शनिवार, 31 दिसंबर 2016

हम अभिशप्त उल्टे प्रदेश के

हम अभिशप्त उल्टे प्रदेश के –
हमारे उत्तर प्रदेश में जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति ने एक नया कीर्तिमान स्थापित कर अब बिहार को भी पीछे छोड़ दिया है. बिहार में लालू प्रसाद यादव की कुनबा-गिरी ने बिहार की राजनीति को नैतिकता की दृष्टि से रसातल तक पहुँचाया है किन्तु आज मुलायम कुनबा-गिरी के सामने उनका हर कारनामा दूध में धुला लगने लगा है.
अखिलेश के मुख्य मंत्री बनते ही कुनबे की फूट परिलक्षित होने लगी थी. एक तरफ़ बेटा था और उसके चचेरे चाचा थे तो दूसरी तरफ़ पिताजी थे, सगे चाचाजी थे, सौतेली माताजी थीं, सौतेला भाई था और षड्यंत्र-नरेश रास्पुटिन (बोल्शेविक क्रान्ति से पूर्व ज़ार और ज़ारिना को अपने इशारों पर नचाने वाला एक धूर्त साधु) थे.
इस कुनबे की लड़ाई ने पहले से पिछड़े उत्तर प्रदेश के विकास को और पीछे ढकेल दिया है. दिलीप कुमार और कादर खान जैसे डायलौग बोलने वाले एक भैंस-पति नेता सांप्रदायिक दंगो का संचालन करने में सिद्धहस्त हैं पर कुछ नादान उन्हें भी अपने भाग्य-विधाता के रूप में अस्वीकार कर रहे हैं.
इस महा-उत्तर प्रदेश (महाभारत का नवीन संस्करण) में अधिकांश लोगों की सहानुभूति बेटे के साथ है पर इस बेटे ने इन पौने पांच साल के अपने कुशासन में ऐसा क्या किया है जिसकी कि हम प्रशंसा करें? क्या सिर्फ़ इसलिए हम उसका समर्थन करें कि उसकी कमीज़ अपने बाप की कमीज़ से कम काली है?

चलिए हम सर-फुटउअल कर रहे इन बाप-बेटों को नकार देते हैं तो फिर हम किसका दामन थामें, क्या बहनजी का? बहनजी का दंभ, उनका अपना जातिवादी और सांप्रदायिक समीकरण, उनका अपना परिवारवाद, विकास के नाम पर हाथी, अम्बेडकर की मूर्तियाँ और पार्क बनाने पर उनके द्वारा अरबों-खरबों का अपव्यय हैरत-अंगेज़ है. सत्ता में उनकी वापसी से केवल मूर्तिकारों और बिल्डर्स को रोज़गार मिलेगा बाक़ी हम लोग तो फाके और लातें खाकर ही अपना गुज़ारा करेंगे.
देशभक्त कहते हैं कि कल्याण-युग के बाद फिर से कमल खिलने पर ही उत्तर-प्रदेश के भाग जागेंगे. सही बात है अभी काशी विश्वनाथ और मथुरा में श्री कृष्ण-जन्मभूमि के मंदिर-मस्जिद विवादों को भी तो अयोध्या में राम-जन्मभूमि विवाद की भांति सुलझाना है. बस, हमको चुनाव से पहले एक नेता मिल जाए. वैसे लोकतंत्र में चुनावों में जीत के बाद हाई-कमांड से नेता नियुक्त करने की जो स्वस्थ परंपरा है उसको नतमस्तक होकर स्वीकार करना तो अब राष्ट्र-धर्म घोषित हो चुका है.
नोटबंदी के आलोचक कमल-युग की वापसी नहीं चाहते. तो क्या संजीवनी बूटी सुंघाकर कोमा में पड़ी कांग्रेस को फिर से खड़ा कर दें? पर मजबूरी है हमारे पास अब संजीवनी बूटी लाने वाला न तो कोई हनुमान हैं और न अब कहीं संजीवनी बूटी बची है. पप्पू-फैक्टर और पित्ज़ा-फैक्टर भी इस प्राचीनतम खंडहर पार्टी के पुनरुत्थान में बाधक हैं. तो अलविदा पंजा जी.
हे भगवान ! तो फिर हमारे लिए चुनने के लिए बचा क्या? हम क्या करें? अब हमारे पास केवल दो रास्ते हैं - एक है, आने वाले हर खतरे से पहले, इस चुनाव से पहले, हम किसी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सर छुपाकर अपने घर पर ही बैठे रहें और दूसरा रास्ता है - आँख मूंदकर परिणाम की परवाह किए बगैर, अपनी ऊँगली को फिर से दागदार करवा लें.

