मंगलवार, 15 नवंबर 2016


पुस्तक कला की कक्षा

पुस्तक कला की कक्षा  -
1962 में पिताजी का इटावा से रायबरेली तबादला हो गया था. रायबरेली  में कक्षा 7 में मेरा प्रवेश गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में करा दिया गया था. हमारा कॉलेज अच्छा था, काफ़ी भव्य था और वहां के अध्यापकगण भी आम तौर पर अच्छे थे, खासकर इतिहास, हिंदी और गणित के मास्साब तो लाजवाब थे.
हमारे कॉलेज में कक्षा 6 से लेकर कक्षा 8 तक एक वैकल्पिक विषय होता था. हमको पुस्तक कला, काष्ठ कला और ज्यामितीय कला में से कोई एक विषय चुनने की आज़ादी थी. काष्ठ कला बड़ा बोरिंग और कठिन विषय माना जाता था और ज्यामितीय कला चुनना मेरे लिए हानिकारक हो सकता था क्योंकि मेरी ड्राइंग, आर्ट वगैरा उस ज़माने में (और आज भी है) नितांत एब्सट्रैक्ट हुआ करती थी. मजबूरन मुझे पुस्तक कला विषय चुनना पड़ा.
पुस्तक कला एक ऐसा विषय था जिसे कोई भी विद्यार्थी गंभीरता से नहीं लेता था. ऊपर से रोज़ाना आठवां अर्थात हमारा आखरी पीरियड इस बोरिंग विषय का हुआ करता था. गणित, विज्ञान, इंगलिश और संस्कृत जैसे दुरूह विषय पढ़ते-पढ़ते हमारी पहले ही हालत पतली हो चुकी होती थी. पुस्तक कला के इस अंतिम पीरियड को हम पीटी के पीरियड की ही तरह मौज-मस्ती का पीरियड मानते थे.
पुस्तक कला के हमारे मास्साब थे छोटे नक़वी साहब. एक बड़े नक़वी साहब भी थे जो कि इंटरमीजिएट कक्षाओं में गणित पढ़ाते थे. हमारे छोटे नक़वी साहब एक नमूना थे. उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि कोई चूहा भी उनके सामने खुद को शेर समझ सकता था. नक़वी मास्साब हमको डांटते थे तो हमारी हंसी छूट जाती थी और अगर वो हमारी पीठ पर स्केल चलाने की प्रैक्टिस करते थे तो हम क्लास से भाग खड़े होते थे. छोटे नक़वी मास्साब मेरी ज़िन्दगी के पहले गुरूजी थे जिनका मैंने उपहास उड़ाया था. मास्साब को नजले की शिक़ायत रहती थी. वो एक अंगोछा अपने साथ रखते थे और तरह-तरह की आवाज़ें निकालकर बार-बार उससे अपनी नाक पोंछते रहते थे. नालायक गुरुभक्त बालक उनकी पीठ पीछे आदर से उन्हें ‘नकबही मास्साब’ कहा करते थे. मुझे इस तरह के बेहूदे नामकरण पर घोर आपत्ति थी पर जब दो-चार बार बिना किसी जुर्म के गुरुदेव ने मेरी पीठ पर ज़ोरदार स्केल जड़ दिए तब से मैं भी उनके पीछे उन्हें ‘नकबही मास्साब’ कहने लगा था.
पुस्तक कला के पीरियड में हर लड़के को नियमतः लघुशंका निवारण के लिए जाना पड़ता था और हमारे गुरूजी अक्सर इसकी अनुमति देने के स्थान पर प्रार्थी की पीठ पर दो-चार स्केल जड़ दिया करते थे. लेकिन इस सख्ती का परिणाम अक्सर यह होता था कि घायल लड़का उन्हें ‘नकबही’ कहके क्लास से भाग जाया करता था. मेरे जैसे तथाकथित शरीफ़ लड़के (जो कि उन्हें  ‘नकबही’ कहने  की गुस्ताखी केवल उनके पीछे किया करते थे) ऐसे गुस्ताख चोरों को पकड़ने के लिए सिपाही बनाकर भेज दिए जाते थे और फिर हम चोर-सिपाही प्रिंसिपल साहब की नज़रों से छुपकर अपने क्लास के बाहर ही मज़े से कबड्डी खेला करते थे.
छोटे नक़वी साहब की बाज़ार में स्टेशनरी की दुकान थी. हम जैसे कलाकारों को जिनको कि लिफ़ाफ़ा बनाना भी नहीं आता था, वो सलाह दिया करते थे कि हम खुद टेढ़ी-मेढ़ी कलाकृतियाँ बनाने के बजाय उनकी दुकान से लिफ़ाफ़ा, बुक मार्क, फ़ाइल कवर, फ्लावर स्टैंड आदि खरीदकर जमा कर दें. अच्छे अंकों की गारंटी के आश्वासन पर हमलोग उनके जाल में अक्सर फँस भी जाया करते थे. एक बार हमको फ़ाइल कवर बनाने का काम दिया गया. ज़ाहिर था मेरे लिए यह काम करना असंभव था. इंटरमीजिएट में पढ़ रहे हमारे श्रीश भाई साहब ने पुराने ज़माने में एक सुन्दर फ़ाइल कवर बनाया था. मैंने उनसे एक हफ़्ते के लिए उनका वो फ़ाइल कवर उधार मांग लिया. यहाँ यह मैं क्यूँ बताऊँ कि इस उपकार के बदले में उन्होंने मुझसे अपने दो-दो जोड़ी जूतों पर पॉलिश करवाई थी.
