मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

दुर्गा रानी

अपनी धर्मपत्नी की ओर से लिखी गयी मेरी एक पुरानी अप्रकाशित कहानी
दुर्गारानी -
शादी के करीब दो महीने बाद मुझे अपने पतिदेव के साथ अपनी ससुराल (लखनऊ) से अल्मोड़ा जाना था. पहाड़ में प्रवास के नाम पर शादी से पहले मैं अपने मायके रामपुर से सिर्फ़ नैनीताल और मसूरी गई थीं, वह भी मात्र दो-चार दिन के लिए। लखनऊ से काठगोदाम तक का सफ़र तो आराम से ट्रेन में गुज़र गया पर वहाँ से के. एम. ओ. यू. (कुमाऊँ मोटर्स ओनर्स यूनियन लिमिटेड) की खस्ताहाल बस से अल्मोड़ा तक का सफ़र तो मेरे लिए जानलेवा था। मेरा सर चकरा रहा था, जी घबड़ा रहा था पर हमारे पतिदेव थे कि मुझे पूरे कुमाऊँ का भूगोल और इतिहास सुनाए जा रहे थे। राम-राम करते-करते पाँच घण्टे बाद हम अल्मोड़ा पहुंचे तो मेरा मन और भी खिन्न हो गया। ऊँची-नीची और टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों, डरावनी घाटियों और कँपकपाती ठन्ड बरसाने वाले विशाल और ऊँचे-ऊँचे पहाडों के बीच बसे इस सुनसान से शहर को देखकर मुझे कोई खुशी नहीं हुई। थकी-हारी, सहमी-सहमी, घर-गृहस्थी के कुल-जमा बीस अदद के ढेर पर बैठी मैं टैक्सी की प्रतीक्षा में थी और ये थे कि वहां पर मेटों की तलाश में लगे थे। खैर, सारा सामान मेटों ने लाद लिया और हम पैदल ही खत्यारी स्थित अपने महल की ओर बढ़ चले। मेरे लिए तो रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। हम घर पहुंचे तो वहाँ की दुर्दशा देखकर तो मुझे बाकायदा रोना आ गया । हमारा दो कमरे का मकान था पर लगता था कि उसका सारा सामान एक अदद बैड पर ही सैट किया गया था। वाह क्या सफ़ाई थी, और किस करीने से बिस्तर पर किताबें, सूटकेसेज़, बर्तन और यहाँ तक कि खाने का सामान भी सजाया गया था। किचिन का हाल तो और भी बुरा था। मैं अपनी सारी थकान, अपना सर दर्द भूलकर घर-सफ़ाई अभियान में जुटी तो ये इत्मीनान से बोले -
”मैडम! आप तो आराम से बाहर कुर्सी पर बैठकर या खिड़की के पास लेटकर प्रकृति के नज़ारे देखिए। ये सब काम तो दुर्गारानी देख लेंगी।“
मेरे कान खड़े हुए, मैंने पूछा- ”ये दुर्गारानी कौन हैं?“
इन्होने उत्तर दिया - ”अब अल्मोड़ा आई हो तो दुर्गारानी को भी जान जाओगी। बाई द वे गिफ़्ट्स वाली साड़ियों में से हरी वाली साड़ी दुर्गारानी के लिए निकाल देना और एक मिठाई का डिब्बा भी।“
मेरे समझ में यह कतई नहीं आ रहा था कि ये दुर्गारानी कौन हैं, रानी हैं तो घर का काम कैसे करेंगी और घर का काम करने वाली हैं तो इन्हें रिश्तेदारों के लिए आई साड़ियों में से साड़ी क्यों दी जाय? मेरे मन में सवाल तो और भी थे जैसे कि इन दुर्गारानी की उम्र क्या है और देखने-सुनने में कैसी हैं? शिवानी की कहानियाँ पढ़-पढ़कर कुमाऊँ की कन्याओं के सौन्दर्य का आतंक मेरे दिल में छाया हुआ था। इनसे दुर्गारानी के बारे में डिटेल्स पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुई पर मन ही मन मैंने यह तय कर लिया था कि अगर ये दुर्गारानी कम उम्र की और सुन्दर हुईं तो उनकी मैं कल ही छुट्टी कर दूँगी।
