रविवार, 31 जनवरी 2021

गुस्ताख़ी

इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल के आंसू
(श्री जयशंकर प्रसाद से क्षमा-याचना के साथ)
हो घनीभूत ठग-विद्या
जब राजनीति में आई
तब भारत-भाग्य गगन पर
संकट की बदली छाई
नेता की मेढक टोली
फिर टर-टर करने आई
छल-कपट फ़रेब सरीखे
उपहार सैकड़ों लाई
यूँ झोंकी धूल नयन में
सच पड़ता नहीं दिखाई
अन्याय दमन की चर्चा
बंदी-गृह तक ले आई
विश्वास किया वादों पर
फिर से जनता पछताई
दुर्दिन दुखदाई रातें
उद्धार नहीं रघुराई

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

एक प्राचीन कथा का नवीनीकरण

 एक प्राचीन कथा -

सबेरा कैसे होगा?’

किसी गांव में एक डोकरी रहती थी , उसके पास एक मुर्गा था.

जब मुर्गा बांग देता तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपनेअपने काम में लग जाते.

एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली-

'तुम लोग मुझे अगर ऐसी ही नाराज़ करते रहोगे तो मैं अपना मुर्गा लेकर दूसरे गांव में चली जाऊंगी.

मुर्गा न होगा तो बांग कौन देगा? मुर्गा बांग नहीं देगा तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज नहीं उगेगा तो सवेेरा भी कैसे होगा?'

मेरे द्वारा रचित एक नवीन कथा

सवेरा तो होकर ही रहेगा’ -

किसी गांव में एक डोकरी रहती थी, उसके पास दर्जनों मुर्गे थे और उन मुर्गों में बड़ा भाई-चारा था.

ये सभी मुर्गे जब एक साथ बांग देते थे तो सभी लोग समझ लेते कि सवेेरा हो गया और जग कर अपने-अपने काम में लग जाते.

एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली

'तुम लोग अगर ऐसे ही मुझे नाराज़ करते रहोगे तो मैं अपने सारे मुर्गे लेकर दूसरे गांव में चली जाऊंगी.'

अब समस्या यह थी कि

मुर्गे नहीं होंगे तो बांग कौन देगा?

मुर्गे बांग न देंगे तो सूरज नहीं उगेगा और अगर सूरज नहीं उगेगा तो सवेेरा भी कैसे होगा?'

दूसरे गाँव में जाते ही बुढ़िया के सारे के सारे मुर्गे, अपनी खातिरदारी देखकर फूल कर कुप्पा हो गए, उनमें घमंड आ गया और घमंड के मारे वो एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बनकर राजनीति में प्रविष्ट हो गए.

अब हर-एक मुर्गा अलग-अलग समय पर अलग-अलग ढंग की बांग देने लगा.

कोई मुर्गा भगवा बांग देने लगा तो कोई हरी बांग देने लगा, कोई लाल बांग देने लगा तो कोई वंशवादी बांग देने लगा. और तो और, कोई-कोई मुर्गा तो दल-बदलू बांग भी देने लगा.

गाँव वाले परेशान ! किस मुर्गे की बांग सुन कर वो यह मानें कि सूरज उग आया है और किस मुर्गे की बांग को अनसुना कर वो अपनी चादर ओढ़ कर सुबह होने की घोषणा करने वाली सही बांग के इंतज़ार में, अपने-अपने बिस्तर पर ही लेटे रहें.

आखिरकार गाँव वालों ने आपस में चोंच लड़ाने वाले उन सभी मुर्गों को अपने गाँव से बाहर निकाल दिया.

और आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.

अब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों के जैसा साहसिक क़दम क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग ढंग की बाग़ देने वाले इन सियासती मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से, दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल क्यों नहीं फेंकते?

यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग बांग देने वाले इन सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा.

मंगलवार, 26 जनवरी 2021

हमारा गणतंत्र-दिवस

कितना जानते हैं आप और हम अपने गणतंत्र-दिवस को?

