शनिवार, 27 नवंबर 2021

आधी हक़ीक़त आधा फ़साना

 मैं रौंदूगी तोय -

बीस साल की ख़ूबसूरत और मासूम सी दिखने वाली दिव्या की शादी जब 30 साल के, मोटे कौएनुमा व्यक्तित्व वाले डॉक्टर मनोज कुमार से हुई तो इस जोड़ी को देख कर बहुत से लोगों के दिमाग में एक साथ -
‘कौए की चोंच में अनार की कली’ वाला मुहावरा कौंधने लगता था.
लेकिन इस अनार की कली को अपनी चोंच में दबा कर लाने वाले हमारे डॉक्टर मनोज कुमार कोई मामूली कौए नहीं थे.
विकास नगर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत डॉक्टर मनोज कुमार ने दहेज-मंडी में अपनी ऊंची बोली लगाए जाने के बावजूद सतनाम पुर क़स्बे के एक प्राइमरी स्कूल के गरीब मास्साब की सुन्दर, सलोनी, ठीक-ठाक नंबर ला कर बी० ए० पास और पाक-विद्या में निपुण बेटी, दिव्या को बिना किसी दहेज की मांग के, पहली नज़र में पसंद कर लिया था.
दिव्या को याद आ रहा था कि किस तरह से उसके बाबू जी ने पिछले एक साल से उसके लिए एक सुयोग्य पात्र ढूँढ़ने में अपनी आधा दर्जन जोड़ी चप्पलें घिस डाली थीं लेकिन फिर भी उन्हें हर लड़के वाले के यहाँ से निराश लौटना पड़ा था.
शादी के बाद जब यह जोड़ा विकास नगर पहुंचा तो वहां यह तुरंत टॉक ऑफ़ दि टाउन बन गया.
मनोज कुमार से पहले ‘हाय और हेलो’ तक ही सम्बन्ध रखने वाले और उनकी पीठ-पीछे उन्हें ‘ईदी अमीन’ कहने वाले, अब उनके खासमखास दोस्त बन कर, अपनी-अपनी श्रीमतीजियों के बिना, लेकिन महंगे उपहारों के साथ, उनके घर मंडराने लगे थे.
आए दिन विभाग में मनोज कुमार की खाट खड़ी करने वाले उनके विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर पांडे तो अब रोज़ाना ही दिव्या भाभी जी के हाथ की अदरक वाली चाय पिए बिना यूनिवर्सिटी में क़दम भी नहीं रखना चाहते थे.
प्रोफ़ेसर पांडे फोर्स्ड बैचलर थे. उनके बीबी-बच्चे लखनऊ में रहते थे.
विरह की वेदना में जलते हुए प्रोफ़ेसर साहब को रोज़ाना दिव्या भाभी जी का पल दो पल का रूमानी साथ चाहिए था तो इस में खराबी ही क्या थी?
दिव्या को पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा दिलचस्पी विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में थी लेकिन अपने पतिदेव के और प्रोफ़ेसर पांडे के कहने पर मरे मन से उसने एम० ए० हिंदी में एडमिशन ले लिया.
मनोज कुमार और प्रोफ़ेसर पांडे उसे हिंदी की विदुषी बनाने के अभियान में जुट गए.
प्रोफ़ेसर पांडे कभी बिना बुलाए दिव्या को पढ़ाने उसके घर आ जाते थे तो कभी उसे ज़बर्दस्ती अपने घर बुला लेते थे.
दिव्या को पढ़ाते समय प्रोफ़ेसर पांडे, तुलसीदास की भक्ति-रचनाओं की अथवा कवि भूषण के वीर रस के छंदों की, व्याख्या करते हुए भी न जाने कैसे विद्यापति या कविवर बिहारी की सम्भोग श्रृंगार की रसभरी कविताओं का जीवंत वर्णन करने लगते थे.
दिव्या ने मनोज कुमार से रसिया प्रोफ़ेसर पांडे की गुस्ताख़ियों की शिक़ायत की तो उन्होंने फ़र्माया –
‘दिव्या अब तुम्हारी पहचान विकास नगर यूनिवर्सिटी के एक लेक्चरर की पत्नी की है न कि सतनाम पुर क़स्बे के एक स्कूल मास्टर की बेटी की ! ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए तुमको मॉडर्न, प्रोग्रेसिव और प्रैक्टिकल तो बनना ही होगा.
वैसे भी प्रोफ़ेसर पांडे तुम्हारे गुरु हैं अगर वो कभी-कभार तुम से थोड़ी-बहुत लिबर्टी ले लेते हैं तो तुम्हें इस से परेशानी क्यों होती है?’
पतिदेव से ऐसा प्रैक्टिकल ज्ञान प्राप्त करने के बाद दिव्या ने प्रोफ़ेसर पांडे की ही क्या, किसी भी रसिया की, किसी भी ओछी हरक़त की, उन से फिर कभी कोई शिक़ायत नहीं की.
मनोज कुमार पर अब प्रोफ़ेसर पांडे इतने ज़्यादा मेहरबान हो गए थे कि अपने हर शोध-पत्र में उनका नाम को-ऑथर के रूप में डालने लगे थे.
वो अगली सेलेक्शन कमेटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर की पोस्ट पर डॉक्टर मनोज कुमार का ही सेलेक्शन कराने लिए वचनबद्ध हो चुके थे.
मनोज कुमार की दो साल की लगातार अनदेखी, कैसी भी बेहूदगी बर्दाश्त करने की दिव्या की रिकॉर्ड-तोड़ सहनशीलता और प्रोफ़ेसर पांडे की दो साल की अथक तपस्या के अलावा इधर-उधर के जुगाड़ के बाद, दिव्या ने एम० ए० में टॉप कर ही डाला.
एम० ए० में टॉप करने के बाद दिव्या ने प्रोफ़ेसर पांडे के निर्देशन में मोटी फ़ेलोशिप के साथ स्लीपिंग शोधार्थी के रूप में तीन साल के अन्दर ही पीएच० डी० भी कर डाली और उसके ठीक चार महीने बाद विकास नगर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के पद पर उसका चयन भी हो गया.