रविवार, 25 दिसंबर 2016

अक़ील

News Feed

अक़ील –
बाराबंकी की बात है. उन दिनों मैं इंटर फर्स्ट ईयर में पढ़ता था. जाड़े का मौसम था और इतवार का दिन था. पिताजी धूप खाने के लिए बाहर लॉन में बैठे थे. मैं अपने कमरे में बैठा था. तभी हम सबका सर चढ़ा चपरासी क़ुतुब अली आया और मुझसे बोला – ‘भैया, पगलैट देखोगे?’
मैंने पूछा – ‘पगलैट? कोई पागल हमारे यहाँ कैसे आ सकता है?’
क़ुतुब अली ने कहा – ‘साहब से मिलने आया है. खिड़की से देखो. उनके पैर पकड़े हुए है और उनसे न जाने क्या-क्या कह रहा है?’
मैंने खिड़की से झाँका तो देखा कि एक हट्टा-कट्टा, लहीम-शहीम 30-32 साल के करीब का बदहवास सा आदमी पिताजी के पैर पकड़ कर उनसे कुछ कह रहा है. कुछ देर बाद वो शख्स पिताजी को फर्शी सलाम करके और उन्हें एक पर्ची थमाकर चला गया. पिताजी अन्दर आए तो मैंने उस आदमी के बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने सिर्फ़ इतना जवाब दिया–
‘अरे ये तो अक़ील था. इसका दिमाग चल गया है.’
मैंने पूछा - ‘दिमाग चल गया है? तो फिर वो आपके पास क्यों आया था? उसने आपको एक कागज़ भी तो दिया था, उसमें क्या था?’
पिताजी ने हंसकर जवाब दिया – ‘प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नाम एक दरख्वास्त थी.’
मैंने और सवाल पूछे तो पिताजी ने मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने की बात कह कर मेरे सवाल हवा में उड़ा दिए. पर क़ुतुब अली मेरी जिज्ञासा शांत करने के लिए हाज़िर था. क़ुतुब अली से पता चला कि अक़ील चुंगी नाके का एक मुंशी था जिसने कि पिताजी के कोर्ट में नगर पालिका के चेयरमैन के खिलाफ़ मारपीट और लूटमार का मुकद्दमा दर्ज किया था. बिना गवाह के फ़ौजदारी का मुक़द्दमा पहले दिन ही ख़ारिज हो गया लेकिन अक़ील मियां को पिताजी के इंसाफ़ पर पूरा यक़ीन था. अक़ील का मानना था – ‘अदालत में कोई सुनवाई नहीं हुई, मुकद्दमा ख़ारिज हो गया तो क्या हुआ? घर में माई-बाप मजिस्ट्रेट साहब को अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाकर तो फ़ैसला बदलवाया जा सकता है.’
किसी मुवक्किल या किसी वक़ील की हमारे घर पर आने की सख्त मनाही थी पर अक़ील मियां के लिए पिताजी ने ये बंदिश पता नहीं क्यूँ हटा दी थी. हर इतवार को वो पिताजी के पास आकर अपना दुखड़ा रोता था. अब वो उन्हें साहब नहीं बल्कि पिता हुज़ूर कहता था. मैं चोरी-छुपे पिताजी और अक़ील के बीच हुई बातचीत सुनता था.
अक़ील : ‘पिता हुज़ूर, सुन्दर पानवाले ने देखा था कि चेयरमैन के आदमियों ने मुझको लाठियों से मारा था और मेरे पास जमा नाके की वसूल की रक़म छीन ली थी. सुन्दर पानवाला गवाही देने को राज़ी हो गया है. अब तो चेयरमैन को फांसी हो जाएगी? फांसी हो जाएगी न पिता हुज़ूर?’
पिताजी: अक़ील, फांसी की सज़ा तो ऊँची अदालत में सुनाई जा सकती है, लोअर कोर्ट में नहीं.’
अक़ील: ‘पिता हुज़ूर, हमारे हाई कोरट तो आप ही हो. मैं सुन्दर पानवाले को आपके पास ले आऊँ?’
पिताजी: नहीं उसे मेरे पास मत लाओ, अब तुम्हारा मुक़द्दमा मेरी अदालत में नहीं है. तुम अब मुक़द्दमें को भूल जाओ. अपने बीबी-बच्चों की फ़िक्र करो.’
अक़ील: ‘पिता हुज़ूर, वो इंदिरा गाँधी वाली अर्ज़ी जो मैंने आपको दी थी, उसका क्या कोई जवाब आया?’
पिताजी: ‘उनको और भी बहुत काम हैं. इतनी जल्दी जवाब कैसे दे पाएंगी?’
मेरी तरह मेरी माँ भी इस अक़ील प्रसंग में गहरी दिलचस्पी लेने लगी थीं. क़ुतुब अली ने उन्हें बताया कि अब अक़ील को खाने के भी लाले पड़ने लगे थे तो उन्होंने तरस खाकर मेरे हाथों उसके लिए कुछ नाश्ता भिजवा दिया. अक़ील नाश्ते पर टूट पड़ा और साथ में मुझे और माँ को दुआएं देने लगा. पर था वो शख्स बड़ी गैरत वाला. उसने मुझे रोक कर कहा – भैया जी, अम्मी हुज़ूर ने मुझे नमक खिलाया है पर मैं खैरात में किसी से कुछ लेता नहीं हूँ. मैं अम्मी हुज़ूर का कोई भी काम करने को तैयार हूँ.’
अम्मी हुज़ूर उस पागल से क्या काम लेतीं, तो उन्होंने उस से कोई भी काम लेने से मना करवा दिया. अब अक़ील मियां ने नमक खाने का एहसान उतारने के लिए एक गाना शुरू किया.
हे भगवान ! ऐसा लगा कि हमारे सामने बैठकर मुहम्मद रफ़ी गा रहे हैं. मैं और माँ तो उसी दिन से उसकी आवाज़ के दीवाने हो गए. यह मेरी अक़ील से पहली विधिवत मुलाक़ात थी.
मेरे घर का नाम ‘बौनी’ है तो मैं पहली मुलाक़ात के बाद ही अक़ील के लिए ‘विन्नी भैया’ बन गया.
अक़ील के पिता हुज़ूर यानी कि हमारे पिताजी ने उनसे दूरियां बना ली थीं पर इस से अक़ील मियां का हमारे यहाँ आना कम नहीं हुआ. उन्होंने हमारी माँ में अपनी ‘अम्मी हुज़ूर’ और मुझमें अपना छोटा भाई ‘विन्नी भैया’ जो खोज लिए थे. अब अक़ील मियां अम्मी हुज़ूर के दरबार में आए दिन हाज़री देने लगे. माँ अक़ील से अपनी पसंद का गाना सुनाने की फ़रमाइश करती थीं और उनके नए साहबज़ादे अपनी फ़रमाइश के पकवान की.
