सोमवार, 21 दिसंबर 2020

लेडीज़ फ़र्स्ट

फ़ेसबुक पर अपने एक आलेख में मेरे मित्र प्रोफ़ेसर हितेंद्र पटेल ने हर जगह महिलाओं-लड़कियों को प्राथमिकता दिए जाने पर आपत्ति की है.
मैं भी उनके इस विचार से सहमत हूँ कि हर जगह ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ का नारा बुलंद किये जाने की ज़रुरत नहीं है.
यह सही है कि स्त्री-दमन और स्त्री-शोषण, विश्व-इतिहास का, ख़ासकर भारतीय इतिहास का, सबसे कलुषित अध्याय है लेकिन इसके खिलाफ़ हम पूरी तरह से उल्टी गंगा बहा कर एक स्त्री-प्रधान समाज को स्थापित कर न तो स्त्रियों को समाज में यथोचित अधिकार दिला सकेंगे और न ही उन्हें निर्बाध उन्नति करने का अवसर प्रदान करा पाएंगे.
मध्यकालीन यूरोप में नाइट्स की शौर्य-गाथाओं में उनकी शिवैलरी (नारी-रक्षण की भावना) की अनगिनत कहानियां प्रचलित थीं.
इन्ही नाइट्स की तरह हमारे आज के बॉलीवुड के हीरोज़ भी खलनायकों के चंगुल में फंसी नायिका का उद्धार करने के लिए कहीं से भी अवतरित हो जाते हैं.
बस में या ट्रेन में किसी महिला को खड़ा देख कर किसी पुरुष द्वारा अपनी सीट उसे देना सभ्यता की निशानी मानी जाती है. किसी टिकट विंडो पर भले ही महिलाओं के लिए अलग पंक्ति की व्यवस्था न हो पर उनको आउट ऑफ़ टर्न टिकट तो मिल ही जाता है.
औरत को मोम की गुड़िया समझना या उसे रुई के फाहे में महफ़ूज़ रखने की कोई कोशिश करना मूर्खता है.
बिना किसी के सहारे चुनौतियों का सामना करने की क्षमता पुरुष का एकाधिकार नहीं है.
स्त्रियाँ भी स्वयं-सिद्धा बन कर कठिन से कठिन मुश्किलों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती हैं और उन पर जीत हासिल कर सकती हैं.
आजकल नारी-उत्थान के स्व-घोषित मसीहा हर क्षेत्र में स्त्रियों को आरक्षण दिए जाने की सिफ़ारिश करते हैं.
बकौल लालू प्रसाद यादव, नारी-उत्थान की एक अभूतपूर्व मिसाल उन्होंने तब क़ायम की थी जब बिहार के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी छिन जाने की स्थिति में उन्होंने अपनी लगभग काला अक्षर भैंस बराबर श्रीमती जी, राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.
मेरी दृष्टि में नारी-उत्थान के नाम पर इतना फूहड़ और वीभत्स मज़ाक कोई दूसरा नहीं हो सकता था.
बिना किसी की योग्यता जांचे, बिना उसकी सामर्थ्य का समुचित आकलन किये, किसी की थाली में कोई महत्वपूर्ण पद परोस देना तो अन्याय है.
यह अन्याय सिर्फ़ दूसरों के साथ ही नहीं है, बल्कि उसके साथ भी है जिस पर कि ऐसी कृपा बरसाई गयी है.
बहुत से अभिभावक अपनी बेटियों को कोई भी दुष्कर कार्य नहीं सौंपते हैं. अगर बेटियों को कहीं बाहर जाना हो तो उसके साथ घर के किसी पुरुष का जाना ज़रूरी समझा जाता है.
मेरे अल्मोड़ा-प्रवास में मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने दिल्ली में रह कर बीएस. सी. और एमएस. सी किया और छोटी बेटी रागिनी ने पन्त नगर से बी. टेक. और फिर दिल्ली से एम. बी. ए. किया.
मेरी दोनों बेटियां अपने दम पर अल्मोड़ा से दिल्ली तक का सफ़र अकेले ही करती रहीं. उनके पापा को या उनकी मम्मी को कभी भी उनका बॉडी गार्ड बनने की ज़रुरत नहीं पड़ी.
