शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

चंद सवालात - फिर से


जोशी दंपत्ति (विवेक जोशी और शशि जोशी) मुझे बहुत अज़ीज़ हैं. फ़ेसबुक पर इन से मेरा आये दिन बहस-मुबाहिसा होता रहता है. कल शशि जोशी ने हाकिम से एक सवाल पूछा –

तेरे दावे हैं तरक्क़ी के, तो ऐसा क्यूँ है,
मुल्क आधा मेरा, फुटपाथ पे, सोता क्यूँ है?

इसके जवाब में मैंने अपनी एक पुरानी कविता उद्धृत की. हमारे बीच सवाल-जवाब में कुछ सवाल और बने जिन्हें मैंने अपनी पुरानी कविता में जोड़ दिया है. अब प्रस्तुत है संवर्धित कविता जिसमें कि चंद सवालात आम आदमी से हैं और आख़री सवाल अपने आक़ा से है -   
   
हर तरफ़ चैन-ओ-अमन, पहरेदार भी मुस्तैद,
घर से बाहर तू निकलता है, तो डरता क्यूं है?

सर पे छत भी नहीं, औ पेट में रोटी भी नहीं,
आखरी सांस तलक, टैक्स तू भरता क्यूँ है?

कितने नीरव औ विजय, रोज़ बनाते हैं वो,
तू करमहीन, गरीबी में ही, मरता क्यूँ है?

उनके जुमलों पे, भरोसा तो दिखाता है तू ,
फिर बता मुझको, कि मुंह फेर के, हँसता क्यूँ है?  
 
लोकशाही की सियासत, तो एक दलदल है,
हर कोई जाने मगर, फिर भी तू धंसता क्यूँ है?

अपने ज़ख्मों पे नमक, ख़ुद ही छिड़कने वाला,
पूछता हमसे, किसी वैद का रस्ता क्यूँ है?

जीते जी जिसको, भुलाया था, बुरे सपने सा,
मर के वो तेरी निगाहों में, फ़रिश्ता क्यूँ है?

शनिवार, 25 अगस्त 2018

दूनं शरणं गच्छामि


राजीव गाँधी का शासनकाल 1984 के दंगों से प्रारंभ हुआ और उनके जीवन का दुखद अंत श्री लंका में उनकी अव्यावहारिक दखलंदाज़ी के प्रतिशोध के रूप में हुआ. आज उनके जाने के सत्ताईस साल से भी अधिक समय के बाद हम उनके द्वारा भारत को कम्प्यूटर युग में प्रविष्ट कराने के कारण याद करते हैं. लेकिन उनके शासन काल में दून पब्लिक स्कूल में उनके अधकचरे, अव्यावहारिक, अहंकारी और आम जनता से कोसों दूर, उनके साथियों के राजनीतिक प्रभुत्व से हम सब त्रस्त थे.
1987 में मैंने यह कविता लिखी थी जो कि उस समय ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुई थी. बहुत दिनों के बाद इस कविता पर नज़र पड़ी तो सोचा कि क्यों न इसे अपने मित्रों के साथ साझा करूं.  

लिखाओ पुत्र दून में नाम !
राजमहल सा  कॉलेज है यह , दृश्य नयन अभिराम ,
पाँच सितारे होटल जैसा, सुलभ सदा आराम ।
निज भाषा, निज संस्कृति का, हो जड़ से काम तमाम ,
अंग्रेज़ी का चढ़े मुलम्मा, जन-जन करें प्रणाम ।।

नालन्दा या तक्षशिला का, अब न करो गुणगान,
हर पकवान बिकेगा इसका, ऊँची यही दुकान।
सर्वोत्तम इनवेस्टमेन्ट है, नहीं रिस्क का काम,
मन्त्री, सांसद, विधायकों का, एक यही गोदाम ।।
लिखाओ पुत्र दून में नाम !

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

गीत नहीं गाता हूँ

कवि-ह्रदय श्री अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच नहीं रहे तो सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों ही उनका गुणगान कर रहे हैं. किन्तु जब अटलजी स्वयं सत्ता में थे तो राजनीति के दलदल में फंसकर उसमें से निकलने के लिए वो कैसे छटपटा रहे थे और उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, चारों ओर से उन पर कैसे कैसे हमले हो रहे थे, इसका उल्लेख मैंने अटल जी की ही एक अमर रचना में फेर-बदल कर किया था.
पाठकों की आलोचना और भर्त्सना का मैं स्वागत करूंगा क्योंकि इस धृष्टता के लिए उनकी तारीफ़ तो मिलने से रही.     
  
गीत नहीं गाता हूं
( अटलजी से क्षमा याचना सहित )
गीत नहीं गाता हूं, भाव नहीं पाता हूं ,
पिंजरे के पंछी सा , पंख फड़फड़ाता हूं ।
उड़ने की कोशिश में, आहत हो जाता हूं ,
बेबस हो पीड़ा में, जलता ही जाता हूं ।
सिर्फ़ छटपटाता हूं, गीत नहीं गाता हूं ।।

जीवन भर त्याग औ तपस्या के मन्त्र जपे ,
सत्य मार्ग, नीति-धर्म सबको पढ़ाता हूं ।
किन्तु स्वयं कुर्सी के,  मोहपाश में निबद्ध ,
सत्ता के दलदल में,  धंसता ही जाता हूं ।
   उबर नहीं पाता हूं, गीत नहीं गाता हूं ।।

पूरब की बहना को, कब तक मनाऊंगा ,
दक्षिण की रानी को, कैसे रिझाऊंगा ।
इनका निदान चलो, खोजा तो, खुद को मैं ,
इटली की आंधी से, कैसे बचाऊंगा ।
   समझ नहीं पाता हूँ,  गीत नहीं गाता हूँ ।।

रक्तपात, लूटमार, रोक नहीं पाऊंगा ,
कैसे धमाकों से, जनता बहलाऊंगा ।
मैं, ना इतिहास में झूठा कहलाऊंगा ,
छोड़ राज-पाट, मन, प्रभु में रमाऊंगा ।
   वन को अब जाता हूं, गीत नहीं गाता हूं ।।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

शोक व्यक्त करने की औपचारिकता






शोक व्यक्त करने की औपचारिकता –
अटल जी नहीं रहे. भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे. आज के एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले ज़माने में वो नेताओं की जमात में एक ऐसे नेता थे जिन्हें अपने अनुयायियों का ही नहीं, अपितु अपने विरोधियों का भी प्यार और सम्मान मिला था.
टीवी के हर न्यूज़ चैनल पर, हर समाचार पत्र में, यह मुख्य खबर है कि अपने प्रिय नेता से बिछड़ने के कारण आज सारा देश शोकाकुल है. 
लेकिन अटल जी के निधन से मैं दुखी नहीं हूँ. 93 वर्ष से भी अधिक की परिपक्व आयु में और लम्बी असाध्य बीमारी के बाद उनका निधन कोई हादसा नहीं है. हमको तो इस बात का संतोष होना चाहिए कि उनको अपने कष्टों से मुक्ति मिली.
वो ओजस्वी वक्ता, वो हाज़िर जवाब विनोदी व्यक्ति, वो कवि-ह्रदय राजनीतिज्ञ जिसके हम सब प्रशंसक थे, वो तो हमसे लगभग एक दशक पहले ही बिछड़ गया था. 2009 के बाद से तो अटल जी अपने बंगले में ही रहने के लिए मजबूर हो गए थे. उनके सार्वजनिक जीवन पर पूर्ण विराम लग गया था.
लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम के सहारे सिर्फ़ साँसें लेना वाला एक बेबस इन्सान, अगर अपने कष्टों से मुक्ति पा गया तो हमको आंसू बहाने की क्या ज़रुरत है?
हम अटल जी को अगर सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो उनकी तरह स्वच्छ राजनीति का निर्वाहन करने वालों को अपना नेता चुनें. प्रति-पक्षी की आलोचना करते समय उनकी तरह शालीनता का व्यवहार करें. अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी गंगा-जमुनी विरासत पर गर्व करें और दुश्मन को भी गले लगाने की उदारता दिखाएं.
हाल ही में साहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र नीरज और भारतीय राजनीति के भीष्म पितामह करुणानिधि के निधन पर भी शोक संवेदना के बनावटी आंसू बहाने वाले हज़ारों की संख्या में दिखाई पड़ रहे थे.
हमारे देश में आंसू बहाने का इतना नाटक क्यों होता है?
कितनों ने लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम के सहारे अटक-अटक कर सांस लेते हुए किसी मरीज़ को देखा है?
मैंने अपनी बड़ी बहन को अपने जीवन के अंतिम तीन दिन ऐसी दुखद स्थिति में देखा है. जब वो 72 वर्ष से भी कम आयु में चल बसीं तो मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उन्होंने मेरी बहन को उनके असह्य कष्टों से मुक्ति दिला दी.
हमको इस शोक प्रकट करने की बनावटी औचारिकताओं से बचना चाहिए.
यदि दिवंगत विभूति के प्रति हमारे ह्रदय में आदर और प्रेम की भावना है तो हमको उसके द्वारा छोड़े गए अधूरे कामों को पूरा करना चाहिए और उसका अनुकरण करके उसकी विचारधारा को, उसके जीवन-दर्शन को आगे बढ़ाना चाहिए.
बिना बात के आंसू बहाने के लिए मगरमच्छ और किराए की रुदालियाँ काफ़ी हैं, हम सबको उनका जैसा नाटक कर, उनकी रोज़ी-रोटी का ज़रिया छीनने की क्या ज़रुरत है?
आइए, हम सब अटल जी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें.
ॐ शांतिः, शांतिः, शांतिः !                         

