शनिवार, 14 जनवरी 2023

एक महीना चार तारीख़ें

 पहली तारीख़ –

प्रभात
आज मैंने अपनी पीएच०डी० थीसिस सबमिट कर दी. मेरी ख़ुशी की कोई इंतिहा नहीं थी लेकिन मेरे गुरु जी, मेरे गाइड, मेरे आदर्श, प्रोफ़ेसर मेहता, मेरे सर, ने अपने चरणों में झुके हुए इस नाचीज़ के कानों में जैसे कोई बम फोड़ते हुए कहा –
‘बरखुरदार, आज से तुम्हारी फ़ेलोशिप बंद हो जाएगी.’
मेरे तो प्राण ही निकल गए. मैं मन ही मन सोच रहा था -
‘अम्मा-बाबूजी ने मुझे इस मुक़ाम तक पहुंचाने में अपनी हर छोटी-बड़ी ज़रुरत की कुर्बानी दी है और अपने तीस बीघा खेत में से दस बीघा खेत बेच दिए हैं. इधर मैं हूँ कि उस नुक्सान को अब और बढ़ाने वाला हूँ.’
लेकिन तभी सर ने मेरे कानों में मिस्री घोलते हुए कहा –
‘कल से तुम हमारे डिपार्टमेंट में एक लेक्चरर की ज़िम्मेदारी सँभाल रहे हो. ये रहा तुम्हारा अपॉइंटमेंट लैटर !’
मेरे कानों में जैसे मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं. सर ने इसके आगे क्या कहा, मुझको इसकी कोई खबर ही नहीं हुई.
अम्मा की पैबंद लगी धोती की जगह कोई अच्छी सी साड़ी, उनके शरीर पर मंगल सूत्र के अलावा सभी बेचे गए गहनों में से कम से कम दो-चार की वापसी, बाबू जी के घर में ही रफ़ू किए गए कुर्ते की जगह राजेश खन्ना के स्टाइल वाला कुर्ता और उनकी टूटी-फूटी साइकिल की जगह चमचमाती मोटर साइकिल, बारिश के मौसम में टपकती छत और दरार पड़ी दीवारों वाले हमारे घर का पूर्ण-जीर्णोद्धार, और फिर उसी घर में प्रवेश करती, दुल्हन बनी लजाती-सकुचाती, मुस्काती रजनी !
ये सब के सब अधूरे सपने, एक साथ ही मेरी आँखों में तैरने लगे थे.
सर से विदाई लेकर मैंने जब सबसे पहले यह खुशखबरी जगन चाचा के घर ट्रंक कॉल कर के अम्मा-बाबूजी को सुनाई तो उनकी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. पचास रूपये का ट्रंक कॉल करने में जेब हल्की ज़रूर हुई और फिर रजनी के साथ जश्न मनाने में भी पचास रुपयों की एक्स्ट्रा चोट लग गयी लेकिन आज के दिन इन सब का क्या अफ़सोस करना?
अब तो रात के दस बज रहे हैं. हॉस्टल पहुँच कर अम्मा की भेजी हुई मठरियां खाते हुए अपने पहले लेक्चर की तैयारी कर लेता हूँ, क्या मालूम कि बिना कोई नोटिस दिए हुए ही, हमारे सर, कल ही मुझे स्टूडेंट्स को सुपुर्द कर दें !
अब देखिए, फ़िल्म ‘अंदाज़’ के इन राजेश खन्नाओं को !
बिना लाइट जलाए, हवाई जहाज की स्पीड से मोटर साइकिल चलाते हुए इनको न तो अपना कोई ख़याल है और न ही राह चलते किसी और का.
लेकिन ये पलट कर क्यों आ रहे हैं?
हे भगवान ! पीछे बैठे लड़के ने ये क्या निकाला?
हाय ! इन्होने मुझे गोली क्यों मारी?
अम्मा ! अम्मा ! बाबूजी ! रजनी ----------
दसवीं तारीख –
प्रोफ़ेसर मेहता
क्या से क्या हो गया?
अपने टीचिंग प्रोफ़ेशन के तीस साल में मैंने प्रभात जैसा ब्राइट और डेडिकेटेड स्टूडेंट कोई नहीं देखा है.
सच में गुदड़ी का लाल है यह लड़का! कुछ ही वक़्त के बाद इसे हमारे रिसर्च-प्रोजेक्ट के सिलसिले में अमेरिका भी तो जाना है. रजनी से इसकी शादी भी तो होनी है.
इसको लेकर इसके अम्मा-बाबूजी ने क्या-क्या सपने देखे होंगे?
इसकी और रजनी की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है? लेकिन अब क्या होगा?
नौ दिन में इसके तीन ऑपरेशन तो हो चुके हैं, इसको 37 बोतल तो खून चढ़ चुका है. तीन दिन तो यह कोमा में रहा है.
कौन लोग थे जिन्होंने इसे गोली मारी?
इसकी तो किसी से दुश्मनी नहीं थी. गाँव का भोला-भाला, सिर्फ़ पढ़ाई से मतलब रखने वाला, गरीब घर का लड़का जो कि ऊंचे स्वर में बोलना तक नहीं जानता. पुलिस कह रही है कि स्टूडेंट यूनियन के किसी नेता के धोखे में इसे गोली मारी गयी है. अब अपराधी पकड़े जाएं और उन से पूछताछ कर के असलियत पता भी चल जाए तो जो अनहोनी प्रभात के साथ हुई है उसकी भरपाई तो नहीं होगी.
वैसे डॉक्टर्स बहुत होपफ़ुल हैं. बहुत जल्दी रिकवर कर रहा है, हमारा ज़ख़्मी शेर.
एक महीना अस्पताल में बिता कर जब प्रभात डिपार्टमेंट में वापस आएगा तो हम सब जश्न मनाएंगे.
