शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

दुनिया न माने

दुनिया न माने –
1937 में रुपहले परदे पर व्ही शांताराम की एक फ़िल्म आई थी - ‘दुनिया न माने’. बेमेल विवाह की समस्या पर इस से बेहतर कोई फ़िल्म हो ही नहीं सकती. एक कम उम्र की लड़की को जबरन एक अधेड़ विधुर से ब्याह दिया जाता है लेकिन वो लड़की अपने बाप की उम्र के इस शख्स को अपना पति स्वीकार ही नहीं करती. धर्म और समाज के ठेकेदारों के अनवरत विरोध के बावजूद धीरे-धीरे परिस्थियाँ इस विद्रोहिणी लड़की के लिए अनुकूल होती जाती हैं. उसके अधेड़ पति को खुद ये एहसास होता है कि उसने एक मासूम के सपनों का खून किया है. पश्चाताप की आग में जलते हुए वह एक पत्र में उस लड़की को नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू करने की गुज़ारिश करता है और फिर आत्म-हत्या कर लेता है.
हमारी यह कहानी इस फ़िल्मी कहानी से मिलती-जुल्ती तो है लेकिन इसमें थोड़ा ट्विस्ट है.
हमारी कहानी आज से करीब 50 साल पुरानी है.
प्रिंसिपल रामचन्द्र शुक्ल की पूरे कीर्तिनगर में बड़ी इज्ज़त थी. और दूसरी तरफ़ उनके बचपन के दोस्त लाला भानचंद थे जिनकी ख्याति सूदखोर बनिये के रूप में कीर्तिनगर की सीमाओं को भी लांघ चुकी थी.
लोगबाग उजाले और अँधेरे की इस दोस्ती पर बड़ा अचरज करते थे लेकिन 50 साल पुरानी इस दोस्ती में कभी कोई दरार नहीं पड़ी थी.
प्रिंसिपल साहब की एक बेटी थी, जिसकी शादी हो चुकी थी और वह सपरिवार पूना में रहती थी. कीर्तिनगर में तो शुक्ल जी और उनकी श्रीमती जी ही रहते थे.
लाला भानचंद के दो बेटियां थीं, दोनों ही विवाहित थीं. दुर्भाग्य से लाला जी की श्रीमती जी दो साल पहले उनका साथ छोड़कर स्वर्ग सिधार गयी थीं. लाला जी बेचारे अपने हवेली जैसे बड़े से घर में अकेले ही दिन और रात बिताने को मजबूर थे.
शुक्ल जी, लाला जी को धर्म-दर्शन के जो उपदेश देते थे, वो उनके पल्ले नहीं पड़ते थे और जब वो –‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ जैसे उनके प्रिय सिद्धांत के ख़िलाफ़ कुछ बोलते थे तो उनके तन-बदन में आग लग जाती थी. हर बार ऐसी सभा, बे-नतीजा भंग हो जाती थी.
एक बार शुक्ल जी और उनकी श्रीमती जी अपनी बिटिया से मिलने पूना चले गए. एक महीने बाद वो लौटे तो देखा कि सारे कीर्तिनगर में हंगामा मचा हुआ है. उनके पांवों तले ज़मीन खिसक गयी जब उन्हें पता चला कि पचपन साला विधुर, दो विवाहित बेटियों के पिता, उनके लंगोटिया यार, लाला भानचंद ने एक इक्कीस साल की कन्या से चुपचाप शादी कर ली है.
अपने घर लौटने के 15 मिनट बाद ही शुक्ल जी को लाला भानचंद के घर का दरवाज़ा पीटते हुए देखा गया. लाला जी घर पर नहीं थे पर दरवाज़ा फिर भी खुला और उसे खोला एक लड़की ने. लड़की ने शुक्ल जी को देखते ही कहा –
‘अरे, सर आप?’
इतना कहकर वह उनके चरण छूने के लिए झुक गयी.
और शुक्ल जी ने उस लड़की को देखते ही कहा –
‘अरे किरण तुम?’
और इतना कहकर उन्होंने अपने दोंनों हाथों से अपना सर पीट लिया.
लाला भानचंद, अपने परम मित्र शुक्ल जी की ही एक पूर्व छात्रा किरण गुप्ता को ब्याह कर अपने राज-महल में ले आए थे.
किरण गुप्ता ने बताया कि क़र्ज़ में डूबे हुए उसके नशेड़ी और जुआड़ी बाप फूलचंद गुप्ता ने उसको तीस हज़ार रुपयों में लाला भानचंद के हाथों बेच दिया था और उसके विरोध करने पर ज़हर खाकर अपनी जान देने की धमकी देकर उसे इस बेमेल विवाह को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया था.
किरण ने बिना कोई संकोच किए अपने गुरु जी को यह भी बता दिया कि वह एक लड़के से प्यार करती है और अपने जीते जी बुढ़ऊ लाला भानचंद को अपना हाथ तक भी छूने नहीं देगी.
शुक्ल जी ने मरते दम तक इस लड़ाई में किरण का साथ देने का वादा किया और फिर उसके सर पर हाथ रखकर उन्होंने उस से विदा ली.
उसी शाम खिसियाते हुए, शरमाते हुए, थोड़ा डरते हुए, लाला भानचंद, शुक्ल जी के घर पधारे. हाथ में लाया हुआ मिठाई का डिब्बा उन्होंने टेबल पर रक्खा और फिर बेशर्मी से अपनी खींसे निपोर कर, अपने हाथ जोड़कर, अपने दोस्त के सामने खड़े हो गए.
श्रीमती शुक्ल आशंकित होकर चुपचाप इन दोनों दोस्तों का मिलन देख रही थीं.
शुक्ल जी ने टेबल पर रक्खा हुआ मिठाई का डिब्बा उठाया और फिर उसे अपने नव-विवाहित दोस्त के लगभग गंजे सर पर पटक दिया.
जब तक घायल दोस्त – ‘अरे ये क्या कर रहे हो?’
और श्रीमती शुक्ल – ‘हाय राम ऐसे भी कोई करता है?’
वाक्य पूरे करें, उन्होंने धक्का देकर लाला जी को अपने घर से निकालकर दरवाज़ा बंद कर लिया.
15 मिनट बाद श्रीमती शुक्ल ने डरते-कांपते, सहमे-थरथराते हुए, लाला भानचंद को परशुराम बने अपने पतिदेव के सामने फिर खड़ा कर दिया.
इस बार बेमेल विवाह का अपराधी घर से धक्के मारकर निकाला तो नहीं गया लेकिन उसकी भर्त्सना में हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के चुनिन्दा शब्दों का जमकर उपयोग किया गया.
गालियाँ खाते-खाते लाला भानचंद ने अपने मित्र के पैर पकड़ते हुए कहा –
‘दोस्त ! जब से तुम्हारी भतीजियाँ अपनी-अपनी ससुराल गयी हैं और तुम्हारी भाभी मुझे हमेशा के लिए छोड़कर गयी है, मुझे अपना घर काटने को दौड़ता है. अब बुढ़ापे में अकेला नहीं रहा जाता. इसलिए मैं जीवन-संगिनी ले आया.’
मित्र ने दहाड़कर कर कहा –