दोनों बेटियों को पता था कि उन्हें ख़ुद को किस तरह सुरक्षित रखना है और इसके लिए क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी हैं.

अपने पैरों पर खड़े होने के बाद अपने रहने की व्यवस्था भी हमेशा उन्होंने ख़ुद ही की. यहाँ तक कि उनकी शादियाँ भी हम पति-पत्नी की टांग अड़ाए बिना ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गईं.
पुरुषों का, लड़कों का, चरित्र बड़ा दो-रंगा होता है.
अपने घर के किसी बच्चे को दो मिनट के लिए भी गोदी में न उठाने वाला कोई मर्द अक्सर किसी सूरतक़ुबूल अपरिचित महिला का पचास किलो बोझा उठाने को भी तैयार मिल सकता है.
इस बोझा उठाने वाली बात पर एक सच्चा किस्सा –
1994 में मैं अपने विद्याथियों का एजुकेशनल टूर लेकर अल्मोड़ा से राजस्थान जा रहा था. टूर में विद्यार्थियों के पास पैसे की किल्लत को देख कर मैंने यह घोषणा कर दी कि हम कहीं भी कुली नहीं करेंगे और हर कोई अपना-अपना सामान ख़ुद उठाएगा.
हमारे कुछ उत्साही लड़के लपक कर लड़कियों का सामान उठाने लगते थे जब कि अपने गुरु जी को ख़ुद का सूटकेस और बैग उठाते देख उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी.
मेरे इस हिटलरी फ़रमान –
‘हर कोई अपना सामान ख़ुद उठाएगा और कोई भी किसी दूसरे का सामान क़तई नहीं उठाएगा. मेरा यह हुक्म न मानने वाले को टूर से बाहर कर दिया जाएगा.’
सभी लड़कियों ने तो रास्ते भर आराम से अपना सामान ख़ुद उठाया लेकिन हमारे उत्साही स्वयंसेवक बालकों की शिवैलरी दिल की दिल में ही रह गयी.
मेट्रोज़ में, बसों में, वरिष्ठ नागरिकों के लिए कुछ सीट्स आरक्षित होती हैं. एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं ऐसी किसी सीट पर बैठना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझता हूँ.
खचाखच भरी मेट्रो या बस में वरिष्ठ नागरिक के लिए आरक्षित सीट पर अगर कोई लड़का बैठा हो या कोई लड़की भी बैठी हो तो उसे हटा कर उस सीट पर बैठने में मैं कभी संकोच नहीं करता.
अगर हम सच्चे अर्थ में नारी-हितैषी हैं तो हमको स्त्रियों को विशेष अधिकार और अतिरिक्त सुविधाएँ देने के स्थान पर उनकी उन्नति के मार्ग में अनादि काल से डाले जा रहे रोड़े हटाने चाहिए और सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों के समान अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर दिलाना चाहिए.
हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि आज भी समाज में उन पोंगापंथियों का और पुरातनपंथियों का बाहुल्य है जिन्हें अपने समाज की पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं के अंध-निर्वाहन में ही सबका कल्याण दिखाई देता है.
किन्तु प्रगतिशीलता के नाम पर इस सामाजिक रोग का निदान स्त्रियों पर अनावश्यक और अप्रत्याश्रित सुविधाएँ लुटा कर नहीं किया जा सकता.
सबको उन्नति का एक समान अवसर प्रदान करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए.

किसी भी व्यवस्था में, चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो अथवा सामाजिक हो, भेद-भाव और असमानता का लेशमात्र अंश भी नहीं होना चाहिए और न ही किसी को जाति-धर्म के आधार पर, न ही किसी को क्षेत्र के नाम पर, न ही किसी को स्त्री होने के आधार पर,

आरक्षण का, या विशेष सुविधाओं का या फिर कैसी भी रियायतों का तोहफ़ा मिलना चाहिए. 

