चांदी होने वाली थी. डॉक्टर मेहता ने बच्चों की पसंद की चटपटी डिशेज़ का ऑर्डर किया.
शाही पनीर की खूबसूरत सब्ज़ी का एक चम्मच ही बच्चों के मुंह में गया था कि वो हाय, हाय करते हुए गिलास पर गिलास पानी पी गए. दाल-मखानी में भी दाल और मिर्च की क्वैन्टिटी लगभग बराबर थी और पुलाव में काली मिर्च का अम्बार लगा हुआ था. जैसे तैसे रायते के साथ कड़ी-कड़ी तन्दूरी रोटियां खाकर बच्चों ने अपना पेट भरा.
बच्चों का होम-वर्क उनके लिए कम और उनकी मम्मी के लिए ज़्यादा बड़ा सरदर्द होता था. बच्चों के स्कूल से लौटते ही उनकी मम्मी उनके सर पर सवार होकर उनसे उनका होम-वर्क कम्प्लीट करवाती थीं और उसके बाद ही उनको टीवी देखने या कोई और मस्ती करने की परमीशन देती थीं. ज़रूरत पड़ने पर वो सब्ज़ी काटते हुए या रोटी बनाते-बनाते हुए उनके होमवर्क में उनकी थोड़ी-बहुत हैल्प भी कर दिया करती थीं. डॉक्टर मेहता हमेशा नेहा को बच्चों पर सख्ती करने के लिए टोकते रहते थे. बच्चों को अपनी मम्मी की तुलना में अपने पापा की हर बात में दम नज़र आता था. पर अब उनकी मम्मी की गैर-हाज़री में उनका होम-वर्क उनके लिए बड़ा सर-दर्द बनकर सामने खड़ा हो गया था. डॉक्टर मेहता यूनीवर्सिटी से लौटकर आते तो उनके पास बच्चों की प्रौब्लम्स सॉल्व करने के लिए न तो टाइम था और न ही इस काम में उनकी कोई दिलचस्पी होती थी. बच्चों की रेडी-रिफ़रेन्स बुक, यानी उनकी मम्मी तो अपने मम्मी-पापा के यहां जाकर मज़े कर रही थीं और यहां बच्चे बेचारे रोज़ाना होम-वर्क कम्प्लीट न करने की वजह से अपने टीचर्स की डांट खा रहे थे.
नेहा के जाने के बाद 4-5 दिनों तक घर में कपड़े नहीं धुले थे. गंदे कपड़ों का एक पहाड़ तैयार हो गया था. आख़िरकार डॉक्टर मेहता ने वाशिंग मशीन से बच्चों के कपड़े धोने का प्लान बनाया. कपड़ों का ढेर वाशिंग मशीन के हवाले कर दिया गया. बस ज़रा सी गड़बड़ ये हुई कि सफ़ेद कपड़ों के साथ कुछ नए रंगीन कपड़े भी वाशिंग मशीन में डाल दिए गए. बुरा हो औरेंज और ग्रीन ड्रेसेज़ का जिन्होंने बच्चों की व्हाइट ड्रेसेज़ को तिरंगा बना दिया. शनिवार को मजबूरन बच्चों को इन तिरंगे कपड़ों को ही पहन कर जाना पड़ा. उनकी प्रिंसिपल उनको देखते ही बोल पड़ीं –
‘ क्यों भाई! अभी इण्डिपेन्डेन्स डे में तो बहुत दिन बाकी हैं तुम दोनों बहने तिरंगे फहराती हुई क्यों आ रही हो?’
बेचारी प्रीतू को एक बार और सबकी मज़ाक का शिकार होना पड़ा. एक दिन उसका स्कर्ट ज़रा सा उधड़ गया था, वो अपने पापा के पास उसे सिलवाने के लिए पहुंच गई पर उसके पापा को सिर्फ़ सूई चुभोना आता था, उससे कुछ सिलना नहीं. उन्होंने स्टैपलर लेकर प्रीतू की उधड़ी स्कर्ट को टिपटॉप बना दिया. प्रीतू स्कूल पहुंची तो सबने उसकी खूब हंसी उड़ाई.
बच्चों के बिना बताए ही पूरी कॉलोनी को और उनके स्कूल वालों को मालूम पड़ गया कि उनकी मम्मी कहीं बाहर चली गई हैं. नेहा के हर काम को हल्का-फुल्का मानने वाले डॉक्टर मेहता को भी अब दाल-आटे का भाव मालूम पड़ रहा था. प्रीतू को अपनी मम्मी से लिपट कर सोने की आदत थी. अब उसका शिकार उसके पापा बने. डॉक्टर मेहता अपनी सोती हुई बिटिया की बाहों के फन्दे से अपनी गर्दन छुड़ाते तो उसकी टांगे उनके पेट पर आ जातीं. आखिरकार पिताश्री ने बिस्तर का त्याग कर सोफ़े पर रात बिताना ठीक समझा और प्रीतू रात भर ‘ मम्मी-मम्मी ’ कहकर सुबकती रही.
अपने पापा से नीतू-प्रीतू के ताल्लुक़ात अब तक काफ़ी खराब हो गए थे. आमा के हाथ का रूखा-सूखा खाना खा-खा कर बच्चे बोर हो गए थे. बच्चों को अब अपनी मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. मम्मी की टोका-टोकी और डांट-फटकार की उनको बहुत याद आ रही थी पर अभी उनके अल्मोड़ा लौटने में पूरे सात दिन बाकी थे. पर लगता था कि उनके पापा को उनकी मम्मी की कमी बिलकुल भी महसूस नहीं हो रही थी. पिछली शाम से तो वो मस्ती भरे पुराने गाने भी गुनगुना रहे थे.
अगली शाम को बच्चियां अपना होम-वर्क कर रहे थीं कि दरवाज़े पर कॉल बेल बजी. उन्होंने देखा कि उनकी मम्मी बहुत परेशान सी खड़ी हैं. नेहा ने घबराहट भरी आवाज़ में नीतू से पूछा-
‘ अब प्रीतू का टैम्पे्रचर कितना है?’
मम्मी की आवाज़ सुनकर प्रीतू दौड़ कर उनके पास आ गई. अपने सामने भली-चंगी प्रीतू को देखकर वो खुश होने के बजाय अपनी नज़रें चुराते हुए अपने पतिदेव से भिड़ गईं. उसने उनसे पूछा –
‘ क्योंजी आपने मुझे प्रीतू की बीमारी की झूठी खबर क्यों दी?’
डॉक्टर मेहता ने कोई जवाब नहीं दिया. अब बच्चों को अपने पापा की करतूत पता चल चुकी थी और कल रात से उनके मस्ती भरे गाने गुनगुनाने का राज़ भी मालूम हो चुका था. प्रीतू अपनी मम्मी से लिपट कर बोली –
‘ मम्मी ! पापा ने आपके पीछे हमको बहुत परेशान किया. अब आप हमको छोड़ कर कभी नहीं जाइएगा.’
नीतू को भी मम्मी के गले लगकर रोने में आज कोई शर्म नहीं आ रही थी. दोनों बहनों को अपनी मम्मी का मोल पता चल चुका था. बच्चों के सर पर हाथ फेरते हुए अचानक नेहा अपने पतिदेव को देखकर खिलखिला कर हंस पड़ी. वो बेचारे भी उससे गले लगकर रोने के लिए बच्चों के पीछे लाइन में खड़े थे.