‘जीवन-संगिनी लानी ही थी तो कोई अपनी हम-उम्र लाते. ये नातिनी क्यों ले आए? तुम विधुर हो, अपनी उम्र की किसी विधवा, तलाकशुदा या किसी चिर-कुमारी से शादी करते तो हमारा-तुम्हारा परिवार ही क्या, सारा समाज खुशी-खुशी उसमें शामिल होता.’
लाला ने अपने दोस्त के मक्खन लगाते हुए कहा –
‘गुस्सा थूक दो दोस्त ! अब तो तुम हमारी किरण को आशीर्वाद दो कि वह अपनी नई ज़िन्दगी सुख से बिताए.’
शुक्ल जी ने अपने दोस्त के मक्खन लगाए जाने का जवाब उनके कलेजे पर छुरी चलाते हुए दिया –
‘किरण मेरी छात्रा थी. उसको मैं आशीर्वाद तो तुम्हारे घर जाकर ही दे आया हूँ और साथ में उस से यह वादा भी कर आया हूँ कि इस बेमेल शादी को तुड़वा कर, उसकी शादी उस लड़के से करवाऊँगा, जिसे वो प्यार करती है.’
गुस्से से तमतमाते हुए लाला जी ने अपने मित्र से पूछा –
‘अच्छा तो किरण का पहले से कोई चक्कर है? अपनी अंटी में तीस हज़ार रूपये ठूंसते हुए तो उसके बाप ने मुझे ये बात नहीं बताई थी.’
शुक्ल जी बोले –
‘तुम्हारे तीस हज़ार रूपये डूबेंगे नहीं. माना कि किरण का लालची बाप तुम्हारे पैसे नहीं लौटाएगा पर अपने प्रोविडेंट फण्ड से इतने रूपये निकालकर मैं तुम्हें दे दूंगा. बस, तुम किरण को इस पाप-बंधन से मुक्त कर दो.’
लाला जी इधर-उधर झाँकने लगे पर तभी शुक्ल जी ने एक और बम दाग दिया –
‘किरण अब तुम्हारे घर में नहीं रहेगी. अपने लालची बाप का तो वो मुंह भी नहीं देखना चाहती है. जब तक तुम्हारे तीस हज़ार तुमको वापस नहीं मिलते तब तक वो हमारी दूसरी बेटी बनकर हमारे साथ रहेगी. तुमसे बंधन-मुक्त होकर वो जहाँ जाना चाहेगी, जा सकती है. मेरे इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ तुमने कुछ भी चूं-चां की तो मैं तुम्हारे ख़िलाफ़ जन-आन्दोलन करा दूंगा. इस मामले में मैं ईश्वरचंद्र विद्यासागर का चेला हूँ.’
कुछ ही समय बाद गुरु और गुरुमाता अपनी इस दूसरी बेटी को अपने घर ले आए और लाला भानचंद की उन्हें रोकने की हिम्मत भी नहीं हुई.
दो दिनों बाद किरण की बुआ जी प्रभा देवी शुक्ल जी के घर पहुँचीं.
किरण को बहुत-बहुत प्यार करने वाली, परिपक्व आयु की, भव्य व्यक्तित्व वाली, प्रभा देवी एक बाल-विधवा थीं. वो एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं. उन्होंने इस बेमेल विवाह को रोकने की लाख कोशिशें की थीं पर उनका लालची भाई अपने फ़ैसले पर अडिग रहा था. इस शादी के बाद प्रभा देवी ने अपना पैतृक घर छोड़ दिया था और अब वो एक किराए के एक छोटे से मकान में रहने लगी थीं.
प्रभा देवी बैंक से लोन लेकर लाला भानचंद के तीस हज़ार रूपये वापस करने का इंतज़ाम भी कर रही थीं. प्रभा देवी अब चाहती थीं कि बुआ-भतीजी साथ रहकर ज़िन्दगी की सभी मुश्किलों का सामना करें.
शुक्ल दंपत्ति प्रभा देवी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ.
किरण कुछ दिन बेटी की तरह शुक्ल दंपत्ति के साथ रहकर अपनी बुआ के साथ उनके घर चली गयी. लाला भानचंद की उसे रोकने की हिम्मत ही नहीं हुई. शायद अब लाला जी को भी अपनी गलती का कुछ-कुछ एहसास हो गया था.
तीस हज़ार रुपयों की रकम की पहली किश्त के रूप में 10 हज़ार रूपये लेकर जब प्रभा देवी शुक्ल जी के पास आईं तो उन्होंने कुछ सोचकर उन्हें लाला भानचंद के पास भेज दिया.
आश्चर्य ! लाला भानचंद प्रभा देवी से बहुत सभ्यता से पेश आए और उनके अनुरोध पर वो तलाक़ के कागज़ात पर दस्तख़त करने को भी तैयार हो गए. और तो और उन्होंने वो 10 हज़ार रूपये भी लेने से इंकार कर दिया.
इस समाचार को सुनकर शुक्ल जी के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान आ गयी. उन्होंने अपनी श्रीमती जी से कहा –
‘मेरे मन में एक ब्रिलियंट आइडिया आया है. इस शरीफ़ हो चुके लाला की क्यों न प्रभा देवी से शादी करवा दी जाए?
लाला और किरण के तलाक़ होने तक इन दोनों की बार-बार मुलाक़ात करवाते हैं.’
श्रीमती शुक्ल को भी यह योजना बहुत पसंद आई.
अगले 6 महीनों तक लाला जी और प्रभा देवी किरण-लालाजी के तलाक़ के सिलसिले में कई बार मिले. सुधरे हुए लाला जी और उसूलों वाली प्रभा देवी के बीच अच्छी खासी दोस्ती भी हो गयी थी.
लालाजी और किरण के बीच आपसी सहमति से तलाक़ हो गया.
इधर शुक्ल जी और प्रभा देवी ने किरण के दोस्त नवल को उस से शादी करने के लिए राज़ी भी कर लिया. दोनों की शादी की तारीख भी पक्की हो गयी.
लाला भानचंद, प्रभा देवी के साथ अपने मित्र के घर पधारे और उन्होंने किरण-नवल की शादी की एक अद्भुत शर्त रख दी. और वह शर्त थी कि अपने पापों का प्रायिश्चित करने के लिए किरण का कन्यादान वो खुद करेंगे.
शुक्ल जी ने इस शर्त को अपनी एक शर्त लगाकर सहर्ष मान लिया. उन्होंने प्रभा देवी और लाला भानचंद के सामने अपनी शर्त रक्खी –
‘तुम दोनों ही एक-साथ मिलकर किरण का कन्यादान करोगे. लेकिन अगले दिन एक और विवाह होगा जिसमें मैं कन्यादान करूंगा और इसमें तुम दोनों को आना होगा’
लाला जी और प्रभा देवी ने एक साथ शुक्ल जी से पूछा –
‘अगले दिन किन की शादी होगी?
शुक्ल जी ने अपनी श्रीमती जी की तरफ़ मुस्कुराते हुए देखा और फिर कहा –
‘तुम दोनों की शादी ! और हाँ, हमारी दोनों भतीजियाँ भी अपने पिताजी और अपनी नई माँ को शुभकामनाएँ देने के लिए यहाँ पहुँच रही हैं.
तो मित्रों ! इन दो विवाहों के संपन्न होने से फ़िल्म ‘दुनिया न माने’ की कहानी में एक खूबसूरत ट्विस्ट आ गया और हमारी कहानी पूर्णतया सुखान्त हो गयी.