रविवार, 13 दिसंबर 2020

माँ-पिताजी और फ़िल्में

फ़िल्मों के प्रति माँ की और मेरी दीवानगी देख कर पिताजी कहा करते थे कि हम दोनों का जन्म घर में या किसी अस्पताल में नहीं, बल्कि किसी सिनेमा हॉल में होना चाहिए था.
हमारी ननिहाल एटा में थी जहाँ कि पुराने ज़माने में कोई सिनेमा हॉल नहीं था लेकिन हमारी माँ ने अपने बचपन में नुमाइशों और मेलों में टेंट लगा कर काम चलाऊ मोबाइल सिनेमा में फ़िल्में देखने का लुत्फ़ खूब उठाया था.
माँ ने पहली फ़िल्म – ‘राजा भरथरी’ (भर्तहरि) देखी थी.
किस तरह अपनी रानी पिंगला को बेहद प्यार करने वाले, उसे अमृत फल देने वाले, राजा भरथरी उसके प्यार में धोखा खा कर राज-पाट छोड़ कर साधू हो जाते हैं और एक दिन रानी पिंगला के महल के द्वार पर खड़े होकर गा-गा कर उस से भिक्षा मांगते हैं और पश्चाताप की आग में जल रही रानी पिंगला उन्हें भिक्षा देकर किस प्रकार अपने प्राण त्याग देती है, इसका ऐसा वर्णन हमारी माँ करती थीं कि उस फ़िल्म का हर एक दृश्य हमारी आँखों के सामने सजीव हो जाता था.
माँ की एक और मन-पसंद फ़िल्म ‘सत्य हरिश्चंद्र’ हुआ करती थी. इस फ़िल्म का क्लाइमेक्स था –
श्मशान घाट के डोम बने राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी शैव्या से अपने पुत्र रोहिताश्व के शव का अंतिम संस्कार करने के लिए उस से कर मांगते हैं और कर के रूप में रानी अपनी साड़ी का एक हिस्सा फाड़ कर उन्हें देती है.
इस दृश्य का वर्णन हमारी रोती-बिसूरती माँ ऐसे करती थीं कि हम श्रोता भी उनके साथ आंसू बहाने लगते थे.
माँ की कमेंट्री सुन कर मुझको यकीन हो गया था कि हमारी ननिहाल के आदि-पुरुष महाभारत फ़ेम के संजय ही रहे होंगे.
1947 में जुडिशियल मजिस्ट्रेट के रूप में पिताजी की पहली पोस्टिंग आगरा में हुई थी.
धन्य हो शहर-ए-आगरा ! इसलिए नहीं कि वहां ताजमहल था, बल्कि इसलिए कि वहां कई सिनेमा हॉल्स थे. लेकिन परेशानी ये थी कि माँ फ़िल्मों की जैसी दीवानी थीं, पिताजी फ़िल्मों से उतना ही चिढ़ते थे.
फ़िल्मों से पिताजी की एलर्जी का एक किस्सा यहाँ ज़रूरी है –
हर थाने के पुलिसकर्मियों को अपनी कर्मठता दिखाने के लिए महीने में कम से कम एक-दो दर्जन मुल्ज़िमों को पकड़ कर मजिस्ट्रेट के सामने लाना ज़रूरी हुआ करता था.
रंगे-हाथ मुल्ज़िम पकड़ने के अधिकतर मामले फर्ज़ी हुआ करते थे और इन में दफ़ा 109 (सेंध लगा कर चोरी करने जैसी किसी आपराधिक गतिविधि की तैयारी कर रहे किसी व्यक्ति को अपराध होने से पहले ही पकड़ना) के मामलों का बाहुल्य होता था. इन पकड़े गए मुल्ज़िमों के पास से बरामद सामान की जो लिस्ट मजिस्ट्रेट के सामने पेश की जाती थी, वो हमेशा एक ही जैसी होती थी –
1. एक आलानक़ब (दीवार में सेंध लगाने के लिए लोहे का एक उपकरण)
2. एक बटुआ, जिसमें थोड़ी सी रेजगारी
3. एक बीड़ी का बंडल जिसमें थोड़ी सी बीड़ियाँ
4. एक माचिस की डिब्बी जिसमें कुछ तीलियाँ
5. सुरैया का एक फ़ोटो
संदिग्ध अपराधी से बरामद हुए सामान की इस फ़ेहरिस्त में पिताजी को पहले चार सामानों पर कोई ऐतराज़ नहीं था लेकिन उन्हें यह बर्दाश्त नहीं था कि हर मुल्ज़िम के पास फ़िल्म स्टार सुरैया का ही फ़ोटो बरामद हो. आखिर नर्गिस, मुमताज़ शांति, बेगम पारा, नूरजहाँ, नसीम बानो वगैरा टॉप हीरोइन्स से इन उठाईगीरों की कौन सी दुश्मनी थी?