कोई पूछे कि पहली गणतंत्र दिवस परेड देश की राजधानी में कहां हुई थी, तो सबसे पहले उत्तर आएगा -'राजपथ'
नहीं ! दिल्ली में 26 जनवरी, 1950 को पहली गणतंत्र दिवस परेड, राजपथ पर न होकर इर्विन स्टेडियम (आज का नेशनल स्टेडियम) में हुई थी.
इसी प्रकार गणतंत्र दिवस २६ जनवरी को ही क्यों मनाया जाता है,
छब्बीस जनवरी का शुभ दिन, आ गया आज खुशियाँ लेकर, 

जन-जन में फैला नवजीवन, खिल उठी धरा पुलकित होकर।'

प्रत्येक 26 जनवरी को हम अपने गणतंत्र दिवस की जयंती मनाते हैं. आप सब सोच रहे होंगे कि यह कविता हमारे गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में गाई जाती होगी. पर नहीं, 26 जनवरी पर यह कविता हमारे गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में नहीं, बल्कि 1930 से लेकर 1947 तक हर छब्बीस जनवरी को हमारे स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में गाई जाती थी.

हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में भी 26 जनवरी की तिथि का बहुत अधिक महत्त्व है.
1920
में प्रारम्भ हुए असहयोग आंदोलन का राजनीतिक लक्ष्य स्वराज्य प्राप्त करना था. 1922 के चौरीचौरा काण्ड के बाद असहयोग आंदोलन वापस अवश्य ले लिया गया परंतु स्वराज्य प्राप्त करने के लक्ष्य को गांधीजी और कांग्रेस ने ज्यों का त्यों बनाए रखा.

1927-28 में साइमन कमीशन का देशव्यापी बहिष्कार अंग्रेज़ सरकार को क्षुब्ध कर गया था. उसका दमन चक्र अपने शिखर पर था.

लाला लाजपत राय जैसे महान नेता, ब्रिटिश शासन की क्रूरता की भेंट चढ़ गए थे.

सरकार ने साइमन कमीशन के विकल्प के रूप में कांग्रेस द्वारा तैयार नेहरू रिपोर्ट की सिफ़ारिशों पर विचार किए बिना ही उन्हें खारिज कर दिया था.

इस बढ़ती हुई राजनीतिक कटुता के कारण सन् 1929 के आरम्भ में ही गांधीजी पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति हेतु सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का मन बना चुके थे.
सन् 1929 का कांग्रेस अधिवेशन लाहौर में होना निश्चित हुआ था जिसमें कि अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल नेहरू को बनाया जाना था.

साइमन कमीशन की विफलता तथा सरकार द्वारा नेहरू रिपोर्ट को खारिज किए जाने के बाद अब कांग्रेस स्वतंत्रता या कम से कम पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध थी.

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के कानपुर से प्रकाशित पत्र प्रतापके 15 दिसम्बर, 1929 के अंक में हरिदत्त की कविता लाहौर कांग्रेस प्रकाशित हुई थी ।

इस कविता में कवि ने कांग्रेसअधिवेशन में लिए जाने वाले निर्णयों की ओर स्पष्ट संकेत किया था  

भारत में गुल ख्लिाएगी लाहौर कांग्रेस,
परतंत्रता मिटाएगी, लाहौर कांग्रेस.
बलिदान जहाँ हो गए, यतीन्द्रनाथ वीर,
फिर क्यों न रंग लाएगी, लाहौर कांग्रेस.
खुशकिस्मती कि सद्र हुए मोती से जवाहर,
सर ताज अब रखाएगी, लाहौर कांग्रेस.
इरविन का जाल खोल दिया पार्लामेन्ट ने,
अब चाल में न आएगी, लाहौर कांग्रेस.
चलकर रगों में आ रहा, अपने वतन का खूँ,
मुर्दों को भी जिलाएगी, लाहौर कांग्रेस.
साइमन रिपोर्ट का न वहाँ इन्तज़ार हो,
बल अपना आज़माएगी, लाहौर कांग्रेस.
पूरी स्वतंत्रता लिए बिन, हम न रहेंगे,
ऐलान यह सुनाएगी, लाहौर कांग्रेस.
तैयार होके जाना ओ ! भारत के सपूतो,
हरिदत्त नाम पाएगी, लाहौर कांग्रेस.
इस ऐतिहासिक घोषणा का हार्दिक स्वागत किया गया.