इसी बीच प्रोफ़ेसर पांडे की कृपा से मनोज कुमार का चयन एसोसिएट प्रोफ़ेसर के लिए भी हो गया.
इन महान उपलब्धियों के लिए गुरु-दक्षिणा के रूप में दिव्या को इन पांच साल, चार महीनों में प्रोफ़ेसर पांडे को क्या-क्या उपलब्ध कराना पड़ा, इसकी ख़बर विकास नगर के बाशिंदों तक ही नहीं, बल्कि वहां के पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक भी पहुँच गयी थी –
अब तो बात फैल गयी जानें सब कोई - - -
हमारे डॉक्टर मनोज कुमार का ज़्यादातर वक़्त अब घर में आई डबल तनख्वाह को सँभालने में ही खर्च होने लगा था.
पहले की सी भोली, मासूम सी, सहमी सी और लाज-शर्म से सिमटी सी, दिव्या की जगह अब एक अल्ट्रा-स्मार्ट और बोल्ड डॉक्टर दिव्या ने ले ली थी जो कि विकास नगर की हर सभा की परी थी.
विकास नगर विश्वविद्यालय के नए कुलपति महोदय तो रौनक़-ए-महफ़िल डॉक्टर दिव्या पर जी जान से फ़िदा हो गए थे.
प्रोफ़ेसर पांडे के जाल में फंसी चिड़िया अब स्वेच्छा से और भी मज़बूत जाल में फंसने का फ़ैसला कर चुकी थी.
हमारे डॉक्टर मनोज कुमार अपनी चिड़िया के इस जाल-परिवर्तन की प्रक्रिया को बड़े धैर्य से देख रहे थे.
उनके विभाग में प्रोफ़ेसर की एक पोस्ट मानों उन्हीं के लिए खाली पड़ी थी.
कुलपति महोदय की कृपा रहते इस लाटरी का टिकट उनके हाथों में जाने से भला अब कौन रोक सकता था?
दिव्या जी पर कुलपति महोदय की मेहरबानियाँ बढ़ती ही जा रही थीं.
प्रोफ़ेसर पांडे अब डॉक्टर मनोज कुमार से फिर से खार खाने लगे थे लेकिन उनकी तो अब कुलपति महोदय से डायरेक्ट सेटिंग थी. इस सेटिंग की वजह से उन्होंने कुलपति महोदय से जुगाड़ लगा कर प्रोफ़ेसर के लिए होने वाली चयन समिति की तिथि से ठीक सात दिन पहले विभागीय पुस्तकालय के लिए पुस्तकों की ख़रीदारी में हेरा-फेरी की जांच-पड़ताल के लिए अपने विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर पांडे के विरुद्ध एक जांच-समिति बिठवा दी.
अब चयन समिति में विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोफ़ेसर पांडे की जगह प्रोफ़ेसर गोयल शोभायमान हो गए.
आख़िरकार प्रोफ़ेसर के पद हेतु इंटरव्यू हो ही गया.
इंटरव्यू में सब कुछ डॉक्टर मनोज कुमार के मन मुताबिक़ हुआ.
मात्र पांच साल के टीचिंग एक्सपीरिएंस वाली डॉक्टर दिव्या ने भी मज़ाक़-मज़ाक़ में प्रोफ़ेसर की पोस्ट के लिए एप्लाई कर दिया था.
खैर, उनका साक्षात्कार तो तीन मिनट में ही ख़त्म हो गया.
अब प्रोफ़ेसर तो डॉक्टर मनोज कुमार को ही बनना था.
जलने वाले मित्रों में मिष्ठान्न वितरण के लिए और एक भव्य पार्टी के लिए उन्होंने एडवांस में व्यवस्था भी कर ली थी.
लेकिन फिर अचानक एक धमाका हो गया.
विकास नगर यूनिवर्सिटी की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल की बैठक के बाद हिंदी विभाग की नियुक्ति को लेकर सारे प्रान्त में हंगामा खड़ा हो रहा था.
हर कोई पूछ रहा था कि अपने दस सीनियर्स को सुपरसीड कर के कल की लड़की ये डॉक्टर दिव्या, लेक्चरर से सीधे प्रोफ़ेसर कैसे हो गयी?
और तो और, कैरियर में अपने से सात साल सीनियर अपने पति को भी इस दौड़ में उसने पछाड़ दिया था.
त्रासदी इतने पर ही ख़त्म हो जाती तो गनीमत थी पर अभी तो यूनिवर्सिटी में और भी गुल खिलाए जाने बाक़ी थे.
प्रोफ़ेसर पांडे और डॉक्टर मनोज कुमार, दोनों का ही तबादला विकास नगर यूनिवर्सिटी के दूसरे कैंपस, कीर्ति नगर कैंपस के लिए कर दिया गया था.
कुलपति महोदय चाहते थे कि प्रोफ़ेसर पांडे और डॉक्टर मनोज कुमार जैसे अनुभवी व्यक्ति, काला पानी के नाम से कुख्यात कीर्ति नगर जाएं और वहां के मृतप्राय हिंदी विभाग को पुनर्जीवित करें.
इस कथा के अंत में तीन दृश्यों का उल्लेख करना आवश्यक है –
पहले दृश्य में प्रोफ़ेसर पांडे कुलपति महोदय के ऑफ़िस के सामने रोते हुए अपने सर के बाल नोच रहे थे और कुलपति महोदय को खुलेआम कोस रहे थे.
दूसरे दृश्य में कीर्ति नगर जाने की तैयारी में जुटे डॉक्टर मनोज कुमार मातमी चेहरे के साथ, अपनी खिसियानी सी मुस्कान ले कर, घर आए अपने साथियों से, अपनी श्रीमती जी के प्रोफ़ेसर होने की सच्ची-झूठी बधाइयाँ स्वीकार कर रहे थे.
तीसरे दृश्य में कुलपति के बंगले के एक नितांत निजी कक्ष में उन के साथ जाम से जाम टकराते हुए हमारी नई-नई प्रोफ़ेसर बनी नायिका, न्यूयॉर्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में विकास नगर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने से पहले उन से आवश्यक दिशा-निर्देश ले रही थीं.

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

असली मुद्दे कहाँ हैं?