रात हम कब सो गए यह पता ही नहीं चला पर सुबह होने का का पता ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा भड़भड़ाने की आवाज़ से चल गया। ये तो बाथरूम में थे, मजबूरन मुझको ही उठकर दरवाज़ा खोलना पड़ा। मैंने देखा कि एक साढ़े चार फ़ुट की, सत्तर साल के करीब की, झुकी पीठ वाली, छोटी-छोटी आँखों वाली, गोरी-चिट्टी एक पतली-दुबली सी पर रौबदार बुढ़िया चटक नीले रंग की ओढ़नी और लाल-हरे घाघरा में सजी, लाठी पकड़े खड़ी है। मुझको एकटक घूरते हुए बुढ़िया कुमाऊनी मिश्रित हिंदी में बोली -
”अच्छा तो बहू आ गया। अच्छा है, हाथ, पैर, आँख, नाक दुरुस्त है पर बाबू से सांवला है, बाल लम्बा है, मेमों की तरह बलकटो नहीं है।“
इससे पहले कि मैं अपने इस मूल्यांकन पर खुश होती या रोती, तब तक बुढ़िया एक तरह से मुझे ढकेलते हुए अपनी चाँदी की पाज़ेब छमछमाती घर में घुस गई। तब तक ये भी बाथरूम से निकल आए थे। इन्हें देखकर उसने बड़े रौब से इनसे पूछा-
”बाबू! मेरी साड़ी लाया, मिठाई लाया?“
इन्होने साड़ी और मिठाई का डिब्बा उसके हवाले किया तो मुझे बड़ा गुस्सा आया पर साथ ही साथ फिर मैंने राहत की साँस भी ली। इन दुर्गारानी से मुझे शिवानी की कहानियों की नायिकाओं वाले खतरे की कोई बात नहीं थी। मेरे लिए एक अच्छी बात यह भी हुई कि दुर्गारानी से मुँह दिखाई में मुझे ग्यारह रुपये भी प्राप्त हुए। इन्होने उलाहना देते हुए दुर्गारानी से कहा-
”ये क्या? बस ग्यारह रुपये? कैसी सास हो? खुद पाज़ेब पहने हो और बहू के पैर नंगे हैं?“
सासू माँ ने तन्मयता से मिठाई खाते हुए जवाब दिया-
”पाजेब अपनी पोती को देगा, वो भी अपने मरते बखत।“
दुर्गारानी विस्तार से भेंट में आए सामान का मुआयना कर रही थीं, अचानक बड़े रौब से मुझसे बोलीं-
”जा मेरे लिए अदरक डाल के कड़क चाय बना ला।“
गुस्से के मारे मेरा तो खून खौल गया पर इन्हें इससे कोई खास झटका नहीं लगा. इन्होने मुस्कुराकर दुर्गारानी से कहा -
” दुर्गारानी! बहू को अच्छी चाय बनाना तो तुम्हीं सिखाओगी। आज तुम चाय बनाकर पिला दो, लम्बे सफ़र से बेचारी थक गयी है कल से चाय यही बनाएगी।“
मैं यह सुनकर चुपके-चुपके अपना सिर धुन रही थी कि दुर्गारानी की ओर से एक और बम फूटा-
”अब बहू आ गया है। दुर्गारानी बर्तन-झाड़ू नहीं करेगा, बस ऊपर का काम कर देगा।“
यहाँ ये फिर मेरी मदद के लिए आ गए। इन्होने दुर्गारानी को समझाया कि ये बेचारी पहली बार अपने घर से निकली है और पहाड़ में तो कभी रही ही नहीं है इसलिए अब उसे ही अपनी बहूरानी को काम करने की ट्रेनिंग देनी पड़ेगी. जैसे-तैसे दुर्गारानी को पहले की ही तरह झाड़ू-बर्तन करते रहने के लिए राज़ी किया गया। मैं एक नौकरानी को दादी-नानी का आदर देने वाले अपने पतिदेव पर हैरान थी। दुर्गारानी के प्रस्थान के बाद जब यह बात मैंने इनसे कही तो ये हँसने लगे. फिर मुझे समझाते हुए इन्होने कहा –