ब्रिटिश सरकार ने लाहौर कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज्य की मांग की पूरी तरह अनसुनी कर दी. कांग्रेस पहले ही चेतावनी दे चुकी थी कि इस विषय में सरकार की निष्क्रियता पर वह 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाएगी.

जैसी कि आशंका थी, ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की पूर्ण स्वराज्य की मांग को और मांग पूरी न होने की स्थिति में स्वतंत्रता घोषित किए जाने की चेतावनी को पूरी तरह से अनसुना कर दिया.

अब भारतीयों को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाने से कोई नहीं रोक सकता था.

इस दिन कांग्रेस ने स्वतंत्रता दिवस मनाने का निश्चय किया और सारे देश में देशभक्तों ने स्वतंत्रता दिवस मनाया.

प्रातः काल प्रभात फेरी निकाली गयीं.

श्यामलाल पार्षद जी का गीत विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारागाते हुए बच्चे, नौजवान, यहाँ तक कि बुज़ुर्ग भी प्रभात फेरियों में उत्साह पूर्वक सम्मिलित हुए.

आज़ादी से पहले भी तब से हम हर 26 जनवरी को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाते रहे.

15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारे लिए 26 जनवरी का महत्त्व कम नहीं हुआ और जब 1950 में हमको अपने देश को पूर्ण संप्रभुता प्राप्त गणतंत्र घोषित करना था तो उसकी तिथि 26 जनवरी ही रक्खी गयी.

आप सबको गणतंत्र दिवस की बधाई. 

सोमवार, 25 जनवरी 2021

विंटर वैकेशंस

 

(यह कहानी मेरे बाल-कथा संग्रह 'कलियों की मुस्कान' से ली गयी है. इस कहानी को मेरी दस वर्षीय बेटी गीतिका सुनाती है. इस कहानी का काल 1990 का दशक है)

हमारे अल्मोड़ा में विन्टर वैकेशन्स खूब लम्बी होती हैं। पापा की यूनीवर्सिटी तो विन्टर्स में पचास से भी ज़्यादा दिनों के लिए बन्द होती है। हम अपनी ज़्यादातर छुट्टियां अम्मा-बाबा के साथ लखनऊ में बिताते हैं। कुछ साल पहले तक हम विन्टर वैकेशन्स में उसी तरह से दिन बिताते थे जैसे कि जेल में कैदियों के बीतते हैं। छुट्टियों में भी हमारा टाइम टेबिल बना दिया जाता था। हमारी मस्ती और उछल-कूद पर भी भारी कन्ट्रोल लगाया जाता था। जाड़ों की गुनगुनी धूप जब लिहाफ़ पर पड़ती है तो उसमें सोने का मज़ा कुछ और ही होता है। पर हमारी किस्मत में सिर्फ़ ये सुनना लिखा था -