पद्म श्री बहन कंगना के श्री मुख से कब कौन से फूल झड़े, कब उन्होंने अपने धनुषवाण से किस पर तीर चलाए, इस पर नित्य न्यूज़ चैनल्स पर बहस होती है, सीधी तरफ़ के, उल्टी तरफ़ के और बीच के, देशभक्त उनके पक्ष में, उनके विरोध में या फ़िफ्टी-फ़िफ्टी वाले लहजे में अपने गले फाड़ते रहते हैं.
हमारे देश को कब, कैसी और कैसे आज़ादी मिली, इसका फ़ैसला अब कंगना जी का ताज़ातरीन वक्तव्य करेगा.
गांधी जी हमारे राष्ट्रपिता हैं या फिर हमारे लिए सबसे बड़े खलनायक हैं, यह भी उनके इशारे पर तय होगा.
कंगना जी सुशांत राजपूत आत्महत्या काण्ड में किसी भी जांच-पड़ताल से पहले, किसी भी न्यायिक कार्रवाई से पूर्व, अपना अंतिम निर्णय दे चुकी थीं जो कि कायदे से माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भी मान्य होना चाहिए था.
किन्ही मोहतरमा का अंध-भक्त कोई सलमान ख़ुर्शीद अपनी किसी बेकार सी किताब में दो-चार मूर्खतापूर्ण विवादस्पद बातें क्या लिख देता है, हमारा धर्म, हमारी संस्कृति और हमारा राष्ट्र-गौरव ख़तरे में पड़ जाता है.
फिर हमारे उत्साही देशभक्त लाठियां और मशालें ले कर उस मूर्ख के बंगले में तोड़फोड़, आगजनी, कर के भारत की आन-बान-शान को पुनर्स्थापित करते हैं.
कोई वीरदास परदेस में जा कर अपनी मसखरी वाले कार्यक्रम में इंडिया के लिए दो-चार विवादस्पद, उपहासात्मक जुमले क्या सुना देता है, प्रशांत सागर जैसी शांत भारतीय राजनीति में तूफ़ान उठ खड़ा होता है.
उद्दंड, गुस्ताख, देशद्रोही, वीरदास का सर कलम कर के ही भारत की खोई हुई मान-प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया जा सकता है.
कोई मणिशंकर अय्यर माननीय की शान में गुस्ताख़ी करता है तो वतन की आबरू ख़तरे में पड़ जाती है.
किसी तीर्थ में दिए जलाने का कीर्तिमान स्थापित कर दिया जाता है तो भारत दुनिया भर में फिर से सोने की चिड़िया कहलाया जाने लगता है.
वर्ड कप में भारत नापाक पाकिस्तान से भिड़े या नहीं, यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन जाता है.
आर्यन खान की गिरफ़्तारी और उसकी रिहाई, सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव को निर्धारित करती है.
हम भारत को फिर से जगदगुरु बनाने के लिए क्या इन्हीं नुस्खों का इस्तेमाल करेंगे?
देश की अर्थ-व्यवस्था किस संकट से गुज़र रही है?
बेरोज़गारी राक्षसी सुरसा के मुंह की तरह से किस तरह बढ़ती जा रही है?
सांप्रदायिक वैमनस्य किस प्रकार जंगल की आग की तरह फैलता जा रहा है?
आतंकवाद किस तरह भारत के सुरक्षा-चक्र में सेंध लगा रहा है?
स्त्रियों-बालिकाओं का दमन, उनका शोषण और उनके साथ हुई आपराधिक घटनाओं में निरंतर वृद्धि, हमारा लिंगभेदी सामाजिक और राजनीतिक नज़रिया कैसे उनके विकास में बाधक हो रहा है?
तमिल फ़िल्म - 'जय भीम' में उठाए गए दलितों के शोषण पर उठाए गए असली मुद्दे को कैसे एक विशेष जाति के मान-सम्मान का प्रश्न बना दिया जाता है?
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने आज से 110 साल पहले - 'भारत भारती' में प्रश्न उठाए थे -
'हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होगे अभी ---?'
आज स्वर्ग में बैठे हमारे राष्ट्रकवि को उनके प्रश्नों के उत्तर मिल गए होंगे और भारतीयों को रसातल में जाते हुए देख कर उनका ह्रदय निश्चित ही तड़प रहा होगा.
हमको हमारे असली मुद्दों से हमारा ध्यान भटकाने की सियासती साज़िशें करने वालों को बेनक़ाब करना होगा.
अब चाहे हमको गुमराह करने वाले नेता हों, अभिनेता हों, मसखरे हों, लेखक हों, मीडिया हो, इन सबको इनकी औक़ात पर लाना हमारा फ़र्ज़ बनता है.
इन सबको इनकी औकात पर तभी लाया जा सकता है जब हम इनकी बेसिर-पैर
की बातों पर कोई भी तवज्जो न दें, कोई भी ध्यान न दें.
आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ होते तो कहते -
'और भी मुद्दे हैं जमाने में कंगना, आर्यन के सिवा'
अगर हम इस नए सन्देश को अपने राष्ट्रीय-जीवन में अपनालें तो हमको तरक्की की राह पर चलने से, शान्ति और अमन के मार्ग पर चलने से, कोई नहीं रोक सकता.

रविवार, 14 नवंबर 2021

पॉकेटमनी

 (बाल-दिवस पर मेरी एक कहानी प्रस्तुत है.