मुझ विन्नी भैया को और अक़ील की अम्मी हुज़ूर को उसकी दर्द भरी दास्तान बार-बार सुननी पड़ती थी. अक़ील की एक निहायत ही खूबसूरत बीबी थी जिसका कि नाम सक़ीना था. उसकी एक चार साल की प्यारी सी बेटी थी जिसका नाम था फ़ातिमा. छोटी सी तनख्वाह और मोटी सी ऊपरी आमदनी में यह छोटा सा परिवार चैन की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था कि नगरपालिका के ऐय्याश चेयरमैन की बुरी नज़र सक़ीना पर पड़ गयी. चेयरमैन ने इशारों-इशारों में अपनी ख्वाहिश अक़ील पर ज़ाहिर की तो उसने चेयरमैन के दो झापड़ रसीद कर दिए. बस, उस मनहूस दिन के बाद अक़ील के घर से खुशियाँ मानो हमेशा के लिए रूठ गईं.
चेयरमैन के आदमियों ने अक़ील के अपने नाके पर सबके सामने उसे लाठियों से जमकर पीटा और उस से चुंगी-नाके की जमा रकम भी छीन ली. अक़ील ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई, अदालत में चेयरमैन के खिलाफ़ मुक़द्दमा चलाया पर सब कुछ बेकार में ही. पूरे बाराबंकी में चेयरमैन के खिलाफ़ कोई भी गवाही देने को तैयार नहीं हुआ. पिताजी की अदालत में आया हुआ मुक़द्दमा पहले ही दिन ख़ारिज हो गया. चेयरमैन के साथ बदतमीज़ी से पेश आने के जुर्म में उसे मुअत्तिल कर दिया गया. इधर चुंगी-नाके की वसूली हुई रकम जमा न करने की वजह से उस पर गबन का मुक़द्दमा भी दर्ज हो गया. मुक़द्दमे में, इधर-उधर दौड़-भाग में घर की जमा-पूँजी भी धीरे-धीरे ख़त्म होने लगी. अब तो घर में दो वक़्त का खाना नसीब होना भी मुश्किल हो रहा था. ऊपर से जान-पहचान वाले तो क्या, अब तो अनजाने भी उसे ‘पगलैट’ कहकर बुलाने लगे थे.
सक़ीना से अक़ील को तलाक़ दिलाकर खुद उस से शादी रचाने की ख्वाहिश रखने वाला सक़ीना का चचेरा भाई उसे उसके मायके ले जाने के लिए बार-बार चक्कर लगा रहा था. अब अक़ील रोज़ आकर अपनी नयी-नयी मुसीबतों की खबर अपने विन्नी भैया को देता था और उसके विन्नी भैया थे कि फिज़िक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स के दांव-पेच भुलाकर उसकी मुसीबतों का हल खोजने में लगे रहते थे.
एक दिन अक़ील सक़ीना को अपनी अम्मी हुज़ूर और अपने विन्नी भैया से मिलवाने के लिए हमारे घर ले आया. अपने छोटे देवर विन्नी भैया से इस सक़ीना भाभी ने कोई पर्दा भी नहीं किया. मैं तो सक़ीना की खूबसूरती को देखकर हैरान रह गया. पर सक़ीना की यही खूबसूरती अक़ील की बदकिस्मती का सबसे बड़ा सबब बन गयी थी.
मैंने पिताजी से अक़ील की मदद करने के लिए कहा. मेरे हिसाब से अगर पिताजी चाहते तो अक़ील को फिर से बहाल करा सकते थे और चेयरमैन को थोड़ी-बहुत सज़ा भी दिलवा सकते थे. मैंने अपनी बातें जब पिताजी के सामने रक्खीं तो वो बोले –
‘तुमने क्या मुझे राजा विक्रमादित्य या बादशाह अकबर समझ लिया है? मैं उस चेयरमैन को सज़ा देने वाला कौन होता हूँ? मैं देख रहा हूँ कि तुम अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर रोज़ उस पागल से मिल रहे हो. ये अक़ील तुम्हें भी अपने साथ ले डूबेगा.’
अपना मुंह फुलाए मैं सोच रहा था – ‘मेरे सवालों का, मेरी गुज़ारिश का, ये तो कोई जवाब नहीं हुआ. पिताजी इतने बेरहम कैसे हो गए? और ये उस चोर चेयरमैन का साथ क्यों दे रहे हैं?’
सक़ीना का चचेरा भाई उसे उसके मायके ले जाने में कामयाब रहा. अब सक़ीना के मायके वाले सकीना और अक़ील के तलाक़ की कोशिश में थे. चारों तरफ़ से मुसीबतों का पहाड़ टूटने से अक़ील की बदहवासी बढ़ती जा रही थी. अब ‘पगलैट’ कहने पर वो लोगों पर हाथ भी उठा देता था. पिताजी को जब अक़ील की इन हरक़तों का पता चला तो उन्होंने उसका हमारे घर आना ही बंद करवा दिया पर अक़ील था कि अपने विन्नी भैया से मिलने के लिए उनके कॉलेज जाने लगा. छुट्टी होने के वक़्त वो कॉलेज के गेट पर मुझसे मिलकर अपने सारे दुखड़े सुनाता था और फिर मेरी साइकिल के बगल में दौड़ता हुआ मुझे मेरे घर की सीमा तक छोड़ कर आता था.
मैं बेबस, लाचार उस बेचारे अक़ील की कोई मदद नहीं कर सकता था, उस कमबख्त चेयरमैन का भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता था. पर अपना कबाड़ा तो कर ही सकता था. और मैंने अपना कबाड़ा कर ही लिया. हाईस्कूल में कॉलेज में सेकंड पोजीशन लाने वाले गोपेश बाबू उर्फ़ अक़ील के विन्नी भैया, फर्स्ट ईयर की अर्धवार्षिक परीक्षा में फिज़िक्स , केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स में फ़ेल हो गए.
पिताजी को जब मेरी इस उपलब्धि का पता चला तो न तो उन्होंने मुझे मारा न मुझे डांट लगाई, उल्टे प्यार से अपने पास बिठाया और मुझसे कहा – ‘बेटे ! ये दुनिया न तो तुम्हारी मर्ज़ी से चलती है और न ही अक़ील की. तुम अब ख़ुद अक़ील के रास्ते पर जा रहे हो. इस हादसे के बाद भी क्या तुम अक़ील से मिलोगे?’