यूनिवर्सिटी इसके इलाज का पूरा खर्चा उठा रही है. इसको खून देने के लिए मेडिकल कॉलेज में लड़के-लड़कियों का हुजूम उमड़ पड़ा था. कितनों की दुआएं इस मासूम के साथ हैं !
इसके अम्मा-बाबूजी और रजनी तो हॉस्पिटल से रोज़ मंदिर जाते हैं. मैं बरसों से मंदिर नहीं गया था लेकिन इसकी वजह से मुझ जैसा नास्तिक भी संकट मोचक के दरबार में कई बार हाज़री लगा चुका है.
हे भगवान ! सब मंगल करना !
बीसवीं तारीख़ –
रजनी
आज डॉक्टर मित्तल ने ऐसी खबर सुनाई है जिसका हम सब को पिछले 19 दिनों से इंतज़ार था. अम्मा-बाबूजी का बबुआ और मेरा प्रभात अब एक हफ़्ते में हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो जाएगा.
लखनऊ मेडिकल कॉलेज की हिस्ट्री में यह ऐसा पहला केस होगा जिस में कि इतने ज़्यादा ब्लड-लॉस के बाद किसी की रिकवरी हुई हो.
प्रभात ने तो आज तक किसी चींटी का भी दिल नहीं दुखाया होगा. उस बेक़सूर को भला भगवान जी क्यों सज़ा देंगे?
अब हमारी दुआएं तो क़ुबूल होनी ही थीं.
सब कुछ ठीक हो जाएगा. हाँ, यह ज़रूर है कि इस में काफ़ी वक़्त लगेगा. लेकिन मेरा हीरो लेक्चरर भी बनेगा और अमेरिका भी जाएगा.
प्रभात का सपना कि मैं उसके घर में दुल्हन के भेस में प्रवेश कर रही हूँ और अम्मा मेरी आरती उतार रही हैं, यह भी ज़रूर पूरा होगा.
अभी तो प्रभात की थीसिस तैयार करवाने में अपने रोल का उस से एक ज़बर्दस्त इनाम भी तो मुझे लेना है. उसकी और मेरी फ़ेलोशिप का एक बड़ा हिस्सा तो हमारी रिसर्च की ही भेंट चढ़ जाता था लेकिन अब तो उसकी सेलरी हमारी हसरतें पूरी करने का जरिया बनेगी.
आख़िर कब तक हम पैदल परेड करेंगे या रिक्शे में बैठ कर उस में हिचकोले खाते रहेंगे?
ऑलमोस्ट डॉक्टर प्रभात और उनकी वुड भी डॉक्टर रजनी का जोड़ा एक मोटर साइकिल तो डिज़र्व करता ही है.
हनीमून के लिए प्रभात को मुझे स्विट्ज़रलैंड में आल्प्स की पहाड़ियों में नहीं, तो कम से कम श्री नगर की हसीन वादियों में तो ज़रूर ही ले जाना पड़ेगा.
लेकिन अपने इन तमाम सपनों पर मुझे ब्रेक लगाना पड़ेगा.
मम्मी-पापा तो देहरादून से आकर एक तरह से लखनऊ में ही बस गए थे. दोनों प्रभात पर जान छिड़कते हैं. मैंने ही ज़बर्दस्ती उन्हें वापस देहरादून भेजा है.
प्रभात के पूरी तरह से रि-कवर करते ही मम्मी-पापा हमारी शादी की प्लानिंग कर रहे हैं. अम्मा-बाबूजी की तो यही सबसे बड़ी हसरत है.
सच ! कितना अच्छा लगता है जब किसी लड़की के मम्मी-पापा उसकी पसंद के लड़के को और किसी लड़के के अम्मा-बाबूजी उसकी पसंद की लड़की को अपनी पसंद बनाकर निहाल होते हों !
मैं कितनी लकी हूँ !
तीसवीं तारीख –
अम्मा
जय हो बजरंग बली ! आज मेरा बबुआ अस्पताल से छुट्टी पा जाएगा.
भगवान भला करे डागदर मित्तल का ! वो मेरे बबुआ को मौत के चंगुल से छुड़ा कर लाए हैं.
अब तो बबुआ बिस्तर से खुद उठ कर गुसलखाने चला जाता है और रजनी का हाथ पकड़ के बरामदे में थोड़ा घूम भी लेता है.
मेरा बबुआ राजी-खुसी घर पहुँच जाए तो मैं और बबुआ के बाबूजी चारों धाम की जात्रा करेंगे.
बबुआ और रजनी की जोड़ी तो राम-सीता की जोड़ी लगती है. कितना प्यार है, इनका आपस में !
रजनी का बस करे तो वो बबुआ को छोड़ कर अस्पताल से कभी जाए ही नहीं पर वो तो मैं हूँ जो उसे ढकेल कर उसके हॉस्टल भेजती है.
इत्ते बड़े घर की लड़की, मुझ गंवार को अपनी माँ के जैसा मान देती है और बबुआ के बाबूजी की तो ऐसी सेवा करती है कि पूछो मत !
अब हमको दो-तीन महीने लखनऊ में ही किराए का घर लेकर रहना होगा. डागदर मित्तल कह रहे थे कि बबुआ को अभी वो लखनऊ से बाहर नहीं जानें देंगे.
थोड़ा कर्जा सर पर जरूर चढ़ जाएगा लेकिन अपने बबुआ की सेवा करने में हम कोई भी कोताही नहीं बरतेंगे.
5-10 बीघा खेत और भी बेचनें पड़ें तो क्या चिंता है?
हमारा बबुआ सलामत रहे, हमको और क्या चाहिए !
अब तो मैं बबुआ को घर के घी के बने पकवान खिलाऊँगी, उसे बादाम खिलाऊँगी, उसकी किसी भी दवा का कभी नागा नहीं होने दूंगी और जब तक वो पूरी तरह से तंदुरुस्त नहीं हो जाता, उसे कोई पढ़ाई-वड़ाई भी नहीं करने दूंगी.
