रविवार, 28 जनवरी 2018

फ़िल्म 'पद्मावत'

फ़िल्म 'पद्मावत'
आज सुबह फ़िल्म 'पद्मावत' 3 डी में देखी. बहुत ही भव्य फ़िल्म है और बहुत मेहनत से बनाई गयी है. फ़िल्म देखकर लगा कि अगर महारानी पद्मावती की भूमिका निभाने के लिए कोई सुपात्र हो सकती थी तो वो सिर्फ़ दीपिका पादुकोण ही हो सकती थी.
रणवीर सिंह ने अलाउद्दीन खिलजी के खल पात्र को बखूबी निभाया है. उसके चेहरे से, उसके हर संवाद से, दरिंदगी टपकती है लेकिन उसे नाचते-गाते दिखाना हास्यास्पद लगा.
रावल रतन सिंह की भूमिका में शाहिद ठीक-ठाक है. रावल रतन सिंह का किरदार इतना कमज़ोर दिखाया गया है कि शायद कोई महान अभिनेता भी उसकी भूमिका करके वाहवाही नहीं लूट सकता था.
भंसाली फ़िल्म की कहानी में गहराई लाने में असफल रहे हैं. जायसी की 'पद्मावत' में रतन सेन की बड़ी रानी नागमती दूसरी नायिका के रूप में प्रस्तुत की गयी है किन्तु इस फ़िल्म में तो बड़ी रानी कोई एक्स्ट्रा कलाकार लगती है.
अलाउद्दीन की बेगम के रूप में अदिति राव हैदरी बहुत अच्छी लगी है और सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के रूप में रज़ा मुराद भी.
मालिक काफ़ूर अपनी ख़ूबसूरती के लिए इतना विख्यात था कि गुलामों के बाज़ार से उसे हज़ार दीनार में ख़रीदा गया था. इस रोल को कार्टून वाली शक्ल वाले जिम सार्भ को देना उचित नहीं था पर इस कलाकार ने अभिनय बहुत अच्छा किया है.
गोरा और बादल के चरित्रों को और उभारे जाने की आवश्यकता थी और महारानी पद्मावती दो-चार बार तलवार और तीर (हिरन का असफल शिकार करने के अलावा) चलाते हुए भी दिखा दी जाती तो क्या हर्ज़ था?
अलाउद्दीन खिलजी के मुंह से 'इतिहास' शब्द कहलवाना मुझे ठीक नहीं लगा. इसके स्थान पर 'तारीख़' शब्द होता तो बेहतर होता.
चितौड़ से सम्बद्ध पात्रों की भाषा पर मेवाड़ी प्रभाव अच्छा लगता है.
फ़िल्म में बलिस्ता से आग के गोले फेंकने के दृश्य दिल दहला देने वाले हैं.
जौहर का दृश्य भव्य और मार्मिक है. भले ही इस कहानी में अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए जौहर करने के लिए स्त्रियाँ बाध्य हो गयी थीं किन्तु जौहर की प्रथा का अनावश्यक गुणगान तो फ़िल्म में है ही. जौहर के लिए जाती हुई महिलाओं में एक गर्भवती स्त्री भी दिखाई गयी है जो कि जौहर की प्रथा के विरुद्ध है. पर यह क्या कम है कि स्त्रियों को आग में कूदते हुए नहीं दिखाया गया है और फ़िल्म में जगह-जगह सती मैया के चौरे नहीं दिखाए गए हैं.
फ़िल्म में घूमर नृत्य का फ़िल्मांकन बहुत ही खूबसूरत है.
फ़िल्म का संगीत मधुर है. घूमर गीत और होली गीत तो बहुत ही सुन्दर हैं.
अब आती है बात फ़िल्म पर उठे विवाद की. तो उस पर मुझे कहना है कि अगर करणी सेना वाले आज भी यह फ़िल्म ठन्डे दिमाग से बिना पूर्वाग्रह के देखेंगे तो उन्हें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगेगा. पर मुझे तो अब उनका विरोध किसी के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम लग रहा है.
मुझे अपने उन सभी मित्रों से शिकायत है जिन्होंने फ़िल्म को बिना देखे ही उसके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी कर दिया है. फेसबुक पर अनेक विद्वान इस फ़िल्म के विरोध में सैकड़ों पोस्ट डाल चुके हैं और अब भी डाल रहे हैं.
अराजकतावादी तत्वों और अवसरवादी नेताओं द्वारा इस फ़िल्म के विरोध और तोड़फोड़ पर कोई टिप्पणी करना तो अपना समय और अपना दिमाग ख़राब करना है. आगामी चुनाव को देखते हुए नेताओं और उनके मुसाहिबों से और कैसे व्यवहार की आशा की जा सकती है?
महारानी पद्मावती की भूमिका में दीपिका बहुत ही शालीन और गरिमावान और मधुबाला से भी अधिक सुन्दर लगी है. उसका विवादित घूमर नृत्य भी बहुत शालीन और सुरुचिपूर्ण है.
यह फ़िल्म झूठी राजपूती आन-बान-शान का ढोल पीटती नज़र आती है. राजपूत आपस में लड़ते-मरते थे, अपनी सीमा सुरक्षा की कोई चिंता नहीं करते थे, दुश्मन को मारने का मौक़ा अपनी दरियादिली के नाम पर हाथ से जाने देते थे. हर अवसर को खोने वाले ऐसे अव्यावहारिक बहादुरों की जैसी गति हुई, उसके अलावा और कैसी गति की आशा की जा सकती थी?
अब समय आ गया है कि हम राजपूत चारणों, दरबारी कवियों और जेम्स टॉड के ग्रंथों की राजपूत-प्रशस्ति के ख़ुमार से बाहर आएं.
मुझे तो भंसाली की फ़िल्म भी इसी प्रकार की राजपूत-प्रशस्ति की एक प्रतिनिधि कृति लगी. बेचारे पर बिना बात राजपूती आन-बान-शान का शत्रु होने का इल्ज़ाम लगा दिया गया है.