शनिवार, 24 नवंबर 2018

रत्नावली का उलाहना और तुलसीदास की मनुहार

सतीश सक्सेना
हम बुलबुल मस्त बहारों की,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें
जब से व्याही हूँ साथ तेरे
लगता है मजदूरी कर ली
बर्तन धोये घर साफ़ करें
बुड्ढे बुढिया के पाँव छुएं !
जब से पापा ने शादी की,
फूटी किस्मत, अरमान लुटे !
जब देखो तब बटुआ खाली,
हम बात तुम्हारी क्यों माने !
ना नौकर है ,ना चाकर है,
ना ड्राइवर है ना वाच मैन !
घर बैठे कन्या दान मिला
ऐसे भिखमंगे चिरकुट को,
कालिज पार्टी,तितली,मस्ती,
बातें लगती सपने जैसी !
चौकीदारी इस घर की कर,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें
पत्नी , सावित्री सी चहिए,
पति-परमेश्वर की पूजा को !
गंगा स्नान के मौके पर ,
जी करता धक्का देने को !
तुम पैग हाथ लेकर बैठो ,
हम गरम गरम भोजन परसें !
हम आग लगा दें दुनिया में,
हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
हम लवली हैं ,तुम भूतनाथ
हम जल-तरंग, तुम फटे ढोल,
हम जब चलते, धरती झूमें
तुम हिलते चलते गोल गोल,
तुम आँखे दिखाओ,लाल हमें,
हम हाथ जोड़ ताबेदारी ?
हम धूल उड़ा दें दुनिया की,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?
ये शकल कबूतर सी लेकर
पति परमेश्वर बन जाते हैं !
जब बात खर्च की आए तो
मुंह पर बारह बज जाते हैं !
पैसे निकालते दम निकले ,
महफ़िल में बनते शहजादे !
हम बुलबुल मस्त बहारों की,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?
मेरी तरफ़ से –
तुलसीदास के अवतार पतिदेव का अपनी रत्नावली को उत्तर –
तुम भूल गईं इतनी जल्दी,
क्या-क्या खातिर करवाई थीं,
पिछले ही साल प्रिये तुमको,
दो-दो हिट फ़िल्म दिखाई थीं.
बर्तन झाडू पोंछा करके,
स्त्री की सेहत बनती है.
यह सोच मेड की छुट्टी कर,
फिर तुमसे गाली खाई थीं.
हर माह बड़ा ख़र्चा करके,
मैं तुमको चाट खिलाता हूँ,
पैदल चलने में नखड़े हों,
तो ऑटो में ले जाता हूँ.
साड़ी मैके से लाती हो,
पर फॉल स्वयं दिलवाता हूँ.
भैया गर भेजें राह-खर्च,
तो झट उनसे मिलवाता हूँ.
तुम नहीं मोल समझीं रत्ने,
अब तक अपने इस तुलसी का,
घर त्याग कभी जोगी होऊं,
फिर खर्च चले कैसे घर का?
छोड़ो ताने का गान प्रिये,
तुम दिखला दो मुस्कान प्रिये,
अब रुचिकर-व्यंजन पेश करो,
झगड़े में हो गयी शाम प्रिये.