”दुर्गारानी को कुछ दिन समझ लो फिर बताना कि मैं उसे सिर पर चढ़ाकर ठीक करता हूँ या गलत?“
हफ्ते-दो हफ्ते तक दुर्गारानी पर मेरा गुस्सा बना रहा। मुझे खुद पर पर सास वाला रौब गांठने वाली नौकरानी नहीं चाहिए थी। पर अल्मोड़ा में एक महीना बीतते-बीतते इस अनजान शहर में पता नहीं क्यों वही एक मुझे अपनी सी लगने लगी थी। इनके दोस्तों की पत्नियों से अभी मेरी आत्मीयता नहीं हो पाई थी. दुर्गारानी कभी मुझको उदास या अनमना देखती तो मेरे सिर पर हाथ फेर कर मुझ से पूछती-
”बहू! माँ याद आ रहा है? पिताजी का याद आ रहा है?“
बलकटो मेमों के प्रति उसके आक्रोश का ठिकाना नहीं था। उसे मेरे लम्बे-घने बाल बहुत अच्छे लगते थे। मेरे बालों में तेल डालकर मेरी चोटी गूँथने में उसे बहुत आनन्द आता था। मेरे बाल बनाते-बनाते वह मुझे समझाती-
”बहूरानी! अपनी चोटी हमेशा लम्बी ही रखना। चोटी लम्बी रक्खेगा तो बाबू इससे बँधा रहेगा। बलकटो मेम बनेगा तो बाबू कहीं और भाग जाएगा।“
दुर्गारानी की रंनिंग कमेन्ट्री हमेशा जारी रहती थी, यह बात और थी कि उसमें से आधी से ज़्यादा बातें मेरे पल्ले ही नहीं पड़ती थी पर उनसे मेरा मन ज़रूर बहला रहता था। अब मुझे पता चल गया था कि दुर्गारानी के बारे में ये कितने सही थे। पहले दिन मुझको खिजाने वाली, इनकी सरचढ़ी इस कड़क बुढि़या ने कुछ ही दिनों में मेरा दिल भी जीत लिया था। मेरी हर पसन्द-नापसन्द का उसे ख़याल रहता था। उसने तरह-तरह के स्वादिष्ट पहाड़ी व्यंजन खिला-खिलाकर मेरी और इनकी डायट्री हैबिट्स ही बदल दीं और मुझको भी पहाडी पकवान बनाने में एक्सपर्ट बना दिया। मेरी संगीत में बहुत रुचि है, कुमाऊँनी लोकगीत तो मुझे अपने बचपन से अच्छे लगते थे पर उन्हें सिखाने वाला मुझे अब तक कोई ढंग का गुरु नहीं मिला था। दुर्गारानी को सैकड़ो लोकगीत याद थे। इन गीतों की भाषा तो मेरे पल्ले नहीं पड़ती थी पर उनकी लय-ताल से और दुर्गारानी के सधे गले की बदौलत उनके भाव पूरी तरह से मेरी समझ में आ जाते थे। उससे न जाने कितने कुमाऊँनी गीत मैंने सीख डाले थे। अब मैंने अपनी संगीत गुरु को ईजा कहना शुरू कर दिया था पर बाकी दुनिया के लिए वह दुर्गारानी ही थी।
दुर्गारानी इन पर तो हमारी शादी से पहले ही जान छिड़कती थी। उसे इनकी चुहलबाजी और प्यार भरी छेड़-छाड़ बहुत अच्छी लगती थी. कॉलेज से वापस आने में इन्हें अगर देर हो जाती थी तो वह अपने सवालों से मेरी नाक में दम कर देती थी। खाना बाबू की पसन्द का ही बने, इसकी जि़म्मेदारी तो मेरी थी पर इसकी फि़क्र करना दुर्गारानी का खुद की ही ओढ़ी हुई ज़िम्मेदारी थी. अब दुर्गारानी का सारा दिन