धन्य हो प्रभु ! तुम्हारी किरपा से अब अस्पताल से अपना बोरिया बिस्तर बाँधने की सुभ घड़ी आ गयी है.
चलो जी, मंदिर में मत्था भी टिका आए, अब देखें कि हमारा बबुआ क्या कर रहा है !
हाय राम ! बबुआ के कमरे में इतने सफ़ेद कोट वाले काहे को भीड़ लगाए हैं?
कहीं मेरे बबुआ को कुछ हो तो नहीं गया?
हाय ! मेरे मुंह से ये क्या असुभ निकल गया?
हे राम जी ! हे संकट मोचक ! मेरे बबुआ की भली करियो ! वही हमारे जीवन की आस है !
डागदर साहब ! मेरे बबुआ को क्या हो गया?
आप कुछ बोलते क्यों नहीं?
अरे मेरे बबुआ का मुंह क्यों ढांप रहे हो तुम लोग?
इसको तो आज अस्पताल से छुट्टी मिलनी है.
मेरे मंदिर जाने तक तो ये भला-चंगा था.
डागदर साहब, आप मुझे मेरा बबुआ वापस कर दो.
मैं घर में ही उसकी रात-दिन सेवा कर के उसे ठीक कर लूंगी.
अरे ! मुझे छोड़ो ! मुझे बबुआ का मुंह तो देख लेने दो !
बबुआ के बाबूजी ! अपना सर मत पीटो, हमारा बबुआ अभी उठ खड़ा होगा.
ये तो मेरे हाथ से बजरंग बली का परसाद भी खाएगा.
इसकी नाक में रुई मत ठूंसो, इसको छींक आ जाएगी.
रजनी बिटिया ! ये क्या हो गया?
तेरी तपस्या क्या अकारथ चली गयी?
मेरा बबुआ ! मेरा लाल ! मेरा छौना !
मुझे छोड़ कर मत जा बेटा !
लौट आ बेटा ! लौट आ - - - - - !
(हमेशा की तरह प्रभात और रजनी इस कहानी में भी मिल नहीं पाए.
1970 के दशक में लखनऊ विश्वविद्यालय में हुए एक हादसे पर लिखी गयी यह कहानी लिखते समय न जाने कितनी बार मेरी ऑंखें छलक आई होंगी.
इस कहानी को मैंने कहानी के चार मुख्य पात्रों की ज़ुबानी कहलवाया है.)

रविवार, 8 जनवरी 2023

डील ही डील

 (1980 के दशक में लिखी गई मेरी यह रचना है तो मेरा एक संस्मरण ही लेकिन इसमें अपनी तरफ़ से मैंने मिर्च-मसाला कुछ ज़्यादा ही लगाया है इसलिए इसे पाठकगण एक कहानी ही समझें)

डील ही डील –
अल्मोड़ा में हमारे पड़ौसी, हमारे हम-उम्र, हमारे पक्के दोस्त, बिहारी बाबू एक केन्द्रीय शोध संस्थान में वैज्ञानिक थे.
उनका वर्तमान और भविष्य दोनों ही उज्जवल थे. उनके अपने ही शब्दों में –
‘मैं शहरे-अल्मोड़ा में ही क्या, पूरे कुमाऊँ में अपनी बिरादरी का मोस्ट एलिजिबिल बिहारी बैचलर हूँ.’
हमारे मित्र का शादी के बाज़ार में उस पुराने ज़माने में भी लाखों का भाव था.
चुंगी नाके के मुंशी के रूप में कार्यरत उनके बाबूजी एक अदद मोटी मुर्गी टाइप सुकन्या की तलाश में पिछले दो-तीन साल से लगे थे लेकिन लाख जतन करने पर भी उनके सारे सपने साकार करने वाली बहू उनको मिल नहीं रही थी.
बिहारी बाबू के बाबूजी को अपने सुपुत्र के दहेज में मिली रकम से अपनी एकमात्र कन्या का विवाह करना था लेकिन हमारे नायक ने अपने ही संस्थान की एक पंजाबी स्टेनोग्राफ़र से प्रेम की पींगे इतनी बढ़ा ली थीं कि बात शादी तक पहुँच गयी थी.
बिहारी बाबू के हम ख़ास मित्रगण तो उनकी प्रेमिका को बाक़ायदा ‘भाभी जी’ कह कर ही संबोधित करते थे.
हमारे दूरदर्शी मित्र ने अपनी कमाई का और अपनी भावी श्रीमती जी की कमाई का, जोड़ कर के एक से एक ऊंचे सपने बुन लिए थे लेकिन गरीब घर की इस स्टेनो-बाला के बाप के पास शादी में खर्च करने के लिए धेला भी नहीं था.
इधर बिहारी बाबू के बाबूजी को खाली हाथ आने वाली कमाऊ बहू भी क़तई स्वीकार नहीं थी क्योंकि सिर्फ़ उसकी तनख्वाह से बचे हुए पैसों के भरोसे तो उनकी बिटिया की शादी बरसों तक टल जानी थी.
आख़िरकार हमारे दोस्त के बाबूजी ने अपने सपूत के लिए एक मोटी मुर्गी फाँस ही ली.
अपने सपूत से बिना पूछे उन्होंने अपनी ही बिरादरी के एक महा-रिश्वतखोर इंजीनियर की कन्या से उनका रिश्ता पक्का कर दिया.
बिहारी बाबू ने मेरे घर आ कर अपने बाबूजी की इस तानाशाही के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का ऐलान कर दिया.
उन्होंने यह भी तय कर लिया था कि वो और उनकी प्रेमिका आर्य समाज मंदिर जाकर शादी कर लेंगे.