रविवार, 14 जनवरी 2018

मन चंगा तो कठौती में गंगा

मन चंगा तो कठौती में गंगा -
आज मकर संक्रांति का पावन पर्व है. आज गंगा-स्नान का अत्यंत महत्त्व है. पतित पावनी माँ गंगे हमारे जन्म-जन्मान्तर के पाप धोने की क्षमता रखती हैं. आज के दिन गंगा-स्नान करना हमारे लिए किसी वरदान से कम नहीं है. तमाम टीवी चेनल्स पर चिकने-चुपड़े बाबाजी और ज्योतिषी यही सन्देश दे रहे हैं.
भगवान के दरबार में किसी पर्व के अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान करने से अथवा तीर्थों की यात्रा करने से पापी से पापी व्यक्ति भी पाप-मुक्त हो सकता है. यह व्यवस्था कितनी सुविधाजनक है ! हम बड़े से बड़ा पाप करें, कोई चिंता नहीं किन्तु जघन्य से जघन्य पाप करने से पहले ही हम अगर तीर्थ-यात्रा और गंगा-स्नान की एडवांस प्लानिंग कर लें तो फिर हमको मृत्य के उपरांत स्वर्ग जाने से कौन रोक सकता है?
कोई कबीर था जिसे इन बाबाजियों, इन ज्योतिषियों की बात पर विश्वास नहीं था और वो अपनी मृत्यु का समय नज़दीक समझ मोक्ष-दायिनी काशी को छोड़ कर मरने के लिए मगहर चला गया था. उस मगहर को, जिस के लिए यह मान्यता थी कि जो वहां मरता है, वह अगले जन्म में गधे की योनि में जन्म लेता है.
कोई रैदास था जो गंगा-स्नान के दिन काशी जी में रहते हुए भी गंगा जी में स्नान करने के लिए जाने के स्थान पर अपने किसी ग्राहक का जूता गांठने के लिए चमड़े को पानी से भरी कठौती में भिगो रहा था. उस बावरे को तो अपने कर्म से बड़ा कोई तीर्थ, कोई गंगा-स्नान दीख ही नहीं रहा था.
'मन चंगा तो कठौती में गंगा' रैदास के इस अमर कथन को हम और हमारे पुरखे करीब पांच सौ साल से दोहराते आ रहे हैं किन्तु फिर भी इस कथन के मर्म को समझने वाले बहुत कम हैं और इसके विपरीत कर्म-काण्ड के चमत्कारी प्रभाव का गुणगान करने वाले करोड़ों हैं.
मुझे कर्म-कांड का विरोध करने वालों से, 'कर का मनका छांड़ के मन का, मनका फेर' कहने वालों से कोई सहानुभूति नहीं है.
हम 'कांकर, पाथर जोरि के, मस्जिद बनाय, ख़ुदा को आवाज़ क्यों न दें?
हम 'जप, माला, छापा, तिलक आदि की महत्ता क्यों अस्वीकार कर दें?
मेरा एक प्रस्ताव है -
तीर्थ यात्रा, गंगा-स्नान, हज्ज, दरवेशों की दरगाहों की ज़ियारत, रविवार को नियमित रूप से चर्च जाना, गुरु पर्व पर गरीबों को भोजन कराने से और दरबार साहब में मत्था टेकने से, जैन धर्मावलम्बियों के लिए सम्मेद शिखर की परिक्रमा करने से यदि भगवान के यहाँ सारे पाप धुल जाते हैं तो ऐसी ही व्यवस्था अदालतों में भी कर दी जाने चाहिए.