पिछले दो महीने से मेरी दृष्टि में खलनायक बने हुए पिताजी मुझे फिर अपने से लगने लगे. उनके गले लगकर मैं खूब रोया. पिताजी ने मुझसे कोई वचन नहीं लिया पर मैंने खुद ही अक़ील को अपनी ज़िन्दगी से हमेशा-हमेशा के लिए निकाल दिया.
अक़ील पिताजी के पीछे चोरी-छिपे मुझसे और माँ से मिलने के लिए हमारे घर आता था पर अब हम दोनों में से कोई भी उस से मिलता नहीं था. अक़ील चिल्ला-चिल्ला कर हम दोनों को बुलाता था और हमारे नहीं आने पर घर के बाहर ही बैठकर अपनी सुरीली आवाज़ में एकाद गाने गाकर चला जाता था. अक्सर वो हमारी तरफ़ इशारा करके गाता था –
‘बेवफ़ा ये तेरा मुस्कुराना, याद आने के क़ाबिल नहीं है.’ या – ‘परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना.’
इतवार के दिन ‘पगलैट’ कहने पर किसी का सर फोड़कर अक़ील हमारे बंगले में आ गया. पीछ-पीछे चार पुलिस वाले भी आ गए. पिताजी ने अक़ील को हुक्म दिया कि वो चुपचाप सिपाहियों के साथ चला जाय. अक़ील बोला – ‘पिता हुज़ूर, एक बार विन्नी भैया से मिलवा दीजिए. आप कहेंगे तो फिर मैं फांसी पर भी चढ़ जाऊँगा.’
पिताजी ने कहा – ‘तुम्हारा विन्नी भैया तुमसे नहीं मिलेगा. यह मेरा नहीं, उसका फ़ैसला है.’
अक़ील ‘विन्नी भैया, विन्नी भैया’ का शोर मचाता रहा. उसे पकड़ने की कोशिश करने वाले दो सिपाहियों को वह ज़मीन पर पटक चुका था. अब उस पर डंडों के वार होने लगे. उसके सर से खून बहने लगा. सिपाहियों ने उसे हथकड़ी पहना दी. डंडों की दनादन मार खाते हुए भी वो ‘विन्नी भैया, विन्नी भैया’ चिल्लाता रहा पर पत्थर बना मैं ये नज़ारा अपने कमरे की खिड़की से ही देखता रहा, बाहर निकला तक नहीं.
तीन महीने अक़ील जेल में रहा. पिताजी के प्रयास से जेल में उसके साथ बहुत नरमी बरती गयी. क़ुतुब अली ने हमको बताया कि जेल-प्रवास में अक़ील का दिमाग बहुत कुछ दुरुस्त हो गया था. अब वह इधर-उधर गाने गाकर अपना गुज़ारा करने के भी क़ाबिल हो गया था. जेल से छूटने के कुछ दिन बाद ही अक़ील अपने पिता हुज़ूर के दरबार में हाज़िर हो गया. आश्चर्य कि पिताजी उस से बड़े प्यार से मिले और उन्होंने उसे उसकी अम्मी हुज़ूर से भी मिलवा दिया. पर उसका विन्नी भैया तो उस से रूठा था तो रूठा ही रहा.
अक़ील मियां पिता हुज़ूर और अम्मी हुज़ूर को गाना सुनाते थे, उनके लिए क़व्वाली गाते थे, अम्मी हुज़ूर का लाया नाश्ता खाते थे और अपने विन्नी भैया से मिलने की नाकाम कोशिश के बाद उन्हें बेरहम बादशाह औरंगज़ेब कहके फिर उनके घर पर कभी पैर न रखने की क़सम खाकर एकाद दिन बाद फिर हाज़िर हो जाते थे.
मेरा इंटर फाइनल था. फर्स्ट ईयर में अक़ील की वजह से मेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हुआ था. डैमेज कंट्रोल की मेरी हर कोशिश बेकार गयी और मैं फर्स्ट क्लास लाने के बजाय 59% पर अटक गया. मैंने अपनी नाकामी का ठीकरा अक़ील पर ठोक दिया. बात निहायत ग़लत थी पर उस समय मुझे अपनी नाकामी के लिए यह जस्टिफिकेशन बिल्कुल सही लग रहा था.
पिताजी का ट्रांसफ़र झाँसी हो गया था. हम झाँसी के लिए रवाना हो रहे थे तो अक़ील भी हमको छोड़ने स्टेशन पर आया था. उसने अपने पिता हुज़ूर और अपनी अम्मी हुज़ूर के पैर छुए, उनका आशीर्वाद प्राप्त किया पर अपने विन्नी भैया की नज़रे-इनायत से वह महरूम ही रहा. हमारी ट्रेन चली तो मैंने कनखियों से देखा कि अक़ील अपनी आँखें पोंछते हुए हमारी ट्रेन के साथ भाग रहा है और कहता जा रहा है -
'बाय, बाय विन्नी भैया, बाय, बाय विन्नी भैया.!'
फिर पता नहीं क्या हुआ कि मैंने अक़ील की तरफ़ मुखातिब होकर उस से 'बाय, बाय' कह कर बाक़ायदा विदा ली. अक़ील के चेहरे पे खुशी देखने लायक़ थी. साल भर से भी ज़्यादा अरसे के बाद उससे रूठे हुए उसके विन्नी भैया ने उसे फिर से पहचाना था.
करीब आठ साल बाद अपने एक दोस्त की शादी में शामिल होने के लिए मैं बाराबंकी गया. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरी अक़ील से वहां मुलाक़ात हो सकती है. मैं अपने दोस्त के साथ बाज़ार में घूम रहा था कि एक चिर-परिचित आवाज़ आई – ‘विन्नी भैया !’
मैं मुड़ा तो देखा कि कव्वालों वाली टोपी, शेरवानी और चूड़ीदार पाजामे में सजे अक़ील मियां खड़े हैं. बहुत देर तक हमारा भरत-मिलाप हुआ. बिना गिले-शिक़वे के तमाम बातें हुईं. ‘अक़ील पगला’ अब बाराबंकी के एक मशहूर क़व्वाल थे. उनकी बीबी सक़ीना और उनकी बेटी फ़ातिमा उनके पास वापस आ चुकी थीं और वह दुष्ट चेयरमैन दोज़खनशीन हो चुका था.
इस कहानी का अंत बहुत नाटकीय था पर इसकी वजह से जो खुशी मुझे हुई थी उसको मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता. सबसे अच्छी बात तो यह थी कि अब इस बात का कोई अंदेशा नहीं था कि अक़ील मियां मुझे देख कर गा उठें –
‘बेवफ़ा ये तेरा मुस्कराना, याद आने के क़ाबिल नहीं है.’