रविवार, 12 अगस्त 2018

प्रलय - 4

प्रलय – 1 के लिए देखिए https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210175980475484
प्रलय भाग – २ के लिए देखिए - https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210183906193622
प्रलय 3 के लिए देखिए
https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210195226716628
प्रलय – 4
आपदा प्रबन्धन मन्त्री का बिशनपुर गांव का दौरा नहीं हो पाया क्योंकि उनको हैलीकॉप्टर उपलब्ध नहीं कराया गया. बिशनपुर गांव वाले बड़े निराश थे पर मन्त्रीजी के समर्थक बहुत नाराज़ थे. एक कैबिनेट स्तर के मन्त्री को हैलीकॉप्टर उपलब्ध न कराना क्या उनका अपमान नहीं था?
पीडि़तों को अब मुख्य मन्त्री के दौरे का इन्तज़ार था. बिशनपुर गांव तक गाड़ी जाने के लिए कोई रोड नहीं थी पर अच्छी बात ये थी कि मुख्य मन्त्री जी को टूटी सड़कों और लैण्डस्लाइड्स को हैलीकॉप्टर पर आसीन होकर सिर्फ़ आसमान से महसूस करना था. वैसे भी शैलनगर कैन्टुनमन्ट के हैलीपैड से बिशनपुर गांव की दूरी महज़ पाँच किलोमीटर ही थी. इतना पैदल तो श्रीमान चल ही सकते थे. सबको उम्मीद थी कि मुख्य मन्त्रीजी बिशनपुर गांव को सहायता राशि का एक बड़ा सा पिटारा देकर ही जाएंगे. सवेरे से कई आला अफ़सर गांव के चक्कर लगा चुके थे. सरकारी पैसे से गांव वालों को चाय-नाश्ता कराया जा रहा था. मृतकों और घायलों के लिए मुआवज़े का ऐलान भी किया जा रहा था. पटवारीजी के कहने पर ग्राम प्रधान ने दो-चार साफ़-सुथरे बच्चों को तलाश कर अच्छे-अच्छे कपड़े पहनवा कर तैयार करवा दिया था. मुख्य मन्त्रीजी कभी भी किसी बच्चे को अपनी गोद में उठा सकते थे.
वैसे ऐसे हादसे के वक्त ज़रूरी तो नहीं था पर शीर्षस्थ जन-सेवकों के स्वागतार्थ फूल-मालाओं का इंतजाम भी कर लिया गया था.
बिशनपुर गांव में नेताओं का जमावड़ा लग चुका था. पीडि़तों को बिन मांगे, कम्बल बांटे जा रहे थे, उन्हें सहायता-शिविरों में शिफ्ट किया जा रहा था. मलबे से घायलों और शवों को निकालने का काम अब खत्म हो चुका था. मृतकों का अन्तिम संस्कार किया जा चुका था. बाहर पड़े हुए मरे हुए जानवरों को तो गाड़ दिया गया था पर मलबे में दबे हुए मुर्दा जानवरों की दुर्गन्ध सबको परेशान कर रही थी. कई ऑफिसर्स दुर्गन्ध छोड़ने वाली जगहों पर मलबा साफ़ कराने के लिए जवानों को निर्देश दे रहे थे. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद दुर्गन्ध का प्रकोप कम नहीं हो पा रहा था. पता नहीं कितने जानवर इस नई कब्रगाह में दफ़न हो गए थे. गैमक्सीन पाउडर, फ़िनाइल, अगरबत्ती वगैरा किसी से भी बदबू ख़त्म नहीं हो पा रही थी. ऐसे हालात में मुख्य मन्त्री जी गांव का दौरा कैसे कर सकते थे? अफ़सरों ने यह तय किया कि मुख्य मन्त्री जी को गांव के सिर्फ़ उस हिस्से का दौरा कराया जाए जहां पर बदबू का प्रकोप कम है.
भानू पंडितजी मुख्य मन्त्रीजी के साथ मृतकों की आत्मा की शांति के लिए पूजा-अर्चना करने के लिए अपना पूजा का थाल सजा चुके थे. नेताओं और आला अफ़सरों पर अपना अच्छा इम्प्रैशन छोड़ने का यह सुनहरा मौका था. उनके घर तक अगर पक्की सड़क बन जाती तो उनके मकान की कीमत दुगनी हो जाती. पूजा के बाद भानू पंडितजी मुख्य मन्त्रीजी के सामने पूरे गांव की तरफ़ से सड़क बनाए जाने की मांग रखने वाले थे.
कुछ दुकानदारों ने इस नैचुरल कैलेमिटी को अपनी आमदनी का ज़रिया बना लिया. सामान की किल्लत के अन्देशे से आटा, दाल, चावल, चीनी, नमक, दूध, मोमबत्ती, माचिस, कैरोसिन और सब्जि़यों के दाम आसमान छूने लगे थे.
कुछ लोगों ने निकट भविष्य में भूकम्प आने की अफ़वाह फैला दी. लोगबागों ने अपने घरों को छोड़ सारी रात खुले आसमान के नीचे बिताई. भूकम्प तो नहीं आया पर उसके डर से हुए खाली घरों में रात भर चोरों और उठाईगीरों ने अपने हाथ साफ़ कर लिए.
बाल-निकुन्ज संस्था की संचालिका श्रीमती सोनालिका गांव के दो ताज़ा अनाथ हुए अबोध भाई-बहन पर अपना बेशुमार प्यार उड़ेल रही थीं. उनकी संस्था इन बच्चों को अपने यहां रखने वाली थी. बाद में इन्हें बच्चा गोद लेने के इच्छुक व्यक्तियों के सुपुर्द कर दिया जाना था.
सोनालिकाजी के पास मुम्बई के एक अरबपति सेठ की डिमाण्ड पड़ी हुई थी. गोद लेने के लिए उन्हें कोई सुन्दर सा सवर्ण अनाथ बालक चाहिए था. इसके लिए सेठजी सोनालिकाजी की संस्था को पचास लाख का डोनेशन देने को तैयार थे. एक स्विस दम्पत्ति को एक सुन्दर सी बेटी चाहिए थी और इसके लिए वो उन्हें विदेशी मुद्रा में एक मोटी रकम देने को तैयार था. ऐसी आपदाओं में सोनालिकाजी को एडॉप्शन का एकाद फ़ायदेमन्द सौदा करने का मौका मिल ही जाता था. इन बच्चों को पाकर सोनालिकाजी की तो मानो लॉटरी खुल गई थी.