नक़वी मास्साब इस सुन्दर फ़ाइल कवर को देखकर बड़े खुश हुए. मुझे पहली बार उन्होंने ‘गुड’ दिया. पर इस जमा किए हुए फ़ाइल कवर को मुझे लौटाना वो क़तई भूल गए. अब इधर हमारे श्रीश भाई साहब के उपकार की मियाद पूरी हो चुकी थी. भाई साहब फ़ाइल कवर की वापसी के तकाज़े मेरी पीठ पर मुक्के मार-मार कर रहे थे और मैं बिचारा मास्साब से रोते-बिसूरते हुए फ़ाइल कवर वापस करने की गुहार लगा रहा था. हमारे नक़वी मास्साब की प्रतिष्ठा इतनी थी कि महात्मा गाँधी इंटर कॉलेज में पढ़ने वाले श्रीश भाई साहब को भी यह पता था कि वो अपने विद्यार्थियों से जमा कराई गई अच्छी-अच्छी कलाकृतियाँ अपनी दुकान पर बेचने के लिए रख देते हैं. श्रीश भाई साहब को पता नहीं अपने उस फ़ाइल कवर से कितना प्यार था कि वो उसकी तलाश में नक़वी मास्साब की दुकान पर चले गए. इतना ही नहीं, वहां बिक्री के लिए डिस्प्ले पर लगे आइटम्स में उन्होंने अपना फ़ाइल कवर खोज भी लिया और उसे वो वहां से अठन्नी में ख़रीद भी लाए. अब अपनी अठन्नी मुझसे वसूल करने के लिए भाई साहब मुझ पर जोर डाल रहे थे और मैं मास्साब से अठन्नी लेने के लिए रोज़ाना हल्ला मचा रहा था. उन दिनों अठन्नी मेरे एक हफ़्ते का पॉकेटमनी हुआ करती थी. पर मास्साब के कानों पर जूं भी नहीं रेंग रही थी. अब मुझे लगता है कि श्री जयशंकर प्रसाद ने अपने फ़ाइल कवर हज़म करने वाले किसी मास्साब को ध्यान में रख कर ही कहा होगा –
‘रो-रो कर सिसक-सिसक कर, कहता मैं करुण कहानी,
तुम सुमन नोचते सुनते, करते जानी-अनजानी.’                                                                                  
हर ओर से निराश होकर मैंने अपनी व्यथा अपने पिताजी से कही. हमारे धीर-गंभीर न्यायधीश पिताजी कभी इतना नहीं हँसे होंगे जितना इस किस्से को सुनकर हँसे थे. उन्होंने श्रीश भाई साहब को बुलाकर उन्हें एक अठन्नी दे दी और मुझसे कहा कि मैं नक़वी मास्साब की इस लूट को भूल जाऊं. पर मैं क्या करूँ, इस लूट को आधी सदी से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र गया है पर मैं उसे आज भी भूला नहीं हूँ और पिताजी के आदेश की अवहेलना करते हुए उस हादसे के अनुभव को कागज़ पर उतार भी रहा हूँ.
कक्षा 7 और कक्षा 8 में पुस्तक कला की कक्षा में मैंने अपने विद्यार्थी जीवन की कुल 50 प्रतिशत शरारत की होंगी. फ़ाइल कवर प्रसंग के बाद मेरी शरारतों की डोज़ बढ़ती गयी और मेरी अठन्नी कभी न लौटने वाले बेचारे बेबस मास्साब उसे हज़म करते रहे. नक़वी मास्साब के क्लास में ही मैं कागज़ के हवाई जहाज़ बनाकर उड़ाने में एक्सपर्ट हुआ और अपने दोस्तों पर चौक मारने में मुझे महारत भी उन्हीं की मेहरबानी से हासिल हुई.   
मैंने बी. ए. करने के दौरान श्री लाल शुक्ल जी का महान उपन्यास ‘राग दरबारी’ पढ़ा था. उस उपन्यास में आटा चक्की वाले मास्साब का चरित्र मुझे अपने छोटे नक़वी मास्साब के चरित्र जैसा लगा.
मैं खुशकिस्मत हूँ कि मैं यह का सकता हूँ - श्री जयशंकर प्रसाद और श्री लाल शुक्ल जी को भी मेरे छोटे नक़वी मास्साब जैसे गुरु मिले थे. अगर ये दो महानुभाव अपने गुरुजन की कृपा से इतने बड़े साहित्यकार बन सकते हैं तो नक़वी मास्साब के साये में घाघ बने मुझको महान साहित्यकार बनने से कौन रोक सकता है? मुझको अगर साहित्य का नोबिल पुरस्कार मिला तो यह तय है कि उसे मैं अपने छोटे नक़वी मास्साब को ही समर्पित करूँगा.