अगर कोई क़ातिल अदालत में यह सिद्ध कर दे कि क़त्ल करने से पहले और उसके बाद भी वह नियमित रूप से तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान, हज्ज करने आदि का पुण्य-सबाब अर्जित करता रहा है तो अदालत को उसे बा-इज्ज़त बरी कर देना चाहिए.
फ़्रांसीसी क्रान्ति से पहले पादरीगण आस्तिकों से पैसे लेकर उन्हें स्वर्ग जाने का परमिट निर्गत किया करते थे.
ऐसी ही कोई व्यवस्था मंदिरों, मठों, खानकाहों आदि के साथ अदालतों के साथ किसी गठबंधन की भी हो जानी चाहिए.
हाँ, अपराध की गंभीरता बढ़ने के साथ तीर्थ-यात्राओं की संख्या और चढ़ावे की रक़म भी बढ़ाए जाने की व्यवस्था हो जानी चाहिए.
मैं अपने क्रांतिकारी विचारों से अन्धविश्वास की बुनियाद हिलाना तो बहुत चाहता था पर क्या करूं, मजबूरी है. पिछले गंगा-स्नान के बाद से किये गए मेरे पापों को राइट ऑफ़ कराने के लिए आज मेरा गंगा-स्नान करना ज़रूरी है. गंगा जी तक जाने के लिए मैंने जो टैक्सी मंगवाई थी, उसका ड्राइवर हॉर्न बजा-बजा कर परेशान कर रहा है. मुझको अब जाना ही होगा.

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

आपकी अदालत में कुमार विश्वास

आप की अदालत में कुमार विश्वास -
बहुत दिनों बाद यू ट्यूब पर 'आप की अदालत' में कुमार विश्वास का एपिसोड देखा. कुमार विश्वास की हाज़िर जवाबी, उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर और उनकी काव्य-प्रतिभा हमको बहुत प्रभावित करती है. किन्तु खुद को वर्तमान का अथवा भविष्य का दिनकर बनाने का उनका सपना पूरा होना बहुत मुश्किल है. महाकवि की श्रेणी में पहुँचने के लिए उनको दो-चार जन्म अभी और लेने होंगे.
राजनीति के क्षेत्र में कुमार विश्वास जब भी कोई पटखनी खाते हैं तो उनका कवि-रूप मुखर हो जाता है. इसलिए कुमार विश्वास के कवि-रूप के हम सब प्रशंसक दिल से यही चाहते हैं कि वो राजनीति के अखाड़े में बार-बार पटखनी खाएं और फिर कुंठा, अवसाद से भरी सुन्दर कविताओं की रचना कर, उन्हें हमको बार-बार सुनाएँ.
राजनीति के क्षेत्र में बार-बार धोबी-पछाड़ खाते और कभी भी अपनी मंजिल तक न पहुँच पाने वाले कुमार विश्वास को देखकर हमको पौराणिक पात्र त्रिशंकु की याद आ जाती है.
कुमार विश्वास की सबसे प्रसिद्द कविता 'कोई दीवाना कहता है' की ही बहर पर उनकी घुटन, उनकी चुभन, उनकी खीझ, उनके दिली जज़्बात पेशे-ख़िदमत हैं -
मैं प्यासा था, मैं प्यासा हूँ, मुझे प्यासा ही रहना है,
न कल घर था, न अब घर है, मुझे बेघर ही रहना है.
त्रिशंकु की कहानी को, अधर में, देखिए फिर से,
मैं लटका था, मैं लटका हूँ, मुझे लटका ही रहना है.