गीतिका, रागिनी उठो बेटा ! देखो सात बज गए हैं।

इस फर्स्ट वार्निंग बैल को जब हम अनसुना कर देते थे तो पन्द्रह मिनिट बाद दूसरी घण्टी कुछ ज़ोर से बजती थी और उसमें प्यार भरे शब्दों की चाशनी गायब हो जाती थी। दुनिया भर में तीसरी वार्निंग दिए जाने का रिवाज है पर साढ़े सात बजे मम्मी अपने ठन्डे-ठन्डे हाथों से हमको हिला-हिला कर ज़बर्दस्ती बिस्तर पर से उठा देती थीं। तैयार होकर, नाश्ता करके, हम साढ़े आठ बजे तक तो होमवर्क करने के लिए टेबिल पर बैठ भी जाते थे। अब मम्मी-पापा से कौन पूछ सकता था कि वैकेशन्स में घड़ी जैसी फ़ालतू चीज़ पर बराबर नज़र रखने की क्या ज़रूरत थी? वैकेशन्स में सण्डे और मण्डे में फ़र्क किया जाना कहां का इंसाफ़ था? अब सुबह के आठ बजे या नौ, हम बिस्तर छोड़ कर क्यों उठें? जाड़े की सुबह की मीठी नींद तो रसगुल्लों से भी ज़्यादा मीठी होती है पर हमारी किस्मत में उसका स्वाद चखना कहां लिखा था? हमको पता था कि हमारे ऊपर घोर अत्याचार किया जा रहा था पर मम्मी-पापा के गले में सवालों और एक्सप्लेनेशन्स की घण्टी बांधने की हिम्मत किस चूहे में थी? कभी मम्मी मुझको उठाते हुए इतिहास का अपना ज्ञान डिमोन्स्ट्रेट करते हुए कहतीं -

गीतू उठ ! हाफ़-ईयर्ली एक्ज़ाम्स में मैथ्स में तेरे नाइन्टी पर्सेंट मार्क्स ही आए थे। तू दो और दो का जोड़ पाँच करती है। इन छुट्टियों में तुझको मैथ्स का पूरा कोर्स दो बार कवर करना है।

उधर पापा रागू को हिलाते हुए कहते -

रागू साइंस में तेरी पकड़ ढीली हो रही है। चल, फटाफट उठ और गैलीलियो या न्यॅूटन बनने की तैयारी में जुट जा।

हाय ! सुबह-सुबह नाश्ते के टाइम अच्छी-अच्छी आदतें डालने के बारे में उपदेश , फिर दोपहर के खाने के वक्त ढंग से पढ़ाई न करने पर डांट-फटकार और डिनर टाइम पर दिन भर की शरारतों का हिसाब-किताब करके कान-पकड़ाई की धमकियां। वो तो अम्मा-बाबा के बीच-बचाव करने से हम बच्चे सस्ते में छूट जाते थे नहीं तो हमारे बाल-सुधार गृह तक भेजे जाने की नौबत आ सकती थी।

ये छुट्टी भी कोई छुट्टी हुई ! इससे तो स्कूली जेल अच्छी होती थी। मेरा बस चलता तो मैं बच्चों पर सख्ती करने वालों पर भारी जुर्माना लगाती पर होता इसका उल्टा था। मम्मी-पापा के हिटलरी हुक्मों को न मानने पर हमारे मौज-मस्ती के कार्यक्रम कर्टेल कर दिए जाते थे और हमको खाने में दी जाती थीं मूंग की दाल और कद्दू की सब्ज़ी ।

हम दोनों बहनें, सर झुकाकर, अपनी गल्तियां दोबारा न दोहराने का वादा कर, जब अपने काम में जुट जाती थीं, तभी हमको माफ़ी मिलती थी। पापा का मूड जब हमको सैर कराने का होता था तो मम्मी हमारे पेडिंग होमवर्क का हिसाब उनके सामने रख देती थीं और अगर हम अग्नि-परीक्षाओं में खरे उतरे भी तो मम्मी का व्हाट टु डू एण्ड व्हाट नौट टु डू का रिकॉर्ड चालू हो जाता था।

'आइसक्रीम खाने से गला बैठ जाता है, चाकलेट खाने से चूहे दांत कुतर जाते हैं, जंक-फ़ूड खाने से जोंडिस तक हो सकता है।