1990 के दशक के मध्य में लिखी गयी यह कहानी मैंने अपनी बड़ी बेटी गीतिका के मुख से कहलवाई है.
कहानी तो मेरी लिखी हुई है लेकिन इसमें अनुभव एक 12 साल की बच्ची के ही हैं.)
पॉकेटमनी -
पॉकेटमनी का हमने नाम तो बहुत सुना था पर सात साल की उम्र पार करने पर भी हमने उसे छू कर कभी नहीं देखा था.
हाँ ! बुआजी- ताऊजी लोगों के घर कभी हमारा जाना होता था तो वहाँ दीदियाँ और भैया लोग अपने पॉकेटमनी से हम दोनों बहनों को छोटी-मोटी ट्रीट ज़रूर दिया करते थे.
ऋचा दीदी तो कभी प्रज्ञा दीदी अपने छोटे-छोटे पर्सों में से नोट निकालतीं और फूँक मारते ही आइसक्रीम कोन्स हमारे हाथ में होते. कभी तनु भैया हमारे पोइट्री रिसाइटल से ख़ुश होकर हमको रुपये का एक पत्ता देकर हमसे कहते –
हमारे जयंत भैया और तनु भैया तो हमारे बड़े होने से पहले ही कमाऊ हो गए थे और जब-तब इनाम-इकराम से हमको मालामाल करते रहते थे.
हम अच्छे बच्चे बनकर भैयाओं और दीदियों की सेवा में लगे रहते थे.। दीदियों में से अगर कोई भी पानी माँगता तो हम दोनों ही बहनें एक साथ गिलास लेकर हाजि़र हो जाती थीं.
भैया लोगों से भी ट्रीट लेने के लालच में हम लोग उनकी फ़रमाइशें पूरी करने में जुटे रहते थे.
सुना था कि भैया और दीदी लोग अपनी पसन्द के कपड़े भी अपनी पॉकेटमनी से ही खरीदते थे.
पॉकेटमनी की ताकत हमको पता चल चुकी थी पर हमारे मम्मी-पापा को यह ख़बर ही नहीं थी कि उनकी बच्चियाँ बड़ी हो चुकी हैं और उनके हाथ अब उनकी जेब या पर्स तक पहुँचने लायक हो चुके हैं.
यूँ तो मम्मी-पापा हमारे लिए खूब सामान लाते थे.
बाज़ार में भी अक्सर हमारी फ़रमाइशों को पूरा किया जाता था पर उन्हें पूरी किए जाते समय हर बार हमको उपदेश की भारी डोज़ भी हज़म करनी पड़ती थी.
मम्मी कहती थीं –
‘ मिठाई खाने की वजह से फ़ंला-फ़ंला लड़की के दाँतों में कैविटी हो गई. आइसक्रीम खाने से फ़लां-फ़ंला लड़के के टान्सिल्स बढ़ गए.’
ऐसी बातें तो हम बर्दाश्त कर भी लेते पर गोलगप्पे जैसी भोली और मासूम चीज़ को जब भला-बुरा कहा जाता तो हम आपे से बाहर हो जाते थे.
मम्मी-पापा के साथ बाज़ार में घूमते समय हम दोनों बहनों की नज़र दुकानों के शो-केसेज़ पर रहती थी.
विण्डो शॉपिंग में हम माहिर थे. क्या मजाल कि किसी भी दुकान का कोई भी माल हमारी पारखी नज़़रों से छूट जाए.
हमारी शराफ़त थी कि हम सौ-दो सौ आइटम्स में से सिर्फ़ दस-बारह की ही फ़रमाइश करते थे पर फ़ौरन ही पापा के पैट डायलाग्स हमको सुनाई देते थे –
‘ ये तो घर पर पहले से ही मौजूद है. ये तो टोटली अनहाइजिनिक है, वगैरा, वगैरा.’
उधर मम्मी रागिनी के रिमाइन्डर्स से उक्ता कर फ़रमाइशी आइटम की बुराइयाँ बताना शुरू कर देतीं और साथ में उनका मैनर्स, डिसिप्लिन, बजट और बचत पर ज़ोरदार लेक्चर भी शुरू हो जाता.
मम्मी इकॉनामिक्स की स्टूडैन्ट तो कभी नहीं रही हैं पर बजट पर लम्बा भाषण देना उन्हें बहुत अच्छा लगता है.
ऐसा लेक्चर देते समय अगर मम्मी के सर पर पगड़ी और चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ लगा दी जाए तो वो बिल्कुल डॉक्टर मनमोहन सिंह लगेंगी (तत्कालीन वित्तमंत्री).
पॉकेटमनी के सपने देखते-देखते मैं पापा की शर्ट की पॉकेट तक और रागिनी उनकी पैन्ट की पॉकेट तक पहुँच गईं पर वो हमारे हाथ नहीं आया.
जन्मदिन हम बच्चों के लिए हज़ार ख़ुशियाँ लेकर आता है.
इस दिन हमको वीआईपी ट्रीटमेंट मिलता है, मम्मी-पापा हमारे लिए अलादीन का मिनी चिराग हो जाते हैं और हमारी बड़ी नहीं तो कम से कम छोटी-मोटी ख़्वाहिशें ज़रूर पूरी करते हैं.
मेरे दसवें जन्मदिन पर मम्मी मेरे और अपने दोस्तों को बुलाकर पार्टी देना चाहती थीं पर मैंने इसके बदले में बच्चों के लिए पॉकेटमनी ग्रान्ट किए जाने की डिमाण्ड कर डाली.
रागिनी ने भी मेरे सुर से अपना सुर मिला लिया. चार महीने बाद उसका भी तो आठवाँ जन्मदिन आना था.
आश्चर्य कि मम्मी ने उस दिन बड़े धैर्य के साथ हम बहनों की डिमाण्ड सुनी.
पापा भी उस दिन बहुत अच्छे मूड में थे.
हुर्रे ! उन्होंने हमारी बरसों से चली आ रही पॉकेटमनी दिए जाने की डिमाण्ड को स्वीकार कर लिया.
पापा चाहते थे कि महीने में पचास-पचास रुपये देकर हम दोनों बहनों को निहाल कर दिया जाए.