बुधवार, 10 जनवरी 2018

श्रद्धांजलि



श्रद्धांजलि -
टंडन - ‘हेलो मेहता जी, मैं टंडन बोल रहा हूँ.’
मेहता जी - ‘हाँ भाई, बोल टंडन, तू ने ऐसी कड़ाके की ठण्ड में सुबह सात बजे फ़ोन किया है तो ज़रूर कोई ख़ास बात होगी. बता, क्या बात है?’
टंडन - वो अपने दीनानाथ जी हैं न, भूतपूर्व मंत्री और वर्तमान विधायक, उनका कल रात देहांत हो गया.’
मेहता जी - 'क्या बात कर रहा है तू? क्या अनाप शनाप बक रहा है तू? कल शाम को तो मैंने उन्हें टीवी स्टार मनोरमा के फ्लैट से निकलते हुए देखा था.’
टंडन - ‘आप क्या अदालत में इस बात की गवाही दोगे?
मेहता जी – ‘मैं गवाही क्यों देने लगा? मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है?
टंडन – ‘ठीक है, तो फिर आप भूल जाइए कि कल आपने उन्हें किसके यहाँ जाते हुए और किसके यहाँ से निकलते हुए देखा था.’
मेहता जी – ‘लो भूल गया. बल्कि मैं तो कहूँगा कि दीनानाथ जी को मैंने पिछले एक महीने से नहीं देखा है.’
टंडन – ‘अच्छा ये सब छोड़िए. ये बताइए कि दीनानाथ जी के बंगले पर पहुंचना कब है. अब तो न्यूज़ चेनल्स पर भी वही छाए हुए हैं.’
मेहताजी – ‘यार ! पत्नी तो आज सुबह पालक के पकौड़े बनाकर खिलाने वाली थी.’
टंडन - मैं स्कूटर से 5 मिनट में आपके घर पहुँच रहा हूँ और फिर अगले 10 मिनट में मैं आपको लेकर दीनानाथ जी के बंगले के लिए निकल रहा हूँ.’
मेहता जी – ‘मान्यवर ! इस शोक की वेला में मेरे घर पर दस मिनट रुक कर आप क्या करेंगे?’
टंडन – ‘हुज़ूर ! मुझे भी भाभी जी के हाथ के पालक के पकौड़े बहुत अच्छे लगते हैं.’
आधे घंटे के बाद -
मेहता जी – ‘यार टंडन, यहाँ तो पूरा शहर उमड़ा पड़ा है और प्रेस वाले भी मधुमक्खियों के छत्ते जैसे टूटे पड़ रहे हैं.’
टंडन – ‘गुरुदेव ! आप की तो बहुत पहुँच है. इस शोक की वेला में किसी न्यूज़ चेनल वाले फोटोग्राफर का कैमरा हमारी तरफ़ भी मुड़वा दो. खुद का चेहरा न्यूज़ चेनल पर देख लेंगे तो आप को दुआ देंगे.’
मेहता जी – पापी ! तू कभी सुधरेगा नहीं. ठहर, वो वर्तमान न्यूज़ चेनल का भाटिया दिखाई दे रहा है. उस से कहता हूँ कि वो हमको भी कवर कर ले.’
टंडन  - ‘आप धन्य हैं गुरुदेव ! आपकी कृपा से हम भी टीवी स्टार बन जाएँगे.’
मेहता जी बच्चे ! सिर्फ़ धन्य हैं, कहने से काम नहीं चलेगा. अगर तेरा चेहरा वर्तमान न्यूज़ पर दिख गया तो तू अगले सन्डे हमको रम पिलाएगा.’
टंडन – पक्का ! रम, वो भी तले हुए काजुओं के साथ.’
मेहता जी – लो तुम्हारी सती मनोरमा दिखाई पड़ गईं. वाह ! कितना बढ़िया रोती है !’
टंडन किस पार्लर का कमाल है कि आंसुओं से इसका मेकअप ज़रा भी धुलता नहीं?’
मेहता जी – श्रीमती दीनानाथ को देखो.  कैसे खा जाने वाली नज़रों से सती मनोरमा को देख रही हैं?’
टंडन – पत्नी का घूरना तो बनता है. संत दीनानाथ ने अपना एक लक्ज़री फ्लैट और एक पेट्रोल पम्प जो इस भक्तिन के नाम कर दिया है.’
मेहता जी – दीनानाथ जी के सपूत कहीं नहीं दिखाई दे रहे.’
टंडन – वो बेचारा रात में अफ़ीम खाकर सुबह दस बजे तक उठता है. अपने पापा के प्रस्थान करने से पहले तो उठ ही जाएगा.’
मेहता जी – यार टंडन, बड़ी ठण्ड है. चाय की तलब लग रही है.’