ये सब सुन-सुन कर हम परेशान और बोर हो गए थे।

मम्मी इन वैकेशन्स में खूब मस्ती करती थीं। घर का काम और हमारे ऊपर हुक्म चलाने के बाद उनके पास जो टाइम बचता था, उसमें वो भरपूर मज़े उड़ाती थीं। उनके शौपिंग के प्रोग्राम्स की तो हम काउण्टिंग तक नहीं कर सकते थे। लखनऊ में उन्होंने अपनी बहुत सी सहेलियां बना ली थीं और उनके साथ वो आए दिन कुछ न कुछ कार्यक्रम बनाती रहती थीं। कभी वो किसी आंटी के घर पहुँच जाती थीं तो कभी कोई आंटी उनसे मिलने हमारे घर आ धमकती थीं। उनकी गपशप, ताश की बाजि़यों और हा, हा, हू, हू के शोर के बीच हम बेचारी दोनों बहनों को मैथ्स, साइंस की पेचीदगियों को सुलझाने में और हिन्दी, इंग्लिश, सोशल स्टडीज़ वगैरा की बारीकियों को समझने में अपना सर खपाना पड़ता था। पापा भी वैकेशन्स के दौरान सभी रूल्स और रेग्युलेशन्स की भी छुट्टी कर देते थे। बिस्तर पर बिना ब्रश किए मोर्निंग टी, फिर बिस्तर पर ही पसर कर अखबार पढ़ना और साथ में टीवी पर ऐसे प्रोग्राम्स देखना जिनको अम्मा-बाबा की कम्पनी में देखने में मज़ा न आता हो। बस हर सुबह पापा का यही रूटीन होता था। अल्मोड़ा में सूर्योदय से बहुत पहले उठने वाले हमारे पापा लखनऊ में तभी बिस्तर पर से उठते थे जब कि हमको उठाने के लिए मम्मी को उनकी सेवाओं की ज़रूरत होती थी।

मम्मी-पापा के अत्याचारों को हम चुपचाप बर्दाश्त कर लेते थे क्योंकि उनसे टकराने का अंजाम हम अच्छी तरह से जानते थे। पर भला हो सोशल स्टडीज़ की मेरी बुक में गांधीजी वाले लैसन का, जिसने हमको सत्याग्रह करना सिखा दिया। इसी सत्याग्रह के बल पर गांधीजी ने हमारे निहत्थे परदादा-परदादियों को ताकतवर अंग्रेज़ों की तोपों और बन्दूकों से लैस फ़ौज से लड़ना सिखाया था। बेचारे पापा ने खुद हमको डिटेल में गांधीजी की स्ट्रैटिजी के बारे में बताया था। उनको क्या पता था कि उनकी बेटियां उन्हीं से प्राप्त ज्ञान का फ़ायदा उठाकर उनके और मम्मी के खिलाफ़ मोर्चा खड़ा कर देंगी। गांधीजी ने गोरों और कालों के लिए अलग-अलग कानून होने के खिलाफ़ जंग छेड़ी थी और हमने घर में बच्चों और बड़ों के लिए एक से कानून बनाए जाने के पक्ष में अपना सत्याग्रह शुरू किया था। जाति-भेद और रंग-भेद के खिलाफ़ लड़ाई को गांधीजी ने जीता था और अब हम उनकी दो नई चेलियां उम्र-भेद के खिलाफ़ किला फ़तह करने वाली थीं।

हमने अपना सत्याग्रह शुरू कर दिया। हमारी मांग थी कि घर में रूल्स और रेग्युलेशन्स सबके लिए एक जैसे होने चाहिए। ये नहीं कि बच्चों के लिए तो कायदे-कानून की सख्त कैद हो और मम्मी-पापा के लिए वैकेशन्स में मौज ही मौज हो। मम्मी-पापा ने हमारे सत्याग्रह पर शुरू में कोई ध्यान नहीं दिया पर जब हमने खाना-पीना तक छोड़ दिया तो उनको हमारी बातों पर गौर करना पड़ा। हमारे बाबा रिटायर्ड चीफ़ जुडीशियल मैजिस्ट्रेट हैं। उन्होंने ही हमारी घरेलू अदालत में जज का रोल निभाया। बाबा का फ़ैसला हमारे पक्ष में गया। अब वैकेशन्स के दौरान हमारे मम्मी-पापा को भी उन नियमों का पालन करना था जो कि उन्होंने हम पर लादे थे।