मुल्ज़िम से बरामद सामान की फ़ेहरिस्त में सुरैया के फ़ोटो का ज़िक्र देख कर पिताजी आमतौर पर उस केस को ख़ारिज ही कर दिया करते थे.
फ़िल्म देखने की माँ की ज़िद से और पिताजी के आदतन इंकार करने से, हमारे घर में बार-बार गाँधी जी का कोई आन्दोलन उठ खड़ा होता था.
कभी असहयोग आन्दोलन, कभी सत्याग्रह तो कभी सिर्फ़ अनशन. और तो और, कभी-कभी भारत छोड़ो की तर्ज़ पर आगरा छोड़ो (और अपने मायके एटा प्रस्थान करो) आन्दोलन भी हो जाया करता था.
इन गांधीवादी आन्दोलनों से त्रस्त होकर पिताजी साल में एकाद फ़िल्म माँ को दिखा ही देते थे.
माँ को फ़िल्म दिखाना पिताजी के लिए उतनी दुखदायी घटना नहीं हुआ करती थी जितनी कि फ़िल्मोपरांत उस पर होने वाली लम्बी चर्चा !
माँ के हिसाब से उनके चालीस-पचास भाई-बहनों (सगे और फ़र्स्ट, सेकंड कज़िन्स मिलाकर) में से अधिकतर किसी न किसी हीरो या किसी न किसी हीरोइन की कॉपी हुआ करते थे और हमारे पिताजी थे कि वो अपने इन सुदर्शन साले-सालियों में बहुत से मुकरी, धूमल, के. एन सिंह, टुनटुन और ललिता पवार खोज लिया करते थे.
फ़िल्मी आकाश में अमिताभ बच्चन रूपी तारे के जगमगाने से पहले माँ दिलीप कुमार की ज़बर्दस्त फ़ैन हुआ करती थीं.
दिलीप कुमार ने ‘अंदाज़’, ‘इंसानियत’, ‘देवदास’ और ‘गंगा जमुना’ जैसी दुखांत फ़िल्मों में उन्हें ख़ूब रुलाया था तो ‘कोहिनूर’ और ‘राम और श्याम’ में ख़ूब हंसाया था.
माँ को दिलीप कुमार और मधुबाला की जोड़ी बहुत पसंद थी. जब यह जोड़ी मधुबाला के लालची बाप की दखलंदाज़ी की वजह से टूट गयी तो माँ को बहुत दुःख हुआ था.
न तो माँ ने मधुबाला और जोकर किशोर कुमार की शादी को स्वीकार किया और न ही उन्होंने 44 साल के अधेड़ दिलीप कुमार और 22 साल की नवयुवती सायरा बानो की शादी को.
पिताजी ने माँ को आश्वस्त किया कि माँ कोई अच्छा सा वकील कर के 22 साल की सायरा बानो को अगर 11 साल की नाबालिग साबित करवा दें तो पिताजी न सिर्फ़ इस बेमेल शादी को रद्द करवा देंगे, बल्कि दिलीप कुमार को जेल भी भिजवा देंगे.
मेरे बड़े हो जाने पर और ख़ासकर मेरे कमाऊ हो जाने पर, माँ को फ़िल्म दिखाने की ज़िम्मेदारी मेरी हो गयी लेकिन माँ फिर भी पिताजी के साथ फ़िल्म देखने की ज़िद करती रहती थीं.
किसी ख़ास फ़िल्म की मुझ से तारीफ़ सुन कर कभी-कभी पिताजी माँ को ऑबलाइज करने के लिए तैयार भी हो जाते थे.