मेरी शुभकामनाएँ अपने दोस्त के साथ थीं लेकिन मुझे तब उनका यह ऐलान बड़ा ढुलमुल सा लगा जब उन्होंने इस क्रांतिकारी क़दम को उठाने से पहले अपने बाबूजी का अप्रूवल और आशीर्वाद लेना ज़रूरी समझा था.
मैं तो ख़ुद आर्यसमाज मन्दिर में जा कर अपने दोस्त की शादी में उनके बाप का रोल करने को तैयार था पर लगता था कि अपने हम-उम्र इंसान का बाप बनना मेरे नसीब में नहीं था.
फिर क्या हुआ?
फिर वही हुआ जो कि क़िस्सा-ए-बेवफ़ाई में हुआ करता है.
हमारे बिहारी बाबू चुपचाप बिहार जा कर शादी कर आए और हमको इसकी खबर उनके द्वारा लाए गए मिठाई के डिब्बे और साथ में आई उनकी नई-नवेली दुल्हन से मिली.
हमारी भाभी जी सूरत क़ुबूल थीं लेकिन कुछ ज़्यादा सांवली थीं और ऐसे दोहरे बदन वाली थीं जिसमें कि बड़ी आसानी दो बिहारी बाबू तो निकल ही सकते थे.
बातचीत में पता चला कि वो पढ़ाई में पैदल हैं और दो साल बी० ए० में अपना डब्बा गोल करने के बाद उन्होंने पढ़ाई से सदा-सदा के लिए सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है.
इस नए जोड़े से पहली मुलाक़ात में तो मैं दोनों के सामने शराफ़त का पुतला बना रहा लेकिन अगली ही मुलाक़ात में एकांत पा कर मैं अपने ज़ुबान-पलट दोस्त की छाती पर चढ़ कर उन से इस सेमी-अनपढ़ मुर्रा भैंस के लिए अपनी क़ाबिल स्टेनोग्राफ़र प्रेमिका के साथ की गयी बेवफ़ाई का सबब पूछ रहा था.
दो-चार मुक्के खा कर दोस्त ने क़ुबूला कि उनके ससुर ने उनके बाबूजी को नक़द दो लाख रूपये भेंट किये थे ताकि उनकी बिटिया की शादी धूम-धाम से हो जाए.
लेकिन मुझे पता था कि बहन की शादी की खातिर बिहारी बाबू अपने प्यार की क़ुर्बानी देने वाले नहीं थे.
मेरे द्वारा अपना गला दबाए जाने के बाद उन्होंने यह भी उगला कि उनके ससुर ने इस रिश्ते को क़ुबूल करने के लिए उन्हें अलग से एक लाख रूपये दिए थे और एक मोटर साइकिल भी दी थी.
इस तरह जब एक डील दोनों समधियों के बीच हुई और दूसरी डील ससुर-दामाद के बीच हुई, तब जाकर यह शादी संपन्न हुई.
एक बात अब भी मेरे समझ में नहीं आ रही थी कि हमारी इन भाभी जी ने हमारे उजबक बिहारी बाबू में ऐसा क्या देखा जो उन्होंने उनसे शादी करने के लिए अपनी रज़ामंदी दे दी.
हमारे बिहारी बाबू शक्लो-सूरत और पर्सनैलिटी से ऐसे लगते थे कि उन्हें देख कर कोई कह उठे –
‘आगे बढ़ो बाबा !’
बिहारी बाबू की ऐसी कबाड़ा शख्सियत और ऊपर से उनके परिवार की मुफ़लिसी, फिर अपने बाप की ऊपरी आमदनी पर दिन-रात ऐश करने वाली कोई लड़की कैसे इस बेमेल शादी के लिए राज़ी हो सकती थी?
जल्दी ही इस सवाल का जवाब भी मिल गया और इसका जवाब दिया हमारी भाभी जी की मम्मी जी ने जो कि पहली बार बेटी-दामाद का घर देखने अल्मोड़ा आई थीं.
आंटी जी बड़ी हंसमुख और बातूनी चीज़ थीं.
हमारी पहली मुलाक़ात में ही उन्होंने मेरे सामने अपने घर का पोल-खोल कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया –
‘बेटा ! तुमको एक बात बताएं !
अपनी बिटिया की सादी का हमको आज तक बड़ा अफसोस है.
हमने तो मेहमान (दामाद) को देखते ही रिजेक्ट कर दिया था.
जितने लद्धड़ ये अब लगते हैं तब ये उस से भी ज्यादा लद्धड़ लग रहे थे और फिर इनकी फॅमिली का दलिद्दर तो इन सबके कपड़ों से भी दिखाई दे रहा था.
हम तो लरका वालों को बैरंग ही लौटा देते पर हमारे साहब को बिटिया की सादी का बहुत जल्दी था.
कई लरका लोग इसको मोटा और सांवला कह के रिजेक्ट कर चुका था.
आखिर साहब का रिक्वेस्ट हम मान लिए.
मेहमान से बिटिया की सादी के लिए हम हाँ कर दिए लेकिन तब जब हमारे और हमारे उनके बीच एक डील हो गया !
साहब जब हमको बीस तोले का सोने का करधनी बनवा दिए और हमको कस्मीर-ट्रिप कराने का प्रॉमिस किए, तब जा कर हम मेहमान के लिए हाँ किए.’
मैंने कहानी का अगला रहस्य जानने के लिए अब भाभी जी से पूछा –
‘भाभी जी, यह तो मालूम हुआ कि आंटी ने इस शादी के लिए कैसे अपनी रज़ामंदी दे दी पर यह तो बताइए कि आपने हमारे दोस्त में ऐसा क्या देखा जो फ़ौरन उसके गले में वरमाला डाल दी?’