बिशनपुर गांव में बिन्नो के परिवार सहित कुछ परिवार ऐसे थे जिनका कोई भी सदस्य जीवित नहीं बचा था. इन परिवारों के मृतकों का मुआवज़ा किसे दिया जाए, यह प्रश्न बड़ा गम्भीर था. ऐसे परिवारों के तमाम स्वयं-भू रिश्तेदार प्रकट होकर मुआवज़े की दावेदारी पेश कर रहे थे. बिन्नो के एक चाचा पता नहीं कहां से अवतरित हो गए थे और छाती पीट-पीट कर अपनी भाभी और दोनों भतीजियों की अकाल मृत्यु का शोक मना रहे थे.
शंकर का अपना घर तो ज़मींदोज़ हो चुका था. उस पर दया करके दीवान दा ने उसे अपने घर में टिका लिया था.
इधर दूर-दूर से आए हुए लोग बिशनपुर के इस मातमी जलसे का आनंद उठा रहे थे और उधर शंकर था कि इन दिलचस्प नज़ारों का लुत्फ़ उठाने के लिए दीवान दा के घर से बाहर भी नहीं निकल पा रहा था. वो तो अपना फूटा सर लेकर चारपाई पर पड़ा कराह रहा था.
कल रात भानू पंडित और ठाकुर जमन सिंह उस से मिल कर दीवान दा के घर से जब निकले थे तब तक तो सब ठीक था फिर पता नहीं कल रात कैसे उसके सर पर छत की बल्ली गिर पड़ी.
अब भानू पंडित और ठाकुर जमन सिंह की तरक्क़ी से जलने वाले गाँव वाले तो आपस में ये भी फुसफुसा रहे थे कि शंकर को इस बात की सज़ा दी गयी थी कि वो बिन्नो के मामले में आला अफ़सरों से और मंत्री जी से कुलवंत और चन्द्रभान की शिक़ायत करने की बात कह रहा था. जब कि वो दोनों भले आदमी सबको ये बता रहे थे कि उन्होंने ही शंकर के चोट लगने की खबर सुनकर, सवेरे-सवेरे, कंपाउंडर बुलवाकर, उसकी अपने पैसों से, मरहम पट्टी करवाई थी.
मुख्य मन्त्री जी का हैलीकॉप्टर आसमान में मंडराने लगा था. ग़मगीन माहौल में भी उनकी जय-जयकार करने वालों की कमी नहीं थी. अभी तो मुख्य मन्त्री जी के आने में कम से कम एक घण्टे का वक्त बाकी था पर बिशनपुर गांव में अभी से प्रेस रिपोर्टरों, फ़ोटोग्राफ़रों , नेताओं, और याचकों में धक्का-मुक्की शुरू हो गई थी. जिलाधीश, एस. पी., ए. डी. एम. वगैरा मुख्य मन्त्रीजी के स्वागत हेतु हैलीपैड के लिए प्रस्थान कर चुके थे. बाकी बचे छुटभैये अफ़सर भीड़ को व्यवस्थित करने में नाकाम हो रहे थे.
मुख्य मन्त्रीजी के हैलीकॉप्टर शैलनगर पहुंचे एक घण्टे से ज़्यादा हो चुका था. एक सयाना बोला -
' मुख्य मन्त्रीजी पहले शायद नन्दगांव चले गए होंगे. वहां भी तो बादल फटने से ऐसी ही तबाही मची है.'
दो घण्टे बीत जाने के बाद भी जब मुख्य मन्त्रीजी के दर्शन नहीं हुए तो अफ़सरों और नेताओं के मोबाइल फ़ोन बजने लगे. सूचना मिली कि मुख्य मन्त्रीजी बिशनपुर गांव का सिर्फ़ हवाई दौरा करेंगे और पैदल चलकर सिर्फ़ कटरा गांव का दौरा करेंगे.
कटरा गांव में ज़्यादा तबाही तो नहीं हुई थी पर मुख्य मन्त्रीजी वहां सिर्फ़ एक किलोमीटर पैदल चलकर पहुँच सकते थे. कुछ देर बाद मुख्य मन्त्रीजी का हैलीकॉप्टर आकाश में चक्कर लगाता हुआ दिखने लगा. तीन चक्कर लगाने के बाद वो भी उड़न-छू हो गया.
एक विपक्षी नेता ने व्यंग्य कसा –
'मुख्य मन्त्रीजी बिशनपुर गांव कैसे आ सकते थे? मुर्दा जानवरों की बदबू से बीमारी फैलने का जो डर था.'
दूसरे आलोचक ने चुटकी ली –
‘भैया राजा-महाराजाओं को टूटे-फूटे रास्ते पर पैदल चलकर प्रजा के दुःख में शामिल होने की क्या ज़रुरत है? बिशनपुर गांव में सड़क और मकान दुबारा बनें न बनें पर हैलीपैड ज़रूर बन जाना चाहिए. फिर तो हर मन्त्री यहां का दौरा कर लेगा.'
कुछ ही देर में मेला उजड़ गया. जहां भीड़ की रेलम-पेल थी वहां अब मरघट का सन्नाटा छा गया. बिशनपुर गांव के रहने वालों ने थोड़ी राहत की सांस ली. तमाशबीनों ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर बड़ा एहसान किया था.
बिशनपुर गांव में बादल फटने के हादसे को चार-पाँच दिन बीत चुके थे. दिल्ली के दो मशहूर अखबारों के रिपोर्टर्स लम्बे और ऊबड़ -खाबड़ आल्टरनेटिव रूट से शैलनगर आए और वहां से बिशनपुर गांव पहुंचे. दोनों ने तबाही का मन्ज़र देखा.
बिशनपुर गाँव हादसे के दर्द को भुलाकर ख़ुद को फिर से अपने पाँव पर खड़ा करने की कोशिश में जी-जान से जुट गया था.
दोनों रिपोर्टर्स ने गाँव की टूट-फूट को अपने-अपने कैमरों में क़ैद तो किया पर उन्हें उसमें कोई ख़ास चटपटा, कोई सनसनीखेज़ मसाला नहीं मिला.
पहले रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर से कहा -
'यार ! इस कमर तोड़ सफ़र के बाद एक भी फड़कता हुआ स्नैप नहीं ले पाया हूँ. लोगबाग तो रोज़मर्रा की जि़न्दगी बिताते हुए दिख रहे हैं. यहां न तो पोर्ट ब्लेयर में हुई सूनामी वाली ग्रैन्ड स्केल वाली तबाही है और न लेह में बादल फटने से हुई जाइन्ट स्क्रीन पर दिखाने लायक बरबादी. '
दूसरे रिपोर्टर ने आह भर कर कहा –
'अब न रोज़-रोज़ कहीं प्रलय आती है और न हर जगह राहत का सामान लेकर फ़िल्मी सितारे पहुँचते हैं. इस नॉन-ग्लैमरस, कस्बई तबाही के फीके से किस्से को तो लोगबाग चार दिन में भूल जाएंगे. पर हमको तो अपना काम करना है, चाहे वो बोरिंग हो या एक्साइटिंग. चलो नंदगांव और कटरा भी चलते हैं. वहां की भी इस छोटे स्केल की तबाही को कवर कर लेते हैं फिर इस मनहूस जगह को छोड़कर दिल्ली पहुँचते हैं और वहां किसी पब में जाकर अपना गम ग़लत करते हैं.'

