फ़िल्म 'पद्मावत'
आज सुबह फ़िल्म 'पद्मावत' 3 डी में देखी. बहुत ही भव्य फ़िल्म है और बहुत मेहनत से बनाई गयी है. फ़िल्म देखकर लगा कि अगर महारानी पद्मावती की भूमिका निभाने के लिए कोई सुपात्र हो सकती थी तो वो सिर्फ़ दीपिका पादुकोण ही हो सकती थी.
रणवीर सिंह ने अलाउद्दीन खिलजी के खल पात्र को बखूबी निभाया है. उसके चेहरे से, उसके हर संवाद से, दरिंदगी टपकती है लेकिन उसे नाचते-गाते दिखाना हास्यास्पद लगा.
रावल रतन सिंह की भूमिका में शाहिद ठीक-ठाक है. रावल रतन सिंह का किरदार इतना कमज़ोर दिखाया गया है कि शायद कोई महान अभिनेता भी उसकी भूमिका करके वाहवाही नहीं लूट सकता था.
भंसाली फ़िल्म की कहानी में गहराई लाने में असफल रहे हैं. जायसी की 'पद्मावत' में रतन सेन की बड़ी रानी नागमती दूसरी नायिका के रूप में प्रस्तुत की गयी है किन्तु इस फ़िल्म में तो बड़ी रानी कोई एक्स्ट्रा कलाकार लगती है.
अलाउद्दीन की बेगम के रूप में अदिति राव हैदरी बहुत अच्छी लगी है और सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के रूप में रज़ा मुराद भी.
मालिक काफ़ूर अपनी ख़ूबसूरती के लिए इतना विख्यात था कि गुलामों के बाज़ार से उसे हज़ार दीनार में ख़रीदा गया था. इस रोल को कार्टून वाली शक्ल वाले जिम सार्भ को देना उचित नहीं था पर इस कलाकार ने अभिनय बहुत अच्छा किया है.
गोरा और बादल के चरित्रों को और उभारे जाने की आवश्यकता थी और महारानी पद्मावती दो-चार बार तलवार और तीर (हिरन का असफल शिकार करने के अलावा) चलाते हुए भी दिखा दी जाती तो क्या हर्ज़ था?
अलाउद्दीन खिलजी के मुंह से 'इतिहास' शब्द कहलवाना मुझे ठीक नहीं लगा. इसके स्थान पर 'तारीख़' शब्द होता तो बेहतर होता.
चितौड़ से सम्बद्ध पात्रों की भाषा पर मेवाड़ी प्रभाव अच्छा लगता है.
फ़िल्म में बलिस्ता से आग के गोले फेंकने के दृश्य दिल दहला देने वाले हैं.
जौहर का दृश्य भव्य और मार्मिक है. भले ही इस कहानी में अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए जौहर करने के लिए स्त्रियाँ बाध्य हो गयी थीं किन्तु जौहर की प्रथा का अनावश्यक गुणगान तो फ़िल्म में है ही. जौहर के लिए जाती हुई महिलाओं में एक गर्भवती स्त्री भी दिखाई गयी है जो कि जौहर की प्रथा के विरुद्ध है. पर यह क्या कम है कि स्त्रियों को आग में कूदते हुए नहीं दिखाया गया है और फ़िल्म में जगह-जगह सती मैया के चौरे नहीं दिखाए गए हैं.
फ़िल्म में घूमर नृत्य का फ़िल्मांकन बहुत ही खूबसूरत है.
फ़िल्म का संगीत मधुर है. घूमर गीत और होली गीत तो बहुत ही सुन्दर हैं.
अब आती है बात फ़िल्म पर उठे विवाद की. तो उस पर मुझे कहना है कि अगर करणी सेना वाले आज भी यह फ़िल्म ठन्डे दिमाग से बिना पूर्वाग्रह के देखेंगे तो उन्हें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगेगा. पर मुझे तो अब उनका विरोध किसी के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम लग रहा है.