भाभी जी ने बड़ा विस्फोटक जवाब दिया –
‘तुरतहिं (तुरंत) इन बिजूका (खेत में पक्षियों को डराने के लिए खड़ा किया गया पुतला) के गले में हम काहे को वरमाला डालते?
हम तो इन से तो सादी के लिए सौ-सौ बार ना किए थे.
रो-रो कर हम तो आंसुओं से तकिया-बिस्तर सब ही गीला कर दिया पर पापा समझाए कि हमको देख कर कोई और लड़का इतनी जल्दी हाँ नहीं करेगा.
फिर मम्मी की तरह पापा हमको भी खूब जेवर-पैसा दिए और हमारा पॉकेटमनी भी बाँधे. तब जा कर हम हाँ किए. ’
इधर पहले हमारे बिजूका भैया की सासू माँ और फिर उनकी श्रीमती जी, मुझको अपनी-अपनी दास्तान सुनाए चली जा रही थीं और उधर वो थे कि अपनी छीछालेदर होते देख कर ज़मीन में गड़े ही जा रहे थे, धंसे ही जा रहे थे और मैं बेचारा अपनी उँगलियों पर हिसाब लगा रहा था कि इस शुभ विवाह में किस-किस के बीच में कैसी-कैसी डील्स हुई हैं और दोनों परिवारों में ऐसा कौन अभागा है जो कि ऐसी किसी भी डील से नितांत अछूता रह गया है.

रविवार, 1 जनवरी 2023

अयोध्या-दर्शन

 (1990 के दशक के मध्य में लिखी गयी मेरी इन कहानियों को अल्मोड़ा के आर्मी स्कूल में पढ़ रही मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका अपनी ज़ुबान में और अपने शरारत भरे अंदाज़ में सुनाती है.

अयोध्या-दर्शन -
बचपन में हमारी विन्टर वैकेशन्स अम्मा-बाबा के साथ लखनऊ में बीता करती थीं.
अल्मोड़ा के शान्त वातावरण के बाद वहां की चहल-पहल हम सबको कुछ ज़्यादा ही भाती थी.
हम दोनों बहनें लखनऊ का भूगोल जानने के लिए हाथी पार्क, बुद्धा पार्क, इमामबाड़ा, म्यूजि़यम, चिडि़याघर वगैरा की सैर करना ज़रूरी समझती थीं. गोमती में बोटिंग और मशहूर ठिकानों की चाट, आइसक्रीम का सफ़ाया करने के बाद रही-सही कसर मॉर्निंग शोज़ की चिल्ड्रेन्स फ़िल्म्ज़ की लम्बी लिस्ट पूरी कर दिया करती थी.
जब हम दोनों बहनें कुछ बड़ी हो गईं तो लखनऊ में रखे पापा के पुराने स्कूटर ने पूरे परिवार को एक साथ घुमाने से तौबा कर ली.
घर में कार न होने की वजह से पूरे परिवार के साथ सैर-सपाटे वाले कार्यक्रम टैम्पो या रिक्शे से करने में किसी को मज़ा नहीं आता था. बेचारे पापा को ऐसी यात्राओं के दौरान मम्मी की कोप दृष्टि या हमारी तनी हुई भ्रकुटियां लगातार झेलनी पड़ती थीं.
हम बहुत दिनों से पापा से फ़रमाइश कर रहे थे कि वो हम सबको दूर कहीं पिकनिक पर ले जाएं.
पापा को हमको घुमाने ले जाने में तो कोई ऐतराज़ नहीं था पर उनका कहना था कि ऐसे कार्यक्रम के लिए जितनी लक्ष्मीजी की दरकार थी वो मम्मी की शॉपिंग और हमारे लोकल सैर-सपाटों और चाट पार्टियों के बाद उनके पास नहीं बची थीं. अब तो कोई चमत्कार ही हम लोगों की मुराद पूरी कर सकता था.
पर भगवानजी से बड़ा चमत्कारी न कोई हुआ है और न होगा.
एक शाम हम लोग अनमने और उदास से अम्मा-बाबा के साथ टीवी देख रहे थे कि दरवाज़े पर कॉल बेल बजी. मैंने उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखा कि बड़े ताऊजी के बेटे तनु भैया हैं. उनके पीछे बड़े ताऊजी, ताईजी और अनन्या दीदी भी थे.
फिर क्या था? पूरा घर शोर-शराबे और वानर सेना की धमाचौकड़ी से हिल गया. भैया के और दीदी के कैमरे, बाइनोक्युलर और स्टोरी बुक्स में हमारी परम श्रद्धा थी पर ताऊजी की सेवेन-सीटर कार को तो हम भगवान का भेजा वरदान ही समझती थीं.
पापा को यह डर था कि था कि हम ताऊजी से कोई बड़ी फ़रमाइश करने वाली हैं. वो हमको आँखों-आँखों में इशारा करके हमको ऐसा करने से मना करने ही वाले थे कि ताऊजी थे ने एक अनाउन्समेन्ट कर डाला. उन्होंने बताया कि वो अगले दिन की सुबह हमको अयोध्या की सैर कराने ले जा रहे हैं.
अम्मा-बाबा ने तो इस पिकनिक से अपने को दूर रखा पर बाकी सब के लिए यह सूचना सुपर एक्साइटिंग थी.
नारी समाज तुरन्त खाना बनाने की तैयारी में लग गया और हम बच्चे थे कि भावी कार्यक्रमों की योजना बनाने में तुरन्त बिज़ी हो गए. अयोध्याजी के दर्शन, सरयू में बोटिंग, डाकबंगले में आराम और ,खेल-कूद, नॉन-स्टॉप पकवान-पार्टी और बिना ब्रेक वाली अनलिमिटेड धमाचौकड़ी, यह सब हम लोगों के लिए कितना मज़ेदार होने वाला था ! लेकिन इस पिकनिक में खराबी यही थी कि उसी रात हमको लखनऊ लौटना था क्योंकि अगले ही दिन ताऊजी को दिल्ली में एक ज़रूरी मीटिंग के लिए निकलना था.