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

दुर्गा रानी

अपनी धर्मपत्नी की ओर से लिखी गयी मेरी एक पुरानी अप्रकाशित कहानी
दुर्गारानी -
शादी के करीब दो महीने बाद मुझे अपने पतिदेव के साथ अपनी ससुराल (लखनऊ) से अल्मोड़ा जाना था. पहाड़ में प्रवास के नाम पर शादी से पहले मैं अपने मायके रामपुर से सिर्फ़ नैनीताल और मसूरी गई थीं, वह भी मात्र दो-चार दिन के लिए। लखनऊ से काठगोदाम तक का सफ़र तो आराम से ट्रेन में गुज़र गया पर वहाँ से के. एम. ओ. यू. (कुमाऊँ मोटर्स ओनर्स यूनियन लिमिटेड) की खस्ताहाल बस से अल्मोड़ा तक का सफ़र तो मेरे लिए जानलेवा था। मेरा सर चकरा रहा था, जी घबड़ा रहा था पर हमारे पतिदेव थे कि मुझे पूरे कुमाऊँ का भूगोल और इतिहास सुनाए जा रहे थे। राम-राम करते-करते पाँच घण्टे बाद हम अल्मोड़ा पहुंचे तो मेरा मन और भी खिन्न हो गया। ऊँची-नीची और टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों, डरावनी घाटियों और कँपकपाती ठन्ड बरसाने वाले विशाल और ऊँचे-ऊँचे पहाडों के बीच बसे इस सुनसान से शहर को देखकर मुझे कोई खुशी नहीं हुई। थकी-हारी, सहमी-सहमी, घर-गृहस्थी के कुल-जमा बीस अदद के ढेर पर बैठी मैं टैक्सी की प्रतीक्षा में थी और ये थे कि वहां पर मेटों की तलाश में लगे थे। खैर, सारा सामान मेटों ने लाद लिया और हम पैदल ही खत्यारी स्थित अपने महल की ओर बढ़ चले। मेरे लिए तो रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। हम घर पहुंचे तो वहाँ की दुर्दशा देखकर तो मुझे बाकायदा रोना आ गया । हमारा दो कमरे का मकान था पर लगता था कि उसका सारा सामान एक अदद बैड पर ही सैट किया गया था। वाह क्या सफ़ाई थी, और किस करीने से बिस्तर पर किताबें, सूटकेसेज़, बर्तन और यहाँ तक कि खाने का सामान भी सजाया गया था। किचिन का हाल तो और भी बुरा था। मैं अपनी सारी थकान, अपना सर दर्द भूलकर घर-सफ़ाई अभियान में जुटी तो ये इत्मीनान से बोले -
”मैडम! आप तो आराम से बाहर कुर्सी पर बैठकर या खिड़की के पास लेटकर प्रकृति के नज़ारे देखिए। ये सब काम तो दुर्गारानी देख लेंगी।“
मेरे कान खड़े हुए, मैंने पूछा- ”ये दुर्गारानी कौन हैं?“
इन्होने उत्तर दिया - ”अब अल्मोड़ा आई हो तो दुर्गारानी को भी जान जाओगी। बाई द वे गिफ़्ट्स वाली साड़ियों में से हरी वाली साड़ी दुर्गारानी के लिए निकाल देना और एक मिठाई का डिब्बा भी।“
मेरे समझ में यह कतई नहीं आ रहा था कि ये दुर्गारानी कौन हैं, रानी हैं तो घर का काम कैसे करेंगी और घर का काम करने वाली हैं तो इन्हें रिश्तेदारों के लिए आई साड़ियों में से साड़ी क्यों दी जाय? मेरे मन में सवाल तो और भी थे जैसे कि इन दुर्गारानी की उम्र क्या है और देखने-सुनने में कैसी हैं? शिवानी की कहानियाँ पढ़-पढ़कर कुमाऊँ की कन्याओं के सौन्दर्य का आतंक मेरे दिल में छाया हुआ था। इनसे दुर्गारानी के बारे में डिटेल्स पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुई पर मन ही मन मैंने यह तय कर लिया था कि अगर ये दुर्गारानी कम उम्र की और सुन्दर हुईं तो उनकी मैं कल ही छुट्टी कर दूँगी।
रात हम कब सो गए यह पता ही नहीं चला पर सुबह होने का का पता ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा भड़भड़ाने की आवाज़ से चल गया। ये तो बाथरूम में थे, मजबूरन मुझको ही उठकर दरवाज़ा खोलना पड़ा। मैंने देखा कि एक साढ़े चार फ़ुट की, सत्तर साल के करीब की, झुकी पीठ वाली, छोटी-छोटी आँखों वाली, गोरी-चिट्टी एक पतली-दुबली सी पर रौबदार बुढ़िया चटक नीले रंग की ओढ़नी और लाल-हरे घाघरा में सजी, लाठी पकड़े खड़ी है। मुझको एकटक घूरते हुए बुढ़िया कुमाऊनी मिश्रित हिंदी में बोली -
”अच्छा तो बहू आ गया। अच्छा है, हाथ, पैर, आँख, नाक दुरुस्त है पर बाबू से सांवला है, बाल लम्बा है, मेमों की तरह बलकटो नहीं है।“
इससे पहले कि मैं अपने इस मूल्यांकन पर खुश होती या रोती, तब तक बुढ़िया एक तरह से मुझे ढकेलते हुए अपनी चाँदी की पाज़ेब छमछमाती घर में घुस गई। तब तक ये भी बाथरूम से निकल आए थे। इन्हें देखकर उसने बड़े रौब से इनसे पूछा-
”बाबू! मेरी साड़ी लाया, मिठाई लाया?“
इन्होने साड़ी और मिठाई का डिब्बा उसके हवाले किया तो मुझे बड़ा गुस्सा आया पर साथ ही साथ फिर मैंने राहत की साँस भी ली। इन दुर्गारानी से मुझे शिवानी की कहानियों की नायिकाओं वाले खतरे की कोई बात नहीं थी। मेरे लिए एक अच्छी बात यह भी हुई कि दुर्गारानी से मुँह दिखाई में मुझे ग्यारह रुपये भी प्राप्त हुए। इन्होने उलाहना देते हुए दुर्गारानी से कहा-
”ये क्या? बस ग्यारह रुपये? कैसी सास हो? खुद पाज़ेब पहने हो और बहू के पैर नंगे हैं?“
सासू माँ ने तन्मयता से मिठाई खाते हुए जवाब दिया-
”पाजेब अपनी पोती को देगा, वो भी अपने मरते बखत।“
दुर्गारानी विस्तार से भेंट में आए सामान का मुआयना कर रही थीं, अचानक बड़े रौब से मुझसे बोलीं-
”जा मेरे लिए अदरक डाल के कड़क चाय बना ला।“
गुस्से के मारे मेरा तो खून खौल गया पर इन्हें इससे कोई खास झटका नहीं लगा. इन्होने मुस्कुराकर दुर्गारानी से कहा -
” दुर्गारानी! बहू को अच्छी चाय बनाना तो तुम्हीं सिखाओगी। आज तुम चाय बनाकर पिला दो, लम्बे सफ़र से बेचारी थक गयी है कल से चाय यही बनाएगी।“
मैं यह सुनकर चुपके-चुपके अपना सिर धुन रही थी कि दुर्गारानी की ओर से एक और बम फूटा-
”अब बहू आ गया है। दुर्गारानी बर्तन-झाड़ू नहीं करेगा, बस ऊपर का काम कर देगा।“
यहाँ ये फिर मेरी मदद के लिए आ गए। इन्होने दुर्गारानी को समझाया कि ये बेचारी पहली बार अपने घर से निकली है और पहाड़ में तो कभी रही ही नहीं है इसलिए अब उसे ही अपनी बहूरानी को काम करने की ट्रेनिंग देनी पड़ेगी. जैसे-तैसे दुर्गारानी को पहले की ही तरह झाड़ू-बर्तन करते रहने के लिए राज़ी किया गया। मैं एक नौकरानी को दादी-नानी का आदर देने वाले अपने पतिदेव पर हैरान थी। दुर्गारानी के प्रस्थान के बाद जब यह बात मैंने इनसे कही तो ये हँसने लगे. फिर मुझे समझाते हुए इन्होने कहा –
”दुर्गारानी को कुछ दिन समझ लो फिर बताना कि मैं उसे सिर पर चढ़ाकर ठीक करता हूँ या गलत?“
हफ्ते-दो हफ्ते तक दुर्गारानी पर मेरा गुस्सा बना रहा। मुझे खुद पर पर सास वाला रौब गांठने वाली नौकरानी नहीं चाहिए थी। पर अल्मोड़ा में एक महीना बीतते-बीतते इस अनजान शहर में पता नहीं क्यों वही एक मुझे अपनी सी लगने लगी थी। इनके दोस्तों की पत्नियों से अभी मेरी आत्मीयता नहीं हो पाई थी. दुर्गारानी कभी मुझको उदास या अनमना देखती तो मेरे सिर पर हाथ फेर कर मुझ से पूछती-
”बहू! माँ याद आ रहा है? पिताजी का याद आ रहा है?“