हमारे साथ ही बीतता था। दर-असल उसे किसी के यहाँ काम करने की ऐसी कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। उसका पति फ़ौज में था, उसकी विडोज़ पेंशन उसके अपने खर्च के लिए काफ़ी थी पर उसका शराबी बेटा कल्लू अपनी बोतल के लिए पैसे जुटाने के लिए बुढि़या माँ से मज़दूरी करवाता था, वही उसकी तनख्वाह भी आकर ले जाता था। नशे में या नशा उतरने के गुस्से में माँ के ऊपर दो-चार हाथ छोड़ना उसके लिए मामूली बात थी। एक बार तो उसने अपनी माँ का सिर ही फोड़ दिया । ये तो उस दुष्ट को पुलिस में देना चाह रहे थे पर उस अभागी माँ ने ही इनके पैर पड़कर अपने कपूत को जेल की चक्की पीसने से बचा लिया।
हमारे घर में नन्हा सा मेहमान आने वाला था। ऐसे वक्त में दुर्गारानी न जाने कब मेरे लिए माँ, देसी डॉक्टर, नर्स और न जाने क्या-क्या बन गई। पहले दिन मुझसे झाड़ू-बर्तन करवाने की ख्वाहिश रखने वाली दुर्गारानी अब घर का खाना भी बनाती थी, घर के सारे कपड़े भी धोती थी और तरह-तरह से मेरा मन भी बहलाती थी। मेरी और हमारे होने वाले बच्चे की सलामती के लिए वह पता नहीं कितने अनुष्ठान करती रहती थी। आए-दिन वह मेरे सिर पर चावल और फूल छिड़क, इनके और मेरे माथे पर तिलक लगाकर कोई मंत्र पढ़ती फिर हम दोनों को प्रसाद खिलाती थी।
मैं डिलीवरी के लिए अपने मायके रामपुर चली गयीं गयी. वहाँ सब मेरे अपने थे पर न जाने क्यों मुझे वहां भी दुर्गारानी की कमी बहुत खल रही थी। डिलीवरी के बाद जब मैं अल्मोड़ा पहुँची तो दुर्गारानी की सारी दुनिया हमारी बेटी में ही सिमट गई। उसका हर काम वही करती थी, मैं तो बस बैठे-बैठे उसके कुमाऊँनी गीत सुनती रहती थीं। चाहे आँधी हो चाहे तूफ़ान, चाहे बारिश हो चाहे स्नो-फॉल, हमारी बेटी को देखे बिना और उसकी सेवा किए बगैर दुर्गारानी का मानो सवेरा ही नहीं होता था।
उसके नालायक बेटे कल्लू से उसकी ये खुशियाँ देखी नहीं गयीं। इनके कहने पर दुर्गारानी ने उसे बोतल के लिए पैसे देने बन्द कर दिए थे। एक बार पैसे न मिलने के कारण गुस्से में उसने अपनी माँ को मार-मार कर लहू-लुहान कर दिया। इस बार दुर्गारानी के लाख रोकने के बावजूद इन्होने कल्लू की पुलिस में रिपोर्ट कर दी। बेचारी बुढ़िया इनके डर से इनसे तो कुछ नहीं बोली पर जैसे ही वह कुछ ठीक हुई तो लाठी टेकते हुए थाने पहुँची और कुछ दे-दिवा कर बेटे को लॉक-अप से छुड़ा लाई। ये तो दुर्गारानी पर बहुत नाराज़ हुए पर वो इन्हें पुचकारते हुए बोली -
”बाबू! दुर्गारानी का आखरी बखत है, उस पर अब गुस्सा मत करना। बुढ़िया जब मर जाए तो तुम और करमजला कल्लू उसको कन्धा देना और मरघट में फूँक कर भी आना।“