पिकनिक जैसी मज़ेदार चीज़ को भी मम्मी और ताईजी जैसे लोग हाय-तौबा वाले कामों में बदल देती हैं.
रास्ते में खाने-पीने का सब सामान गर्मागर्म और अच्छा-ख़ासा मिलता है पर उन्हें तो सबकी सेहत का ख़याल ध्यान में रखते हुए घर के बने आइटम्स ही पसंद होते हैं.
शाम सात बजे से रात बारह बजे तक पकवान बनाए जाते रहे.
पूरी-कचौड़ी, केक, हल्वा, मठरी, पिज़्ज़ा, सब्ज़ी, चटनी, और पता नहीं क्या-क्या बनाया जाता रहा.
पापा और हम बच्चे खाने के आइटम्स चख-चख कर अपनी राय देने के लिए बेसब्र थे पर ताईजी और मम्मी ने पिकनिक से पहले अपने जादू भरे पिटारे को खोलने की कोई ज़रूरत नहीं समझी.
सवेरे बड़ों को चाय पी कर और हमें दूध पी कर हमें अयोध्या जी के लिए रवाना होना था. कार की डिक्की में खाने-पीने का सामान भरा जा रहा था पर अनन्या दीदी को अपने जम्बो-साइज़ म्यूज़िक सिस्टम और तनु भैया को अपना क्रिकेट किट को ले जाने की ज़्यादा फ़िक्र थी, उन दोनों ने कार की डिकी के सामान को रि-एडजस्ट कर के अपना सारा सामान उसमें भर दिया.
हम लड़कियों को तो जाने की जल्दी में दूध पीना भी नसीब नहीं हुआ पर फि़क्र क्या थी, चलता-फिरता भोजनालय तो हमारे साथ ही था.
रास्ते में चिनहट पड़ा, वहां के अमरूद बड़े मशहूर हैं पर बड़े ताऊजी ने बताया कि बाराबंकी से बीस किलोमीटर आगे उनके एक दोस्त के अमरूद के बाग में ही हमारा ब्रेकफ़ास्ट होना तय हुआ है.
बेचारे हम लोग, अमरूद को भी तरस गए.
बाराबंकी गुज़रा, वहां के समौसे बड़े फ़ेमस हैं. पापा गाड़ी रुकवा कर गर्मागर्म समौसे लेना चाहते थे पर उन्हें भी रोक दिया गया.
वैसे भी अब ताऊजी के दोस्त के बाग तक पहुंचने में देर ही क्या थी? कार में हम बच्चों की फ़िल्मी अन्त्याक्षरी चल रही थी जिसमें पुराने गानों का योगदान बड़े लोग भी कर रहे थे.
ताऊजी ने अपने दोस्त के बाग को जाने के लिए अपनी कार लिंक रोड पर मोड़ दी.
यह नहर के किनारे वाली अधबनी ऊबड़-खाबड़ रोड थी पर इस पर हमको सिर्फ़ दस किलोमीटर का फ़ासला तय करना था.
यकायक कार हिचकोले खा कर और - ‘ फिस्स, सूं, फट्ट ’ की आवाज़ कर के रुक गई.
ताऊजी ने बड़ी मुश्किल से कार को सड़क के किनारे खड़ा किया.
कार के पिछले टायर में पंचर हो गया था.
हाय ! अब टायर बदलने में पन्द्रह-बीस मिनट और लगने वाले थे.
कार की डिक्की खोल कर ताऊजी एकदम से चिल्ला पड़े –
‘ स्टैपनी कहां है? ’
हम बाकी लोग तो इस हादसे से अनजान थे पर तनु भैया ने नज़रें चुराते हुए जवाब दिया –
‘ पापा ! क्रिकेट किट को डिक्की में एडजस्ट करने के लिए मैंने स्टैपनी बाहर निकाल दी थी.’
इस सुनसान सड़क पर पंचर ठीक किए जाने की कोई गुंजाइश नहीं थी. मेनरोड से और ताऊजी के दोस्त के बाग दोनों से ही हम करीब पाँच-पाँच किलोमीटर की दूरी पर थे. अब क्या होगा? इस जगह पर कहीं आस-पास फ़ोन भी नहीं था वरना ताऊजी के दोस्त को फ़ोन कर के उनसे मदद मंगाई जा सकती थी. एक घण्टे तक हम किसी से लिफ़्ट लेकर आगे जाने की कोशिश करते रहे पर उस दिन न जाने क्यों उस सड़क पर सवारियां ही इक्का-दुक्का निकल रही थीं और वो भी हम पर मेहरबान नहीं हो रही थीं.
ताईजी ने सड़क किनारे बैठ कर पहले नाश्ता करने का प्रस्ताव रखा तो सबका मूड कुछ ठीक हुआ.
दरी बिछा कर सब के बैठने का इन्तजाम किया गया. पर हमारी दुर्दशा का वक्त अभी टला नहीं था.
अपने म्यूजि़क सिस्टम को डिक्की में एडजस्ट करने के लिए अनन्या दीदी ने खाने के सामान को डिकी से बाहर निकाल दिया था.
पापा किसी कवि की कविता की एक लाइन हमको सुनाते थे –
‘ मेरे सपने टूट गए, जैसे भुना हुआ पापड़ !’
हमारी पिकनिक के सपने भी ऐसे ही चूर-चूर हो गए थे. लगता था कि भगवान श्री राम हमसे रूठ गए थे वरना उनके दर्शन करने में इतनी बड़ी रुकावट क्यों आती?
हमने आसपास के दृश्यों का नज़ारा लिया.