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

प्रलय - 3

प्रलय – 1 के लिए देखिए https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210175980475484
प्रलय भाग – २ के लिए देखिए - https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210183906193622
प्रलय- 3
तेज़ बारिश में शंकर की ट्रेन गौरीद्वार पहुंची. सुबह के सात बज रहे थे पर इतना अंधेरा था कि लगता था कि अभी पौ भी नहीं फटी है. शंकर स्टेशन से बाहर निकला तो टैक्सियां नदारद. सड़क जैसे भारी-भरकम पनाला बन गई थी. एक घण्टे के इंतज़ार के बाद उसे शैलनगर जाने वाली एक टैक्सी मिली भी तो पुराने रेट से तीन गुने दामों में. गरीब फ़ौजी जवान शंकर के लिए टैक्सी का तीन गुना रेट बहुत ज़्यादा तो था पर उसे अपनी माँ और अपनी नई-नवेली बीबी, बिन्नो तक पहुंचने की इतनी बेताबी थी कि वो बिना कोई सौदेबाज़ी किए हुए टैक्सी में बैठ गया.
ड्राईवर को गाड़ी चलाने में बहुत दिक्कत हो रही थी. गाड़ी के वाइपर्स, शीशे पर पड़ने वाले पानी के थपेड़ों को साफ़ करने में नाकाम साबित हो रहे थे. गाड़ी की लाइट ऑन होने के बावजूद दस मीटर आगे तक देख पाना भी नामुमकिन हो रहा था पर सबको शैलनगर पहुंचने की जल्दी थी. जैसे-तैसे तीन घण्टों में टैक्सी दो-तिहाई रास्ता पर कर राजाघाट तक पहुंची पर फिर ड्राईवर ने हाथ खड़े कर दिए. सामने पहाड़ से गिरे मलबे का दस फ़ीट ऊँचा टीला बन चुका था. सड़क पर गिर रहे पत्थरों से बच-बचाकर निकल पाना नामुमकिन था, उस पर पानी का बहाव ऐसा था कि टैक्सी को भी अपने साथ बहा ले जाए और नीचे उफ़नती नदी में विसर्जित कर दे. शंकर के अलावा बाकी सब लोगों ने आगे बढ़ने का अपना प्रोग्राम कैंसिल कर दिया पर वो अकेला हिम्मत करके कार से उतर कर अपना सूटकेस अपने कंधे पर लाद कर और अपने सर पर छाता तान कर, शैलनगर के लिए पैदल चल पड़ा.
शंकर का छाता इस तेज़ बरसात में, पानी से तो उसका बचाव नहीं कर पा रहा था पर छोटे-मोटे कंकड़-पत्थरों से उसके सर की हिफाज़त ज़रूर कर रहा था. वो पानी से तर-बतर ऊपर पहाड़ से लुढ़कते पत्थरों से खुद को बचाता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा था पर किसी कछुए की स्पीड से. घबराया हुआ शंकर अपने भगवान को याद कर रहा था -
'हे भोलेनाथ ! कृपा करो ! इस तूफ़ानी बरसात को रोक दो. इस भयानक बरसात में तीस किलोमीटर पैदल चलकर मैं कब बिशनपुर पहुंचूंगा?'
शंकर को अपनी पैंट की अन्दर की जेब में रखे दो हज़ार रूपयों और बीस हज़ार के ड्राफ़्ट के भीगने का डर भी लगा था. कल रात से उसने कुछ खाया-पीया भी नहीं था पर घर पहुंचने की बेताबी में वो अपनी सारी परेशानियों को भूलकर आगे बढ़ता जा रहा था.
शंकर दस किलोमीटर चलकर भवानीपुर पहुंचा. वहां चाय की बस एक दुकान खुली थी. चाय और बिस्किट से अपनी भूख मिटाते हुए उसने वहां थोड़ा आराम किया और फिर चलने के लिए उठ खड़ा हुआ. चाय वाले ने उसे रोकने की गरज से कहा -
'भैया ! क्या बावले हुए हो? ऐसी बरसात में क्या कोई बाहर निकलता है?'
शंकर ने उसे अपने घर पहुंचने की अपनी बेताबी का सबब नहीं बताया. चाय वाले ने उससे फिर कहा -
'अब बरसात तो थमने से रही. ऐसा करो कि तुम रात मेरे घर ही रूक जाओ. कल सवेरे बरखा थम जाए तो शैलनगर चले जाना. तब तक शायद रोड भी खुल जाएगी और तुम्हें शैलनगर के लिए कोई गाड़ी भी मिल जाएगी.'
शंकर ने उस भले आदमी की, अपने घर पर ठहराने की दावत कबूल नहीं की और उसे धन्यवाद देकर वो फिर अपनी मन्जि़ल की तरफ़ कदम बढ़ाने लगा. रास्ते में टूटे पेड़ों को लांघते हुए, सड़क पर पानी के तेज़ बहाव से खुद को बचाते हुए वो आगे बढ़ता रहा. अब उसने अपने कदम तेज़ कर दिए. रात से पहले वो अपने घर पहुंचना चाहता था. पिछले छह घण्टों से वो लगातार पैदल चला जा रहा था पर अभी उसकी मन्जि़ल सिर्फ़ आधी पार हुई थी. उसका छाता भी अब टूट चुका था. अब उसे कोई चाय की दुकान भी खुली नहीं दिखाई दे रही थी। पर भूख-प्यास और थकान से एक साथ लड़ना उसे आता था. शंकर की मिलिट्री ट्रेनिंग उसके काम आ रही थी. धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा पर उसने हिम्मत नहीं हारी. अंधेरे का सहारा उसकी टॉर्च बन गई थी. बिजली कड़कने और दूर कहीं बिजली गिरने की भयानक आवाज़ें भी उसको रोकने में नाकाम हो रही थीं. शंकर को अपनी छुट्टी का पूरा एक महीना अपनी माँ और बिन्नो के साथ बिताना था और इसी दौरान उसे अपना मकान भी पक्का करवाना था. उसकी शादी के समय उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि मकान को पक्का करा सके पर अब दस महीने की बचत उसकी जेब में थी. अब तो मकान को टिप-टॉप कराकर ही उसे दम लेना था.
चलते-चलते मानों एक युग बीत चुका था. अब तो सुबह होने वाली थी. पर अब बिशनपुर भी तो नज़दीक आ चुका था. थकान के बावजूद शंकर के कदम अब और तेज़ पड़ने लगे थे. अब तो उसे अम्मा के हाथों की गरम चाय पीकर अपनी थकान मिटानी थी और बिन्नो पर इतना प्यार बरसाना था कि ये घनघोर हो रही बरसात भी फीकी पड़ जाए.
बिशनपुर पहुंच कर शंकर को लगा कि वो कहीं और आ गया है. ये तो कोई उजड़ा हुआ मुर्दा गांव लग रहा था. लोग-बाग थे पर सबके चेहरे पर मुर्दानगी छाई थी. कई जगह तम्बू गड़े थे. शंकर के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है. ये तो साफ़ था कि बरसात से भयंकर तबाही हुई है. चारों तरफ़ उफ़नता हुआ पानी, तमाम मकान मलबे से ढके हुए, भानू पंडितजी और ग्राम प्रधान ठाकुर जमनसिंह के मकान ही सही सलामत दिख रहे थे, बाकी सब या तो टूटे-फूटे या फिर मिट्टी में मिल गए दिखाई दे रहे थे. शंकर को अपना मकान ढूढ़े नहीं मिल रहा था, उसने पंडितजी के मकान से दिशाओं का अन्दाज़ा लगा कर उसे जैसे-तैसे खोज लिया पर वहां पहुंच कर उसके हाथ-पैर फूल गए. उसका मकान मलबे में दबा हुआ था और मकान के सामने सफ़ेद कफ़न में एक लाश बंधी हुई थी. शंकर को देखकर कुछ गांव वाले उसको ढाढस बंधाने के लिए आ पहुँचे. उसके पड़ोस के दीवान दा उसका हाथ पकड़ कर उसे लाश के पास ले गए और उससे रूंधे गले से कहने लगे -
'शंकर ! आखरी बार अपनी अम्मा के पैर छू ले. तेरा इन्तजार करते-करते उन्होंने अपने प्राण त्यागे हैं.'