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

नामकरण

नामकरण -
अल्मोड़ा की उन दिनों की बात है जब हमारी बेटियां, गीतिका और रागिनी छोटी हुआ करती थीं, पर इतनी छोटी भी नहीं कि घर में कुछ समय तक हमारे बिना रह न सकें.
हम पति-पत्नी जब शाम को टहलने जाते थे तो वो दोनों पढ़ाई करने के नाम पर अक्सर घर में ही रह जाया करती थीं. हमारी हिदायत के अनुसार वो अन्दर से दरवाज़ा बंद कर लेती थीं और फिर हमारे आने पर ही दरवाज़ा खोलती थीं.
हमारे दुगालखोला वाले जोशी जी के मकान में काफ़ी ज़मीन थी. हमारी श्रीमती जी ने उसमें बहुत से फूल और ख़ूब सारी सब्ज़ी लगाई थी, ख़ासकर हमारे किचन-गार्डन में कद्दुओं की तो बहार थी.
अपने हर अतिथि को जाते समय एक भारी कद्दू प्रदान करना हमारे घर का रिवाज सा बन गया था.
एक बार हमारे एक मित्र पहली बार हमसे मिलने आए. हम मियां-बीबी टहलने गए हुए थे पर बेटियां घर पर ही थीं.
हमारी बेटियों का उन मित्र से परिचय नहीं था
हमारे मित्र से हमारी बेटियों ने खिड़की से झांक कर ही बात की. मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने उन से उनका नाम पूछा तो वो बोले -
'हमारा नाम जानकर क्या करोगी बिटिया? हम कल शाम फिर आएँगे.'
इतना कहकर मित्र जाने लगे तो उनकी नज़र घर के बाहर के हिस्से में रक्खे दो दर्जन कद्दुओं पर पड़ी. उन्होंने हमारी बेटियों से पूछे बिना एक भारी सा कद्दू उठाया और उसे लेकर चले गए.
हम जब आए तो बेटियों ने सारा वाक़या हमको सुनाया. हम दोनों बेटियों के बताए गए हुलिए के बाद भी यह निश्चित नहीं कर पाए कि वो सज्जन कौन थे.
खैर अगला दिन आ गया. तीसरे पहर हम दोनों फिर गीतिका, रागिनी को घर में ही छोड़कर, 10-15 मिनट के लिए अपने पड़ौस में एक मित्र के यहाँ गए थे. तभी हमारी रागिनी जी भागती हुई उस पडौसी मित्र के घर आईं और हांफ़ते हुए मुझ से बोलीं -
'पापा ! पापा ! आपके वही दोस्त आए हैं.'
मैंने पूछा - 'कौन से दोस्त?'
रागिनी ने जवाब दिया - 'नाम तो मुझे उनका नहीं पता.'
फिर अचानक रागिनी जी के दिमाग की बत्ती जली और उन्होंने चहक कर कहा -
 'वही कल वाले 'कद्दू-चोर अंकल.'