हमारे बगल में एक तरफ़ नहर थी और दूर-दूर तक खेत ही खेत थे, जिनमें दो-चार झोपडि़यां हमारा मुहं चिढ़ा रही थीं. हमारे पास तो पीने का पानी भी नहीं था. सबको अब ज़ोरों की भूख लग रही थी.
अनन्या दीदी ने दुखी होकर अपने म्यूजि़क सिस्टम पर एक दर्द भरा गीत बजाना शुरू किया तो ताऊजी ने दाँत पीस कर उसे ऑफ़ कर दिया.
हम दुखियारों को सबसे पहले अपना सूखा गला तर करने के लिए पानी की दरकार थी.
हम खेतों को फांदते हुए दूर दिखाई देने वाली झोपडि़यों की तरफ़ चल पड़े.
झोपडि़यों के पास पहुंच कर हमने आवाज़ लगाई तो एक देहाती आदमी हमारे सामने आ कर खड़ा हो गया. उसके पास उसकी नौ-दस साल की एक लड़की भी आकर खड़ी हो गई. हमारी तब हँसी छूट गई जब अपनी दीदी की ही कोई पुरानी फ्रॉक पहने और अपनी आँखों पर लाल पन्नी वाला धूप का चश्मा लगाए हुए उनके पाँच-छह साल के एक भैया भी दर्शकों की जमात में शामिल हो गए.
उस आदमी से हमने मालूम किया तो पता चला कि वहां आसपास पंचर जोड़े जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी.
हां, उस आदमी का छोटा भाई बैलगाड़ी ले कर बाराबंकी जा रहा था, वह हमारा पहिया ले जा कर उसका पंचर ठीक करा कर वापस ला सकता था. ताउजी ने पूछा –
‘ इसमें कुल कितना समय लग जाएगा?’
उस आदमी ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया –
‘ यही कोई चार-पाँच घण्टे ! ’
अब भूख से कुलबुलाते हुए पापा ने उससे पूछा –
‘ यहां आसपास कोई खाने-पीने की दुकान है? ’
उस आदमी ने जवाब दिया –
‘ खाने-पीने की दुकान के लिए तो आपको बाराबंकी रोड पर जाना होगा. ’
हाय ! अब पाँच-छह किलोमीटर पैदल चलकर नाश्ते की व्यवस्था हो पाएगी.
हे प्रभू ! कोई न कोई जुगाड़ कर दो. वरना भूखे-प्यासे बच्चे और उनके मम्मी-पापा कैसे जीवित रह पाएंगे? ’
प्रभू हम पर प्रसन्न हुए. उस देहाती आदमी के वचन हमको ऐसे लगे जैसे साक्षात भगवानजी ही बोल रहे हों –
‘ साहब, बुरा न मानें तो एक बात कहें ! कुछ नास्ता-पानी हमरी कुटिया पर चल कर कर लिया जाय. बच्चा लोग बहुत थका हुआ जान पड़ता है. ’
हमारी हां या ना सुने बिना ही उसने अपनी घरवाली को आवाज़ दी. दो मिनट में लम्बा घूंघट काढ़े, हाथ में एक बड़ा सा लोटा लेकर एक महिला आकर खड़ी हो गई. उसकी बिटिया भाग कर दो पीतल के गिलास ले आई. हमने पानी समझ कर घूंट भरा पर यह तो गन्ने का ताज़ा-ताज़ा रस था. वाह ! तबियत प्रसन्न और दिल बाग-बाग हो गया.
हमारे होस्ट का नाम रामखिलावन था और उनके बच्चों के नाम गोमती और पप्पू थे.
गोमती और पप्पू दौड़-दौड़ कर हमको गन्ने का रस पिलाते रहे और हम बेतल्लुफ़ होकर गिलास पर गिलास पीते रहे. उनके अपने घर में कोल्हू पर गन्ना पेरा जा रहा था और उसका भोग सबसे पहले हमको लगाने में उन्हें बड़ा आनन्द आ रहा था.
हमने तो पहली बार कोल्हू पर गन्ने से रस बनते हुए देखा था. गोल-गोल चक्कर लगाते बैल रस की धार बहाने का जादू कर रहे थे.
आधे घण्टे में हमारा नाश्ता भी आ गया. घर की भुनी मूंगफली, बड़ों के लिए गुड़-चने के साथ अदरक वाली चाय और हम बच्चों के लिए रामदाने के लड्डुओं के साथ मिट्टी की हांडी में पका मोटी मलाई वाला दूध. हम शहरी बच्चे देहाती नाश्ते के नाम से भी दूर भागते हैं पर उस दिन बच्चों और बड़ों, सभी ने जम कर उसका मज़ा लिया. पेट तो पेट, हमारी तो आत्मा तक पूरी तरह छक गई.
रामखिलावन जी ख़ास पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनके पास कहानियों और कहावतों का भण्डार था.
पापा और ताऊजी तो उनके मुहं से रामचरित मानस की चौपाइयां सुन-सुन कर उन पर फ़िदा हो गए थे.
रामखिलावनजी अब तक ताऊजी और पापा के दोस्त बन चुके थे और हम बच्चों के चाचा.
उनके बच्चे शहरी जिज्जियां और भैया पाकर मगन थे.
रामखिलावन चाचा की घरवाली यानी हमारी नई बनी चाची ने ताईजी और मम्मी से बहनापा जोड़ लिया था.
रामखिलावन चाचा के छोटे भाई कार का टायर लेकर बाराबंकी के लिए रवाना हो चुके थे.
हम आसपास घूमने के लिए निकल पड़े.
खेतों में सरसों और मटर की बहार थी. पेड़ से तोड़ कर अमरूद खाने और खेत से खुद तोड़ कर हरी मटर का स्वाद किसी भी फ़ाइव-स्टार रैस्त्रां में नहीं मिल सकता.