मुझे अपने उन सभी मित्रों से शिकायत है जिन्होंने फ़िल्म को बिना देखे ही उसके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी कर दिया है. फेसबुक पर अनेक विद्वान इस फ़िल्म के विरोध में सैकड़ों पोस्ट डाल चुके हैं और अब भी डाल रहे हैं.
अराजकतावादी तत्वों और अवसरवादी नेताओं द्वारा इस फ़िल्म के विरोध और तोड़फोड़ पर कोई टिप्पणी करना तो अपना समय और अपना दिमाग ख़राब करना है. आगामी चुनाव को देखते हुए नेताओं और उनके मुसाहिबों से और कैसे व्यवहार की आशा की जा सकती है?
महारानी पद्मावती की भूमिका में दीपिका बहुत ही शालीन और गरिमावान और मधुबाला से भी अधिक सुन्दर लगी है. उसका विवादित घूमर नृत्य भी बहुत शालीन और सुरुचिपूर्ण है.
यह फ़िल्म झूठी राजपूती आन-बान-शान का ढोल पीटती नज़र आती है. राजपूत आपस में लड़ते-मरते थे, अपनी सीमा सुरक्षा की कोई चिंता नहीं करते थे, दुश्मन को मारने का मौक़ा अपनी दरियादिली के नाम पर हाथ से जाने देते थे. हर अवसर को खोने वाले ऐसे अव्यावहारिक बहादुरों की जैसी गति हुई, उसके अलावा और कैसी गति की आशा की जा सकती थी?
अब समय आ गया है कि हम राजपूत चारणों, दरबारी कवियों और जेम्स टॉड के ग्रंथों की राजपूत-प्रशस्ति के ख़ुमार से बाहर आएं.
मुझे तो भंसाली की फ़िल्म भी इसी प्रकार की राजपूत-प्रशस्ति की एक प्रतिनिधि कृति लगी. बेचारे पर बिना बात राजपूती आन-बान-शान का शत्रु होने का इल्ज़ाम लगा दिया गया है.
आज सुबह फ़िल्म 'पद्मावत' 3 डी में देखी. बहुत ही भव्य फ़िल्म है और बहुत मेहनत से बनाई गयी है. फ़िल्म देखकर लगा कि अगर महारानी पद्मावती की भूमिका निभाने के लिए कोई सुपात्र हो सकती थी तो वो सिर्फ़ दीपिका पादुकोण ही हो सकती थी.
रणवीर सिंह ने अलाउद्दीन खिलजी के खल पात्र को बखूबी निभाया है. उसके चेहरे से, उसके हर संवाद से, दरिंदगी टपकती है लेकिन उसे नाचते-गाते दिखाना हास्यास्पद लगा.
रावल रतन सिंह की भूमिका में शाहिद ठीक-ठाक है. रावल रतन सिंह का किरदार इतना कमज़ोर दिखाया गया है कि शायद कोई महान अभिनेता भी उसकी भूमिका करके वाहवाही नहीं लूट सकता था.
भंसाली फ़िल्म की कहानी में गहराई लाने में असफल रहे हैं. जायसी की 'पद्मावत' में रतन सेन की बड़ी रानी नागमती दूसरी नायिका के रूप में प्रस्तुत की गयी है किन्तु इस फ़िल्म में तो बड़ी रानी कोई एक्स्ट्रा कलाकार लगती है.
अलाउद्दीन की बेगम के रूप में अदिति राव हैदरी बहुत अच्छी लगी है और सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के रूप में रज़ा मुराद भी.
मालिक काफ़ूर अपनी ख़ूबसूरती के लिए इतना विख्यात था कि गुलामों के बाज़ार से उसे हज़ार दीनार में ख़रीदा गया था. इस रोल को कार्टून वाली शक्ल वाले जिम सार्भ को देना उचित नहीं था पर इस कलाकार ने अभिनय बहुत अच्छा किया है.