1978 की बात है. मेरी संस्तुति पर पिताजी ने राजकपूर की एवरग्रीन फ़िल्म ‘आवारा’ देखने की हामी भर दी.
माँ-पिताजी दोनों को फ़िल्म पसंद आई लेकिन इतिहास में कमज़ोर हमारी माँ के यह समझ में नहीं आया कि इस फ़िल्म में शम्मी कपूर, हीरो का यानी कि राज कपूर का बाप क्यों बना है ! (इस फ़िल्म में राज कपूर के पिता की भूमिका पृथ्वीराज कपूर ने निभाई थी जो कि 1952 में 1978 के शम्मी कपूर के जैसे दिखते होंगे)
अपने दांत पीसते हुए पिताजी ने माँ को करेक्ट करते हुए बताया कि ‘आवारा’ में राज कपूर के बाप की भूमिका उन के छोटे भाई शम्मी कपूर ने नहीं, बल्कि उनके बेटे ऋषि कपूर ने निभाई थी.
1978 में हमारे घर में टीवी आ गया. माँ रविवार को आने वाली फ़िल्म का बेसब्री से इंतज़ार करती थीं और पिताजी न जाने क्यों, फ़िल्म के दौरान ही आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही अपनी नींद पूरी किया करते थे.
फ़िल्म के दौरान सोने वाले पिताजी का सजग होकर न्यूज़ देखना और क्रिकेट मैच के प्रसारण का भरपूर आनंद उठाते हुए देखना, माँ को क़तई बर्दाश्त नहीं होता था.
1993 में पिताजी के निधन के बाद माँ ने सिनेमा हॉल में जाकर फिर कोई फ़िल्म नहीं देखी.
अब टीवी ही उनके फ़िल्मी मनोरंजन का साधन रह गया था.
1994 से सबके घरों में केबल टीवी आ जाने से घर-घर थिएटर खुल गए थे. हमारी माँ के लिए तो एक एक्सक्लूसिव टीवी हुआ करता था जिस पर दिन में और रात में कोई न कोई फ़िल्म ही चला करती थी.
हमारे घर में मेरी दोनों बेटियां अपनी अम्मा के साथ बैठ कर ख़ूब फ़िल्में देखा करती थीं. फ़िल्म देखते समय अम्मा के कमेंट्स भी चलते रहते थे.
सन 2000 के करीब की बात होगी. टीवी पर 1965 की फ़िल्म – ‘गुमनाम’ का गाना – ‘इस दुनिया में जीना हो तो सुन लो मेरी बात’ चल रहा था जिसमें थिरकती हुई हेलेन माँ को बड़ी अच्छी लग रही थी.
1965 और 2000 में घालमेल करते हुए माँ ने इतिहास की धज्जियाँ उड़ाते हुए टिप्पणी की –
‘ये मुई हेलेन बूढ़ी हो गयी लेकिन आज भी कितना अच्छा नाचती है’
अपने एक संस्मरण में मैं विस्तार से लिख चुका हूँ कि किस तरह अमिताभ बच्चन माँ के सबसे बड़े बेटे और हमारे बड़े भैया घोषित हो गए थे.
टीवी पर जैसे ही अमिताभ बच्चन दिखाई देते थे, मेरी बेटियां दौड़कर अपनी अम्मा को सूचित कर देती थीं कि बड़े ताउजी आ गए हैं.
सन 2000 में ही ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का प्रसारण शुरू हुआ था. माँ अपने सबसे बड़े बेटे के अथाह ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा करती थीं और यह मानने को क़तई तैयार नहीं होती थीं कि इस कार्यक्रम के पीछे किसी सिद्धार्थ बासु का हाथ है.
आज पिताजी और माँ हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी फ़िल्मी पसंद-नापसंद की यादें अब भी मेरा मनोरंजन करती हैं.
‘मुगले आज़म’ के बागी और बदतमीज़ सलीम को दो बेंत लगाने की हसरत रखने वाले पिताजी और अपनी देखरेख में सलीम-अनारकली की शादी करवाने की तमन्ना रखने वाली माँ की नोंक-झोंक को मैं आज भी मिस करता हूँ.