हम बच्चों के लिए पर्शियन व्हील यानी रहट से खेत सींचने का अनुभव अपूर्व था. हमने बैलों की जगह खुद को जोत कर रामखिलावन चाचा के खेत का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा सींच डाला.
इस श्रमदान के बाद हमने एक खाली खेत को क्रिकेट ग्राउण्ड बना कर अपना टूर्नामेन्ट भी शुरू कर दिया.
गोमती और पप्पू बैटिंग और बालिंग में तो पीछे थे पर ऊबड़-खाबड़ खेत में फ़ील्डिंग करने में हमसे कहीं आगे थे.
वक़्त जैसे उड़ा जा रहा था. हमको बस सरयू नदी में बोटिंग न कर पाने का मलाल था पर हमारे रामखिलावन चाचा के पास इसका भी इलाज था. वो हमको अपने खेत से करीब एक किलोमीटर दूर पर एक छोटे से मगर सुन्दर से तालाब पर ले गए. इस तालाब में नावें नहीं थीं पर इसमें बड़ी-बड़ी टोकरियों को नाव के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. छोटे-छोटे चप्पुओं का इस्तेमाल कर रामखिलावन चाचा के निर्देशन में खुद हमने तालाब के कई राउण्ड लगा डाले.
इस तालाब के किनारे पर भगवान राम का एक मन्दिर भी था.
हमने उसको ही अयोध्याजी मान कर राम-सीता और हनुमानजी के दर्शन कर लिए.
हम दोनों बहनों ने अब तक ऐसी शानदार पिकनिक का लुत्फ़ नहीं उठाया था.
हमारी इस पिकनिक में न तो बनावट थी, न कोई तकल्लुफ़, थी तो बस मौज ही मौज और मस्ती ही मस्ती.
अब हमारे लिए भोजन तैयार था. कांसे की थालियों में चूल्हे की धीमी आँच पर सिकी गेहूं-चने के मिले-जुले आटे की मोटी रोटियां, बथुए का रायता, भुने आलू, हरी मटर की सब्ज़ी और हरे धनिए, हरी मिर्च, हरी इमली की चटनी का स्वाद लाजवाब था पर उससे भी कहीं ज़्यादा मधुर था हमारे मेज़बानों का व्यवहार.
हम लोगों के यहां मेहमान के घुसते ही लोग-बाग अपनी नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं पर यहां ये आलम था कि कोल्हू और घर के सारे काम की चिन्ता भूल कर रामखिलावन चाचा का पूरा परिवार हमारी आवभगत में लगा हुआ था.
गोमती और पप्पू के लिए तनु भैया का कैमरा, बाइनोक्युलर और म्यूजि़क सिस्टम किसी अजूबे से कम नहीं थे.
पप्पू मास्टर को तो मेरी छोटी बहन रागिनी के गॉगल्स इतने भा गए थे कि उन्होंने अपना लाल पन्नी वाला चश्मा उतार कर दूर फेंक दिया था.
अब तक रामखिलावन चाचा के भाई पंचर बनवा कर टायर ला चुके थे.
हमारी कार अब आगे की यात्रा के लिए तैयार थी.
पप्पू और गोमती के आँखों में बाकायदा आँसू थे. बड़े और हम बच्चे अपने नए दोस्तों से बिछुड़ते हुए बहुत उदास थे. पर मजबूरी थी. हमको अयोध्या के लिए रवाना जो होना था.
हम बेमन से कार की तरफ़ जा रहे थे कि ताऊजी ने पप्पू के कान में कुछ कह दिया. पप्पू ताली बजाकर उछल-उछल कर कहने लगा-
‘ ताऊजी अब अजुध्या नहीं जाएंगे, संझा तक यहीं रहेंगे. ’
हम सबकी जैसे मुराद पूरी हो गई. रामखिलावन चाचा के परिवार के साथ हम ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहते थे. दो घण्टे और धमा चौकड़ी हुई.
तुलसी, अदरक वाली चाय के साथ घर की भुनी मूंगफलियों का फिर एक दौर चला. बच्चों को लड्डू-पेड़े का प्रसाद मिला.
बडे़ लोगों के बीच रामचरित मानस की चौपाइयों वाली अन्त्याक्षरी हुई जिसमें रामखिलावन चाचा का पलड़ा भारी रहा.
नई चाची ने और गोमती ने हमको अवधी के कई लोकगीत भी सुनाए.
आखि़र विदाई की वेला आ ही गई. नई चाची ताईजी और मम्मी के गले लग कर रो रही थीं.
गोमती और पप्पू अपने भैया-जिज्जियों का दामन छोड़ने को तैयार ही नहीं थे.
हमारी कार की डिक्की में घर की भुनी हुई मूंगफली, उपलों पर भुने आलू, घर का बना गुड़, हरी मटर और अमरूदों का अम्बार लगा दिया गया.
हमने रामखिलावन चाचा को लखनऊ आने की दावत दी.
ताईजी ने अपना शाल हमारी नई चाची को ज़बर्दस्ती उढ़ा दिया और
मम्मी से उन्हें लिप्सटिक, मिरर, बिन्दी,और फ़ेस पाउडर का नज़राना मिला.
पप्पू भाई के हिस्से में रागिनी के गॉगल्स आए और तनु भैया का हैट आया.
बेचारी गोमती के हिस्से में सिर्फ़ हम जिज्जियों की हेयर क्लिप्स और बैंगल्स आए.
हम सब कार में बैठ चुके थे. राम-राम भी हो चुकी थी.
कार स्टार्ट हुई तो हैट और गॉगल्सधारी पप्पू भाई ने इशारा कर उसे रुकवा दिया. कार रोक कर ताउजी उसकी तरफ़ देखने लगे तो उन्होंने फ़रमाया –
‘ ताऊजी अगली बार अजुध्या जी जाएं तो पंचर फिर यहीं कराइएगा और भैया, जिज्जी को जरूर संगे लाइएगा. ’