पॉकेटमनी में दस-दस रुपयों के एनुअल इन्क्रीमेंट का सुझाव भी रखा गया पर सरप्राइज़िन्गली इस बार मम्मी थोड़ी उदार हुईं और उन्होंने सत्तर-सत्तर रुपये के पॉकेटमनी का ऑफर दे डाला. इधर हमारी डिमाण्ड दो-दो सौ रुपयों से नीचे नहीं आ रही थी उधर पापा मम्मी की दरियादिली के लिए उन्हें डाँट पिला रहे थे.
बहस के दौरान पापा ने शेव करते हुए रेज़र से अपना चार बूँद ख़ून बहा दिया और मम्मी ने गैस पर रखे दूध को उफ़न जाने दिया पर हम थे कि हैण्डसम पॉकेटमनी की डिमाण्ड पर अड़े हुए थे.
आखि़रकार दोनों पक्षों के बीच सौदेबाज़ी शुरू हुई.
काफ़ी हो-हल्ले और हाय-हाय के बाद मामला सौ- सौ रुपये महीने पर तय हुआ.
मम्मी ने दो शानदार पर्स हमको पॉकेटमनी रखने के लिए भेंट किए.
जब मम्मी ने हमारे लिए बर्थ-डे बोनस और एक्ज़ाम्स में अच्छे मार्क्स लाने पर एक्स्ट्रा इन्सेटिव का ऐलान किया तो हमको एहसास हुआ कि ऊपर से बड़ी सख़्त दिखने वाली हमारी घरेलू डॉक्टर मनमोहन सिंह का दिल नारियल की तरह से ऊपर से कड़ा और अन्दर से नरम है.
अपने पर्सों में दस-दस रुपयों के दस-दस नोट देखकर हम फूले नहीं समा रहे थे.
मैं अगर राष्ट्रपति होती तो उसी वक़्त मम्मी-पापा दोनों को ही भारत रत्न की उपाधि से सम्म्मानित कर देती पर फि़लहाल तो उनके गले लग कर और थैंक्यू कह कर हमने काम चला लिया.
अब हम बड़े हो गए थे, अपनी मर्ज़ी के ख़ुद मालिक थे.
‘ पापा प्लीज़ ये दिला दीजिए ! और मम्मी हमको ये लेना है या वो लेना है ’ के दिन बीत गए थे.
अब हम बहनों के पास अपने-अपने अलादीन के चिराग थे जिनमें हर महीने तेल के बदले में सौ-सौ रुपये डाल दिए जाते थे.
हमने पॉकेटमनी को लेकर सुनहरे सपने देखने शुरू कर दिए.
अपनी बर्थ-डे को सेलीब्रेट करने के लिए मैं रागिनी को लेकर फ़ौरन मार्केट
के लिए निकल पड़ी. पर पहली शॉपिंग ही हमको भारी पड़ गई.
दस-दस रुपयों की मिनी चाकलेट्स खरीदकर हमारा तो दिल खट्टा हो गया. आखि़र इन जले दूध की दाँत खराब करने वाली तीस-तीस ग्राम की चाकलेट्स पर हम एक बच्चे अपना तीन दिन का पॉकेटमनी क्यों ख़र्च करें?
इनसे अच्छी तो मम्मी की बनाई घरेलू बर्फ़ी होती है.
आइसक्रीम कोन्स खरीदने में तो हमारे बीस रुपये और खर्च हो गए. हमने फ़ौरन ही अपनी आगे की शॉपिंग रोक दी.
चालीस रुपये फूँक कर भी हमारा न तो पेट भरा था और न ही हमारा मन.
एक घण्टे में ही हम दोनों वापस घर आ गए.
मम्मी-पापा ने हमको इतने जल्दी घर वापस आते देखकर कुछ कहा तो नहीं पर दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने ज़रूर लगे.
हमारा मन तो फ़्यूज़ बल्ब जैसा हो गया था.
हम अगर कवि होते तो इस मौके पर कोई दर्द भरा गीत ज़रूर लिख डालते.
सन्तों ने कहा है -
‘ जब आवै सन्तोस धन, सब धन धूरि समान’
हमने भी अपने-अपने मन को मार कर इस संतोष धन को अपना लिया. हम अपने मन को कुछ इस तरह समझाया करते थे –
‘ गाँधीजी चाकलेट नहीं खाते थे फिर भी राष्ट्रपिता बन गए.
लताजी आइसक्रीम नहीं खातीं फिर भी स्वर-कोकिला कहलाती हैं.
पोटैटो चिप्स खाने से बच्चे मोटे हो जाते हैं.
नैपोलियन को गोलगप्पों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी फिर भी वो इतना बड़ा एम्परर बन गया.
घर के बने सादे और पौष्टिक भोजन के सामने चाकलेट, वैफ़र्स, आइसक्रीम, पिज़्ज़ा, मिठाई, चाट, पकौड़े सब तुच्छ हैं.’
हमको तो अब बाज़ार में नाहक घूमना भी बेवकूफ़ी लगने लगी थी –
‘ विण्डो शॉपिंग करना कहाँ की अक्लमन्दी है?
इससे तो अच्छा है कि हम मदर नेचर की ब्यूटी का आनन्द लें.
अल्मोड़ा कैन्टुनमेन्ट की ठन्डी और एकान्त सड़क पर घूमने का सुख लूटें, साथ में अपनी सेहत भी बनाएँ और छुट्टियों में पापा के साथ डोली डांडा के मन्दिर तक का लाँग वाक करके धर्म-लाभ करें.
अल्मोड़ा से बाहर जाने पर कोई हिस्टारिकल प्लेस देखें या किसी चिल्ड्रेन्स पार्क में घूमें.’
हम दोनों बहनों को मिले इस नए ज्ञान से मम्मी-पापा इम्प्रैस्ड होने के बजाय कभी-कभी तो ही ही करके हँस देते थे तो कभी हमारी भावनाओं को चोट न पहुँचाने का ख़याल करके सिर्फ़ मुस्कुरा देते थे.
हमने कन्जूसी अपनाते हुए अपनी जमा-पूँजी में अच्छी-ख़ासी बढ़ोत्तरी कर ली थी पर मम्मी के आने वाले बर्थ-डे ने हमारी रातों की नींद उड़ा दी थी.