अगली सुबह हम मम्मी-पापा के जगाने से काफ़ी पहले खुद ही उठ कर तैयार हो गए। मम्मी जब पापा को बैड-टी देने पहुँचीं तो हम उनके सर पर सवार थे। जब तक पापा मम्मी के हाथ से चाय का कप लें, उससे पहले ही रागू ने चाय का कप मम्मी से झटक लिया और वो पापा से बोली -

कान में तिनका, नाक में उंगली मत कर, मत कर, मत कर।

आँख में अन्जन, दांत में मन्जन, नित कर, नित कर, नित कर।।

मैं पापा के टूथब्रश में पेस्ट लगाकर तैयार खड़ी थी। बेचारे पापा को बैड-टी तभी नसीब हुई जब कि उन्होंने अपने बिस्तर पर से उठकर बाकायदा ब्रश किया और अम्मा-बाबा को जाकर नमस्ते कहा। अपनी बेड-टी लेकर पापा बिस्तर पर बैठकर, तकियों के सहारे टिक कर, जब टीवी देखने और अखबार पढ़ने का कम्बाइन्ड प्रोग्राम करने लगे तो हमने उन्हें लाइफ़ में मोर्निंग वाक और एक्सरसाइज़ की इम्पोर्टेंस पर एक अच्छा-खासा लेक्चर पिला डाला। पापा के प्रोटेस्ट करने पर मम्मी ने हमारी साइड लेते हुए उनको उनका ट्रैक-सूट और जूते थमा दिए। एक घण्टे की परेड के बाद जाड़े के दिनों में भी पसीने से लथपथ हमारे पापा को कपड़े चेन्ज करने के बाद नाश्ता नसीब हुआ वह भी बिस्तर पर नहीं बल्कि डायनिंग टेबिल पर।

अम्मा-बाबा की फ़रमाइश पर मम्मी आए दिन नाश्ते और खाने में स्पेशल आइटम्स बनाती रहती थीं। आलू के कटलेट्स, कचौडि़यां और पकौड़ियों पर पापा जमकर टूटते थे। पर अब उनके लिए मुश्किल खड़ी हो गई थी। रागू उनकी कमर नापने के लिए मेज़रिंग टेप और मैं वेइंग मशीन लेकर डायनिंग टेबिल के पास खड़े रहते थे। अगर आइसक्रीम खाने से हमारा गला चौपट हो सकता था और चाकलेट खाने से चूहे हमारे दांत कुतर सकते थे तो क्या पापा को जंक-फ़ूड का पहाड़ हज़म करना सूट कर सकता था? पापा को अपना वेट कन्ट्रोल करने के लिए डॉक्टर्स ने बार-बार कहा था। उनकी दुलारी और रिस्पान्सिबिल हम दोनों बेटियां उनको बदपरहेज़ी कैसी करने दे सकती थीं? विन्टर वैकेशन्स के दौरान अक्सर पापा नहाने से और शेव करने से बचने का बहाना ढूढ़ लेते थे पर अब हमने एक डिसिप्लिन्ड सोल्जर की तरह रोज़ाना टिपटॉप रहने के लिए मजबूर कर दिया था। पापा को नहाने के लिए ज़बर्दस्ती बाथरूम में ढकेलना हमने अपनी ड्यूटी में शामिल कर लिया था।

मम्मी को भी हम बक्शने वाले नहीं थे। अम्मा-बाबा कुछ दिनों के लिए दिल्ली गए हुए थे। पापा भी दो-चार घण्टों के लिए घर से बाहर थे। इस सिचुएशन का फ़ायदा उठाकर दोपहर में मम्मी की कई दोस्त उनके साथ ताश खेलने आ गईं। मम्मी और आंटी लोगों ने हा हा हू हू करके सारा घर आसमान पर उठा लिया था। ताश की बाजी घण्टों चलने वाली थी पर हम दो दारोगा रंग में भंग डालने के लिए वहां पहुँच गए। मम्मी के हाथ से मैंने ताश की गड्डी छीन ली और उनके साथ कमरे में मौजूद सभी आंटियों को ताश खेलने की गन्दी आदत पर एक छोटा सा लेक्चर पिला डाला। मम्मी मुझे आँखें तरेरती रहीं पर मुझ पर इसका कोई असर नहीं हुआ। ताश की गड्डी मेरे ही कब्ज़े में रही। मम्मी और सभी आंटियों को मैंने खाली समय में अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ने की सलाह दी। आण्टियां पैर पटकते हुए हमारे घर से चली गईं और बेचारी मम्मी अपना सर पकड़ कर बैठ गईं।