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शनिवार, 5 दिसंबर 2020

मेरी पहली रेल-यात्रा

 मैंने अपना होश संभालने से पहले दो-तीन बार ट्रेन में सफ़र किया होगा लेकिन अपने होश में, 5 साल की उम्र में, मेरी पहली रेल-यात्रा जून, 1956 में हुई थी.

पिताजी का ट्रांसफ़र बिजनौर से लखनऊ हो गया था.
लखनऊ जाने के लिए हम लोगों को ट्रेन से अपनी यात्रा संपन्न करनी थी.
हमारे परिवार के अन्य सदस्यों के लिए रेल-यात्रा का यह पहला अनुभव नहीं होता लेकिन मेरे होश संभालने के बाद, मेरी पहली रेल-यात्रा होने की वजह से यह मेरे लिए एक ऐतिहासिक महत्व की घटना होने वाली थी.
मेरे भाइयों ने रेल-यात्रा के बारे में मेरा सामान्य-ज्ञान बढ़ाने में मेरी बड़ी मदद की थी.
स्टेशन मास्टर की हरी झंडी का इशारा मिलते ही कैसे धुआं उड़ाता हुआ एक दैत्याकार काला इंजन, बीसियों डिब्बों वाली ट्रेन को लोहे की दो पटरियों पर –
‘हुश्यिप छिक-छिक, हुश्यिप छिक-छिक, कू’
करते हुए फ़र्राटे से खींचता हुआ ले जाता है और फिर अगले किसी स्टेशन पर कैसे वहां के स्टेशन मास्टर के हाथ में लाल झंडी का इशारा मिलने पर वह पूरी ट्रेन को एक झटका सा देकर रुक जाता है, इस कथा को मैंने आदि से अंत तक कितनी बार सुना, इसका हिसाब दे पाना मेरे लिए मुश्किल है.
मुझे यह भी बताया गया कि पिताजी के एंटाइटलमेंट की बदौलत हम लोग ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास में सफ़र करने वाले हैं.
अब तक मैंने किसी स्कूल में ही फ़र्स्ट क्लास, सेकंड क्लास और थर्ड क्लास का नाम सुना था.
मैंने बड़े भाई साहब से पता किया कि ट्रेन में यह फ़र्स्ट क्लास क्या बला होती है.
बड़े भाई साहब से मुझे मिली जानकारी का सारांश था -
ट्रेन में यात्रियों के लिए कुल तीन क्लास होते हैं – फ़र्स्ट क्लास, सेकंड क्लास और थर्ड क्लास
(उन दिनों शायद ए. सी. फ़र्स्ट क्लास का चलन नहीं हुआ होगा और यह तो तय है कि तब स्लीपर क्लास नहीं होता था).
सबसे कम पैसे की टिकट वाले थर्ड क्लास में भीड़-भड़क्का, धक्कम-मुक्का, चिल्ल-पों का साम्राज्य होता है और यात्रियों को लकड़ी के पटरों से बनी बेंचों पर बैठ कर, एक-दूसरे से सटे-सटे, सफ़र करना होता है.
थर्ड क्लास के विषय में मिली इस भयावह जानकारी पर मेरी कुछ ऐसी थी –
‘राम ! राम ! ऐसी तकलीफ़देह यात्रा करने की तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता !’
(वैसे एक मज़े की बात बताऊं - पिताजी के ट्रांसफ़र के समय होने वाली रेल-यात्रा को छोड़ कर हमारी सभी रेल-यात्राएं इसी तकलीफ़देह थर्ड क्लास में ही हुआ करती थीं.)
थर्ड क्लास से करीब दुगुनी टिकट वाले सेकंड क्लास में सीटों पर गद्दियाँ होती हैं, उनमें भीड़-भाड़ भी कम होती है और सफ़र भी आरामदेह होता है.
लेकिन राजाओं और नवाबों वाले ठाठ तो महा-महंगे फ़र्स्ट क्लास में बैठने वालों के ही होते हैं.