टंडन – आप भी गुरुदेव नमूना हो. भाभी जी ने पकौड़ों के साथ हमको चाय भी तो सर्व की थी पर आप मानोगे थोड़ी. अब चुपके से चलिए, नुक्कड़ वाले गोपाल के यहाँ की स्पेशल चाय पीते हैं.’
मेहता जी – दीनानाथ जी के बंगले के अन्दर ये शोर कैसा है? ज़रा जाकर पता करो.’
(टंडन बंगले के अन्दर जाकर पता करता है)   
टंडन – दीनानाथ जी के सपूत जाग गए हैं और अब वो अपनी माँ और माँ समान मनोरमा जी से झगड़ा कर रहे हैं.’
मेहता जी – ऐसे वक़्त में झगड़ा?’
टंडन – ये कुर्सी के लिए त्रिकोणात्मक संघर्ष है गुरुदेव ! दिवंगत की विधायक वाली सीट किसे मिलेगी? पिनकची बेटे को, झगड़ालू पत्नी को, या फिर उनकी प्रेमिका को?’
मेहता जी – भई, हमको तो मनोरमा पसंद है.’
टंडन – वो तो शहर के आधे नौजवानों की पसंद है. आप पके आम, इस स्वयंवर में कहाँ से आ टपके?’
मेहताजी – नालायक कहीं के ! अपने गुरु की टांग खींचते हो? अच्छा, ये सब छोड़ो. ये बताओ कि ये गुप्ता बिल्डर इतने दहाड़ मार मार कर क्यों रो रहा है?’
टंडन – अपनी जनरल नौलिज अपडेट रक्खा करिए गुरुदेव ! गुप्ता ने अपने होटल में जो पब्लिक पार्क की ज़मीन दबा ली थी, उसको होटल के नाम कराने के लिए उसने दीनानाथ जी को बीस लाख रूपये एडवांस में दिए थे. अब वो रूपये डूब गए हैं तो क्या बेचारा रोएगा भी नहीं?’
मेहता जी – ‘चलो इंतज़ार की घड़ियाँ समाप्त हुईं. दीनानाथ जी की साज-सज्जा पूरी हुई. अब श्मशान घाट के लिए चलना है.
टंडन – ‘अपन स्कूटर से ही चलते हैं. हम थोड़ा पहले पहुँच जाएंगे तो स्कूटर पार्क करने में सहूलियत होगी.’
मेहता जी – चल भई, ये ज़िन्दगी हमने तेरे नाम कर दी.’
पंद्रह मिनट बाद -
टंडन – अरे, ये तो रिवोली आ गया. अब बताइए, श्मशान घाट के रास्ते में सिनेमा ! क्या प्लानिंग है इस शहर की?
मेहता जी – ‘हाय ! इसमें तो गंगा जमुना लगी है.’
टंडन - गुरुदेव ! आप ये हाय, दीनानाथ जी के आकस्मिक निधन पर कर रहे हैं या रिवोली में इस वक़्त फ़िल्म गंगा जमुना लगाए जाने पर?
मेहता जी – गंगा जमुना को मैं दस बार देख चुका हूँ.’
टंडन - और आज उसे शायद आप ग्यारहवीं बार देखने वाले हैं.’
मेहता जी – अरे पापी ! क्या तू मुझे दीनानाथ जी के समर्थकों से जूते पड़वाएगा?’
टंडन – किसी को पता नहीं चलेगा. ग्यारह से दो का शो है. लोगबाग श्मशान घाट से जब लौट रहे होंगे तो हम भी उस भीड़ में शामिल हो जाएंगे. पर फ़िल्म की टिकट आपकी तरफ़ से होनी चाहिए.’
मेहताजी – ‘दिलीप कुमार की फ़िल्म देखने के लिए तो मैं कोई भी क़ुरबानी करने को तैयार हूँ.’
टंडन – ‘हमको यह गुनाह सबकी नज़रों से बचाकर करना है.’
मेहता जी – अगर दीनानाथ जी का कोई और भक्त भी इस वक़्त इस सिनेमा हॉल में दिख गया तो?’
टंडन – आप ने क्या वो मसल नहीं सुनी? - चोर चोर, मौसेरे भाई.’
मेहता जी – तुम स्कूटर स्टैंड पर खड़ा करो. मैं फ़िल्म की टिकट लेकर आता हूँ. वैसे ऐसा पाप करते हुए मुझे बहुत शर्म आ रही है.’
टंडन – आप क्यों शर्मिंदा होते हैं गुरुदेव? इसमें सारा कुसूर तो दिलीप कुमार का है. हमने उनसे थोड़ी कहा था कि वो इस वक़्त अपनी सबसे अच्छी फ़िल्म श्मशान घाट के रास्ते में पड़ने वाले इस सिनेमा हॉल में लगवा लें?’          