बलकटो मेमों के प्रति उसके आक्रोश का ठिकाना नहीं था। उसे मेरे लम्बे-घने बाल बहुत अच्छे लगते थे। मेरे बालों में तेल डालकर मेरी चोटी गूँथने में उसे बहुत आनन्द आता था। मेरे बाल बनाते-बनाते वह मुझे समझाती-
”बहूरानी! अपनी चोटी हमेशा लम्बी ही रखना। चोटी लम्बी रक्खेगा तो बाबू इससे बँधा रहेगा। बलकटो मेम बनेगा तो बाबू कहीं और भाग जाएगा।“
दुर्गारानी की रंनिंग कमेन्ट्री हमेशा जारी रहती थी, यह बात और थी कि उसमें से आधी से ज़्यादा बातें मेरे पल्ले ही नहीं पड़ती थी पर उनसे मेरा मन ज़रूर बहला रहता था। अब मुझे पता चल गया था कि दुर्गारानी के बारे में ये कितने सही थे। पहले दिन मुझको खिजाने वाली, इनकी सरचढ़ी इस कड़क बुढि़या ने कुछ ही दिनों में मेरा दिल भी जीत लिया था। मेरी हर पसन्द-नापसन्द का उसे ख़याल रहता था। उसने तरह-तरह के स्वादिष्ट पहाड़ी व्यंजन खिला-खिलाकर मेरी और इनकी डायट्री हैबिट्स ही बदल दीं और मुझको भी पहाडी पकवान बनाने में एक्सपर्ट बना दिया। मेरी संगीत में बहुत रुचि है, कुमाऊँनी लोकगीत तो मुझे अपने बचपन से अच्छे लगते थे पर उन्हें सिखाने वाला मुझे अब तक कोई ढंग का गुरु नहीं मिला था। दुर्गारानी को सैकड़ो लोकगीत याद थे। इन गीतों की भाषा तो मेरे पल्ले नहीं पड़ती थी पर उनकी लय-ताल से और दुर्गारानी के सधे गले की बदौलत उनके भाव पूरी तरह से मेरी समझ में आ जाते थे। उससे न जाने कितने कुमाऊँनी गीत मैंने सीख डाले थे। अब मैंने अपनी संगीत गुरु को ईजा कहना शुरू कर दिया था पर बाकी दुनिया के लिए वह दुर्गारानी ही थी।
दुर्गारानी इन पर तो हमारी शादी से पहले ही जान छिड़कती थी। उसे इनकी चुहलबाजी और प्यार भरी छेड़-छाड़ बहुत अच्छी लगती थी. कॉलेज से वापस आने में इन्हें अगर देर हो जाती थी तो वह अपने सवालों से मेरी नाक में दम कर देती थी। खाना बाबू की पसन्द का ही बने, इसकी जि़म्मेदारी तो मेरी थी पर इसकी फि़क्र करना दुर्गारानी का खुद की ही ओढ़ी हुई ज़िम्मेदारी थी. अब दुर्गारानी का सारा दिन हमारे साथ ही बीतता था। दर-असल उसे किसी के यहाँ काम करने की ऐसी कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। उसका पति फ़ौज में था, उसकी विडोज़ पेंशन उसके अपने खर्च के लिए काफ़ी थी पर उसका शराबी बेटा कल्लू अपनी बोतल के लिए पैसे जुटाने के लिए बुढि़या माँ से मज़दूरी करवाता था, वही उसकी तनख्वाह भी आकर ले जाता था। नशे में या नशा उतरने के गुस्से में माँ के ऊपर दो-चार हाथ छोड़ना उसके लिए मामूली बात थी। एक बार तो उसने अपनी माँ का सिर ही फोड़ दिया । ये तो उस दुष्ट को पुलिस में देना चाह रहे थे पर उस अभागी माँ ने ही इनके पैर पड़कर अपने कपूत को जेल की चक्की पीसने से बचा लिया।
हमारे घर में नन्हा सा मेहमान आने वाला था। ऐसे वक्त में दुर्गारानी न जाने कब मेरे लिए माँ, देसी डॉक्टर, नर्स और न जाने क्या-क्या बन गई। पहले दिन मुझसे झाड़ू-बर्तन करवाने की ख्वाहिश रखने वाली दुर्गारानी अब घर का खाना भी बनाती थी, घर के सारे कपड़े भी धोती थी और तरह-तरह से मेरा मन भी बहलाती थी। मेरी और हमारे होने वाले बच्चे की सलामती के लिए वह पता नहीं कितने अनुष्ठान करती रहती थी। आए-दिन वह मेरे सिर पर चावल और फूल छिड़क, इनके और मेरे माथे पर तिलक लगाकर कोई मंत्र पढ़ती फिर हम दोनों को प्रसाद खिलाती थी।
मैं डिलीवरी के लिए अपने मायके रामपुर चली गयीं गयी. वहाँ सब मेरे अपने थे पर न जाने क्यों मुझे वहां भी दुर्गारानी की कमी बहुत खल रही थी। डिलीवरी के बाद जब मैं अल्मोड़ा पहुँची तो दुर्गारानी की सारी दुनिया हमारी बेटी में ही सिमट गई। उसका हर काम वही करती थी, मैं तो बस बैठे-बैठे उसके कुमाऊँनी गीत सुनती रहती थीं। चाहे आँधी हो चाहे तूफ़ान, चाहे बारिश हो चाहे स्नो-फॉल, हमारी बेटी को देखे बिना और उसकी सेवा किए बगैर दुर्गारानी का मानो सवेरा ही नहीं होता था।
उसके नालायक बेटे कल्लू से उसकी ये खुशियाँ देखी नहीं गयीं। इनके कहने पर दुर्गारानी ने उसे बोतल के लिए पैसे देने बन्द कर दिए थे। एक बार पैसे न मिलने के कारण गुस्से में उसने अपनी माँ को मार-मार कर लहू-लुहान कर दिया। इस बार दुर्गारानी के लाख रोकने के बावजूद इन्होने कल्लू की पुलिस में रिपोर्ट कर दी। बेचारी बुढ़िया इनके डर से इनसे तो कुछ नहीं बोली पर जैसे ही वह कुछ ठीक हुई तो लाठी टेकते हुए थाने पहुँची और कुछ दे-दिवा कर बेटे को लॉक-अप से छुड़ा लाई। ये तो दुर्गारानी पर बहुत नाराज़ हुए पर वो इन्हें पुचकारते हुए बोली -
”बाबू! दुर्गारानी का आखरी बखत है, उस पर अब गुस्सा मत करना। बुढ़िया जब मर जाए तो तुम और करमजला कल्लू उसको कन्धा देना और मरघट में फूँक कर भी आना।“
दुर्गारानी इस हादसे के बाद हमारे यहाँ काम करने के लिए नहीं आ पाई। दो-चार बार हम ही उसके घर जाकर उससे मिल आए। इधर कल्लू बाबू की शराबखोरी ने अपने गुल खिलाने शुरू कर दिए थे। भरी जवानी में उसके फेफड़े और जिगर जवाब दे गए थे। हम भगवान से मना रहे थे कि बेटा माँ के सामने न चला जाए पर हमारी प्रार्थना बेकार गई। कल्लू के मरने पर दुर्गारानी को कोई ताज्जुब नहीं हुआ, शायद वह इस हादसे के लिए पहले से तैयार थी। बेटे की अर्थी उठते समय वह बिलकुल रोई नहीं, बस, इनका हाथ पकड़कर बोली-
”बाबू कल्लू तो धोखा दे गया। अब इस बुढ़िया को तुम्हीं फूँक कर आना।“
कल्लू की मौत के दो महीने बाद ही दुर्गारानी का बुलावा भी आ गया। उसके आखरी वक्त में हमारा परिवार उसके पास था। हमारी बेटी को अपने सीने पर लिटाकर उसने प्यार किया और एक पोटली में से उसके लिए वही अपनी चिर-परिचित चाँदी की भारी-भरकम पाज़ेब निकालकर उसके नन्हें से पाँवों में पहना दीं। दुर्गारानी को कन्धा देकर और उसका अंतिम संस्कार करके इन्होने उसकी ख्वाहिश पूरी की.
दुर्गारानी की प्यार भरी झिड़कियाँ, उसके अधिकार भरे अनुरोध सुनने के लिए अब हमारे कान तरसते हैं, लगता है लाठी टेकती, छमछम करती वह अचानक हमारे सामने खड़ी हो जाएगी और फिर मुझे आलू की पकोटी (पकौड़ी) के साथ अदरक डालकर कड़क चाय बना लाने का आदेश देगी। मैं जब भी अपने बाल बनाती हूँ तो एक पल इन्तज़ार करती हूँ कि कब मेरी वो पहाड़ी इजा आएगी और मेरे हाथों से कंघी छीनकर खुद मेरे बाल बनाएगी।
हैरत की बात है कि दुर्गारानी की कोई तस्वीर हमारे पास नहीं है, बदकिस्मती से उसके लोकगीतों को भी मैं रिकॉर्ड नहीं कर पाई थी. पर इन निशानियों की हमको खास ज़रूरत भी नहीं है। मुझे लगता है कि जब तक मेरे होठों पर मेरी उस पहाड़ी इजा के सिखाए लोकगीत रहेंगे तब तक वह मेरी यादों में बसी रहेगी। उसके सिखाए पहाड़ी व्यंजनों को मैं जब-जब बनाउंगी तब-तब वह उनमें महकती रहेगी। और जब बड़ी होकर हमारी बेटी उसकी दी हुई पाज़ेब पहन कर छमछम करती इधर-उधर भागती फिरेगी तब तक वह हमारे दिलों में ज़िन्दा रहेगी।‘