शंकर - 'हाय अम्मा ! हाय अम्मा !' कहकर अपनी माँ के पैरों में गिर पड़ा. भानू पंडितजी ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा -
'बेटा शंकर ! तेरी अम्मा का अब संस्कार हो जाना चाहिए. पिछले चौबीस घण्टों से बस हम तेरा ही इंतज़ार कर रहे थे. और हाँ बेटा ! तुझे कुछ दान-पुण्य भी करना होगा. मैं पूजा की सामग्री अपने साथ ले आया हूँ.'
शंकर ने अपनी आँखें पोंछकर अपनी जेब से एक पाँच सौ का एक भीगा हुआ नोट पंडितजी के सुपुर्द किया. पंडितजी ने दो सौ रूपयों की और माँग की तो वो भी उनको प्राप्त हो गए. अब इस तेज़ बरसात में उसे अम्मा को श्मशान घाट ले जाना था. शंकर की मुसीबत में उसका साथ देने वालों की कमी नहीं थी. उनमें से कई ऐसे भी थे जिन्होंने पिछले दिन ही अपने किसी आत्मीय का अंतिम संस्कार किया था. शंकर को बिन्नो की तलाश थी पर बिन्नो उसे कहीं दिखाई नहीं दी. कहीं वो भी तो इस प्रलय के चपेटे में नहीं आ गई?
उसने दीवान दा से पूछा -
'दादा ! बिन्नो कहां है? वो भी क्या मुझको छोड़ कर चली गई?'
दीवान दा ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा -
'नहीं भैया ! अपनी मां और अपनी छोटी बहन को श्मशान घाट के लिए उसी ने विदा किया है. और लछमिया चाची की अर्थी भी उसी ने तैयार कराई है. अपनी मां और अपनी बहन की चिता के लिए वो फूल चुनने गई होगी, जल्द आ जाएगी. अब तू उसकी फिकर छोड़ और चाची को श्मशान घाट पहुंचाने की तैयारी कर।'
श्मशान घाट जाने की जल्दी में शंकर को बिन्नो को ढूंढ़ने की फ़ुर्सत भी कहां थी? अब तो वहां से लौट कर ही वो उससे मिल सकता था.
शंकर अपनी अम्मा की चिता को प्रज्जवलित करने के बाद मिट्टी की हांडी में उसकी अस्थियाँ एकत्र करने तक मूर्ति बना खड़ा रहा. उसकी अस्थियों की हांडी को लेकर जब शंकर लौटने लगा तो उसके दोस्त बलबीर ने उससे पूछा -
शंकर तेरी गाड़ी का एक्सीडैन्ट तो शैलनगर से बारह किलोमीटर दूर माधोपुर के पास हुआ था न ? तुझे ज़्यादा चोट तो नहीं आई? तू वहां से यहां कैसे पहुंचा?'
शंकर को बलबीर के सारे सवाल कुछ अटपटे से लगे. उसने बलबीर से कहा -
'मेरा एक्सीडैन्ट कहां हुआ? मैं तो रोड ब्लॉक हो जाने की वजह से राजाघाट से तीस किलोमीटर पैदल चलकर आ रहा हूँ .’
बलबीर ने हैरान होकर पूछा - 'फिर कुलवन्त और चन्द्रभान ने बिन्नो से ये क्यों कहा कि माधोपुर के पास तेरा एक्सीडैन्ट हो गया है?'
ग्राम प्रधान ठाकुर जमनसिंह का बेटा कुलवन्त और भानू पंडितजी का बेटा चन्द्रभान, दोनों ही इलाके के छटे हुए बदमाश थे. दोनों बिन्नो को भाभी के रिश्ते की आड़ ले कर छेड़ते रहते थे. शंकर ने बलबीर से घबराकर पूछा -
'बिन्नो क्या अपनी अम्मा और बहन के लिए फूल चुनने के लिए नहीं गई है?'
बलबीर ने जवाब दिया –
'वो तो उनको अंतिम संस्कार के लिए विदा करने के फ़ौरन बाद ही कुलवन्त और चन्द्रभान के साथ तुझे देखने माधोपुर के लिए चल दी थी. उसके बाद से मैंने उसे देखा नहीं है.’
बिशनपुर गांव वापस पहुंचकर शंकर ने अपनी अम्मा की अस्थियों को एक सुरक्षित स्थान पर रखकर बिन्नो की तलाश जारी कर दी पर वो उसे कहीं नहीं मिली. कुलवन्त और चन्द्रभान का अता-पता किसी को मालूम नहीं था. शंकर , पुलिस में बिन्नो की गुमशुदगी या उसके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए जाने लगा तो ठाकुर जमन सिंह और भानू पंडितजी ने उसे रोक दिया. पंडितजी ने शंकर को समझाते हुए कहा -
'शंकर बेटा ! चन्द्रभान और कुलवन्त तो पिछले सात दिन से दिल्ली में हैं. भला ऐसे संस्कारी लड़के किसी लड़की को बहकाकर अपने साथ ले जाने का पाप कर सकते हैं? फिर बिन्नो तो इन लड़कों के लिए बहन जैसी है. मैंने तो बिना दान-पुण्य लिए बिन्नो की अम्मा भग्गो और उसकी बहन मुन्नी के क्रिया करम की सब पूजा की है. इस बलबीर के बच्चे का दिमाग खराब हो गया है. पता नहीं क्यों वो चन्द्रभान और कुलवन्त जैसे भोले-भाले लड़कों के बारे में अनाप-शनाप बक रहा है. पर तू घबड़ा मत. हमको बिन्नो मिल जाएगी.’
ठाकुर जमनसिंह ने भानू पंडितजी की बात का समर्थन करते हुए शंकर को बताया -
‘पिछले छह-सात दिनों से दिल्ली से कुलवन्त और चन्द्रभान के रोज़ फ़ोन आ रहे हैं. जब से उन्होंने यहां की विपदा की खबर सुनी है तब से तो बेचारों को यहीं की फि़कर लगी रहती है. मेरा पूरा परिवार जन-सेवा के लिए अपनी जान तक दे सकता है. मैंने तो श्मशान में भग्गो और मुन्नी के क्रिया- करम के खर्चे के लिए अपनी जेब से पाँच सौ रूपये भी दिए हैं.’
शंकर को पुलिस में रिपोर्ट करने से ज़ोर -जबर्दस्ती रोक लिया गया. शंकर और उसके सब दोस्त बिन्नो की खोज में लग गए पर इसके लिए उन्हें ज़्यादा वक्त नहीं लगाना पड़ा. बिशनपुर गांव से कुछ दूर एक नाले में, पेड़ की एक टूटी डाल में फंसी, उसकी फूली हुई लाश मिल गई. ठाकुर जमनसिंह ने पागलों की तरह अपना सर पीट-पीट कर रोते हुए शंकर को दिलासा देते हुए कहा –
‘बेटा शंकर ! पानी का बहाव तो इतना तेज़ था कि मकान के मकान बह गए. एक बेचारी लड़की की क्या बिसात थी? अपनी अम्मा और अपनी बहन की मौत के गम में बिचारी नाले के पास बैठकर रो रही होगी और फिर वहीं उसका पैर फिसला होगा और वो नाले में बह गई होगी. तू कुलवन्त और चन्द्रभान के बारे में कुछ उल्टा-सीधा मत सोचना. बेटा ! जल में रहकर मगरमच्छों से बैर लेकर तू कैसे टिक पाएगा?'
ठाकुर जमनसिंह ने बिन्नो की लाश को उठवा कर चुपचाप शंकर के मकान के मलबे में दबवा दिया और फिर हो-हल्ला कर उसको मलबे में से बाहर भी निकलवा लिया. कई लोगों ने इस नाटक को देखा भी पर गांव के मगरमच्छों के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत कौन कर सकता था?
भानू पंडितजी ने बिना दान-दक्षिणा लिए बिन्नो के लिए अंतिम संस्कार किए जाने से पहले वाली पूजा भी करा दी.
ठाकुर जमनसिंह ने एक बार फिर अपनी उदारता का परिचय दिया. उन्होंने इस बात का पक्का इंतजाम कर दिया कि शंकर को अपनी माँ और अपनी पत्नी की मौत का पूरा-पूरा मुआवज़ा मिले. शंकर की लाख मिन्नतों के बावजूद उन्होंने बिन्नो का पोस्टमार्टम नहीं होने दिया और अपने खर्चे पर चटपट लेकिन गुपचुप तरीक़े से उसका अंतिम संस्कार करा दिया.
क्रमशः