रविवार, 18 नवंबर 2018

हेलेन

हेलेन ऑफ़ ट्रॉय की रोमांचक और दुखद गाथा, हम सबने बचपन में पढ़ी होगी लेकिन आज से 50-60 साल पहले हेलेन ऑफ़ बॉलीवुड की गाथा हम सब भारतीयों के दिलो-दिमाग पर छाई रहती थी. उसी हेलेन का एक रोमांचक किस्सा हमारे घर-परिवार में अक्सर याद किया जाता है.
हमारे बाबा दि ग्रेट बड़े सात्विक और नो-नॉनसेंस किस्म के प्राणी थे और अपनी पसंद-नापसंद को जग-ज़ाहिर करने में एक सेकंड का समय भी बर्बाद करने में विश्वास नहीं करते थे.
बाबा की एक दूर की भांजी का, यानी कि हमारी एक बुआजी का परिवार, हमारे बाबा को क़तई पसंद नहीं था. हमारी ये बुआजी बेचारी खुद तो गाय-छाप थीं लेकिन उनके पतिदेव अर्थात् हमारे फूफाजी बहुत ही बेढब किस्म के प्राणी थे. फूफाजी दरोगा थे जो कि दाब के रिश्वत लेते थे, उनके श्री-मुख से गालियों के फूल निरंतर झड़ते रहते थे और उनकी अभिरुचियां भी कुछ ज़्यादा ही टेक्नीकलर हुआ करती थीं. हमारे उसूलों के पक्के, सादा जीवन-उच्च विचार तथा कबीर जैसी खरी-खरी सुनाने वाले बाबा ने, उन्हें कुल-कलंक दरोगा का नाम दे रक्खा था और उनकी सख्त हिदायत थी कि उस नालायक को उनके पास फटकने भी नहीं दिया जाए.
हमारी अम्मा की मृत्यु के बाद हमारे बाबा काफ़ी बीमार रहने लगे थे. अक्सर लोग उनकी मिजाज़पुर्सी के लिए आते रहते थे. एक बार मैं और मुझसे बड़े भाई साहब बाबा से मिलने के लिए गए थे.
बाबा को हम बच्चों को पुराने किस्से सुनाना बहुत अच्छा लगता था. बाबा के रूड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज के किस्सों के बाद जब तक फर्स्ट वर्ड वार के किस्से शुरू हों तब तक हमारे बड़े चाचाजी ने बाबा को एक धमाकेदार खबर सुना दी. वो धमाकेदार खबर थी कि बाबा के पसंदीदा दामाद - कुल-कलंक दरोगा उनकी मिजाज़-पुर्सी के लिए घर में पधार चुके थे.
यह खबर सुनते ही बाबा बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उछल पड़े. बाबा अपने प्रिय दामाद के लिए चुने हुए विशेषण इस्तेमाल करें, उस से पहले ही चाचाजी ने हाथ जोड़कर उनसे अरदास की कि वो खानदान की इज्ज़त का ख़याल करके सिर्फ़ पांच मिनट तक उस कुल-कलंक दरोगा को बर्दाश्त कर लें. इसके बाद खाना खिलाने के बहाने उन्हें बाबा से दूर कर दिया जाएगा.
बाबा ने खा जाने वाली नज़रों से चाचा जी को देखा फिर हम दोनों भाइयों का लिहाज़ करके दामाद जी से मिलने के लिए अपनी सहमति दे दी.
बाबा के तथाकथित कुल-कलंक दामाद अर्थात् हमारे फूफाजी पधारे. उन्होंने बड़े अदब से बाबा की तबियत के बारे में पूछा. ये एक ऐसा विषय था जिस पर बाबा दुश्मन से भी घंटों बोल सकते थे. विस्तार से हाई ब्लड प्रेशर, एंजाइना पेन के बाद बाबा अनिद्रा रोग पर आए तो फूफाजी भी अपने अनिद्रा रोग का रोना रोने लगे. उन्होंने बाबा से कहा –
मामा जी, आपकी तो उम्र हुई. इस उम्र में भला किसको नींद आती है? पर इन दिनों तो हमारी भी रातों की नींद हराम हो गयी है.’
बाबा ने हैरान होकर पूछा –
तुमको क्या परेशानी हो गयी? जवान हो, हट्टे-कट्टे हो, दाब कर खाते हो.’
फूफाजी ने अपने अनिद्रा रोग का रहस्य खोला –
अरे मामाजी, हमारी नींद तो इस कमबख्त हेलेन ने छीन ली है. आप हेलेन को तो जानते ही होंगे?’
बाबा ने जवाब दिया –
जानने का क्या मतलब? हेलेन ऑफ़ ट्रॉय के बारे में पढ़ा ज़रूर है. वो लकड़ी के बने बड़े से घोड़े में सिपाहियों को छुपा कर ले जाने वाली कहानी !
फूफाजी बाबा की इस नादानी पर जोर से हँसे फिर उन से बोले –
क्या मामाजी हम आज की बात कर रहे हैं और आप हजारों साल पहले की कहानी पर पहुँच गए. आप एक बार हमारी इस हेलेन ऑफ़ बॉलीवुड को डांस करते हुए देख लीजिए. उस हेलेन ऑफ़ ट्रॉय को आप भूल न जाएं तो हज़ार रूपये आपके क़दमों में रख दूंगा.
क्या नाचती है? क्या कमर हिलाती है? और उसकी तो नज़र भी ऐसी कातिलाना है कि कोई पहलवान भी गश खाकर गिर पड़े.
हम दोनों भाई इस इंतज़ार में थे कि कब बाबा अपनी चप्पल उठाकर दामाद जी की श्रेष्ठ अभिरुचि की दाद देंगे पर ऐसी कोई हिंसक घटना नहीं हुई.
फूफाजी आधे घंटे तक हेलेन की कातिल अदाओं का ज़िक्र करते रहे. फ़लां फ़िल्म में उसका कैबरे कमाल का था, फ़लां फ़िल्म में तो वो अपनी अदाओं से हीरोइन को भी खा गयी थी. हावड़ा ब्रिज में तो उसने मधुबाला को टक्कर दी थी ज्वेल थीफ़ में तो उसने हमको मार ही डाला था, गुमनाम में ऐसा और दस लाख में वैसा – फूफाजी का हेलेन पुराण चलता रहा और हमारे बाबा निर्विकार होकर शांत होकर बिस्तर पर पड़े पड़े उसे सुनते रहे.
हम दोनों भाई सोच रहे थे कि हमारे बाबा के भेस में विनोबा भावे आकर लेट गए हैं. खैर फूफाजी की कथा का अंत हुआ चाचाजी ने उन्हें खाने के लिए बुला लिया और फूफाजी ने हमारे बाबा से बहुत श्रद्धा के साथ साष्टांग प्रणाम कर के उन से विदा ली.
फूफाजी चले गए हम दोनों भाई भी जब खाने के लिए जाने लगे तो बाबा ने अपनी हियरिंग एड में कुछ एडजस्टमेंट कर के हम से पूछा –
तुम्हारा ये दरोगा फूफा हेलेन ऑफ़ ट्रॉय के बारे में इतनी देर तक क्या बता रहा था?
मैंने हैरान होकर पूछा –
बाबा, हेलेन ऑफ़ ट्रॉय की कहानी किसने सुनाई थी? आपने क्या फूफाजी की सारी बातें नहीं सुनीं?
बाबा ने फ़रमाया –
अब पढ़ी-पढ़ाई कहानी को बार-बार क्या सुनना? मैंने तो अपनी हियरिंग एड की बैटरी ऑफ़ कर दी थी. अब फिर से इसकी बैटरी ऑन की है.
पहली बार बाबा के ऊंचा सुनने पर और अपनी हियरिंग एड की बैटरी खर्च न करने की उनकी कंजूसी पर हमको प्यार आया था.
बाबा की कोठी से दरोगा फूफाजी सकुशल और बा-इज्ज़त लौट गए इसका सारा श्रेय हमने बाबा की हियरिंग एड की बंद बैटरी को दिया. लेकिन हमको इस बात का अफ़सोस भी रहा कि हमारे बाबा को आजीवन सिर्फ़ एक हेलेन – हेलेन ऑफ़ ट्रॉय के बारे में ही जानकारी रही और हम सबकी प्यारी, दरोगा फूफाजी की महा-दुलारी हेलेन ऑफ़ बॉलीवुड के बारे में वो सदा अनजान ही रहे.                  
                                     