अल्लाताला से वीआईपी किस्मत लिखा कर लाए यात्रियों के लिए उपलब्ध फ़र्स्ट क्लास में बैठने-सोने के लिए ऐसी सोफ़ेनुमा, बेडनुमा, व्यवस्था होती है जो कि हमारे घर के बेंत से बुने सोफ़े की तुलना में या हमारे घर के रुई के गद्दे वाले बिस्तरों की तुलना में, बहुत आरामदायक और शानदार होती है.
फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में छत पर पंखे लगे होते हैं और उसके दोनों ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ होती हैं जिन से कि सफ़र करते हुए बाहर का नज़ारा देखा जा सकता है.
सुना है कि अमीर ख़ुसरो ने कभी काश्मीर के लिए कहा था –
अग़र फ़िरदौस बर-रूए ज़मीं अस्त,
हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त.
(पृथ्वी पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है)
अगर 1956 में अमीर ख़ुसरो होते तो किसी ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में बैठ कर भी शायद वो यही शेर कहते.
ट्रेन में सफ़र करने से दो सप्ताह पहले ही मैंने भाइयों से और बहन जी से लड़-झगड़ कर अपने लिए विंडो-सीट रिज़र्व करवा ली थी.
मेरे लिए सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात यह थी कि पिताजी ने भी घर के मुझ सबसे छोटे सदस्य की मांगों पर अपनी संस्तुति की बाक़ायदा मुहर लगा दी थी.
आख़िरकार बहुत दिनों के इंतज़ार के बाद हमारे सुहाने सफ़र की घड़ी आ ही गयी.
डेड़ दर्जन छोटे-बड़े अस्बाब के साथ हम चार भाई, बहन जी, माँ और पिताजी यानी कि कुल 25 अदद, बिजनौर रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुए.
हमको छोड़ने के लिए माँ-पिताजी के मित्रों की और पिताजी के मातहतों की भीड़ स्टेशन पर पहले से मौजूद थी.
पिताजी को माला पहनाई गयी, माँ को किसी ने फूलों का गुलदस्ता भेंट किया, और तो और, किसी मेहरबान ने एक छोटी सी माला मेरे गले में भी डाल दी.
स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर एक बदसूरत सी, खटारा सी, हर तरफ़ से बंद डिब्बों वाली, एक भदरंगी ट्रेन खड़ी थी.
मुझे पता चला कि वह एक मालगाड़ी थी जिसमें कि सामान को इधर से उधर पहुँचाया जाता था.
हम लोग इंतज़ार में थे कि कब प्लेटफ़ॉर्म से यह मुई मालगाड़ी हटे, उस पर हमारी ट्रेन आए और फिर हमारा सुहाना सफ़र शुरू हो.
लेकिन कमबख्त मालगाड़ी थी कि प्लेटफ़ॉर्म से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी.
बिजनौर रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर पिताजी को वीआईपी ट्रीटमेंट दे रहे थे.
पुराने ज़माने में बिजनौर जैसे एक छोटे से स्टेशन से किसी ऑफ़िसर की विदाई कभी-कभार ही हुआ करती होगी.
कुछ देर बाद प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी मालगाड़ी के गार्ड भी भीड़ में शामिल हो गए.
स्टेशन मास्टर और मालगाड़ी के गार्ड के बीच में कुछ बातचीत हुई और फिर कुलियों द्वारा हमारा सारा सामान मालगाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ़ ले जाया जाने लगा. हम सब भी उसी दिशा में बढ़ने लगे.
ट्रेन के आख़िर में झोंपड़ी जैसा एक डिब्बा आया जो कि उस मालगाड़ी के गार्ड का केबिन था.
मेरी हैरानी की कोई इंतिहा नहीं रही जब मैंने देखा कि मालगाड़ी के गार्ड्स-केबिन में कुलियों द्वारा हमारा कुल डेड़ दर्जन सामान बड़े करीने से सजाया जा रहा है.
जब हमारा सारा सामान गार्ड के केबिन में फ़िट हो गया तो फिर हम लोगों को भी उसी केबिन में बैठने के लिए कहा गया.