दुर्गारानी इस हादसे के बाद हमारे यहाँ काम करने के लिए नहीं आ पाई। दो-चार बार हम ही उसके घर जाकर उससे मिल आए। इधर कल्लू बाबू की शराबखोरी ने अपने गुल खिलाने शुरू कर दिए थे। भरी जवानी में उसके फेफड़े और जिगर जवाब दे गए थे। हम भगवान से मना रहे थे कि बेटा माँ के सामने न चला जाए पर हमारी प्रार्थना बेकार गई। कल्लू के मरने पर दुर्गारानी को कोई ताज्जुब नहीं हुआ, शायद वह इस हादसे के लिए पहले से तैयार थी। बेटे की अर्थी उठते समय वह बिलकुल रोई नहीं, बस, इनका हाथ पकड़कर बोली-
”बाबू कल्लू तो धोखा दे गया। अब इस बुढ़िया को तुम्हीं फूँक कर आना।“
कल्लू की मौत के दो महीने बाद ही दुर्गारानी का बुलावा भी आ गया। उसके आखरी वक्त में हमारा परिवार उसके पास था। हमारी बेटी को अपने सीने पर लिटाकर उसने प्यार किया और एक पोटली में से उसके लिए वही अपनी चिर-परिचित चाँदी की भारी-भरकम पाज़ेब निकालकर उसके नन्हें से पाँवों में पहना दीं। दुर्गारानी को कन्धा देकर और उसका अंतिम संस्कार करके इन्होने उसकी ख्वाहिश पूरी की.
दुर्गारानी की प्यार भरी झिड़कियाँ, उसके अधिकार भरे अनुरोध सुनने के लिए अब हमारे कान तरसते हैं, लगता है लाठी टेकती, छमछम करती वह अचानक हमारे सामने खड़ी हो जाएगी और फिर मुझे आलू की पकोटी (पकौड़ी) के साथ अदरक डालकर कड़क चाय बना लाने का आदेश देगी। मैं जब भी अपने बाल बनाती हूँ तो एक पल इन्तज़ार करती हूँ कि कब मेरी वो पहाड़ी इजा आएगी और मेरे हाथों से कंघी छीनकर खुद मेरे बाल बनाएगी।
हैरत की बात है कि दुर्गारानी की कोई तस्वीर हमारे पास नहीं है, बदकिस्मती से उसके लोकगीतों को भी मैं रिकॉर्ड नहीं कर पाई थी. पर इन निशानियों की हमको खास ज़रूरत भी नहीं है। मुझे लगता है कि जब तक मेरे होठों पर मेरी उस पहाड़ी इजा के सिखाए लोकगीत रहेंगे तब तक वह मेरी यादों में बसी रहेगी। उसके सिखाए पहाड़ी व्यंजनों को मैं जब-जब बनाउंगी तब-तब वह उनमें महकती रहेगी। और जब बड़ी होकर हमारी बेटी उसकी दी हुई पाज़ेब पहन कर छमछम करती इधर-उधर भागती फिरेगी तब तक वह हमारे दिलों में ज़िन्दा रहेगी।‘

5 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद यशोदाजी.'पांच लिंकों का आनंद' में मेरी कहानी लिंक किए जाने से मैं अधिक से अधिक पाठकों से जुड़ सकूंगा.

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  2. मार्मिक और हृदयस्पर्शी कहानी।

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  3. धन्यवाद, राकेश कुमार श्रीवास्तव राही जी. यह कहानी हमारे अल्मोड़ा प्रवास की मधुर स्मृतियों पर आधारित है.

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  4. बहुत खूब । बाँधे रखती है कलम पाठक को अंत तक । लिखे जाइये :)

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  5. प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुशील बाबू. तुम तो वैसे भी हमारे प्यार में बंधे हो, तुमको बांधे रखने में अगर हमारी कलम भी साथ दे फिर तो आनंद ही आनंद है.

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