बुधवार, 8 अगस्त 2018

प्रलय - 2

प्रलय – 1 के लिए देखिए https://www.facebook.com/gopeshmohan.jaswal/posts/10210175980475484
प्रलय- 2
बादल फटने के हादसे के अगले दिन बिशनपुर गांव एक उजड़ा हुआ समुद्री टापू लग रहा था. जगह-जगह नाले फूट पड़े थे. मूसलाधार बारिश अब भी अपना कहर बरपा रही थी. खण्डहर हुए मकान मलबे से ढके हुए थे. पहाड़ की मिट्टी भरभरा कर गिरती चली जा रही थी. मलबों से ढके मकानों के अन्दर से उनमें फंसे और दबे हुए ज़िन्दा लोगों की चीख-पुकारें दूर-दूर तक सुनाई दे रही थीं. मातम मनाने वालों का शोर बारिश और तूफ़ान के शोर को भी मद्धम कर रहा था. कुछ मुर्दा जानवर इधर-उधर ज़मीन पर छिटके पड़े थे और कुछ पानी के तेज़ बहाव के साथ बहे चले जा रहे थे. दो-चार कुत्ते गिरे हुए पेड़ों को पुल की तरह से इस्तेमाल करके इधर से उधर जा रहे थे.
पूरे बिशनपुर गांव में बस भानू पंडितजी और ग्राम प्रधान ठाकुर जमनसिंह के पक्के मकान सुरक्षित थे. भानू पंडितजी अपने घर के बरामदे में चिंतित मुद्रा में खड़े होकर हालात का जायज़ा ले रहे थे. पंडितजी मन ही मन हिसाब लगाते हुए सोच रहे थे -
'हे भगवान ! बड़ा बुरा हुआ. किसना दर्जी और भूसन लुहार का तो पूरा कुनबा मिट गया. दोनों पर मेरा करीब तीन हज़ार का कर्ज़ा बाकी था. अब उसकी भरपाई कौन करेगा? बिन्नो की छोटी बहन मुन्नी की शादी में हजार-दो हजार मिलने वाले थे, वो भी डूबे. उसकी अम्मा और खुद मुन्नी तो परलोक सिधार गए. अब तो बिशनपुर गांव में एक साल तक कोई जसन होने से रहा. भानू पंडित ! तुम्हारी साल भर की दान-दक्षिणा समझो गई बट्टे-खाते में.'
सामने से किसना दर्जी की भैंस रस्सी तुड़ा कर भागती हुई आ रही थी. भैंस माता के दर्शन कर भानू पंडितजी की बांछे खिल गईं. अब किसना दर्जी का उधार उसकी भैंस अपने घर बांधकर वसूल हो जाएगा. भूसन लुहार के घर कोई गाय-भैंस तो नहीं थी पर उसके औज़ारों को दूसरे लुहारों को बेचकर हज़ार -पाँच सौ तो इकट्ठे हो ही जाने थे. गांव के दो दर्जन मृतकों के अन्तिम संस्कार का जिम्मा भी तो पंडितजी को ही मिलना था. उसमें भी दान-पुण्य के रूप में उन्हें मोटी रकम हासिल होने वाली थी. अब तक दुखी भानू पंडितजी का चित्त गद्गद हो चुका था. उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ कर इन्द्रदेव को उनकी महती कृपा के लिए धन्यवाद दिया.
शैलनगर और आसपास के गांवों से बिशनपुर गांव में तमाशबीनों की भारी भीड़ जमा हो चुकी थी। आर्मी और एस. एस. बी. के जांबाज़ जवान तेज़ बारिश में, अपनी जान की परवाह किए बग़ैर, मलबे में फंसे हुए लोगों को बाहर निकालने में जुटे हुए थे. आर्मी मेडिकल कोर वाले घायलों की मरहम पट्टी कर रहे थे तो कुछ रोते हुए बच्चों को बिस्किट्स वगैरा खिला-पिलाकर बहलाने की कोशिश में भी लगे थे पर दर्शकों की जमात शोर-शराबा करने के अलावा उनके काम में अड़ंगा डालने का कर्तव्य निभा रही थी.
कुछ दर्शकों के लिए ये हादसा किसी तमाशे जैसा था. खबर उड़ी थी कि बिशनपुर गांव में मरने वालों की तादाद सैकड़ों में है और पूरा गांव श्मशान में तब्दील हो गया है पर तमाशबीनों को सिर्फ बीस-पच्चीस लोगों की मौत और तीस-चालीस मकानों के ज़मीदोज़ हो जाने की ख़बर ने काफ़ी निराश किया. सिर्फ़ तमाशा देखने के लिए इतनी मेहनत करके और इतना खतरा मोल लेकर जो लोग आए थे वो टूटे मकानों, टूटे पेड़ों और मलबे के ढेर पर खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे थे. मशहूर फोटोग्राफर राजेश्वर उपाध्याय ने अपने आसपास खड़े दर्शकों की जनरल नॉलिज बढ़ाने के लिए कहा -
'इस नज़ारे को देखकर पुरानी फ़िल्म 'मदर इंडिया' की बाढ़ का सीन याद आ गया. मैंने तो अपने कैमरे में एक से एक सेंसेशनल सीन्स कैद कर लिए हैं. एक चाय-पकौड़ी वाले की दुकान गिरकर एक पेड़ पर टंग गई थी, अब तो वह ज़मीन पर आ गई है पर मैंने इस हैंगिग रैस्त्रां के कई एंगिल्स से स्नैप्स लिए हैं. उत्तरकाशी के भूकम्प के फ़ोटो-फीचर पर मुझे ‘मनोहर टाइम्स’ वालों का इनाम भी मिला था. इस बार भी कोई न कोई अखबार वाला मुझे इनाम दे ही डालेगा. अब नन्द गांव जाता हूँ , वहां भी बादल फटा है और भारी तबाही हुई है. वहां से भी कुछ न कुछ एक्साइटिंग स्नैप्स का जुगाड़ तो हो ही जाएगा.'
इस शेखीखोर राजेश्वर उपाध्याय के कारनामों का घिसा-पिटा किस्सा सुनकर ‘मधुकर समाचार’ के चीफ़ रिपोर्टर मुकुन्द तिवारी मन ही मन हंस रहे थे. उन्होंने मकान के मलबे में अधदबी एक औरत और उस की छाती से चिपट कर दूध पीते उसके बच्चे की कीचड़ में सनी लाशों की ऐसी शानदार तस्वीर खींची थी कि उन्हें इंटर्नेशनल अवार्ड मिलना तय था. अपने कैमरे को चारों तरफ़ घुमाते हुए इस विनाश लीला का हर दिलचस्प मन्ज़र कैद करते हुए दिल ही दिल में वो अपने राइवल उपाध्याय से बात कर रहे थे -
'बेटा राजेश्वर उपाध्याय ! फ़ोटोग्राफी के हुनर में मैं तुम्हारा बाप हूँ. मैं बिशनपुर गांव और नन्द गांव, दोनों जगहों में तुम पर भारी पड़ूंगा. तुमको एक फ़ोटो-फीचर पर नेशनल अवार्ड मिला है तो मुझे चार नेशनल और दो इण्टरनेशनल अवार्ड्स मिल चुके हैं. मण्डल कमीशन के विरोध में किए जाने वाले आन्दोलन के दौरान दो स्टूडेन्ट्स के आत्मदाह का टीवी चैनल्स पर लाइव कवरेज मेरी ही बदौलत आया था।'
ठेकेदार ठाकुर भोला सिंह बड़ी मुस्तैदी से पीड़ितों को चाय, नमकीन और बिस्किट का नाश्ता करवा रहे थे. बिशनपुर गांव की सौ मीटर से भी ज़्यादा टूटी सड़क, दो ध्वस्त पुलिया, मलबे में तब्दील हो चुका पंचायत-घर, प्राइमरी पाठशाला और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र के पुननिर्माण का ठेका हासिल करने के लिए तीन-चार हज़ार का दान-पुण्य करना घाटे का सौदा नहीं था पर बुरा हो ठेकेदार हरीश पाण्डे का. कम्बख़्त गांव के हर मर्द-औरत को सौ-सौ रूपये और एक-एक कम्बल बांट रहा था और अपने इस महान कार्य की वीडियो फि़ल्म भी बनवा रहा था. भोला सिंह सोच रहे थे -
'अब तो आला अफ़सरों और मन्त्रियों के दरबारों में मोटा चढ़ावा चढ़ाकर ही बिशनपुर गांव के रिकंस्ट्रक्शन का ठेका नसीब हो पाएगा.'
स्थानीय दबंग नेता और पिछले विधान सभा चुनाव में अपनी ज़मानत खो चुके विरोधी पक्ष के ठाकुर बलवन्त सिंह अपने दल-बल के साथ दुर्घटना-स्थल पर मौजूद थे. इस हादसे के पीछे उन्हें सत्ता-पक्ष का नाकारापन साफ़ नज़र आ रहा था. सरकार की प्रशासनिक स्तर पर कमियों और लापरवाहियों पर वो एक ओजस्वी भाषण देना चाहते थे पर इसके लिए उन्हें कोई मौका नहीं दे रहा था पर उनकी खुशकिस्मती से एक टीवी न्यूज़ चैनल का रिपोर्टर उनसे इस हादसे के बारे में सवाल करने की भूल कर बैठा तो उसके कैमरे के सामने उन्होंने भाषण फोड़ने की अपनी पूरी भड़ास निकाल ही डाली. पर अभी अपनी जन-सेवा का उन्हें कोई फड़कता हुआ नमूना भी शैलनगर की जनता के सामने पेश करना था. अपने शिकार उस टीवी रिपोर्टर के कान में कुछ कहकर उन्होंने नोटों का एक बण्डल चुपके से उसकी जेब में डाला, अपने दो समर्थकों को कीचड़ में सनवा कर, भीड़-भाड़ से दूर एक मकान के मलबे में उन्होंने फंसवा दिया और फिर उन्हें अपनी जान पर खेल कर सकुशल निकालने लाने का बड़ा नेचुरल अभिनय किया. नोटों का बण्डल पाकर मगन न्यूज़ रिपोर्टर ने इस रेस्क्यू ऑपरेशन का हर दृश्य अपने वीडियो कैमरे में कैद किया और ठाकुर साहब से उसने वादा किया कि अगले दिन उसका चैनल दिन में दस बार उनका यह महान कार्य प्रसारित करेगा.
सरकारी महकमा, लाल बत्ती वाली सफ़ेद एम्बैसडरों और नीली बत्तियों वाली जिप्सियों में लद-फंद कर बिशनपुर गांव की शोभा बढ़ाने आ पहुंचा था. अधिकारीगण कीचड़ से अपने कीमती जूतों और पोशाकों को इतनी निष्ठा से बचाने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें गांव वालों की तकलीफ़ पर ध्यान देने की ज़्यादा फ़ुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी. वैसे भी आज दिन के ग्यारह बजे एक मन्त्री के दौरे के वक्त इस गांव का उन्हें दोबारा चक्कर लगाना था और कल मुख्य मन्त्री के दौरे के समय तीसरा. आज ही अगर गांव वालों की सारी शिकायतें सुनकर उनका समाधान करने की कोशिश शुरू कर दी जाती तो दूसरे और तीसरे दौरे के वक्त मन्त्रीजी और मुख्य मन्त्रीजी के सामने स्थानीय प्रशासन की बड़ी किरकिरी हो जाती. सबॉर्डिनेट ऑफिसर्स को राहत कार्य के लिए कुछ ज़रूरी हिदायतें देकर जिले के शीर्षस्थ अफ़सरान, हादसों के शिकार, दूसरे क्षेत्रों के तूफ़ानी दौरे पर निकल पड़े.
- क्रमशः ...