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

बुर्ज खलीफ़ा और दुबई फाउंटेन


कल 29 नवम्बर को हमने बुर्ज खलीफ़ा और दुबई फाउंटेन को दिन में देखा था पर आज शाम उन दोनों को फिर से देखना था. शाम को इन दोनों की सुंदरता कुछ और ही होती है. बुर्ज खलीफ़ा दुनिया की सबसे ऊँची इमारत है. हमारे बचपन में दुनिया की सबसे ऊँची इमारत ‘एम्पायर स्टेट बिल्डिंग’ हुआ करती थी, जिसकी ऊंचाई 1000 फ़ीट के करीब है वहीँ बुर्ज खलीफ़ा की ऊंचाई 2717 फ़ीट (828 मीटर) है. इसमें कुल 160 मंज़िलें हैं. इसमें होटल्स हैं, फ्लैट्स हैं, दुकानें हैं. इस सूच्याकार भवन को 45 किलोमीटर दूर तक से देखा जा सकता है. बुर्ज खलीफ़ा का निर्माण 2004 में प्रारंभ हुआ और 2009 के अंत तक यह बनकर तैयार हुआ.

एक बार फिर से दुबई मॉल पहुँच कर हमने शाम की रौनक और क्रिसमस की सजावट का का लुत्फ़ उठाया. अक्वेरियम और वॉटरफॉल का दुबारा दीदार करके हम दुबई फाउंटेन देखने चल पड़े. एक विशाल कृतिम जलाशय में यह फाउंटेन बनाया गया है. दर्शक इस झील के हर कोने से, चाहें वो दुबई मॉल का भव्य प्रोमेनाड हो या सूक अल बहार को दुबई मॉल से जोड़ते एक लम्बे से खूबसूरत पुल पर खड़े होकर या नज़दीकी इमारतों से, इसका शानदार नज़ारा देख सकते हैं. शाम होते ही हर आधे घंटे पर 5 मिनट के लिए रौशनी के साथ आप म्यूजिकल फाउंटेन का आनंद ले सकते हैं. इसमें प्रकाश संयोजना के साथ पानी की ऊँची-ऊँची फुहारें शास्त्रीय अरबी, आधुनिक अरबी, पाश्चात्य संगीत और यहाँ तक कि बॉलीवुड की गानों पर भी थिरकती हैं.

फाउंटेन शुरू हुआ तो उसकी भव्यता और सुन्दरता देख कर हम दंग रह गए. हमारी आँखों के आगे लहराती फुहारों के क्या-क्या डिज़ाइन बन रहे थे. मेरी गोदी में मेरा नाती अमेय था, उसे तो बहुत ही मज़ा आ रहा था. पर मैं कुछ ज़्यादा प्रभावित नहीं था. हमने सुना था कि दुबई फाउंटेन की फुहार 240 फ़ीट तक जाती है पर ऐसी ऊँची फुहारें तो कहीं देखने में नहीं आ रही थीं. मैंने अपनी बेटी गीतिका से इसकी शिकायत की ही थी कि एक भयंकर गर्जन के साथ 250 फ़ीट नहीं बल्कि 500 फ़ीट ऊंची एक गगनचुम्बी फुहार आई और फाउंटेन के नज़दीक खड़ी जनता (जिसमें हम भी शामिल थे) को भिगो गयी.. भीगी बिल्ली बने प्रोफेसर जैसवाल को अब कोई शिकायत नहीं थी!




आनंद आ गया वो भी दिव्य प्रकार का. तुलसीदासजी ने तो दुबई फाउंटेन नहीं देखा था फिर उन्होंने कैसे कह दिया – ‘गिरा अनयन, नयन बिनु बानी.’

फाउंटेन के सामने खड़े होकर हमने बुर्ज खलीफ़ा पर लाइट्स के रंग-बिरंगे खेल का आनंद लिया. 2 दिसंबर को यू. ए. ई. का राष्ट्रीय दिवस होता है इसके कई दिन पहले से बुर्ज खलीफ़ा पर और अन्य अनेक स्थानों पर लाइट्स का स्पेशल शो होता है. रौशनी में नहाये हुए बुर्ज खलीफ़ा का सौंदर्य एक दम नैसर्गिक लग रहा था.


शाम को बुर्ज खलीफ़ा से दुबई शहर का नज़ारा देखने के लिए हमने ऑनलाइन टिकट पहले ही खरीद लिए.थे. हमारी टिकट 124वीं मंज़िल पर बने 'ऑब्ज़र्वेशन डेक', जो लगभग 450 मीटर से भी कुछ अधिक ऊँचा है, तक थी. कतार में लगभग 20 मिनट खड़े होकर हम चेकिंग वगैरा के बाद लिफ्ट के लिए चले. लिफ्ट में चढ़े और बिना किसी झटके के, बिना किसी हलचल के, 60 सेकिंड में हम 0 से 124 मंज़िल पर पहुँच गए.हमको यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि दुबई में हर स्थान पर उन लोगों के लिए व्हील चेयर्स का प्रबंध है जिन्हें कि चलने में कठिनाई है. .

हमारे मोदीजी चीन और जापान जाकर बुलेट ट्रेन का आईडिया भारत लेकर लाए हैं. वैसे तो प्रधानमंत्री के रूप में वो दुबई भी घूम आए हैं पर पता नहीं क्यूँ उन्हें भारत में 'बुर्ज फ़क़ीर' और इतनी त्वरित गति से चलने वाली लिफ्ट के निर्माण का आईडिया अब तक नहीं आया.

बुर्ज खलीफ़ा की 124 वीं मंज़िल से दूध की रौशनी में नहाया हुआ दुबई शहर देखना एक अपूर्व अनुभव है. मीलों तक प्रकाश का सैलाब, हज़ारों वाहनों की घूमती लाइट्स, दूर समुद्र में तैरते खूबसूरत जहाज. हमारा अमेय तो यह नज़ारा देख कर मुग्ध हो गया. ‘मम्मी देखो वो’, 'नाना देखो ये’ और ‘नानी देखो सो मेनी कार्स’ कहते-कहते वो हमको इधर-उधर घुमाता ही रहा. फिर हमने दुबारा देखा दुबई फाउंटेन का नज़ारा. ऊपर से फाउंटेन की खूबसूरती का कोई बयान नहीं किया जा सकता. मैं तो इतना अभिभूत हो गया कि आधे घंटे और रुक कर दुबारा फाउंटेन का आनंद देखने के लिए खड़ा रहा. हमारी बिटिया गीतिका जी हमारे साथ खड़ी थीं पर उनकी व्यंग्य से भरी मुस्कान देख हम बड़े असहज थे. हम वही थे जो एक घंटे पहले दुबई फाउंटेन से कोई ख़ास प्रभावित नहीं थे.