मम्मी की फ़ोन पर चिपके रहने की बहुत आदत थी। मौसी या अपनी फ्रेंड्स से फ़ोन पर बातें करते वक्त वो घड़ी देखना भूल जाती थीं। पर अब हमने उनकी फ़ोन-वार्ता के दौरान उनको बार-बार घड़ी दिखाना और ज़ोर-ज़ोर से टाइम बताना शुरू कर दिया। मम्मी को कई बार अपनी बात बीच में ही बन्द करके फ़ोन पटक कर भागना पड़ा पर हम अपनी इस ड्यूटी पर पहले की तरह ही मुस्तैद रहे। हमने मम्मी-पापा के लेट-नाइट टीवी देखने के शौक पर भी पाबन्दी लगवा दी।

अर्ली टु बैड एण्ड अर्ली टु राइज़ वाला फ़ार्मूला अपना कर हम अपने मम्मी-पापा को हैल्दी और वाइज़ बनाने में जुट गए।

एक हफ़्ते में ही मम्मी-पापा ने सरेण्डर कर दिया। उनके शान्ति प्रस्ताव को हमने यूं ही नहीं मान लिया। पापा विन्टर वैकेशन्स के दौरान अपनी मर्ज़ी से जि़न्दगी बिताने के बदले में हमारी हर शर्त मानने को तैयार थे पर मम्मी कुछ शर्तों के साथ समझौता करना चाहती थीं। हमको मालूम था कि हम कहां तक अपनी शर्तें मनवा सकते थे इधर हमारे अम्मा-बाबा भी दोनों पार्टियों के बीच दोस्ती कराने की कोशिश में लगे हुए थे। हमने भी मम्मी-पापा से समझौता करने में अपनी खैर समझी। पिछले सात दिनों से मम्मी-पापा को डिसिप्लिन्ड नागरिक बनाने के चक्कर में हम अपना बचपन बिल्कुल भूल ही गए थे।

मम्मी-पापा ने विन्टर वैकेशन्स के दौरान हमारा पढ़ाई का कोटा काफ़ी कम कर दिया। अब रोज़ाना दाल, सब्ज़ी और रोटी खाने की कैद से हम आज़ाद कर दिए गए। छुट्टियों के दौरान हमारी पिकनिक्स और चाट-आइसक्रीम पार्टियों का नम्बर बढ़ा दिया गया। अब हम पापा से कार्टून फि़ल्म दिखाने की फ़रमाइश भी कर सकते थे। हमारी छुट्टियां पहले से ज़्यादा चटपटी और मज़ेदार हो गईं।

सबसे हैरानी की बात ये थी कि अब हमारा होमवर्क पहले से ज़्यादा अच्छी तरह से होने लगा। पापा को फिर से बैड-टी मिलने लगी और मम्मी की किटी पार्टी और ताश की बैठकों में फिर से जान पड़ गई। उनकी लम्बी-लम्बी टेली-कान्फ्रेन्सिंग फिर से चालू हो गईं। अब मम्मी-पापा के बैड पर उन्हीं के साथ अपनी टांगे पसार कर हम टीवी दर्शन और पकौड़ी आहार की जुगलबन्दी का आनन्द लेते हैं।

गांधीजी के सत्याग्रह की कृपा से हमारी छुट्टियों में जान पड़ गई है। अब हम हर साल बेसब्र होकर विन्टर वैकेशन्स में मनमाने ढंग से धमाचौकड़ी करने का इन्तज़ार करते हैं।