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

तीन तलाक़

तीन तलाक़ -
बीजेपी ने लोकसभा में तीन तलाक़ बिल पास करा लिया है और देर-सवेर इसे किसी न किसी तरह राज्यसभा में भी पारित करा लेगी. कांग्रेस राज्यसभा में इसके पारित होने में अड़ंगे लगा रही है पर उसकी ये कोशिश नाकाम ही होगी. इस सुधारवादी प्रयास के लिए बीजेपी को बधाई दी जानी चाहिए. 
ऐसा दावा किया जा रहा है कि अन्यायपूर्वक तलाक़ दी जाने वाली, अपने अरमानों का दम तोड़ती मुस्लिम महिलाओं के लिए, यह नया क़ानून सम्मान और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा की संजीवनी सिद्ध होगा पर क्या वाक़ई ऐसा होगा? क्या वाक़ई इस नए क़ानून से शौहर की बेकाबू बेवफ़ाई, उसकी हेकड़ी, उसके ज़ुल्म, उसकी ऐयाशी, वगैरा पर लगाम कसेगी?
तीन तलाक़ की प्रथा के खिलाफ़ इस नए क़ानून को इसके समर्थक राजा राममोहन रॉय के सती प्रथा को एक अपराध घोषित करवाने के अभियान से, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विधवा विवाह को मान्यता दिलाने के प्रयास से और हरविलास शारदा के बाल विवाह के विरुद्ध क़ानून बनवाने से जोड़कर देख रहे हैं.
मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ और भारतीय इतिहास की मुझे थोड़ी बहुत जानकारी भी है. मुझे इस तीन तलाक़ बिल से उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में श्री बी एम माल्बरी द्वारा बाल विवाह के विरुद्ध और बालिका वधू से पति द्वारा शारीरिक सम्बन्ध बनाए जाने के विरूद्ध ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के माध्यम से क़ानून बनाए जाने के प्रयास की असफलता याद आ रही है. श्री माल्बरी के ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के विरुद्ध सबसे मुखर स्वर लोकमान्य तिलक का था. तिलक महाराज का कहना था कि इस विदेशी सरकार को हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है. अपनी सामाजिक कुरीतियों को हिन्दू स्वयं दूर करेंगे. इस – ‘Reform within’ की अहमियत को अन्य सुधारकों ने भी समझा था. उत्तर भारत में ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के खिलाफ़ आन्दोलन छेड़ा गया था. समकालीन हिंदी पत्रों – ‘ब्राह्मण’, ‘भारत जीवन’ आदि में इसके विरुद्ध लेख छापे जाते थे और महाराजा दरभंगा ने तो इसके विरुद्ध सरकार को एक याचिका भी दी थी. अदालत में बहू-बेटियों को घसीटने के इस क़ानून के खिलाफ़ अनेक हिन्दू संगठन एकजुट हो गए थे. 