मम्मी के बर्थ-डे के आठ दिन बाद ही पापा का बर्थ-डे भी आता है. पॉकेटमनी पाने वाले ज़िम्मेदार बच्चों को अपने मम्मी-पापा के बर्थ-डे पर अच्छे-अच्छे तोहफ़े तो देने ही चाहिए थे.
रागिनी ने मुझसे पूछा –
‘ दीदी ! मम्मी के मेकअप बॉक्स और पापा के लिए पार्कर का पैन सैट कैसा रहेगा?’
मैंने जवाब दिया –
‘ इसमें तो कमसे कम तीन-चार सौ रुपये का ख़र्चा जाएगा.
बी प्रैक्टिकल रागू !
मम्मी-पापा के लिए हमारा प्यार क्या गिफ़्ट्स की कीमतों से नापा जाएगा?
मम्मी को एक अच्छी सी लिपिस्टिक और पापा को एक अच्छा सा बाल पेन देकर भी अपना प्यार जताया जा सकता है.’
मम्मी अपनी लिपिस्टिक पाकर और पापा अपना बाल पेन का सैट पाकर हमसे बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने रिटर्न गिफ़्ट्स में हमको एक-एक वीडियो गेम देकर हमारी बड़ी पुरानी हसरत पूरी कर दी.
पर मम्मी-पापा के लिए हम बच्चों के जन्मदिनों पर प्रैक्टिकल होने की कोई ज़रूरत नहीं थी.
रागिनी का जन्मदिन पापा के जन्मदिन के दो दिन बाद ही पड़ता है. उसने अपने फ़रमाइशी आइटमों की एक लम्बी लिस्ट पापा को थमा दी.
पॉकेटमनी लेते हुए हमको दो साल बीत गए हैं.
एनुअल इन्क्रीमेंट्स और इन्फ़्लेशन का हिसाब करके हमारा पॉकेटमनी अब एक सौ चालीस रुपया कर दिया गया है.
पर हमारी परचेजि़ंग पावर ज्यों की त्यों है बल्कि कहें तो पहले से थोड़ी कम ही हुई है.
ऊपर से बाज़ार में बच्चों को लुभाने वाले नए-नए हाइटैक गैजेट्स और आ गए हैं जिनकी कि कीमत रुपयों में नहीं बल्कि डालर्स और पोंड में आँकना ज़्यादा आसान पड़ता है.
हर जगह हमारा संतोष धन वाला नुस्खा भी काम नहीं आता है.
आखि़र दिल तो दिल ही है कभी-कभी मँहगी चीज़ों पर भी आ जाता है. अब हमने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए नए तरीके अपना लिए हैं.
महीने के आखि़री दिनों में मम्मी-पापा को हम अपनी बचत में से ज़बर्दस्ती उधार देते हैं और अगले महीने के शुरू में ही उस पर पापा से मूलधन समेत भारी ब्याज वसूल कर लेते हैं.
बड़े-बूढ़े सिर्फ़ आशीर्वाद देने के लिए नहीं होते हैं.
उन्हें हम बच्चों को गिफ़्ट्स वगैरा भी देनी चाहिए, आखि़र हम उनकी इतनी इज़्ज़त जो करते हैं.
अम्मा, बाबा, नानाजी, नानी कम से कम हमारी विदाई पर ऐसे नियमों का पालन ज़रूर करते हैं पर और बड़े इन मामलों में ज़्यादा पर्टीकुलर नहीं हैं.
हम तोहफ़ों के कम्पैरिज़न में नकद-नारायण को ज़्यादा इम्पौर्टेन्स देते हैं पर ये बात हम मम्मी-पापा और अम्मा-बाबा के अलावा किसी से नहीं कह पाते.
पापा की पॉलिसी है कि स्कूल में या उससे बाहर भी हम कोई प्राइज़ जीत कर लाते हैं तो वो अलग से हमको बोनस के रूप में कुछ न कुछ कैश देते हैं पर हमारे प्राइज़ेज़ जीतने की रफ़्तार उतनी नहीं है जितनी कि हमारे मन चलने की.
आजकल हम रेग्युलरली न्यूज़ पेपर पढ़ने लगे हैं और टीवी न्यूज़ भी देखने लगे हैं, ख़ास कर जनवरी और जुलाई के महीनों में हम ज़्यादा अलर्ट हो जाते हैं.
पापा के डी0 ए0 बढ़ने की ख़बर सबसे पहले हमको ही मिलती है.
पापा के एनुअल इन्क्रीमेंट की डेट तो हमको याद ही है.
मम्मी की फ़ैलोशिप का इनस्टॉलमेंट कब आ रहा है, इसकी जानकारी भी हमको रहती है.
सचमुच ! अपने मम्मी-पापा की तरक्की के लिए जितनी हम दुआएँ करते हैं, उतनी शायद ही कोई बच्चा अपने पैरेन्ट्स के लिए करता होगा.
साफ़ बात है कि इन सब बातों का हमारे पॉकेटमनी से और एक्स्ट्रा बोनस से सीधा सम्बन्ध है.
हमारी हरकतों से लोगों को लगता होगा कि हम पॉकेटमनी के मामले में थोड़े लालची हैं पर ऐसा बिलकुल भी नहीं है.
हमको गवर्नमेंट से शिकायत है कि उसने बच्चों के बैंक अकाउंट्स पर गार्जियन्स का पहरा बिठा रखा है और हमारे लिए एटीएम कार्ड्स की फ़ैसिलिटी भी प्रोवाइड नहीं की है.
हमको उम्मीद है कि जल्द ही गवर्नमेंट इन बच्चा-विरोधी कानूनों में बदलाव लाएगी.
हम भगवान से दुआ करते हैं कि मम्मी-पापा की डिक्शनरी में कम से कम हमारे लिए ‘ ना ’ शब्द गायब हो जाए और हमारे पॉकेटमनी का साइज़ वो इतना बड़ा कर दे कि उसे रखने के लिए पॉकेट्स के बजाए सूटकेसेज़ की ज़रूरत पड़े.