खटारा मालगाड़ी के गार्ड्स-केबिन में सफ़र करने की बात सुन कर सुहाने और नवाबी सफ़र के मेरे सारे सपने भुने हुए पापड़ की तरह टूट गए.
हाय ! घुचकुल्ली गार्ड्स-केबिन में हमारा सात लोगों का परिवार और गार्ड को मिला कर कुल जमा आठ लोग, हमारे डेड़ दर्जन सामान के साथ, कैसे फ़िट हुए, इसे समझने के लिए हमको किसी ट्रक में कसाई घर को ठूंस-ठूंस कर ले जाई जा रही गाय-भैंसों को ही देखना पड़ता.
अपनी दुर्दशा देखा कर मेरी आँखों से तो आंसू बहने लगे.
पिताजी ने मुझे पुचकारते हुए समझाया कि बिजनौर स्टेशन से कोई पैसेंजर ट्रेन लखनऊ के लिए नहीं जाती थी (यह 1956 की बात थी) और शाम के वक़्त तो कोई पैसेंजर गाड़ी बिजनौर से नजीबाबाद भी नहीं जाती थी इसलिए हमको मजबूरन बिजनौर से नजीबाबाद तक इसी कष्टकारी मालगाड़ी में सफ़र करना था.
लेकिन अच्छी बात यह थी कि नजीबाबाद से लखनऊ तक का बाक़ी सफ़र हमको एक पैसेंजर ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में, आराम के साथ, बैठ कर या फिर शेषशायी भगवान विष्णु की तरह लेट कर, मज़े से पूरा करना था.
मालगाड़ी में लद-फंद कर, सिर्फ़ तीस किलोमीटर का सफ़र, हमने ढाई-तीन घंटे में पूरा किया.
हमारा अंग-अंग दुःख रहा था.
नजीबाबाद पहुँचते-पहुँचते रात हो चुकी थी और अभी तो हमको नजीबाबाद स्टेशन पर नजीबाबाद से लखनऊ जाने वाली ट्रेन का दो घंटे इंतज़ार भी करना था.
बिजनौर से नजीबाबाद तक के दुखदायी सफ़र से बुरी तरह से थका हुआ, लखनऊ जाने वाली ट्रेन के आने का इंतज़ार करते-करते, मैं कब सो गया, मुझे पता ही नहीं चला.
बहन जी के अचानक ज़ोर-ज़ोर से झकझोरने से मेरी नींद टूटी.
मैंने आँख खोल कर देखा कि मैं पैसेंजर ट्रेन के शानदार फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की लोअर बर्थ पर लेटा हूँ लेकिन जब तक मैं इस नवाबी ठाठ का लुत्फ़ उठा पाता, बहन जी ने मेरा हाथ खींच्रते हुए मुझे ट्रेन से निकाल कर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ लखनऊ स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा कर दिया.
नजीबाबाद से लखनऊ तक के सफ़र में, ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की शाही गद्दे वाली लोअर बर्थ पर मैं सोया ज़रूर था लेकिन इसका पता तो मुझे तब चला जब सफ़र रूपी फ़िल्म की आख़री रील का आख़री सीन चल रहा था.
भाइयों और बहन जी को जलाते हुए फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की विंडो-सीट पर बैठ कर सफ़र का आनंद उठाने का और वहां से बाहर का नज़ारा देखने का मेरा ख़्वाब तो चकनाचूर हो ही गया था.
प्रैक्टिकली मेरी स्मृति में मेरी पहली रेल-यात्रा बिजनौर से सिर्फ़ नजीबाबाद तक ही सीमित रही थी.
इस तरह से मेरी पहली रेल-यात्रा – भगवतीचरण वर्मा की कविता - ‘चूं-चरर-मरर, चूं-चरर-मरर, जा रही चली भैंसागाड़ी’ के अंदाज़ में संपन्न हुई.
इस यात्रा की करेले-नीम जैसी कड़वी यादें आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती हैं.
मेरी तो भगवान से बस, यही प्रार्थना है कि वो किसी और के सुहाने सफ़र के सपने कभी भी ऐसे चूर-चूर न करें जैसे कि उन्होंने मेरे किए.
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