टॉप ऑफ़ दि वर्ड का एक घंटे तक ‘आउट ऑफ़ दि वर्ड’ आनंद लेकर हम वापस लौटे पर अपना दिल वहीं छोड़ आए. लौटते हुए रास्ते में बुर्ज खलीफ़ा के निर्माण की चित्रात्मक गाथा देखने में भी बहुत आनंद आया. वाह क्या शाम थी !
बुर्ज खलीफ़ा की सैर के बाद बस एक मुश्किल आन पड़ी है. हमारे तीन वर्षीय अमेय बाबू ने रोज़ बुर्ज खलीफ़ा घूमने का प्रोग्राम बना लिया है, उनकी सुबह भी बुर्ज खलीफा जाने की फरमाइश से शुरू होती है ..उनके इस फ़ैसले से उनके मम्मी-पापा की जेब कटना तय है. रोज़-रोज़ टिकट लेकर बुर्ज खलीफ़ा जाने से तो बेहतर है कि वहीं एक फ्लैट ले लिया जाय या फिर पूरा का पूरा बुर्ज खलीफ़ा ही ख़रीद लिया जाय !

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

दुबई मॉल

दुबई मॉल -
दुबई प्रवास में जिसने बुर्ज खलीफ़ा और दुबई मॉल नहीं देखा तो उसे आप ऐसे महान व्यक्ति के समकक्ष रख सकते हैं जिसने कि आगरा में रहते हुए ताज महल न देखा हो. खैर हम उन खुशकिस्मत लोगों में से हैं जिन्होंने आगरा में ताजमहल का दीदार भी किया है और दुबई में बुर्ज खलीफ़ा तथा दुबई मॉल का भी.
पहली बार हम लोग वैभव (हमारा बड़ा दामाद) के साथ दिन में बुर्ज खलीफ़ा और दुबई मॉल गए.  हमने पहले बुर्ज खलीफ़ा और दुबई फाउंटेन देखा. दिन में दुबई फाउंटेन बंद रहता है, उसकी शोभा तो रात में देखते बनती है. बुर्ज खलीफ़ा की भव्यता देखकर हम दंग रह गए पर उसकी शोभा भी रात में देखने लायक होती है इसलिए उनका ज़िक्र आगे वाले संस्मरण में.  



वैभव मुझको और रमा को दुबई मॉल में छोड़कर दो-ढाई घंटों के लिए अपने काम से चला गया  
रमा तो तीन साल पहले भी दुबई मॉल की सैर कर चुकी थीं पर मेरे लिए इस तरह का यह पहला अनुभव था. कहा जाता है कि मेरी आँखें बड़ी-बड़ी हैं पर इन आँखों में भी दुबई मॉल की भव्यता किसी भी तरह समा नहीं पा रही थी. दुनिया के इस सबसे बड़े मॉल में लगभग 1200 दुकानें हैं, इसका क्षेत्रफल फुटबॉल के 50 मैदानों से भी विशाल है. इसमें एक शानदार एक्वेरियम है जिसमें कि शार्क, जेली फिश, रे और दरियाई घोड़े सहित 300 प्रकार के जलजीव हैं..दुबई मॉल में रौशनी का तो सैलाब ही सैलाब है और छत पर लटकने वाले झाड़-फ़ानूस की शानो-शौकत देख-देख कर आपकी गर्दन का दुखना तय है. दुबई मॉल में बहुत सुन्दर और भव्य वाटर फॉल हैं., एक विशाल आइस स्केटिंग रिंग है. मॉल में परंपरागत शाही अरबी ठाठ के साथ फ़ोटो खिंचाने की भी व्यवस्था है पर इसके लिए जेब कितनी ढीली करनी होगी, यह हमने मालूम नहीं किया.      





दिन में मॉल में रौनक ज़्यादा नहीं थी पर हमारे लिए दुकानों पर विंडो शौपिंग करने में इस से बड़ी सहूलियत हो रही थी. दुकानदार अच्छी तरह से समझ रहे थे कि हमारा कुछ भी खरीदने का इरादा नहीं है पर फिर भी वो हमको अच्छा-खासा महत्त्व दे रहे थे. हमारी श्रीमतीजी रमा को एक डायमंड नेकलेस बहुत पसंद आया पर 50000 दिरहम ( मात्र 9 लाख 30 हज़ार रूपये) की कीमत में से दुकानदार कमबख्त बाद के 2 ज़ीरो हटाने को तैयार ही नहीं था.. ऐसी ही बेईमानी गौगल्स वाला कर रहा था. ढाई हज़ार दिरहम में हम एक धूप का चश्मा क्यूँ लें? इस से कम कीमत में तो हम धूप से बचने के लिए पलकों का शामियाना तैयार करवा लेंगे.
हम कौरिडोर में घूम रहे थे तो एक सौन्दर्य-प्रसाधन बेचने वाली मोहतरमा ने रमा को पकड़ लिया और उनके हाथ को कोमल और सुन्दर बनाने के लिए उस पर तरह-तरह के लेप लगाना शुरू कर दिया. दस मिनट के अनथक परिश्रम के बाद उन्होंने गुलाब जल जैसे तरल पदार्थ से उनका लेपित हाथ धोया. हम जादुई परिणाम देख कर दंग रह गए पर हमने कोई भी चमत्कारी लोशन या क्रीम खरीदने का फ़ैसला नहीं किया. रमाजी एक सुन्दर नया हाथ और एक पुराना साधारण हाथ लेकर हमारे साथ घूमती रहीं.
घंटों तक घूमते-घूमते जब हम थक गए तो हमने वैभव को फ़ोन किया कि वो हमको अब ले जाए. उसने हमसे कहा कि हम फैशन पार्किंग के P-5  में पहुँच जाएं. वहीं उसकी कार खड़ी थी पर हम कई जगह पूछताछ करके भी वहां नहीं पहुंचे तो हमने उसे फ़ोन किया कि वो हमको एक्वेरियम के पास आकर ले जाय. यही तय रहा कि वो हमको एक्वेरियम के पास से ले जाएगा. हम एक्वेरियम वाले फ्लोर पर ही थे किन्तु अब हम उससे बहुत आगे चले आए थे. मैंने कॉरिडोर में एक सेंट बेचने वाली एक यूरोपियन सुंदरी से एक्वेरियम का पता पूछा तो वो बोली – ‘एक शर्त पर मैं आपको एक्वेरियम जाने का रास्ता बताउंगी.’
मैंने शर्त पूछी तो वो बोली – ‘आप अपने हाथ पर मेरा सेंट ट्राई करेंगे.’
श्रीमतीजी की घूरती आँखों की परवाह किए बगैर मैंने अपना हाथ बढ़ा दिया.
गोरी मेम का सेंट खरीदे बगैर एक्वेरियम की ओर कदम बढ़ाते हुए मैंने श्रीमतीजी से कहा – ‘वाह क्या खुशबू है !’
श्रीमतीजी ने कुढ़कर पूछा – ‘किसकी? सेंट की या उस गोरी मेम की?’
तभी श्रीमतीजी के एक आग्रह ने मुझे हैरान कर दिया. उन्होंने मुझसे कहा – आप लड़कियों से जब भी बात किया करें तो अपनी कैप उतार लिया करें.’
मैंने पूछा – उनके प्रति अपना आदर व्यक्त करने के लिए?’

श्रीमतीजी ने जवाब दिया – ‘नहीं, सर से कैप हटाते ही आपकी असली उम्र का उनको एहसास हो जाएगा.’