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

क़यामत की रात

मैं और मेरे मित्र प्रोफ़ेसर अनिल जोशी, दोनों ही 8 नवम्बर, 2016 को छत्तीसगढ़ प्रोविंशियल सिविल सर्विसेज़ एक्ज़ाम्स की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के सिलसिले में रायपुर में थे.
पिछले 5 दिनों से हम लोग वहीं जमे थे और 11 नवम्बर को हमको वापस अपने-अपने घर लौटना था.
हम लोगों ने तय किया कि जाने से पहले कुछ शॉपिंग कर ली जाए.
मैंने तो कोई ख़ास शॉपिंग नहीं की इसलिए मेरे पास अपनी ज़रुरत से काफ़ी रूपये बच रहे लेकिन अनिल जोशी ने आधा दर्जन साड़ियाँ खरीद लीं और इस बम्पर ख़रीदारी की वजह से उनकी जेब और उनके डेबिट कार्ड में जमा रकम खाली हो गयी.
उस समय बाज़ार में मेरे पास मेरा कोई डेबिट कार्ड नहीं था पर मैंने अनिल जोशी को अपनी जेब से निकाल कर नक़द 5000/- उपलब्द्ध करा दिए.
शॉपिंग कर के हम लोग होटल पहुँच कर डाइनिंग रूम में पहुंचे.वहां के जाइंट स्क्रीन वाले टीवी पर समाचार चल रहे थे.
अचानक आदरणीय का रुपहले पर्दे पर प्रदार्पण हुआ. उन्होंने अपने नोटबंदी फ़रमान के बारे में क्या कहा और किस तरह से कहा, पहले तो हमारे समझ में ही नहीं आया लेकिन जब समझ में आया तो हम सब गुरुजन ने अपने-अपने सर पकड़ लिए.
अनिल जोशी को 5000/- देने के बाद उस समय मेरे पास 500/- के क़रीब 15-16 नोट बचे थे और 100/- के मात्र चार ही थे.
अच्छा था कि रायपुर से दिल्ली तक की हवाई-यात्रा की टिकट मेरे पास थी.
नोटबंदी का यह क़यामती समाचार सुनते ही स्मार्ट अनिल जोशी डाइनिंग रूम से फ़ौरन उठ कर अपने कमरे में गए और वहां से अपना सूटकेस खंगाल कर 2500/- ले आए.
वो 2500/- उन्होंने मेरे हाथ में थमाए और फिर मुझ से मुस्कुरा कर बोले -
'दोस्त, अब तुम्हारे 2500/- रूपये ही मुझ पर उधार रहे.'
अपनी ज़िंदगी में उधार दिए गए पैसों की ऐसी दुखदायी वापसी का तजुर्बा मैंने तो कभी नहीं किया था.
हमारे डेबिट कार्ड्स अब बेकार हो चुके थे.
अगले तीन दिन हमने कोई शॉपिंग नहीं की और न ही चाय-पानी पर एक धेला खर्च किया.
होटल के पास की एक चश्मे की दुकान पर मैंने रीडिंग ग्लासेज़ बनवाने का आर्डर दिया था. उसके 1500/ मुझे 9 नवम्बर को चश्मे वाले को देने थे. उस भले आदमी ने 500 के तीन पुराने नोट ले कर ही मुझे मेरा चश्मा थमा दिया.
उधर हमारी श्रीमती जी ग्रेटर नॉएडा में बैंकों के सामने तीन दिन लगातार तीन-तीन घंटे खड़े रह कर पुराने 500/- के और 1000/- नोटों के बदले 100-100 की कई गड्डियां जमा कर ली थीं लेकिन इधर रायपुर में मेरे पास खर्च करने के लिए मात्र 400 रूपये थे.
11 नवम्बर को हमको हमारा टी० ए० नगदी में मिलना था.
हम परीक्षकों ने आयोजकों से प्रार्थना की कि वो हमको यह राशि 100/- के नोटों में दे दें लेकिन उन दुष्टों ने हमको 500/- वाले नोट ही पकड़ा दिए.
अच्छा हुआ कि आयोजकों ने हमको एयरपोर्ट तक पहुँचने के लिए जीप उपलब्ध करा दी थी वरना अपने सौ के चार नोटों के सहारे तो मैं होटल से रायपुर एयरपोर्ट भी नहीं पहुँच सकता था.
दिल्ली एयरपोर्ट से ग्रेटर नॉएडा तक की टैक्सी का भुगतान मैंने अपनी श्रीमती जी से रूपये ले कर ही किया था.
बैंकों के आगे लाइन लगा कर धक्कामुक्की की कथा तो हम सबकी एक जैसी ही है लेकिन परदेस में 100-100 के मात्र चार नोटों के साथ 3 दिन गुज़ारने की याद आज भी मुझको कंपा देती है.
क़यामत की रात कैसी होती है, उसमें क्या-क्या होता है, इसके बारे में हज़ारों डरावनी कहानियां हमने सुन रखी हैं लेकिन मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि क़यामत की रात, 8 नवम्बर, 2016 की बिना आधार कार्ड की इस ऊंची सोच वाली रात से ज़्यादा डरावनी नहीं हो सकती.

रविवार, 7 नवंबर 2021

मक़बरा या तेजो-महालय?

ये किस्सा मेरे जन्म से पहले का है. हमारी एक चाची ताजमहल के निकट ताजगंज की रहने वाली थीं.
जब चाचाजी और चाची का रिश्ता तय हुआ और उनकी शादी हुई तब पिताजी की पोस्टिंग आगरा में ही थी.
एक बार माँ, पिताजी, मेरे भाइयों और बहन के साथ चाची के मायके ताजगंज गए.
नानी जी अर्थात चाची की माताजी ने अतिथियों का भव्य स्वागत किया. बातचीत के दौरान माँ ने उनसे पूछा -
'मौसी, आपके घर से तो ताजमहल साफ़ दिखाई देता है. आपलोग तो रोज़ाना घूमते-घूमते ताजमहल चले जाते होंगे?'
नानीजी ने जवाब दिया -
'जे ताजमहल मरो इत्तो ऊँचो ऐ कि जा पे नजर तो पड़ई जात ऐ.'
(ये कमबख्त ताजमहल इतना ऊंचा है कि इस पर नज़र तो पड़ ही जाती है.)
माँ ने नानी से पूछा –
'आप कितनी बार ताजमहल गयी हैं?'
नानी ने जवाब दिया –
'ए लली, जे तो मकबरो ऐ, बा में जाय के कौन अपबित्तर होय?'
(बिटिया, ये तो मकबरा है, उसमें जा कर कौन अपवित्र हो?)
फिर नानी ने माँ-पिताजी से पूछा -
तुम लोग का मंदिरजी होयके आय रए ओ?
(तुम लोग क्या मंदिर जी हो कर आ रहे हो?)
पिताजी ने जवाब दिया –
'नहीं मंदिरजी हो कर नहीं, हम तो ताजमहल घूम कर आ रहे हैं.'
नानी जी ने माँ-पिताजी का लिहाज़ किए बिना दहाड़ कर अपनी बहू को आवाज़ लगाई –
'बऊ ! महरी ते कै कि मेहमानन के बर्तन कूँ आग में डाल के मांजे'
(बहू, मेहरी से कह कि मेहमानों के बर्तनों को आग में डाल कर मांजे)
इतना कह कर नानी जी भुनभुनाती हुई दुबारा स्नान करने को चली गईं.
साहिर ने भी भक्तिन नानी की तरह ताजमहल को मुमताज़ महल का मकबरा मानते हुए कहा है -
'इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़'
काश कि नानी जी ने और साहिर ने इतिहास में माहिर पी. एन. ओक साहब और श्री विनय कटियार जैसे आज के देशभक्तों के विचारों को पढ़ा होता तो फिर वो ताजमहल बनवाने वाले इस नामुराद बादशाह को कुछ इस तरह कोसते -
'इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
तेजो-मन्दिर को बना रक्खा है मलिका का मज़ार'
और इधर हमारी भक्तिन नानी इस पवित्र मन्दिर तेजो-महालय के दर्शन करने वाले हमारे भक्त माँ-पिताजी पर गुस्सा करने के बजाय उनकी ख़ातिर-तवज्जो करने के साथ-साथ उस पुण्य-भूमि से लाया गया प्रसाद भी श्रद्धा-भाव से ग्रहण करतीं.