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

इक दिन ऐसा आएगा



मुफ़लिस की बेबसी पर

तू जन-सभा में बोला

संसद-भवन में बोला

टीवी पे जा के बोला

तू रेडियो में बोला  

अखबार में भी बोला

सपनों में झूठ बोला

जागा तो झूठ बोला

मंदिर में झूठ बोला

मस्जिद में झूठ बोला

कितनों को मार खाया

ये सच कभी न बोला  

बन कर गरीब-परवर  

उनके हुकूक बेचे

जो ख्वाब थे सुहाने

वो तोड़-तोड़ बेचे

बचपन था उन से छीना  

फिर बेच दी जवानी

जिस में घना अँधेरा

ऐसी लिखी कहानी

इंसानियत का परचम

फहरा रहा सदा तू

मेहनतकशों के हिस्से

का सब उड़ा रहा तू

तू घर जला के उनके   

बंसी खड़ा बजाए

नीरो नहीं कन्हैया

भक्तों में पर कहाए

जिन जाहिलों ने तुझको

अपना समझ चुना है

सुरसा सा खोल कर मुंह   

उनको समूचा खाए

ये इंद्रजाल तेरा

इक दिन तो टूटना है

पापों का तेरा भांडा

इक दिन तो फूटना है  

थूकेंगे तेरे अपने  

तुझ पर इसी ज़मीं पर

तू जीते जी मरेगा

इक दिन इसी ज़मीं पर

खाए फिर न धोखा 

मासूम इस ज़मीं पर

नीलाम अस्मतों का

फिर हो न इस ज़मीं पर

फिर बाज का ही जलवा  

होगा न आसमां में

इंसाफ़ भेड़ियों का  

होगा न दास्ताँ में

हिर्सो-हवस की ज्वाला  

सुलगे न फिर दिलों में

नफ़रत के नाग सारे

घुस जाएं ख़ुद बिलों में

ज़ालिम शिकस्त पाए   

पर्वत हो या हो घाटी 

आएगा दौर ऐसा

रौंदे कुम्हार माटी

आएगा दौर ऐसा

रौंदे कुम्हार माटी ----