सोमवार, 6 अगस्त 2018

प्रलय - भाग 1

सितम्बर, 2010 में पहाड़ पर अति-वृष्टि और बादल फटने से बड़ी तबाही हुई थी. ये तबाही 2013 में हुई तबाही से तो बहुत कम थी लेकिन दिल दहलाने को, प्रशासन के निकम्मेपन को जतलाने को और बड़ी से बड़ी आपदा में भी सिर्फ़ अपना मुनाफ़ा देखने वालों का हम से परिचय कराने के लिए काफ़ी थी. मैंने इस त्रासदी को बहुत नज़दीक से देखा है और अपने अनुभव को मैंने एक कहानी की शक्ल देने की कोशिश की है. 'प्रलय' शीर्षक इस लम्बी कहानी के चार भाग हैं. आज प्रस्तुत है इसका पहला भाग.
(कहानी के पात्रों के अनुरूप उनकी भाषा पर आंचलिक प्रभाव है, मेरी प्रार्थना है कि मित्रगण इसमें भाषा की अशुद्धता न खोजें)
पिछले दो महीने से बारिश जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. सितम्बर का आधा महीना बीत चुका था. अब तो इन्द्र भगवान को लम्बी छुट्टी पर चले ही जाना चाहिए था. सबको उम्मीद थी कि कि अब खुले आसमान के रोज़ दर्शन हुआ करेंगे. बरसात के बाद शैलनगर की सुन्दरता देखते बनती है. हिमालय की चोटियां बिलकुल साफ़ दिखाई देती हैं और वो भी ऐसे जैसे आप हाथ बढ़ाकर उन्हें छू सकते हैं. पहाडि़यां और वादियां हरी मखमल की खूबसूरती को समेटे हुए दिखाई पड़ती हैं और जंगलों में फूलों की बहार होती है. पिकनिक, ट्रेकिंग और पर्वतीय तीर्थ-यात्रा के लिए ये मौसम बड़ा खुशगावार होता है. पर इस बार इन्द्र भगवान ने सितम्बर को सितमगर बनाने की ठान ली थी. दस सितम्बर से पानी बरसना शुरू हुआ. लगा कि आखरी बरसात है, हमको थोड़ा-बहुत भिगोकर हमसे विदा ले लेगी पर पानी था कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा था.
बिशनपुर गांव की लछमिया का फौजी बेटा शंकर छुटि्टयों में अपने घर आने वाला था. दो दिन की लगातार बारिश से लछमिया का जी घबराने लगा था. वो भगवान से मना रही थी कि उसका बेटा सही-सलामत उस तक पहुंच जाए. अब बादल कब छटेंगे ये तो पत्रा देखकर भानू पंडितजी ही बता पाएंगे. बीस रूपये का एक नोट,एक थैली में अपने खेत की पैदावार करेले, कद्दू की थैली और गाय के दूध से भरा एक बड़ा लोटा पंडितजी के चरणों में अर्पित करके उसने उनसे पूछा -
'पंडितजी! जरा पत्रा देखकर बताइए कि इन्दर देवता कब अपने घर वापस जाएंगे. मुझे संकर की बड़ी फिकर हो रही है. कल वो रेलगाड़ी से गौरीद्वार पहुंच रहा है पर ऐसी बरखा में शैलनगर कैसे आ पाएगा?'
भानू पंडितजीने काले बादलों को देखा, अपनी उंगलियों पर कुछ गणना की, पत्रा के दो-चार पन्ने पलटे, फिर इत्मीनान से अपने मुहं में गुटके की एक बड़ी डोज़ डाल कर बोले -
'अरे लछमिया तू बेकार में परेशान हो रही है. कहावत है - 'काला बादल जी डरवावे, भूरा बादल पानी लावे.'
अब तो बादलों का रंग भूरे से काला पड़ गया है. अब कोई चिन्ता की बात नहीं है. पत्रा बांचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि दो-चार घण्टों में तेरी चिन्ता दूर हो जाएगी. मैं मन्तर पढ़ देता हूं. बारिश शर्तिया रूक जाएगी. और हाँ, घर जाकर बाहर की दीवाल के सहारे सींक वाली झाड़ू उल्टी रख देना. इससे बारिश रुक जाएगी.'
लछमिया इस भविष्यवाणी को सुनकर और पंडितजीके मन्तर की शक्ति को जानकर खुश हो गई. उसने पूरी श्रद्धा से पंडितजी को दण्डवत प्रणाम किया और फिर अपने घर जाने के लिए उठने लगी. पंडितजी ने उससे उलाहने के स्वर में कहा -
'अरी भागवान! मेरी दक्षिणा तो देती जा.'
लछमिया के कुछ समझ नहीं आया. बीस का एक नोट, थैली भर करेले-कद्दू और लोटा भर गाय का बढि़या दूध क्या उसने पंडितजी की मुहं दिखाई के लिए दिए थे?
पंडितजी ने लछमिया के कंफ्यूजन को दूर करने के लिए उसे समझाया -
'अरे तेरा चढ़ावा तो पत्रा देखने में खरच हो गया. बरखा रोकने का मन्तर पढ़ने में मेरा जो पुण्य लगा उसका मेहनताना तो और देती जा.'
अपनी साड़ी में उरसा हुआ बीस का आखरी नोट पंडितजी को थमाने में लछमिया को कष्ट तो बहुत हुआ पर बेटे के घर आने की खुशी में उसने लालची पंडित का ये गुनाह माफ़ कर दिया. उसने घर पहुंचते ही देवी मैया का जाप करके दीवाल के बाहर सींक वाली झाड़ू को उल्टा करके रख दिया. अब चिन्ता की कोई बात नहीं थी. उल्टी झाड़ू के टोटके और भानू पंडितजी के मन्तर के चमत्कार से बरसात थमने ही वाली थी और कल उसका लाडला संकर उससे गलबहिंया करने ही वाला था.
पर लगता है भानू पंडितजी का मन्तर और उल्टी झाड़ू का टोटका कुछ असरदार नहीं निकले. बरसात थमने की उनकी प्रार्थना ऊपर इन्द्र भगवान तक नहीं पहुँची. पानी पहले की तरह झमाझम बरसता रहा. बल्कि थोड़ी देर बाद बिजली के कड़कने की आवाज़ें कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई और बारिश ने भी तूफ़ान का रूप ले लिया. लछमिया का एक कमरे का मकान कई जगह से फ़र्श की सिंचाई करने लगा. लछमिया बेचारी की बाल्टी, थाली और परात सब के सब फ़र्श को सूखा रखने में खर्च हो गए. लछमिया की बहू बिन्नो उसके साथ काम में हाथ बटाने लगी. लछमिया ने बिन्नो को प्यार से कहा -
'बिन्नो ! हम गरीबों की कुटिया में तेरी जैसी लच्छमी आई है. अभी तो तेरी लगन का साल भर भी नहीं हुआ है. मैं तुझ से ये उल्टे-सीधे काम कराऊँगी ? तेरी माँ भग्गो को मैं क्या जवाब दूंगी? तू आराम कर मैं सब कर लूंगी.'
पर बिन्नो उसके साथ सामान बचाओ अभियान में जुटी रही. बिन्नो ने घर के कीमती(?) सामानों को घर की एकमात्र चौकी पर रखकर उन्हें टूटे त्रिपाल के टुकड़ों और पॉलीथीन की थैलियों से ढक दिया. वैसे लछमिया को अपनी जान की कोई चिन्ता नहीं थी और न अपने घर या उसके सामान की. उसका लायक बेटा इस बार मकान की छत और घर के कच्चे फ़र्श को पूरी तरह से पक्का कराने वाला था. उसको चिन्ता थी तो बस बिन्नो की और अपने संकर की. लछमिया अपने संकर की चिन्ता कर सोच रही थी कि वो इस तूफ़ना में कैसे घर पहुंचेगा. उसको भानू पंडितजी पर गुस्सा आ रहा था. इतना चढ़ावा अगर वो सीधे इन्दर देवता को चढ़ाती तो वो खुद बरसात रोक देते पर वो तो पंडितजी के झांसे में आ गई. लछमिया ने अपने हाथ ऊपर जोड़ कर भगवान से अरदास की -
'हे भगवान ! भली करियो. मेरा संकर कुसल से घर आ जाए या ऐसा करो कि उसको गौरीद्वार पर ही रोक दो !'
कड़कड़ की आवाज़ के साथ लछमिया के घर के बगल का तून का पेड़ बिन्नो के मायके वाले घर पर गिर पड़ा. बिन्नो 'हाय अम्मा ! हाय मुन्नी !' का चीत्कार करते हुए उस तरफ़ दौड़ पड़ी. लछमिया भी उसके साथ भागी पर दोनों मकान के मलबे में दबी औरतों की दर्द भरी चीखें सुनने के अलावा कुछ नहीं कर पाईं. उनकी मदद की गुहार सुनकर कोई नहीं आया. सब के सब अपनी जान और अपना-अपना घर बचाने में लगे हुए थे. रोती कलपती बिन्नो का हाथ पकड़ कर लछमिया उसे फिर अपने घर खींच लाई. यहां कम से कम उनकी जान जाने का खतरा तो नहीं था. घर की टूटी खिड़की से दोनों सास-बहू रोती-कलपती अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर विनाश लीला देख रही थीं. किसना दर्जी के घर में पनाला सा बह रहा था और वो कुदाली से पानी की निकासी की नाकाम कोशिश कर रहा था पर कुछ देर बाद उसको इस कसरत से छुटकारा मिल गया. उसके घर के ऊपर के टीले पर बना भूसन लुहार का मकान भरभराकर उसके मकान पर गिर पड़ा. बिन्नो अपने दर्द को भूलकर किसना को बचाने के लिए दौड़ पड़ी पर किसना तब तक मलबे में दबकर बिलकुल शांत हो गया था.
कुछ देर बाद बिजली कड़कने के साथ एक दिल दहलाने वाली आवाज़ हुई. लगा कि जैसे आसमान ही फट गया हो. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं था. आसमान कहां फटता है? वो तो धमाके के साथ ज़रा सा बादल फट गया था. अब इस छोटे से हादसे से बिशनपुर गांव में दो मन्जि़ला बाढ़ आ जाए और तीस-चालीस मकान बह जाएं या टूट जाएं तो क्या किया जा सकता है?
- क्रमशः ...