गोरा और बादल के चरित्रों को और उभारे जाने की आवश्यकता थी और महारानी पद्मावती दो-चार बार तलवार और तीर (हिरन का असफल शिकार करने के अलावा) चलाते हुए भी दिखा दी जाती तो क्या हर्ज़ था?
अलाउद्दीन खिलजी के मुंह से 'इतिहास' शब्द कहलवाना मुझे ठीक नहीं लगा. इसके स्थान पर 'तारीख़' शब्द होता तो बेहतर होता.
चितौड़ से सम्बद्ध पात्रों की भाषा पर मेवाड़ी प्रभाव अच्छा लगता है.
फ़िल्म में बलिस्ता से आग के गोले फेंकने के दृश्य दिल दहला देने वाले हैं.
जौहर का दृश्य भव्य और मार्मिक है. भले ही इस कहानी में अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए जौहर करने के लिए स्त्रियाँ बाध्य हो गयी थीं किन्तु जौहर की प्रथा का अनावश्यक गुणगान तो फ़िल्म में है ही. जौहर के लिए जाती हुई महिलाओं में एक गर्भवती स्त्री भी दिखाई गयी है जो कि जौहर की प्रथा के विरुद्ध है. पर यह क्या कम है कि स्त्रियों को आग में कूदते हुए नहीं दिखाया गया है और फ़िल्म में जगह-जगह सती मैया के चौरे नहीं दिखाए गए हैं.
फ़िल्म में घूमर नृत्य का फ़िल्मांकन बहुत ही खूबसूरत है.
फ़िल्म का संगीत मधुर है. घूमर गीत और होली गीत तो बहुत ही सुन्दर हैं.
अब आती है बात फ़िल्म पर उठे विवाद की. तो उस पर मुझे कहना है कि अगर करणी सेना वाले आज भी यह फ़िल्म ठन्डे दिमाग से बिना पूर्वाग्रह के देखेंगे तो उन्हें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगेगा. पर मुझे तो अब उनका विरोध किसी के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम लग रहा है.
मुझे अपने उन सभी मित्रों से शिकायत है जिन्होंने फ़िल्म को बिना देखे ही उसके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी कर दिया है. फेसबुक पर अनेक विद्वान इस फ़िल्म के विरोध में सैकड़ों पोस्ट डाल चुके हैं और अब भी डाल रहे हैं.
अराजकतावादी तत्वों और अवसरवादी नेताओं द्वारा इस फ़िल्म के विरोध और तोड़फोड़ पर कोई टिप्पणी करना तो अपना समय और अपना दिमाग ख़राब करना है. आगामी चुनाव को देखते हुए नेताओं और उनके मुसाहिबों से और कैसे व्यवहार की आशा की जा सकती है?
महारानी पद्मावती की भूमिका में दीपिका बहुत ही शालीन और गरिमावान और मधुबाला से भी अधिक सुन्दर लगी है. उसका विवादित घूमर नृत्य भी बहुत शालीन और सुरुचिपूर्ण है.
यह फ़िल्म झूठी राजपूती आन-बान-शान का ढोल पीटती नज़र आती है. राजपूत आपस में लड़ते-मरते थे, अपनी सीमा सुरक्षा की कोई चिंता नहीं करते थे, दुश्मन को मारने का मौक़ा अपनी दरियादिली के नाम पर हाथ से जाने देते थे. हर अवसर को खोने वाले ऐसे अव्यावहारिक बहादुरों की जैसी गति हुई, उसके अलावा और कैसी गति की आशा की जा सकती थी?
अब समय आ गया है कि हम राजपूत चारणों, दरबारी कवियों और जेम्स टॉड के ग्रंथों की राजपूत-प्रशस्ति के ख़ुमार से बाहर आएं.
मुझे तो भंसाली की फ़िल्म भी इसी प्रकार की राजपूत-प्रशस्ति की एक प्रतिनिधि कृति लगी. बेचारे पर बिना बात राजपूती आन-बान-शान का शत्रु होने का इल्ज़ाम लगा दिया गया है.