बुधवार, 14 नवंबर 2018

उपवास

यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है जो कि 11-12 साल की मेरी बड़ी बेटी गीतिका की ज़ुबानी सुनाई गयी है. इस कहानी का काल 1995-96 का है. 
उपवास
उपवास के नाम से ही मुझे कंपकंपी छूटने लगती है। लोगबाग भूखे-प्यासे रहने का रिकॉर्ड बनाते रहते हैं। हमारे देश में कच्चाहारी बाबा, फलाहारी बाबा, दूधिया माई वगैरा की कमी नहीं है। मेरे पापा बताते हैं कि सन् 1965 में स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की अपील पर लाखों लोगों ने सोमवार की शाम को अन्न का त्याग करने करने का फ़ैसला कर लिया था। उपवासी देशभक्त आलू के कटलेट्स, खोए की बर्फी और मेवा पड़ा दूध पीकर ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा लगाते थे और भारत माता की जय बोला करते थे। 
हमारे देश में कोई दोनों नवरात्रियों में नौ-नौ दिन लगातार व्रत रखता है तो कोई रमज़ान में एक महीने तक सुबह से शाम तक भूखा-प्यासा रहता है। हमारे परिवार में अम्मा, मम्मी, नानी वगैरा बरसात के दिनों में दस दिन तक दश-लक्षण व्रत रखती हैं। उपवास करने वाले बहुत से लोगों में अनोखी बात ये होती है कि वो इन दिनों में बड़े जोश के साथ पूजा-पाठ भी करते हैं और खूब खुश भी रहते हैं। पर मैं तो उपवासों के मामले में अपने पापा की चेली हूँ। मैं और पापा जब भी उपवास रखते हैं तो वह निर्धारित समय से पहले ही तोड़ दिया जाता है। मेरी मम्मी मुझे सलाह देती रहती हैं कि मैं रात के खाने के बाद सुबह के नाश्ते तक का ही व्रत रखा करूं नहीं तो हर बार मुझ पर व्रत तोड़ने का पाप लगता रहेगा।
हिस्ट्री में हमको गांधीजी के उपवासों के बारे में पढ़ाया जाता है। मैं तो इन उपवासों के बारे में पढ़-पढ़ कर बहुत रोती हूँ। अच्छा है कि अब अंग्रेज़ हमारे देश से निकाल दिए गए हैं वरना हो सकता था कि मुझको भी उनके खिलाफ़ मोर्चा सम्भालने में एकाध बार उपवास रखना पड़ जाता। 
पुराने ज़माने में ऋषि-मुनि वगैरा खूब उपवास रखते थे। पार्वती माता ने शिवजी को पति के रूप में पाने के लिए खूब उपवास किए थे पर इन सबने किसी को परेशान नहीं किया था। ये सब चुपचाप जंगलों में जाकर तप और उपवास करते थे। जो लोग अपने घरों में रहकर उपवास करते हैं उनमें से बहुतों से उनके घरवाले काफ़ी परेशान रहते हैं। पापा के लखनऊ वाले दोस्त माथुर अंकिल की मम्मी यानी हमारी माथुर दादी व्रत-उपवास रखने में महा चैम्पियन हैं पर इससे उनके घर में हमेशा खलबली मची रहती है। हनुमानजी और भगवान श्रीकृष्ण दोनों ने पहाड़ उठाए थे तो उनका बड़ा नाम हुआ था पर उपवास के दिनों में आसमान उठाने वाली हमारी माथुर दादी के कारनामों के बारे में लोग कम ही जानते हैं। माथुर अंकिल के घर में शिवरात्रि, दो-दो नवरात्रियां, जन्माष्टमी ही नहीं, हर एकादशी और हर अमावस्या पर दादी के व्रतों के कारण हंगामा मचा रहता है। हम लोगों की विण्टर वैकेशन्स का ज़्यादातर समय लखनऊ में ही बीतता है और वहां हम दिन में माथुर अंकिल के घर के कम से कम चार चक्कर तो लगा ही लेते हैं। मुझे, रागिनी और माथुर अंकिल के बेटे आलोक को दादीजी के व्रतों का बड़ा इन्तज़ार रहता है। मैं तो कैलेण्डर में दोनों पक्षों में पड़ने वाली एकादशियों की डेट्स पर लाल बाल पैन से सर्किल बना देती हूँ और आलोक अमावस्या का हिसाब रखता है। अब बच्चे तो खुद व्रत रखते नहीं तो फिर दादीजी के धरम-करम में उनकी इतनी दिलचस्पी क्यों? जवाब बिल्कुल सीधा है - दादीजी को व्रत रखने के लिए हम एनकरेज करते हैं इसलिए उनके व्रत रखने के पुण्य का कुछ हिस्सा तो हमको मिल ही जाता है और उस से भी ज़्यादा लाभ हमको उनका प्रसाद पाकर होता है। हम दोनों बहनें और आलोक, दादीजी के ख़ास दोस्त हैं। दादीजी बाल-गोपाल के साथ अपने उपवास की सारी सामग्री शेयर करती हैं। 
दादीजी के उपवास की सूचना माथुर आंटी को एडवांस में दे दी जाती है। इसका फ़ायदा यह होता है कि उपवासी दादीजी के लिए स्पेशल आहार का उत्तम प्रबन्ध हो जाता है। उपवास के दिनों में दादीजी अनाज से बने पकवानों को हाथ भी नहीं लगातीं। वो अपने बेटे और अपनी बहू पर रौब झाड़ते हुए कहती हैं -
‘ मुरारजी भाई ने अनाज खाना छोड़ दिया तो वो देश के प्रधानमन्त्री बन गए। तुम लोग सिर्फ़ तीज-त्यौहार पर भी अगर अनाज खाना छोड़ दो तो कम से कम प्रदेश के मुख्यमन्त्री तो बन ही सकते हो। ’
माथुर दादी व्रत के दिनों में सिर्फ़ फलों, दूध, मेवा और कुछ अन्य पवित्र आइटमों के सहारे अपना पूरा दिन काट लेती हैं पर उपवास की पूर्व संध्या पर वो दबा कर चाट-पकौड़ी और मिठाइयों का भोग लगाती हैं ताकि उपवास के दिन उन्हें कमज़ोरी न आए। हम बच्चों को न चाहते हुए भी दादीजी के इस अभियान में उनका हिस्सेदार बनना पड़ता है। उपवास से पहले की रात को दादीजी टीवी पर अपने पसंदीदा प्रोग्राम भी नहीं देखतीं और जल्दी ही सो जाती हैं। उपवास के दिन दादीजी बड़े सवेरे उठकर, नहा-धोकर पूजा-पाठ में लग जाती हैं । भगवानजी की मूरत के सामने एक चौकी पर विराजी जाप करती और घण्टी बजाती हुई दादीजी और उनके पीछे एक दरी पर हाथ जोड़कर बैठे हुए नहाये-धोये हम तीनों बच्चे घर को मन्दिर जितना पवित्र बना देते हैं पर माथुर आंटी को तो दादीजी का हर उपवास बम के धमाके से कम ख़तरनाक नहीं लगता। जब मम्मी लखनऊ में होती हैं तो हमारी तरह दादीजी के हर उपवास में उनकी अटेन्डेन्स माथुर अंकिल के घर में लगना ज़रूरी है पर उनको तो माथुर आंटी अपनी हेल्प करने के लिए बुलाती हैं। 
सवेरे की पूजा समाप्त होते ही घण्टे और शंख बजाकर दादीजी किचिन में अपनी ड्यूटी पर तैनात बहूरानी और उनकी हैल्पर मम्मी को इशारा कर देती हैं कि उनके फलाहार का समय हो चुका है। माथुर आंटी एक बड़े से थाल में फलों का एक ऊँचा टीला बनाकर ले आती हैं। हमारा हिस्सा हमको मिल जाता है पर बाकी को बेचारी दादीजी को ही खत्म करना पड़ता है। इसके बाद दादीजी के लिए सी0 डी0 प्लेयर पर भजन लगा दिए जाते हैं और वो अपने बिस्तर पर लेट कर, आँखें मूंदकर उन्हें सुनती हैं पर पेट में अन्न का एक भी दाना डाले बिना कोई कैसे ठीक रह सकता है? दादीजी के हाथ-पैर झनझनाने लगते हैं। वो फ़ौरन बच्चों को बुला भेजती हैं और हम बच्चे कभी उनके पैर दबाते हैं तो कभी उनके हाथ और हमारी यह सेवा तब तक चलती रहती है जब तक कि आंटी मेवे की खीर नहीं ले आतीं। दादीजी कमज़ोरी के बावजूद खीर खाकर लेट जाती हैं और हम बच्चों को हमारा मेहनताना उसी समय मिल जाता है। पर व्रत में पता नहीं क्यो, दादीजी को मीठे पकवान ज़्यादा अच्छे नहीं लगते इसलिए घर में आलू और केले के चिप्स का इन्तज़ाम तो रखना ही पड़ता है। हम बच्चे भी व्रत के दिनों में अनाज की बनी हुई चीज़ों को टाटा कर देते हैं। रोटी, दाल और चावल खाकर हम भला पापी क्यों बनें? हम भी दादीजी की तरह फलाहारी और चिप्साहारी बन जाते हैं।
तीसरे पहर पर जब पापी लोग स्नैक्स के साथ चाय पीते हैं तो हमारी त्यागी दादीजी सिर्फ़ मलाई के लड्डू और घर में ही बने हुए पेड़ों का ही भोग लगाकर सो जाती हैं। 
शाम को एक लम्बी आरती का आयोजन होता है पर इससे पहले दादीजी सिंगाड़े के आटे की थोड़ी पकौडि़यां और कूटू के आटे की कुछ कचौडि़यों का आहार ले लेती हैं। भजन और आरती करके और भगवानजी को भोग लगाकर गोंद, नारियल और मेवे की पंजीरी खाकर दादीजी अपना उपवास तोड़ती हैं। सबको प्रसाद मिलता है और इसके बाद मेवे वाला दूध डकारते हुए दादीजी टीवी के सामने डट जाती हैं और पिछले दिन मिस हुए सीरियल्स की पूरी कहानी के बारे में तमाम इन्क्वायरी कर अपनी नॉलेज अपडेट कर लेती हैं। 
अब माथुर दादी कुछ कमज़ोर हो गई हैं क्योंकि हर उपवास के बाद उनका पेट थोड़ा खराब हो जाता है। डॉक्टर्स दादीजी को उपवासों से दूर रहने की सलाह देते हैं पर उनकी भक्ति उन्हें लगातार उपवास करते रहने की हिम्मत सप्लाई करती रहती है। इधर उनके हर उपवास के अगले दिन पता नहीं क्यों माथुर आंटी के सर में ज़ोरों का दर्द शुरू हो जाता है। कभी-कभी इसमें मम्मी भी उनका साथ देती हैं। माथुर दादी परेशान होकर माथुर अंकिल और मेरे पापा से कहती हैं - 
‘ आजकल की बहुओं के तो ढंग ही निराले हैं। दिन भर खा-पीकर भी इनके सर में दर्द हो जाता है और एक हम बूढ़ी हैं कि दिन भर मुहं में अन्न का एक भी दाना डाले बिना भगवान का भजन करती रहती हैं और फिर भी उफ़ तक नहीं करतीं। शिव ! शिव ! ’
आजकल माथुर आंटी और मेरी मम्मी हमको आइसक्रीम और चाकलेट की रिश्वत देने की कोशिश करती रहती हैं। इसके बदले में वो हमसे बस इतना चाहती हैं कि हम दादीजी को आने वाले उपवासों की याद न दिलाएं और उनके साथ उपवास वाले आइटम्स खाना बन्द कर दें। पर आंटी और मम्मी की ऐसी हर कोशिश नाकाम होगी। हम धर्मात्मा टाइप बच्चे न तो दादीजी के उपवासों में विघ्न डालेंगे और न ही उनके उपवास के दिनों में खुद अन्न का एक भी दाना ग्रहण करेंगे। हम मम्मी और आंटी को बहुत प्यार करते हैं पर हमको अपना धर्म उनसे भी ज़्यादा प्यारा है क्योंकि उसके साथ जुड़े हैं बढि़या फल, मेवे की खीर, पेड़े, मलाई के लड्डू और चटपटे चिप्स।