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

राष्ट्रकवि पर हाली तथा टैगोर का प्रभाव


आज राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की जयंती है. राष्ट्रकवि की पिछली एक जयंती पर मैंने 'गुरु और शिष्य'पर मैंने गुरु और शिष्य शीर्षक से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री गुप्त पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभाव की चर्चा की गयी थी. आज मैं श्री गुप्त के काव्य पर दो अन्य विभूतियों के प्रभाव की चर्चा कर रहा हूँ.  
आचार्य द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्तजी ने साकेत के अतिरिक्त अपनी अन्य रचनाओं में भी उपेक्षित नारी पात्रों को नायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया. उन्होंने गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा को- यशोधरामें और चैतन्य महा प्रभु की पत्नी विष्णु प्रिया को- विष्णुप्रियामें नायिका बनाया. गुप्तजी ने गुरुदेव टैगोर की भांति स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के बराबर और एक-दूसरे का पूरक माना. 1892 में प्रकाशित, गुरुदेव की नृत्य नाटिका चित्रांगदाकी नायिका अपने प्रेमी अर्जुन की न तो आराध्या बनना चाहती है,   उसकी दासी. वह तो उसकी सहचरी और सहयोगिनी बनना चाहती है. यह स्वर जिसका है, वह पौराणिक नारी नहीं, सम्पूर्ण रूप से आधुनिका नारी है.-   
आमि चित्रांगदा.
नहिं आमि सामान्य रमणी,
पूजा करि राखिबे माथाय, से-ओ आमि,
नइ. अवहेला करि पुशिया राखिबे,
पिछे से-ओ आमि नहिं, यदि पार्श्वे राखो,
मोरे संकटेर पथे, दुरूह चिन्तार,
यदि अंश दाओ, यदि अनुमति करो,
कठिन व्रतेर तब सहाय हईते,
यदि सुखे दुखे मोरे करो सहचरी,
आमार पाइबे तबे परिचय
(मैं देवी नहीं हूँ, सामान्य नारी भी नहीं हूँ मैं तो चित्रांगदा हूँ. मैं ऐसी नहीं हूँ जिसको तुम पूज्यनीय बनाये रख सको और न ऐसी हूँ जिसकी तुम अवहेलना कर सको. यदि तुम संकट के मार्ग पर मुझे अपना साथी बनाओ, यदि दुरूह चिंता का कुछ भाग मुझे भी वहां करने दो, यदि अपने कठिन व्रत में सहायता पहुँचाने के लिए मुझे अनुमति दो, यदि तुम अपने सुख-दुःख की मुझे सहचरी बनाओ, तभी तुम मेरा पूर्ण परिचय पा सकोगे.)  
साकेतमें लक्ष्मण अपनी प्रियतमा उर्मिला के प्रति प्रेम-प्रदर्शन में आत्म-सम्मान को भुलाकर कहते हैं
धन्य है प्यारी तुम्हारी योग्यता,
मोहनी सी मूर्ति, मंजु-मनोज्ञता.
धन्य जो इस योग्यता के पास हूँ,
किन्तु मैं भी तो, तुम्हारा दास हूँ.
उर्मिला उनकी चाटुकारिता भरे उदगार सुनकर प्रसन्न होने के स्थान पर खिन्न हो जाती है. पति और पत्नी को एक-दूसरे का पूरक मानने वाली उर्मिला को लक्ष्मण के इन वचनों में दासत्व की भावना परिलक्षित होती है. अर्जुन की प्रिया चित्रांगदा की ही भांति उर्मिला भी लक्ष्मण की स्वामिनी नहीं अपितु उनकी मित्र, समकक्ष, सहचरी और सहगामिनी बनना चाहती है
दास कहने का बहाना किस लिए?
क्या मुझे दासी कहाने के लिए?
देव होकर तुम सदा मेरे रहो,
और देवी ही मुझे रक्खो अहो.
यशोधराखंड-काव्य में भी यशोधराको गुप्तजी एक ऐसी साहसी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो अपने पति के मार्ग में बाधक नहीं अपितु उनकी सहायक बनना चाहती है. अपनी पत्नी यशोधरा और अपने परिवार के अन्य सदस्यों को बिना बताये हुए, राजकुमार सिद्धार्थ जब गृह-त्याग कर देते हैं तो यशोधरा के मन में अपने पति से सदा के लिए बिछुड़ने से भी बड़ी कसक यह है कि उसके पति ने वैराग्य लेने की अपनी योजना उससे छुपाई. अगर वो उसे अपनी इच्छा और अपना संकल्प बताते तो वह उनके धर्म-मार्ग में बाधक नहीं बनती अपितु उन्हें वह वैसे ही विदा देती जैसे कि एक वीर क्षत्राणी अपने पति को रण-क्षेत्र में जाने के लिए विदा करती है
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में,
क्षात्र धर्म के नाते,
सखि, वे मुझसे कहकर जाते.’              
बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि गुप्तजी ने उर्दू-साहित्य से भी काव्य-सृजन की प्रेरणा ली थी. उन्होंने दत्तात्रेय कैफ़ी की उर्दू रचनाओं से प्रेरणा लेने की बात स्वीकार की है परन्तु इस क्षेत्र में हम अल्ताफ़ हुसेन हाली को तो एक प्रकार से उनका गुरु कह सकते हैं. उर्दू के पहले प्रगतिशील शायर हाली ने जहाँ एक ओर कौमी इत्तिहाद (सांप्रदायिक सद्भाव) को महत्त्व दिया वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारत के आर्थिक उत्थान के लिए भारतीय उद्योग और वाणिज्य को आधुनिक तकनीक पर विकसित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया था. 1874 में प्रकाशित अपनी नज़्म हुब्बे वतनमें उन्होंने भारतीय मुसलमानों और हिन्दुओं को इस बात के लिए फटकार लगाई कि वे अब भी मिथ्या अभिमान और जातीय गौरव की शान बघारने से बाज़ नहीं आ रहे हैं और इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि वो गुलामी और गरीबी में अपनी ज़िल्लत के दिन गुजार रहे हैं-
 इज्ज़तो-कौम चाहते हो अगर, जाके फैलाओ उनमें इल्मो-हुनर,
जात का फख्र और नसल का गुरूर, उठ गए जहां से ये दस्तूर.
अब न सैयद का इफ्तखार (गौरव) सही, अब न बिरहमन का शूद्र पर तरजीह (वरीयता),
हुई तर्की (परित्याग) तमाम खानों की, कट गयी जड़ से खानदानों की.     
कौम की इज्ज़त अब हुनर से है, इल्म से या कि सीमो-ज़र (सोना-चांदी) से है,
एक दिन में वो दौर आयेगा, बे-हुनर भीख तक न पायेगा.  
हाली ने अपने महाकाव्य मुसद्दसे हालीमें इस्लाम के गौरव शाली इतिहास का गुणगान करते हुए वर्तमान काल में भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा का चित्रण किया था और उन्हें अपना वर्त्तमान व अपना भविष्य संवारने के लिए कर्मठता, अध्यवसाय, सहिष्णुता, प्रगतिशीलता और व्यावहारिकता अपनाने का सन्देश दिया था. काला कांकर के राजा रामपाल सिंह और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने गुप्तजी को प्रेरित किया कि वो हाली का अनुकरण कर आर्यों व हिन्दुओं के पुनरुत्थान हेतु कोई काव्य-रचना करें. गुप्तजी ने 1911 में भारत भारतीकी रचना की. गुप्तजी के इस खंड काव्य पर भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य नाटक भारत दुर्दशाका भी प्रभाव पड़ा है किन्तु उन्होंने भारत भारतीकी भूमिका में हाली के मुसद्दसे हालीका प्रभाव अवश्य स्वीकार किया है.
आर्यों के गौरव शाली अतीत का गुणगान करना अब व्यर्थ था, अब तो अपना वर्तमान और भविष्य सुधारने के लिए अनथक प्रयास करने की आवश्यकता थी. भारत भारतीके वर्तमान खंडमें भारतीयों की चारित्रिक दुर्बलता पर खिन्नता प्रकट करते हुए गुप्तजी कहते हैं -  
मन में नहीं बल है हमारे, तेज में चेष्टा नहीं,
उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कहीं.
दासत्व में न यहाँ अरुचि है, प्रेम में प्रियता नहीं,
हो अंत में आशा कहाँ? कर्तव्य में क्रियता नहीं.’ 
जैसे हाली ने मुसलमानों को कर्मठता का सन्देश दिया है वैसे ही गुप्तजी हिन्दुओं को कर्मठता का सन्देश देते हुए और उन्हें सचेत करते हुए कहते हैं कि यदि वह अपने आलस्य और दासत्व की भाव का परित्याग नहीं करेंगे तो हिन्दू जाति इतिहास में शाश्वत रूप से निंदा और उपहास का पात्र बन जाएगी -
ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,
जर्जर तुम्हारी जाति काबेड़ा विपद से पार हो।
ऐसा न हो जो अन्त मेंचर्चा करें ऐसी सभी,
थी एक हिन्दू नाम की भीनिन्द्य जाति यहाँ कभी।।
हाली की दो नज्मों - मुनाजात-ए-बेवाऔर चुप की दादमें स्त्रियों के त्याग, उनकी ममता, उनमें करुणा का भाव, उनकी सहन शक्ति, उनकी कर्मठता, बुद्धिमत्ता आदि की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है. हाली के उपन्यास- मजालिस-उन-निसांमें स्त्री-शिक्षा की पुरज़ोर वकालत की गयी है. अपनी नज़्म- ‘‘चुप की दादमें हाली स्त्रियों के गुणों का बखान करते हुए कहते हैं
ऐ माँओ! बहनों! बेटियों! दुनिया की जीनत (शोभा) तुम से है,
मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुम से है.
नेकी की तुम तस्वीर हो, इफ्फत (पवित्रता) की तुम तदबीर (व्यवस्था) हो,
हो दीन की तुम पासबाँ (संरक्षक) , ईमां की सलावत  (उच्चारण) तुम से है
फितरत तुम्हारी है हया (लज्जा), तीनत (प्रकृति) में है मेहरो-वफ़ा (प्रेम और प्रतिज्ञा पालन),
घुट्टी में है सब्रो-रज़ा (धैर्य और आशा), इंसान की इबारत (हस्तलिपि) तुम से है..’ 
हाली की ही भांति गुप्तजी भी स्त्री-शिक्षा के प्रसार-प्रचार को न केवल स्त्रियों के उत्थान के लिए अपितु देश व समाज के कल्याण के लिए भी आवश्यक मानते हैं. हाली की ही तरह गुप्तजी भी भारतीय नारी के सदगुणों के प्रशंसक हैं. उनको शिक्षित भारतीय नारी की क्षमता पर अटूट विश्वास है -
क्या कर नहीं सकतीं भला यदि शिक्षिता हों नारियाँ,
रण,  रंग,  राज्य,  सुधर्म-रक्षा,  कर चुकीं सुकुमारियाँ।
लक्ष्मी,  अहल्या,  बायजाबाई,  भवानी,  पद्मिनी,
ऐसी अनेकों देवियां हैं, आज जा सकती गिनीं।
सोचो नरों से नारियां, किस बात में हैं कम हुईं,
मध्यस्थ वे शास्त्रार्थ में हैं, भारती के सम हुईं।।
स्त्री की पुरुष पर श्रेष्ठता गुप्तजी के इन शब्दों में भी व्यक्त होती है -
एक नहीं, दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी.
गुप्तजी प्रत्येक गुणवान व्यक्ति से उत्तम विद्या सीखने के लिए सदैव तत्पर रहते थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र, अल्ताफ़ हुसेन हाली, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और रबीन्द्रनाथ टैगोर को हम उनके गुरु जन में सम्मिलित कर सकते हैं. इन आदर्श गुरु जन के वह आदर्श शिष्य थे. देशोद्धार, स्वदेश प्रेम, नारी-उत्थान, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वदेशी, राष्ट्र-भाषा हिंदी का का देश-व्यापी प्रचार तथा उसका सर्वतोमुखी विकास, हिन्दू-पुनरुत्थान, किसानों और दलितों के उत्थान हेतु प्रयास तथा उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखना आदि उन्होंने अपने अग्रजों से सीखा और फिर उन्होंने आजीवन सोद्देश्य साहित्य का सृजन किया. अपने अग्रजों की इस समृद्ध परंपरा को उन्होंने सफलतापूर्वक आगे बढ़ाते हुए आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य विरासत छोडी है.