आज ‘एज ऑफ़ कंसेंट बिल’ के विरुद्ध आन्दोलन के 125 साल बाद तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने के समय भी लगभग वैसी ही स्थिति आ गयी है. क्या इस नए क़ानून के बनते ही शौहरों द्वारा अन्यायपूर्वक तलाक़ दी गयी खवातीनों के गर्दिश के दिन दूर हो जाएंगे? क्या उन्हें ता-उम्र अपने समाज में सम्मान मिलता रहेगा? क्या उन्हें आर्थिक सुरक्षा भी मिल जाएगी? और अगर समाज तीन तलाक़ के खिलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाली खवातीनों का बहिष्कार करता है तो क्या सरकार उनकी मदद के लिए हर बार आएगी?
बीजेपी की सरकार को खुद को पहले सभी क्षेत्रों में मुसलमानों का रहनुमा बनकर दिखाना होगा, उसे उनका दिल और उनका विश्वास जीतना चाहिए, फिर उसके बाद मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध क़ानून बनाने की बात को सोचना चाहिए. 
मदरसों को आधुनिक बनाए जाने के प्रयास और तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने से पहले ऐसा करना ज़रूरी है. अपने हर मुस्लिम विरोधी को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने वालों पर पाबंदी लगाए बिना अगर सरकार मुस्लिम समाज का भला भी करेगी तो उसकी सदाशयता पर विश्वास कौन करेगा?
बीजेपी की ओर से लोकसभा के चुनाव में एक भी मुसलमान जीता नहीं है. उत्तर प्रदेश की विधान सभा में बीजेपी का एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है. और लोकसभा चुनाव में हारने वाले शाहनवाज़ खान जैसे वफ़ादार को राज्यसभा में स्थान तक नहीं दिया गया है, क्या इसके बाद भी वह खुद को मुसलमानों का हिमायती कह सकती है? 
अब तो तीन तलाक़ की शिकार इशरत जहाँ बीजेपी में शामिल हो गयी है, उसी को राज्यसभा भेजकर वह मुसलमानों के प्रति अपना सदाशय सिद्ध कर सकती है. तीन तलाक़ की पुरानी पीड़िताओं के पुनर्वास के सार्थक प्रयासों से भी सरकार मुसलमानों का दिल जीत सकती है. 
गो मांस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना मुसलमानों को रास नहीं आया है. गाय के चमड़े पर जिनकी रोज़ी रोटी चलती थी उनके बेरोज़गार होने पर उनके पुनर्वास के लिए सरकार ने क्या कुछ भी किया है? क्या उसने स्व-घोषित गो-रक्षकों की दादागिरी रोकने के लिए कोई ठोस क़दम उठाया है? 
ऐसे बहुत से मसले हैं पर इस पर विचार करने की फुर्सत किसे है? अब आम चुनाव में महज़ 16 महीने बचे हैं. अब तो हिन्दू वोट जीतने की वेला है. तीन तलाक़ के विरुद्ध क़ानून बनाए जाने से मुस्लिम वोट शर्तिया कटेंगे पर उम्मीद है कि उस से कई गुने अतिरिक्त हिन्दू वोट बीजेपी की झोली में पड़ जाएंगे. 
भगवान करे कि मेरी ये सभी आशंकाएं निर्मूल सिद्ध हों. इस क़ानून से वाक़ई अन्यायग्रस्त मुस्लिम महिलाओं को अगर क़ानूनी संरक्षण मिले इंसाफ़ मिले, आर्थिक सुरक्षा मिले, सम्मानपूर्वक जीने का हक़ मिले, तो मुझे खुद के गलत साबित होने पर बेहद खुशी होगी.