बुधवार, 3 नवंबर 2021

नए कलेवर में एक प्राचीन कथा

 प्राचीन कथा - 

हज़रत इब्राहीम जब बल्ख के बादशाह थे, उन्होंने एक गुलाम खरीदा.
हज़रत इब्राहीम उदार थे, उन्होंने गुलाम से पूछा –
‘तेरा नाम क्या है?’
गुलाम बोला –
‘आप जिस नाम से पुकारें !’
हज़रत इब्राहीम ने फिर पूछा –
‘तू क्या खायेगा?’
गुलाम बोला –
जो आप खिलायें !
हज़रत इब्राहीम ने फिर पूछा –
तुझे कैसे कपडे पसन्द हैं?
उत्तर था –
‘जो आप पहनने को दें !’
हज़रत इब्राहीम ने इस बार पूछा –
‘तू क्या काम करेगा?’
गुलाम बोला –
‘जो आप हुक्म करें !’
हज़रत इब्राहीम ने हैरान होकर पूछा –
‘तू चाहता क्या है?’
गुलाम ने जवाब दिया –
‘हुजूर, गुलाम की अपनी चाहत क्या हो सकती है?’
हज़रत इब्राहीम अपनी गद्दी से उतरे और उन्होंने गुलाम को अपने गले लगाते हुए उस से कहा -
‘अरे,तू तो मेरा उस्ताद है !
तूने मुझे सिखा दिया कि परमात्मा के सेवक को कैसा होना चाहिए !’
मानवमात्र के जीवन-दर्शन में दासों के चिंतन को पढा जा सकता है !
मेरे द्वारा इस कहानी का बदला हुआ रूप –
एक आदर्श अंध-प्रचारक -
हज़रत बड़बोले जब अंधेर नगरी के बादशाह थे, उन्होंने एक व्यक्ति को अपना अंध-प्रचारक नियुक्त किया.
चापलूसी-पसंद हज़रत बड़बोले ने अंध-प्रचारक से पूछा -
‘तेरा नाम क्या है?’
अंध-प्रचारक बोला -
‘गरीबपरवर ! आप जिस नाम से भी मुझे पुकारें !
वैसे मेरा नाम लेने की किसी को कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी, सब मुझे हिज़ मास्टर्स वॉइस ही कहेंगे.’
हज़रत बड़बोले ने फिर पूछा -
‘तू क्या खायेगा?’
गुलाम बोला –
‘जो आप खिलायें ! वैसे आपके विरोधियों की गालियाँ, लाठियां तो रोज़ाना और कभी-कभी गोलियां भी मुझे खाने को मिलेंगी ही.’
हज़रत बड़बोले ने फिर पूछा –
‘तुझे कैसे कपडे पसन्द हैं?’
उत्तर था –
‘आपकी पार्टी का झंडा लपेट लूँगा. वैसे भी आपके विरोधी तो मुझे नंगा कर के ही छोड़ेंगे.’
हज़रत बड़बोले का अगला सवाल था –
‘तू क्या काम करेगा?’
अंध-प्रचारक बोला –
‘आपके गुण गाऊंगा और आप के विरोधियों के खिलाफ़ प्रचार करूंगा, उनके विरुद्ध साज़िशें रचवाऊंगा, उन्हें किराए के गुंडों से पिटवाऊंगा और अगर ज़रुरत पड़ी तो उनकी सुपारी दे कर उनको जहन्नुम भी पहुंचवा दूंगा.’
हज़रत बड़बोले ने हैरान होकर पूछा –
‘तू चाहता क्या है?’
अंध-प्रचारक ने उत्तर दिया –
‘हुजूर, अगले चुनाव में सांसद नहीं तो कम से कम विधायक की टिकट दिए जाने के सिवा एक अंध-प्रचारक की अपनी चाहत और क्या हो सकती है?’
हज़रत बड़बोले अपने तख़्त से उतर पड़े और उस अंध-प्रचारक को अपने गले लगा कर उन्होंने फ़रमाया –
‘अरे, तू तो मेरा भी उस्ताद है !
चमचागिरी के मैदान में मैंने भी झंडे गाड़े थे लेकिन मेरे पास न तो तेरे जैसी मोटी चमड़ी थी और न ही तेरे जैसी झूठ और मक्कारी से भरी शीरीं ज़ुबान !
एक न एक दिन तू भी मेरी ही तरह चमचागिरी की सीढ़ी पर चढ़ कर हाकिमे-वक़्त बनेगा !’
चमचा-दर्शन में आदर्श अंध-प्रचारकों की कार्य-शैली को पढ़ाने के लिए इस कथा को अवश्य ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए.
आज फ़िराक़ गोरखपुरी होते तो चमचा-पुराण की भूमिका में अपने शेर को बदल कर कुछ यूँ कहते -
गरज़ कि काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त
वो तलुए चाट के गुज़रें कि दुम हिलाने में