रविवार, 11 नवंबर 2018

उल्झन

उल्झन -
दुबईवासिनी अपनी बड़ी बेटी गीतिका और उनके परिवार से रोज़ाना 'बोटिम' के ज़रिये स्मार्ट फ़ोन पर मुलाक़ात हो जाती है. कल हमारी नातिन इरा का मुंडन हुआ. उनके 5 साल से कुछ दिन कम आयु के बड़े भाई श्री अमेय, इरा को दिखाकर अपनी टूटी-फूटी हिंदी में मुझसे कहने लगे -
'नानू देखो, इरा भी आपके जैसा हो गया है.'
अब मेरी उल्झन यह है कि -
मानहानि का मुक़द्दमा मैं श्री अमेय पर दायर करूं?
या
उनके बगल में बैठी - 'ही, ही-ही-ही' करती हुई उनकी माँ पर?
या
मेरे बगल में बैठी - 'खी-खी-खी' करती हुई उनकी नानी पर?
पुनश्च -
पारिवारिक पंचायत और मित्रों की सभा से मशवरा करने के बाद मैंने घर के खतावारों पर मानहानि का मुक़द्दमा दायर करने का इरादा छोड़ दिया है और अब इसके बदले मैंने भगवान् जी पर -
'बाल-हानि' का मुक़द्दमा दायर करने का फैसला लिया है.

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

उत्तराखंड की लोरी


उत्तराखंड की स्थापना से लगभग दो वर्ष पहले कही गयी मेरी काव्यात्मक भविष्यवाणी -
(अब पाठकगण बतलाएं कि मेरी ज्योतिष की दुकान चल पाएगी या नहीं?)

उत्तराखण्ड की लोरी

बेटे का प्रश्न –

मां ! जब पर्वत प्रान्त बनेगा, सुख सुविधा मिल जाएंगी?
दुःख-दारिद्र मिटेंगे सारे, व्यथा दूर हो जाएंगी?
रोटी,  कपड़ा,  कुटिया क्या,  सब लोगों को मिल पाएंगी?
फिर से वन में कुसुम खिलेंगे,  क्या नदियां मुस्काएंगी?

माँ का उत्तर -

अरे भेड़ के पुत्र,  भेड़िये से क्यों आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह,  पर सच से क्यों डरता है?
सीधा रस्ता चलने वाला,  तिल-तिल कर ही मरता है,
कोई नृप हो, हम जैसा,  आजीवन पानी भरता है.

अभी भेड़िया बहुत दूर है,  फिर समीप आ जाएगा,
नहीं एक-दो,  फिर तो वह,  सारा कुनबा खा जाएगा.
चाहे जिसको रक्षक चुन ले,  वह भक्षक बन जाएगा,
तेरे श्रमकण और लहू से, अपनी प्यास बुझाएगा.

बेगानी शादी में ख़ुश है, किन्तु  नहीं गुड़ पाएगा,
तेरा तो सौभाग्य पुत्र भी,  तुझे देख मुड़ जाएगा.
प्रान्त बनेगा,  नेता-अफ़सर  का मेला,  जुड़ जाएगा,
सरकारी अनुदान समूचा,  भत्तों में उड़ जाएगा.

राजनीति की उठा-पटक से,  हर पर्वत हिल जाएगा,
देव भूमि का सत्य-धर्म सब,  मिट्टी में मिल जाएगा.
वन तो यूं  ही जला करेंगे,  कुसुम कहां खिल पाएगा,
हम सी लावारिस लाशों का,  कफ़न नहीं सिल पाएगा.

रात हो गई,  मेहनतकश सब, अपने घर जाते होंगे,
जल से चुपड़ी,  बासी रोटी, सुख से वो खाते होंगे.
चिन्ता मत कर,  मुक्ति कभी तो,  हम जैसे पाते होंगे,
सो जा बेटा,  मधुशाला से, बापू भी आते होंगे.

शनिवार, 3 नवंबर 2018

एक आदर्श अंध-प्रचारक


आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी जी की वाल से चुराई हुई कहानी -
हज़रत इब्राहीम जब बलख के बादशाह थे, उन्होंने एक गुलाम खरीदा।
हज़रत इब्राहीम उदार थे,उन्होंने गुलाम से पूछा -  तेरा नाम क्या है?
गुलाम बोला  - आप जिस नाम से पुकारें!
हजरत इब्राहीम ने फिर पूछा -  तू क्या खायेगा?
वह बोला - जो आप खिलायें!
तुझे कैसे कपडे पसन्द हैं?
उत्तर था - जो आप पहनने को दें!
इब्राहीम ने फिर पूछा - तू क्या काम करेगा
गुलाम बोला - जो आप हुक्म करें!.
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हजरत इब्राहीम ने हैरान होकर पूछा - तू चाहता क्या है?
गुलाम ने उत्तर दिया - हुजूर, गुलाम की अपनी चाह क्या हो सकती है?
हजरत इब्राहीम अपनी गद्दी से उतर पडे - अरे,तू तो मेरा उस्ताद है! तैने मुझे सिखा दिया कि परमात्मा के सेवक को कैसा होना चाहिये!
मानवमात्र के जीवन- दर्शन में दासों के चिंतन को पढा जा सकता है!
मेरे द्वारा इस कहानी का बदला हुआ रूप –
एक आदर्श अंध-प्रचारक
हज़रत बड़बोले जब अंधेरनगरी के बादशाह थे, उन्होंने एक व्यक्ति को अपना अंध-प्रचारक नियुक्त किया
हज़रत बड़बोले उदार थे, उन्होंने अंध-प्रचारक से पूछा -  तेरा नाम क्या है?’
अंध-प्रचारक बोला  - आप जिस नाम से पुकारें ! वैसे मेरा नाम लेने की कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी.
हज़रत बड़बोले ने फिर पूछा -  तू क्या खायेगा?’
वह बोला जो आप खिलायें ! वैसे आपके विरोधियों की गालियाँ, लाठियां तो रोज़ाना और कभी-कभी गोलियां भी मुझे खाने को मिलेंगी ही.
तुझे कैसे कपडे पसन्द हैं?’
उत्तर था  आपकी पार्टी का झंडा लपेट लूँगा. वैसे भी आपके विरोधी तो मुझे नंगा कर की ही छोड़ेंगे.
हज़रत बड़बोले ने फिर पूछा तू क्या काम करेगा?’ 
अंध-प्रचारक बोला –आप के विरोधियों के खिलाफ़ प्रचार करूंगा, उनके विरुद्ध साज़िशें रचवाऊंगा, उन्हें किराए के गुंडों से पिटवाऊंगा और अगर ज़रुरत पड़ी तो उनको जहन्नुम भी पहुंचवा दूंगा.
हज़रत बड़बोले ने हैरान होकर पूछा तू चाहता क्या है?’
अंध-प्रचारक ने उत्तर दिया हुजूर, अगले चुनाव में सांसद नहीं तो कम से कम विधायक की टिकट दिए जाने के सिवा एक अंध-प्रचारक की अपनी चाह और क्या हो सकती है?
हजरत बड़बोले अपने सिंहासन से उतर पडे अरे,तू तो मेरा उस्ताद है ! तैने मुझे सिखा दिया कि एक हाकिम के अंध-प्रचारक को कैसा होना चाहिये !
मानवमात्र के चमचा-दर्शन में एक आदर्श अंध-प्रचारक की कार्य-शैली को पढा जा सकता है !